31 अगस्त 2010

हर स्‍थिति में उसके ही इशारे है

बेशर्त प्रेम - प्रेम सिर्फ प्रेम करता है । किसी को सुधारना नहीं चाहता । अगर तुमने चाहा कि दूसरा ऐसा व्यवहार करे । जैसा मैं चाहता हूं । बस तुमने प्रेम के जीवन में विष डालना शुरू कर दिया । और जैसे ही तुम यह चाहोगे । दूसरा भी अपेक्षाएं शुरू कर देगा । तब तुम एक दूसरे को सुधारने में लग गए । प्रेम किसी को सुधारता नहीं । यद्यपि प्रेम के माध्यम से आत्म क्रांति हो जाती है । लेकिन प्रेम किसी को सुधारने की चेष्टा नहीं करता । सुधार घटता है । सुधार अपने से होता है । जब तुम किसी को आपूर प्रेम करते हो । इतना प्रेम करते हो । जितना कि तुम्हारे प्राण कर सकते हैं । रत्ती भर बाकी नहीं रखते । तो क्या प्रेमी में इतनी समझ न आ सकेगी । तुम्हारे इतने प्रेम के बाद भी कि सिगरेट छोड़ दे ? इतनी समझ न आ सकेगी । इतने बड़े प्रेम के बाद ? तब तो प्रेम बहुत नपुंसक है । और प्रेम नपुंसक नहीं है । प्रेम से बड़ी कोई शक्ति नहीं है । तुम्हारा प्रेम ही छुड़ा देगा । लेकिन अपेक्षा मत करना । अपेक्षा की कि घाटी की तरफ तुम उतरने लगे । अपेक्षा की । और सुधारना चाहा कि बस मुसीबत हो गई । छोटे छोटे बच्चे तुम्हारे घर में पैदा होंगे । उनको तुम प्रेम करते हो । लेकिन प्रेम से ज्यादा उनकी सुधार की चिंता बनी रहती है । बस उसी सुधार में तुम्हारा प्रेम मर जाता है । कोई बच्चा अपने मां बाप को कभी माफ नहीं कर पाता । नाराजगी आखिर तक रहती है । पैर भी छू लेता है । क्योंकि उपचार है । छूना पड़ता है । लेकिन भीतर ? भीतर मां बाप दुश्मन ही मालूम होते रहते हैं । क्योंकि ऐसी छोटी छोटी चीजों पर उन्होंने बच्चे को सुधारने की कोशिश की । बच्चे को क्या समझ में आता है ? उसे समझ में आता है कि जैसा मैं हूं । वैसा प्रेम के योग्य नहीं । जैसा मैं हूं । उतना काफी नहीं । जैसा मैं हूं । उसको काटना पीटना, बनाना पड़ेगा । तब
प्रेम के योग्य हो पाऊंगा । बच्चे को इसमें निंदा का स्वर मालूम पड़ता है । निंदा का स्वर है । ध्यान रखना । प्रेम सिर्फ प्रेम करता है । किसी को सुधारना नहीं चाहता । और प्रेम बड़े सुधार पैदा करता है । प्रेम की छाया में बड़ी क्रांतियां घटती हैं । अगर मां बाप ने बच्चे को सच में प्रेम किया है । बस काफी है । बस काफी है । उतना प्रेम ही उसे सम्हालेगा । उतना प्रेम ही उसे गलत जाने से रोकेगा । उतना प्रेम ही, जब भी वह राह से नीचे उतरने लगेगा । मार्ग में बाधा बन जाएगा । याद आएगी मां की । पिता की । उनके प्रेम की । और उनके बेशर्त प्रेम की । बच्चे के पैर पीछे लौट आएंगे । ओशो
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आखिरी प्रश्न - प्राय: रोज ही मैत्रेय जी हमें सचेत करते हैं कि प्रवचन के बीच खांसने से भगवान को बाधा पहुंचती है । लेकिन कल के प्रवचन के दरम्यान कई गौरैए चिडिएं चीं चीं करती हुई आपके इर्द गिर्द मंडराती रहीं । और फिर उनमें से 1 आपके बाएं हाथ पर और दूसरी माइक पर बैठ गयी । और आश्चर्य कि उससे आपकी मुद्रा या प्रवचन प्रवाह में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ा । और गौरैए भी ऐसे आयीं गयीं । जैसे किसी शाख पर आती जाती हों । और ऐसा लगा कि सब कुछ अपनी जगह स्वाभाविक रूप में स्थित है । यद्यपि हम श्रोतागण अवश्य चकित रह गए । इस पर थोड़ा प्रकाश डालने की अनुकंपा करें ।
