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ग्यान दो प्रकार का माना गया है । एक शास्त्र कथित ग्यान और दूसरा है विवेक से प्राप्त हुआ ग्यान । इसमें । शब्द । ही ब्रह्म है । ऐसा आगम शास्त्र कहते हैं । वह परम तत्व ही ब्रह्म है । ऐसा विवेकीजन कहते हैं ।
कुछ लोग अद्वैत को प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं । और कुछ लोग द्वैत को चाहते हैं । किन्तु वे सब ये नहीं जानते कि वह परम तत्व समभाव वाला है । और द्वैत अद्वैत से भी रहित है । परे है । बन्धन और मोक्ष के लिये इस संसार में दो ही पद हैं । एक पद से । यह मेरा है । और दूसरे पद से । यह मेरा नहीं है । यह मेरा है । ऐसा मानने वाला । ऐसा ग्यान रखने वाला बंध जाता है । और यह मेरा नहीं है । ऐसा ग्यान रखने वाला तत्काल ही मुक्त हो जाता है । जो कर्म इस जीवात्मा को बन्धन में नहीं डालता वही सतकर्म है । जो प्राणी को मुक्त करने में समर्थ है । वही असली विध्या है । इसके अतिरिक्त दूसरा कर्म परिश्रम मात्र है ।
दूसरी विध्या कला की निपुणता के लिये ही होती है । जब तक प्राणियों को कर्म अपनी ओर आकृष्ट करते हैं । जब तक उनमें सांसारिक वासना बनी हुयी है । और जब तक उनकी इन्द्रियों में चंचलता है । तब तक उन्हें परमतत्व का ग्यान नहीं हो सकता । जब तक व्यक्ति में शरीर का अभिमान है । जब तक उसमें ममता है । जब तक प्राणी में प्रयत्न की क्षमता रहती है । जब तक उसमें संकल्प और कल्पना करने की शक्ति है । जब तक उसके मन में स्थिरता नहीं है । जब तक वह शास्त्र चिंतन नहीं करता है । और जब तक उस पर गुरु की दया नहीं होती । तब तक उसको परम तत्व की प्राप्ति कैसे हो सकती है । सर्वाधिक गूढ रहस्य को कोई मूढ कैसे जान सकता है ?
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