19 सितंबर 2010

तुम सिर्फ भूल गए हो

उपनिषदों में 1 वचन है - उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्यवरान्निबोधत ।
उठो । जागो । और जो मिला ही हुआ है । उसे पा लो । जो मिला ही हुआ है । जिसे तुम खोजते हो । उसे अगर तुमने खो दिया होता । तो उसे पाने का कोई उपाय न था । इस विराट अस्तित्व में खोए को खोज लेने का कोई उपाय नहीं । तुम खुद इतने छोटे हो । और तुमने अगर अपना आनंद खो दिया । आत्मा खो दी । तो तुम इस विराट अस्तित्व में उसे कहां खोजोगे ? असंभव । तुम अपने को खोज ही न पाओगे । अगर खो चुके हो । फिर खोजेगा कौन ? अगर तुम खो ही चुके हो । तो खोजने वाला भी तो बचेगा नहीं । इसलिए उपनिषद कहते हैं - उसे पा लो । जो पाया ही हुआ है । तुम सिर्फ भूल गए हो । विस्मरण से ज्यादा और कोई बड़ी दुर्घटना नहीं घट गई है । खोया नहीं है । स्मृति खो गई है । है मौजूद । सो गए हो । नींद लग गई है । आंख झपक गई है । और तब तुम जो भी करोगे । इस झपकी हुई आंख की दशा में । वह सब विस्मृति को घना करेगा । जितना ही तुम दौड़ोगे । खोजोगे । उतना ही लगेगा कि पाना मुश्किल है । उतनी ही यात्रा असंभव प्रतीत होगी । दौड़ने से नहीं मिलेगा वह । जो तुम्हारे भीतर छिपा है । दौड़ने से तो उसका मिलना हो सकता है । जो तुम्हारे बाहर है । दूर है । जो पास ही है । उसे दौड़कर कहीं कोई पा सकेगा ? उसे पाना है । तो भीतर पाना है । भीतर पाने का अर्थ है - रुक जाना । दौड़ना नहीं । ठहर जाना । विश्राम के क्षण में मिलेगा - वह । विराम के क्षण में मिलेगा - वह । शांति के क्षण में मिलेगा । भागदौड़, आपाधापी में तो तुम उसे और खोते चले जाओगे । और जितना ही तुम जाल बुनते हो - खोजने का । आखिर में पाते हो । वही जाल गले की फांसी हो गया । ऐसी है दशा तुम्हारी । जैसे मकड़ी ने जाल बुना हो । और खुद ही फंस गई हो । और अब तड़फती हो । और निकलना चाहती हो । और निकल न पाती हो । और अपना ही बुना जाल है । जन्मों जन्मों में तुम जो खोज रहे हो । उसके कारण ही तुमने अपने चारों तरफ 1 जाल बुन लिया है - रास्तों का । विधियों का । मार्गों का । क्रियाकांडों का । धर्मों का । शास्त्रों का । सिद्धांतों का । अब उस जाल में तुम फंसे हो । अब उस जाल से निकलना मुश्किल मालूम पड़ता है । लेकिन 1 बात स्मरण आ जाए कि तुम्हारा ही बुना हुआ है कि तुम बाहर निकल गए । फिर निकलने को कुछ करना नहीं पड़ता । तुम फंसे थे । वह भी भ्रांति थी । इस फंसाव को ठीक से समझ लो । क्योंकि सारे उपद्रव की जड़ वहां है । और सारा विज्ञान भी उसी के समझने में छिपा है । जार्ज गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था - अगर तुम 1 बात समझ लो । तो सब समझ में आ जाए । उस बात को वह कहता था - आयडेंटिफिकेशन । तादात्म्य । अगर तुम यह समझ लो कि कैसे तुम उससे 1 हो गए हो । जो तुम नहीं हो । तो तुम्हें मार्ग मिल जाए वह होने का । जो तुम हो - ओशो
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पवित्रता - प्रकाश को अंधकार का पता नहीं । प्रकाश तो सिर्फ प्रकाश को ही जानता है । जिनके हृदय प्रकाश और पवित्रता से आपूरित हो जाते हैं । उन्हें फिर कोई हृदय अंधकार पूर्ण और अपवित्र नहीं दिखाई पड़ता । जब तक हमें अपवित्रता दिखाई पड़े । जानना चाहिए कि उसके कुछ न कुछ अवशेष जरूर हमारे भीतर हैं । वह स्वयं के अपवित्र होने की सूचना ज्यादा और कुछ नहीं है । सुबह की प्रार्थना के स्वर मंदिर में गूंज रहे थे । आचार्य रामानुज भी प्रभु की प्रार्थना में तल्लीन से दीखते मंदिर की परिक्रमा करते थे । और तभी अकस्मात 1 चांडाल स्त्री उनके सम्मुख आ गई । उसे देख उनके पैर ठिठक गये । प्रार्थना की तथाकथित तल्लीनता खंडित हो गई । और मुंह से अत्यंत कलुष शब्द फूट पड़े - चांडालिन मार्ग से हट । मेरे मार्ग को अपवित्र न कर ।
प्रार्थना करती उनकी आंखों में क्रोध आ गया । और प्रभु की स्तुति में लगे होठों पर विष । किंतु वह चांडाल स्त्री हटी नहीं । अपितु हाथ जोड़कर पूछने लगी - स्वामी ! मैं किस ओर सरकूं ? प्रभु की पवित्रता तो चारों ओर ही है । मैं अपनी अपवित्रता किस ओर ले जाऊं ?
मानों कोई परदा रामानुज की आंखों के सामने से हट गया हो । ऐसे उन्होंने उस स्त्री की ओर देखा । उसके वे थोड़े से शब्द उनकी सारी कठोरता बहा ले गये ।
श्रद्धावनत उन्होंने कहा - मां ! क्षमा करो । भीतर का मैल ही हमें बाहर दिखाई पड़ता है । जो भीतर की पवित्रता से आंखों को जांच लेता है । उसे चहुं ओर पावनता ही दिखाई देती है ।
प्रभु को देखने का कोई और मार्ग मैं नहीं जानता हूं । एक ही मार्ग है । और वह है - सब ओर पवित्रता का अनुभव होना । जो सब में पावन को देखने लगता है । वही । और केवल वही । प्रभु के दर्शन की कुंजी उपलब्ध कर पाता है ।