- मैत्रेय जी को तुम्हें कहना पड़ता है । न खांसो । और तुमने 1 मजे की बात देखी । तुम उनकी मान भी लेते हो । और खांसते भी नहीं । तो खांसना करीब करीब झूठ है । और तुमने यह देखा । 1 आदमी खांसे । तो दूसरा खांसेगा । तीसरा खांसेगा । चौथा खांसेगा । 1 श्रृंखला पैदा होती है । और खांसने के पीछे कुछ कारण हैं । खांसने के पीछे खांसी शायद ही कारण होती है । 100 में 1 मौके पर । तब तो तुम रोक ही नहीं सकते । चाहे मैत्रेय जी लाख सिर मारें । तुम क्या करोगे ? कोई भी क्या करेगा ? लेकिन 99 मौकों पर तुम रोक पाते हो । जो तुम रोक पाते हो । वह झूठी है । पर झूठी खांसी क्यों आती है ? झूठी खासी इसलिए आती है कि तुम खाली बैठे हो । खाली बैठे तुम्हें बड़ी बेचैनी होती है । आदमी देखा । खाली बैठे बैठे सिगरेट पीने लगता है । खाली बैठे बैठे उसी अखबार को दुबारा पढने लगता है । खाली बैठे बैठे भूख लग आती है । जाकर फ्रिज खोलकर कुछ खाने लगता है । खाली नहीं बैठ सकते । खाली बैठना बड़ा कठिन है । कुछ न कुछ तुम करोगे । जब तुम कभी ध्यान के लिए बैठोगे थोड़ी देर को । तो तुम कहोगे - कहीं चींटी चढ़ने लगी । कहीं कोई चींटी नहीं है । देखो, चींटी नहीं चढ़ रही है । फिर कहीं पैर में खुजलाहट आ गयी । कहीं हाथ सुन्न हो गया । कहीं कान में कुछ चढ़ने लगा । कहीं भीतर कुछ होने लगा । हजार चीजें होने लगीं । ऐसे कुछ भी नहीं होता । ये हजार चीजें तुम्हारे मन की जो बेचैनी की आदत हैं । उसके कारण होती हैं । अब तुम यहां बैठे हो - डेढ़ घंटा । तुम कुछ न कर सकोगे । तो खासोगे । और 1 खांसा । तो दूसरे को अचानक लगेगा कि उसको भी खांसी आ रही है । मनुष्य करीब करीब अनुकरण से जीता है । डार्विन गलत नहीं है - आदमी बंदर की औलाद है । तुमने कभी देखा । रास्ते पर तुम चले जा रहे हो । और 1 आदमी पेशाबघर में चला गया । अचानक तुम्हें खयाल आया कि अरे, तुम्हें भी पेशाब लगी है । अभी देखो । मैंने अभी पेशाब शब्द कहा । तुममें से कई को लग गयी होगी । एकदम खयाल आ जाएगा । तुमने देखा । अगर कोई नीबू का नाम ले दे । तो जीभ पर लार आने लगती है । नाम से । आदमी ऐसा अनुकरण से भरा हुआ है । तो मैत्रेय जी तुम्हें रोकते हैं । मुझे कोई बाधा पड़ेगी । ऐसा नहीं है । लेकिन तुम शांत बैठे हो । तब भी तुम मुझे नहीं सुन पाते । और अगर तुम खांसा खांसी में उलझ गए । तब तो तुम बिलकुल ही नहीं समझ पाओगे । मुझे क्या बाधा पड़ेगी ? लेकिन राग जिस प्रयोजन से यहां बैठे हो । उसमें खलल पड़ जाएगा । तुम्हारा मन तो बड़े जल्दी ही डावांडोल हो जाता है । तुम्हें तो बड़ी छोटी छोटी बातों में विघ्न पड़ जाता है । तुम्हें तो निर्विघ्न रहना इतना कठिन है । इसलिए तुमसे कहते हैं । रह गयी गौरैए चिड़ियों की बात । तो वह कोई मैत्रेय जी की तो सुनेंगी नहीं । उनसे वह कितना ही कहें । उनकी जो मौज होगी । वैसा करेंगी । लेकिन चिड़िया माफ की जा सकती हैं । उनका यहां आ जाना भी सुखद है । उनका आना इसी बात की खबर देता है कि तुम शांत बैठे हो । उनका आना इसी बात की खबर देता है कि उन्हें रास्तारी चिंता नहीं । मूर्तिवत । वह तुम्हें यही समझती हैं कि बैठे हैं । संगमरमर की मूर्तियां । कोई अड़चन नहीं । वे यहां खेलकूद करके । शोरगुल मचाकर अपना चली जाती हैं । उनका यह कभी कभी आ जाना तुम्हारी शांति का प्रतीक है । सुंदर है । फिर तुम पूछते हो कि - हम चकित हुए ।  चकित होने का इसमें कुछ भी नहीं है । मेरे बोलने से गौरैया चिड़िया परेशान नहीं हो रही है । तो गौरैया चिड़िया के चीं ची करने से मुझे क्यों परेशान होना चाहिए । कम से कम इतना तो गौरव मुझे दोगे । जितना गौरैया चिड़िया को देते हो । मेरे हाथ पर बैठने में उसे कुछ अड़चन नहीं हो रही है । तो मुझे क्यों अड़चन होनी चाहिए ? वह बैठ भी इसीलिए सकी कि उसे प्रतीत हो रहा है कि अड़चन नहीं होगी ।  धीरे धीरे, जैसे जैसे तुम शांत होने लगोगे । तुम पाओगे । वे तुम्हारे सिर पर भी नगकर बैठने लगीं । हाथ पर आकर बैठने लगीं । जैसे जैसे उन्हें यह भरोसा आ शएगा कि यहाँ भलेमानुस बैठे हैं । इनसे कुछ भय का कारण नहीं है । तुमसे भय है । डर है कि तुम उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हो । उस भय के कारण वे दूर दूर हैं । जैसे जैसे तुम्हारी तरफ से निर्भय की तरंग उठने लगेगी । फिर दूर रहने का कोई कारण नहीं रह जाता । आदमी ने पशुओं को भयभीत करके दूर कर दिया है । और पशुओं को दूर करके 1 बड़ी महत्वपूर्ण बात खो दी । प्रकृति से संबंध खो दिया है । तुमसे तो वृक्ष भी डरते । जब तुम वृक्षों के पास जाते हो । अभी वैज्ञानिक इस पर काफी परिशोध करते हैं । उन्होंने यंत्र भी बना लिए हैं । वृक्षों में लगा देते हैं । और वृक्ष से खबर आने लगती है । जैसे कि तुमने कभी कार्डियोग्राम लिया हो । तो कागज पर ग्राफ बन जाता है कि हृदय की धड़कन कैसी है ? ऐसे ही वृक्ष के भीतर कैसी तरंग चल रही है । उसका ग्राफ बन जाता है । जैसे ही वृक्ष देखता है कि कोई आदमी आ रहा है । उसकी तरंग बदल जाती है । फिर आदमी आदमी से बदलती है । अगर वह देखता है कि लकड़ी काटने वाला कुल्हाड़ी लिए चला आ रहा है । अभी उसने काटी नहीं । अभी दूर ही है । तत्क्षण उसकी बेचैनी बढ़ जाती है । तरंगें बड़ी जोर की बनने लगती हैं । वह बहुत घबड़ाया हुआ हो जाता है । उसने देखा । माली आ रहा है  पानी लिए हुए । उसकी तरंगें बड़ी शात हो जाती हैं ।
