प्रेम और प्रार्थना का आनंद उनमें ही है - उनके बाहर नहीं । जो उनके द्वारा उनसे कुछ चाहता है । उसे उनके रहस्य का पता नहीं है । प्रेम में डूब जाना ही प्रेम का फल है । और प्रार्थना की तन्मयता और आनंद ही उसका पुरस्कार है ।
ईश्वर का एक प्रेमी अनेक वर्षो से साधना में था । एक रात्रि उसने स्वप्न में सुना कि कोई कह रहा है - प्रभु तेरे भाग्य में नहीं । व्यर्थ श्रम और प्रतीक्षा मत कर । उसने इस स्वप्न की बात अपने मित्रों से कही । किन्तु न तो उसके चेहरे पर उदासी आई । और न ही उसकी साधना ही बंद हुई । उसके मित्रों ने उससे कहा - जब तूने सुन लिया कि तेरे भाग्य का दरवाजा बंद है । तो अब क्यों व्यर्थ प्रार्थनाओं में लगा हुआ है ?
उस प्रेमी ने कहा - व्यर्थ प्रार्थनाएं ? पागलों ! प्रार्थना तो स्वयं में ही आनंद है । कुछ या किसी के मिलने या न मिलने से उसका क्या संबंध है ? और जब कोई अभिलाषा रखने वाला एक दरवाजे से निराश हो जाता है । तो दूसरा दरवाजा खटखटाता है । लेकिन मेरे लिए दूसरा दरवाजा कहां हैं ? प्रभु के अतिरिक्त कोई दरवाजा नहीं ।
उस रात्रि उसने देखा था कि प्रभु उसे आलिंगन में लिए हुए हैं ।
प्रभु के अतिरिक्त जिनकी कोई चाह नहीं है । असंभव है कि वे उसे न पा लें । सब चाहों का एक चाह बन जाना ही मनुष्य के भीतर उस शक्ति को पैदा करता है । जो कि उसे स्वयं को अतिक्रमण कर भागवत चैतन्य में प्रवेश के लिए समर्थ बनाती है ।
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अभी के द्वार में प्रवेश करो । और सब कुछ उदघाटित हो जाता है । तत्काल खुल जाता है । इसी क्षण प्रकट हो जाता है । जीवन कंजूस नहीं है । यह कभी भी कुछ भी नहीं छुपाता है । यह कुछ भी पीछे नहीं रोकता है । यह सब कुछ देने को तैयार है । पूर्ण और बेशर्त । लेकिन तुम तैयार नहीं हो ।
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गुरु बिना घोर अंधेरा रे साधो भाई ।
जब तक कन्या रहे कंवारी । ना ही पति का बेरा ।
ब्याही गई जब पति के संग में । खेले खेल घनेरा ।
तो जब तक भीतर का गुरु नही मिले । तब तक ही अन्धेरा है । शरीर से चैतन्य का मिलन ही शरीर की रोशनी है । जब तुम जागो । तभी सवेरा । हर एक घटना जिन्दगी की याद दिलाती है । जैसे ही जोत जगती है । चाहे गुरु से, ज्ञान से, ध्यान से, कर्म से, भाव से, भक्ति से सब उस निराकार की जोत तक पहुंचाती है । सब जगे हुए है । पीछे से, अतीत से, आज डर लगता है - अतीत से । जिस रोशनी को मुझे बताया गया । वो बुझ ना जाये । लेकिन वो तो किसी और की थी । जिस दिन खुद की रोशनी जगेगी । तब मालूम होगा - मैं कौन था ? क्योंकि तुम खुद रोशनी हो । चैतन्य हो । कृष्ण हो । अंधेरे में अन्धकार ही रह सकता है । अंहकार । वैसे ही चेतना में सिर्फ कृष्ण ही रह सकते हैं ।