17 सितंबर 2010

परस्त्री से सम्भोग व्यभिचार और पाप

शंकराचार्य को कामकला का ज्ञान कैसे हुआ ?
इस कहानी में बिलकुल भी सत्य नहीं है और ना ही ऐसा कहीं इतिहास में लिखा है । 
सबसे पहले तो ‘कामकला’ नाम की कोई चीज़ धर्मशास्त्रों में नहीं है ।
यह कामकला निकृष्ट वाममार्गियों की देन है । धर्मशास्त्रों में और महापुरुषों ने स्त्री और पुरुष का संयोग सन्तान उत्पत्ति के लिये बताया है न कि मनोरंजन के लिये । इस तरह की कहानियाँ और कामकला सब पाखण्डियों की देन है ।
मैं इस लेख से सम्बन्धित आपसे कुछ प्रश्न करता हूँ ।
1 यह कहानी आपने कहाँ पढ़ी और किस महापुरुष द्वारा लिखी गयी है ? इसकी क्या प्रमाणिकता है ?
2 कर्म का भोक्ता कौन होता है आत्मा या शरीर ? यदि आत्मा होती है तो इस झूठी कहानी के अनुसार क्या परस्त्री से सम्भोग करना व्यभिचार और पाप के अन्तर्गत नहीं आता ?
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प्रश्न - क्या परस्त्री से सम्भोग करना व्यभिचार और पाप के अन्तर्गत नहीं आता ? 
उत्तर - सामान्य स्थिति में परस्त्री से सहवास पाप और व्यभिचार के अन्तर्गत ही कहा जायेगा पर शंकराचार्य जी के प्रकरण में यह बात सिर्फ़ शारीरिक आनन्द, इच्छा के ध्येय से नही है । अतः वह एक भिन्न स्थिति हो जाती है ।
लगभग सभी सन्तों ने परस्त्री सम्बन्ध के लिये निन्दा ही की है और इसे सर्वदा वर्जित बताया है पर नियोग या आपत्तिकाले या कोई धर्म विषयक वाद बन जाने पर धर्मशास्त्रों में ‘परस्त्री सम्बन्धित’ प्रसंग खूब मिलते हैं । वृन्दा (पत्नी जालंधर) का सतीत्व भंग करना इसका प्रसिद्ध उदाहरण है ।
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प्रश्न - कर्म का भोक्ता कौन होता है आत्मा या शरीर ? यदि आत्मा होती है ।

