षट दर्शन रूपी महा कुंए में पशु के समान गिरे हुये मनुष्य डंडे से नियन्त्रित पशु की भांति परमार्थ क्या होता है । इसको नहीं जानते हैं ? वेद पुराण आदि शास्त्रों के महासमुद्र में इधर उधर भटकते हुये और मन से ही अनुमान लगाने वाले इस षटदर्शन रूपी तरंगो से ग्रस्त होकर कुतर्की बन जाते हैं । जो वेद । आगम और पुराण का ज्ञाता वास्तविक परमार्थ को नहीं जानता । वास्तविक ज्ञान को नही जानता । अर्थात उसने स्वयं उसको सिद्ध करके नहीं देखा । उस कपटी के सभी कथन कौवे की कांव कांव के समान ही होते हैं । यानी उनसे कोई लाभ नहीं होता । यह ज्ञान है ? यह जानने योग्य है । ऐसी चिन्ता से बैचेन लेकिन असल परमार्थ तत्व से दूर वह प्राणी दिन रात शास्त्रों का अध्ययन करता है । वाक्य ही छन्द हैं । और उस छन्द से गुथे हुये काव्यों में अलंकार सुशोभित होता है । इसी चिन्ता से दुखी होकर मूर्ख व्यक्ति अत्यन्त व्याकुल होकर भटकता ही है । उस परम तत्व का अन्य ही अर्थ है ? किन्तु लोग उसका दूसरा ही अर्थ लगाकर दुखी होते हैं ?शास्त्रों का सदभाव कुछ और ही है । किन्तु वे उसकी व्याख्या अपने ही तरीके से करते हैं ? उसका मतलब ही अलग निकाल लेते हैं ? उपदेश आदि से रहित कुछ अहंकारी व्यक्ति उनमनी भाव की बात करते हैं । किन्तु खुद उसका अनुभव कभी नहीं करते । वे शास्त्रों को पडते हैं । और परस्पर उसको जानने का प्रयास करते हैं । किन्तु जैसे कडाही में घूमती हुयी कलछी पकवान का आनन्द नहीं ले सकती । वैसे ही वे परम तत्व को नहीं जान पाते ? सिर फ़ूलों ( हार के रूप में ) को ढोता है । किन्तु उसकी सुगन्ध का आनन्द नासिका ही ले पाती है । इस तरह बहुत से लोग वेद शास्त्र आदि ग्रन्थों को पडते हैं । किन्तु उनके असली भव को जानने वाला । समझने वाला दुर्लभ ही होता है । अपने ही शरीर के भीतर विद्यमान उस परम तत्व को न पहचान कर मूर्ख प्राणी शास्त्रों में वैसे ही व्याकुल रहता है । जैसे कछार में आये हुये भेड बकरी के बच्चे को चरवाहा कुंए में खोजता है ? सांसारिक मोह को नष्ट करने में शब्द ज्ञान समर्थ नहीं होता ? क्योंकि दीपक की बात करने से कभी अंधकार दूर नहीं हो सकता ? बुद्धि रहित व्यक्ति का पढना वैसा ही है । जैसे अन्धे के हाथ में दर्पण हो ? अतः प्रज्ञावान पुरुषों के द्वारा अधीत शास्त्र ( यानी किसी ज्ञानी द्वारा उसका सही सार बताना ) ही तत्व ज्ञान का लक्षण है । यह ज्ञान है ? यह जानने योग्य है ? ऐसे विचारों में फ़ंसा हुआ मनुष्य सब कुछ जानने की इच्छा करता है । किन्तु हजार लाख वर्ष भी पडने पर भी वह शास्त्रों का अन्त नहीं समझ पाता है ? इसलिये शास्त्र तो अनेक हैं । पर उसके अनुसार तुम्हारी आयु बहुत छोटी है । और उसके बाद भी उनमें करोडों विघ्न बाधायें हैं । इसलिये जैसे जल में मिले हुये दूध को हंस दूध दूध ग्रहण कर लेता है । वैसे ही ज्ञानी के द्वारा तुम्हें उसका सार तत्व ही ग्रहण करना चाहिये । अन्यथा बाद में पछताने के सिवा कुछ हाथ नहीं आयेगा । इसलिये तत्व ज्ञानी की शरण में जाओ ।
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