कुछ आश्चर्य नहीं है कि संत फ्रांसिस की कहानिया सच ही रही हों । कुछ आश्चर्य नहीं है कि महावीर और बुद्ध के जीवन के उल्लेख सही ही रहे हों । अर्थ तो उनका स्पष्ट है कि महावीर के पास पशु पक्षी आकर बैठ जाते । सिंह भी आकर बैठ जाता । इतनी शांत है दशा कि सिंह को भी तरंग पकड़ लेती होगी । कि बुद्ध जिस जंगल से निकलते हैं । वहां सूखे वृक्ष हरे हो जाते हैं । इतने तरंगित हो जाते होंगे बुद्ध के आगमन से । तो कुछ भी चकित होने का कारण नहीं है । धीरे धीरे तुम्हारी तरंग जब ठहरती जाएगी । और जब हम यहां 1 वातावरण बनाने में सफल हो जाएंगे । जहां 1 भी आदमी से उन्हें भय न हो । तो तुम देखोगे । चकित होकर देखोगे कि जैसे तुम यहां बैठे हो । ऐसे ही बहुत सी चिड़िया भी, पक्षी भी आकर बैठ गए हैं । तुम्हारे कारण भय बना रहता । घबड़ाहट बनी रहती । हिंसा तुम्हारे भीतर है । तो उसकी तरंग है - चारों तरफ । उस तरंग के हट जाने पर 1 संबंध जुड़ता है - प्रकृति से । कहते हैं - संत फ्रांसिस से 1 आदमी पूछने आया । नदी के किनारे फ्रासिस खड़े थे । उस आदमी ने पूछा कि हमने सुना है कि पशु पक्षी भी आपकी बातें सुनने आते हैं । आपको इस संबंध में क्या कहना है ? फ्रासिस ने कहा - मैं क्या कहूं । यहां कोई पशु पक्षी है ? कोई है भाई यहां ? उन्होंने जोर से आवाज मारी । वहां कोई पशु पक्षी नहीं था । लेकिन मछलियों ने सिर ऊपर निकाला । पूरी नदी पर मछलियों ने सिर ऊपर कर लिया । उन्होंने कहा - इनसे पूछ लो । अब मैं क्या प्रमाण दूं । और उन्होंने कहा - इनसे पूछ लो ।
यह हो सकता है । क्योंकि सारा अस्तित्व 1 ही प्राण से आदोलित है । पशु पक्षी के भीतर भी हमारे जैसी ही आत्मा है । वृक्ष के भीतर भी हमारे जैसे ही आत्मा है । शरीर का भेद है । आत्मा का तो कोई भेद नहीं । वृक्ष ने वृक्ष का शरीर लिया है । पक्षी ने पक्षी का शरीर लिया है । तुमने आदमी का शरीर लिया है । यह फर्क ऊपर ऊपर है । यह वस्त्रों का भेद है । किसी ने लाल रंग के कपड़े पहने हैं । किसी ने नीले रंग के कपड़े पहने हैं । किसी ने सफेद कपड़े पहन रखे हैं । या कोई नग्न खड़ा है । किसी ने पूर्वीय ढंग के कपड़े पहने हैं । किसी ने पाश्चात्य ढंग के कपड़े पहने हैं । मगर यह कपड़ों का फर्क है । भीतर जो छिपा है । वह तो 1 ही है ।
बिजली के खंभे पर बैठी चिड़िया । ठिनक ठिनक गाती है ।
किस दिल से भरकर रखी है । कितनी करुणा भर लाती है ।
पंख फुदकते, चोंच मटकती । कूद कूद बल खाती है वह ।
जीने के जंतर मंतर । पागलनी सी समझाती है वह ।
ऊपर है आकाश उघाड़ा । नीचे धरती बिना ढंकी ।
और मध्य में तेरी महिमा । तारों से हर ओर टंकी ।
किसके महल झोपड़ी किसकी ? किसकी फूलन काटे किसके ?
आंख मूंद लेने पर यह । चलते दिखते सन्नाटे किसके ?
यह गिरधारी की कमरी सी । यह राधा के वलय बंद सी ।
यह प्रतिभा की सूझों वाले । रस भर आए अमर छंद सी ।
ऊंची नीची मैली उजली । यमुना की पागल हिलोर सी ।
गगन तलक उठ रही पवन के । बिना बंधे उन्मत्त जोर सी ।
चहक चहककर बहक बहककर । बोलों में झरते प्रणाम सी ।
गांवों में अधनंगे शिशु के । 2 हाथों के राम राम सी ।
पल पल पर वह खेल रही है । कितनी मस्‍ती भर लाती है ।
बिजली के खंभे पर बैठी चिड़िया । ठिनक ठिनक कर गाती है ।
सुनना सीखो । कान थोड़े साफ करो । आंखों के पर्दें हटाओ । तो तुम्‍हें हर जगह से प्रभु का संदेश ही सुनाई पड़ेगा । हर स्‍थिति में उसके ही इशारे है ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326