वेद पुराण आदि शास्त्रों का अध्ययन करके ग्यान के द्वारा जो बुद्धिमान व्यक्ति उस परम तत्व का ग्यान प्राप्त कर लेता है । उसको उन सभी शास्त्रो का परित्याग उसी प्रकार कर देना चाहिये । जिस प्रकार अनाज की इच्छा वाला अनाज तो ग्रहण कर लेता है । किन्तु पुआल आदि शेष कूडे को फ़ेंक देता है । जैसे अमृत को प्राप्त हुये व्यक्ति को भोजन से कोई सरोकार नही रह जाता है । वैसे ही तत्व को जानने वाले विद्वान को शास्त्र से कोई प्रयोजन नहीं रहता है । वेद के अध्ययन से मुक्ति सम्भव नहीं है । और न ही शास्त्रों के पढने से वह प्राप्त होगी । वह केवल आत्म ग्यान से ही मिलती है । और किसी अन्य साधन से नहीं । आश्रम उस मोक्ष का कारण नहीं हो सकता । दर्शन से भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी । इसी तरह सभी कर्मों से भी मोक्ष प्राप्त नहीं होगा । वह केवल ग्यान से प्राप्त होगा । मुक्ति । सहज मुक्ति देने वाली एकमात्र गुरु की वाणी है । संतो की वाणी है । अन्य सभी विध्यायें विडम्बना ही करने वालीं हैं । हजार शास्त्रों का भार सिर पर ढोने पर भी प्राणी को संजीवनी देने वाला वह परम तत्व अकेला ही है । सब प्रकार की क्रियाओं से रहित वह अद्वैत शिव तत्व कहा गया है । उसको गुरुमुख से प्राप्त करना चाहिये । इसके विपरीत वह करोडों शास्त्रों के अध्ययन करने से मिलने वाला नही है ।
ग्यान दो प्रकार का माना गया है । एक शास्त्र कथित ग्यान और दूसरा है विवेक से प्राप्त हुआ ग्यान । इसमें । शब्द । ही ब्रह्म है । ऐसा आगम शास्त्र कहते हैं । वह परम तत्व ही ब्रह्म है । ऐसा विवेकीजन कहते हैं ।
कुछ लोग अद्वैत को प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं । और कुछ लोग द्वैत को चाहते हैं । किन्तु वे सब ये नहीं जानते कि वह परम तत्व समभाव वाला है । और द्वैत अद्वैत से भी रहित है । परे है । बन्धन और मोक्ष के लिये इस संसार में दो ही पद हैं । एक पद से । यह मेरा है । और दूसरे पद से । यह मेरा नहीं है । यह मेरा है । ऐसा मानने वाला । ऐसा ग्यान रखने वाला बंध जाता है । और यह मेरा नहीं है । ऐसा ग्यान रखने वाला तत्काल ही मुक्त हो जाता है । जो कर्म इस जीवात्मा को बन्धन में नहीं डालता वही सतकर्म है । जो प्राणी को मुक्त करने में समर्थ है । वही असली विध्या है । इसके अतिरिक्त दूसरा कर्म परिश्रम मात्र है ।
दूसरी विध्या कला की निपुणता के लिये ही होती है । जब तक प्राणियों को कर्म अपनी ओर आकृष्ट करते हैं । जब तक उनमें सांसारिक वासना बनी हुयी है । और जब तक उनकी इन्द्रियों में चंचलता है । तब तक उन्हें परमतत्व का ग्यान नहीं हो सकता । जब तक व्यक्ति में शरीर का अभिमान है । जब तक उसमें ममता है । जब तक प्राणी में प्रयत्न की क्षमता रहती है । जब तक उसमें संकल्प और कल्पना करने की शक्ति है । जब तक उसके मन में स्थिरता नहीं है । जब तक वह शास्त्र चिंतन नहीं करता है । और जब तक उस पर गुरु की दया नहीं होती । तब तक उसको परम तत्व की प्राप्ति कैसे हो सकती है । सर्वाधिक गूढ रहस्य को कोई मूढ कैसे जान सकता है ?
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