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पुरुष की उत्सुकता किसी भी स्त्री में तभी तक होती है । जब तक वह उसे जीत नहीं लेता । जीतते ही उसकी उत्सुकता समाप्त हो जाती है । जीतते ही फिर कोई रस नहीं रह जाता । नीत्शे ने कहा है कि - पुरुष का गहरे से गहरा रस विजय है । कामवासना भी उतनी गहरी नहीं है । कामवासना भी विजय का एक क्षेत्र है । इसलिए पत्नी में उत्सुकता समाप्त हो जाती है । क्योंकि वह जीती ही जा चुकी । उसमें कोई अब जीतने को बाकी नहीं रहा है । इसलिए जो बुद्धिमान पत्नियां हैं । वे सदा इस भांति जीएंगी पति के साथ कि जीतने को कुछ बाकी बना रहे । नहीं तो पुरुष का कोई रस सीधे स्त्री में नहीं है । अगर कुछ अभी जीतने को बाकी है । तो उसका रस होगा । अगर सब जीता जा चुका है । तो उसका रस खो जाएगा । तब कभी कभी ऐसा भी घटित होता है कि अपनी सुंदर पत्नी को छोड़कर वह एक साधारण स्त्री में भी उत्सुक हो सकता है । और तब लोगों को बड़ी हैरानी होती है कि यह उत्सुकता पागलपन की है । इतनी सुंदर उसकी पत्नी है । और वह नौकरानी के पीछे दीवाना हो । पर आप समझ नहीं पा रहे हैं । नौकरानी अभी जीती जा सकती है । पत्नी जीती जा चुकी । सुंदर और असुंदर बहुत मौलिक नहीं हैं । जितनी कठिनाई होगी जीत में । उतना पुरुष का रस गहन होगा । और स्त्री की स्थिति बिलकुल और है । जितना पुरुष मिला हुआ हो । जितना उसे अपना मालूम पड़े । जितनी दूरी कम हो गई हो । उतनी ही वह ज्यादा लीन हो सकेगी । स्त्री इसलिए पत्नी होने में उत्सुक होती है । प्रेयसी होने में उत्सुक नहीं होती । पुरुष प्रेमी होने में उत्सुक होता है । पति होना उसकी मजबूरी है । स्त्री का यह जो संतुलित भाव है । विजय की आकांक्षा नहीं है । यह ज्यादा मौलिक स्थिति है । क्योंकि असंतुलन हमेशा संतुलन के बाद की स्थिति है । संतुलन प्रकृति का स्वभाव है । इसलिए हमने पुरुष को पुरुष कहा है । और स्त्री को प्रकृति कहा है । प्रकृति का मतलब है कि जैसी स्थिति होनी चाहिए स्वभावतः । ओशो ।
ईश्वर का एक प्रेमी अनेक वर्षो से साधना में था । एक रात्रि उसने स्वप्न में सुना कि कोई कह रहा है - प्रभु तेरे भाग्य में नहीं । व्यर्थ श्रम और प्रतीक्षा मत कर । उसने इस स्वप्न की बात अपने मित्रों से कही । किन्तु न तो उसके चेहरे पर उदासी आई । और न ही उसकी साधना ही बंद हुई । उसके मित्रों ने उससे कहा - जब तूने सुन लिया कि तेरे भाग्य का दरवाजा बंद है । तो अब क्यों व्यर्थ प्रार्थनाओं में लगा हुआ है ?
उस प्रेमी ने कहा - व्यर्थ प्रार्थनाएं ? पागलों ! प्रार्थना तो स्वयं में ही आनंद है । कुछ या किसी के मिलने या न मिलने से उसका क्या संबंध है ? और जब कोई अभिलाषा रखने वाला एक दरवाजे से निराश हो जाता है । तो दूसरा दरवाजा खटखटाता है । लेकिन मेरे लिए दूसरा दरवाजा कहां हैं ? प्रभु के अतिरिक्त कोई दरवाजा नहीं ।
उस रात्रि उसने देखा था कि प्रभु उसे आलिंगन में लिए हुए हैं ।
प्रभु के अतिरिक्त जिनकी कोई चाह नहीं है । असंभव है कि वे उसे न पा लें । सब चाहों का एक चाह बन जाना ही मनुष्य के भीतर उस शक्ति को पैदा करता है । जो कि उसे स्वयं को अतिक्रमण कर भागवत चैतन्य में प्रवेश के लिए समर्थ बनाती है ।
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अभी के द्वार में प्रवेश करो । और सब कुछ उदघाटित हो जाता है । तत्काल खुल जाता है । इसी क्षण प्रकट हो जाता है । जीवन कंजूस नहीं है । यह कभी भी कुछ भी नहीं छुपाता है । यह कुछ भी पीछे नहीं रोकता है । यह सब कुछ देने को तैयार है । पूर्ण और बेशर्त । लेकिन तुम तैयार नहीं हो ।
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गुरु बिना घोर अंधेरा रे साधो भाई ।
जब तक कन्या रहे कंवारी । ना ही पति का बेरा ।
ब्याही गई जब पति के संग में । खेले खेल घनेरा ।
तो जब तक भीतर का गुरु नही मिले । तब तक ही अन्धेरा है । शरीर से चैतन्य का मिलन ही शरीर की रोशनी है । जब तुम जागो । तभी सवेरा । हर एक घटना जिन्दगी की याद दिलाती है । जैसे ही जोत जगती है । चाहे गुरु से, ज्ञान से, ध्यान से, कर्म से, भाव से, भक्ति से सब उस निराकार की जोत तक पहुंचाती है । सब जगे हुए है । पीछे से, अतीत से, आज डर लगता है - अतीत से । जिस रोशनी को मुझे बताया गया । वो बुझ ना जाये । लेकिन वो तो किसी और की थी । जिस दिन खुद की रोशनी जगेगी । तब मालूम होगा - मैं कौन था ? क्योंकि तुम खुद रोशनी हो । चैतन्य हो । कृष्ण हो । अंधेरे में अन्धकार ही रह सकता है । अंहकार । वैसे ही चेतना में सिर्फ कृष्ण ही रह सकते हैं ।
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पुरुष की उत्सुकता किसी भी स्त्री में तभी तक होती है । जब तक वह उसे जीत नहीं लेता । जीतते ही उसकी उत्सुकता समाप्त हो जाती है । जीतते ही फिर कोई रस नहीं रह जाता । नीत्शे ने कहा है कि - पुरुष का गहरे से गहरा रस विजय है । कामवासना भी उतनी गहरी नहीं है । कामवासना भी विजय का एक क्षेत्र है । इसलिए पत्नी में उत्सुकता समाप्त हो जाती है । क्योंकि वह जीती ही जा चुकी । उसमें कोई अब जीतने को बाकी नहीं रहा है । इसलिए जो बुद्धिमान पत्नियां हैं । वे सदा इस भांति जीएंगी पति के साथ कि जीतने को कुछ बाकी बना रहे । नहीं तो पुरुष का कोई रस सीधे स्त्री में नहीं है । अगर कुछ अभी जीतने को बाकी है । तो उसका रस होगा । अगर सब जीता जा चुका है । तो उसका रस खो जाएगा । तब कभी कभी ऐसा भी घटित होता है कि अपनी सुंदर पत्नी को छोड़कर वह एक साधारण स्त्री में भी उत्सुक हो सकता है । और तब लोगों को बड़ी हैरानी होती है कि यह उत्सुकता पागलपन की है । इतनी सुंदर उसकी पत्नी है । और वह नौकरानी के पीछे दीवाना हो । पर आप समझ नहीं पा रहे हैं । नौकरानी अभी जीती जा सकती है । पत्नी जीती जा चुकी । सुंदर और असुंदर बहुत मौलिक नहीं हैं । जितनी कठिनाई होगी जीत में । उतना पुरुष का रस गहन होगा । और स्त्री की स्थिति बिलकुल और है । जितना पुरुष मिला हुआ हो । जितना उसे अपना मालूम पड़े । जितनी दूरी कम हो गई हो । उतनी ही वह ज्यादा लीन हो सकेगी । स्त्री इसलिए पत्नी होने में उत्सुक होती है । प्रेयसी होने में उत्सुक नहीं होती । पुरुष प्रेमी होने में उत्सुक होता है । पति होना उसकी मजबूरी है । स्त्री का यह जो संतुलित भाव है । विजय की आकांक्षा नहीं है । यह ज्यादा मौलिक स्थिति है । क्योंकि असंतुलन हमेशा संतुलन के बाद की स्थिति है । संतुलन प्रकृति का स्वभाव है । इसलिए हमने पुरुष को पुरुष कहा है । और स्त्री को प्रकृति कहा है । प्रकृति का मतलब है कि जैसी स्थिति होनी चाहिए स्वभावतः । ओशो ।
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