उत्तर - कर्म का भोक्ता न आत्मा होती है न शरीर होता हैं बल्कि मन होता है । जीव भाव में ये तीनों संयुक्त होते हुये भी यथार्थ स्थिति में अलग ही हैं । लेकिन यह जीव शरीर के कष्टों को मन द्वारा अनुभव अवश्य करता है ।
कुछ कर्म गलत कर्मों की परिभाषा में अवश्य आते हैं । परन्तु फ़िर भी विलक्षण सृष्टि और होनी के चलते साधारण जीव तो क्या बङे बङे ज्ञानी उन्हें करने को लगभग विवश हो जाते हैं ।
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प्रश्न - यह कहानी आपने कहाँ पढ़ी और किस महापुरुष द्वारा लिखी गयी है ? इसकी क्या प्रमाणिकता है ?
उत्तर - बहुप्रसिद्ध शंकराचार्य जी और काशी के विद्वान मंडन मिश्र जी के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ जिसमें मिश्र जी की धर्मपत्नी सरस्वती भी शामिल हुयी थीं, में इसका विशद वर्णन है ।
google search में शंकराचार्य और मंडन मिश्र हिंदी में type करें । प्राप्त result से आपकी शंका का समाधान हो जायेगा ।
इसकी प्रमाणिकता - परकाया प्रवेश योग और संयम ज्ञाता के लिये कोई ज्यादा बङी बात नहीं ।
पतंजलि योग दर्शन में ही इसके बारे में स्पष्ट वर्णन है । समय समय पर इस विद्या के योगी भी चर्चा में आते रहे हैं ।
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प्रश्न - सबसे पहले तो कामकला नाम की कोई चीज़ धर्मशास्त्रों में नहीं है ?
उत्तर - यह बङी अजीब सी ही बात लगती है । सृष्टि की महत्वपूर्ण क्रिया ‘कामकला’ को धर्म के अंतर्गत न मानना ।
श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार । 
बरनउ रघुवर विमल जसु, जो दायक फ़ल चार । 
ये चार फ़ल कौन से हैं । जीवन के चार पुरुषार्थ कौन से हैं ?
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ।
धर्म वो कार्य है जो हमारे शरीर से जुङा है । जिसके लिये शरीर धारण किया है ।
अब मुख्य विषय काम या कामकला का । यदि कामकला सृष्टि का प्रमुख आकर्षण न होती तो आज तमाम परिवार न होते, समाज न होता । इंटरनेट 70% कामकला के ऊपर ही जीवित है ।
धर्म तो बाद में आया आदम, इवा, मनु, श्रद्धा, पहला मर्द, पहली औरत के द्वारा वर्जित फ़ल खाने से काम पहले आया । रही बात शास्त्रों की तो शास्त्रों में काम की उपयोगिता और उसके महत्व है ।
मेरे एक मित्र ने कहा - आप जानते हैं ये संगीत नृत्य आदि एक प्रकार की कामभावना ही है । उसी कामभावना से इसमें मधुर रस पैदा होता है अन्यथा बहुत कम लोग फ़िल्म देखते या संगीत सुनते ।
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प्रश्न - धर्मशास्त्रों में और महापुरुषों ने स्त्री और पुरुष का संयोग सन्तान उत्पत्ति के लिये बताया है न कि मनोरंजन के लिये ?
उत्तर - थोङी देर के लिये आदमी औरत को छोड दें तो पशु पक्षी तक केवल संभोग के बजाय प्रणय क्रियायों को भी बखूबी करते हैं ।
मोर मोरनी को नृत्य करके इसीलिये रिझाता है । कुछ पक्षी युद्ध कौशल का प्रदर्शन अपनी प्रियतमा को रिझाने के लिये करते है । कुछ पक्षी गाना गाते हैं । कुछ अठखेलियां करते हैं । बसन्त आने पर पूरी प्रकृति कामोन्मादी होकर झूमने लगती है ।
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प्रश्न - शंकराचार्य ने सम्भोग करने के लिये राजा के शरीर में प्रवेश क्यों किया ?
उत्तर - धर्म और कुन्डलिनी ज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म विषय है जिसको हरेक कोई नहीं समझ सकता । शंकराचार्य ने सम्भोग करने के लिये राजा के शरीर में प्रवेश इसलिये किया । क्योंकि शंकराचार्य उस समय अद्वैत की जिस स्थिति में पहुँच चुके थे । वहाँ दो नहीं होते । एक चेतन ही सर्वत्र विभिन्न लीलाएं कर रहा है और फ़िर यह उसी नियन्ता द्वारा तय नियत थी ।

16 सितंबर 2010

उस दिन मनुष्य भगवान हो जाता है


क्या सोवे सुख नींद । मुसाफिर परदेशी रे । 
क्या सोवे सुख नींद । बटाऊ भोला परदेशी रे । 
क्या सोवे सुख नींद । राम नाम का सुमिरण कर ले । 
हरी का ध्यान हिरदै बिच धर ले ।
साधो भाई रे छोड़ दे कपट का जंजाल । कटेगी तेरी चौरासी रे ।
आगे आगे गाँव ठगा की नगरी । छीन लेगा हीरा की गठड़ी ।
साधो भाई रे बे चोरण का है गाँव । न्याय तेरो कुण करसी रे ?
गगन मण्डल में उरध मुखी कुआ । सब साधन मिल प्रसन्न हुआ ।
साधो भाई रे तरबीणी के घाट उतर । मल मल न्हासी ।
नाथ गुलाब गूरू पूरा पाया । जाल जुलम सब दूर हटाया ।
साधो भाई रे गुण गावै भानीनाथ । गुराजी ल्याया रंगबूटी रे
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प्रकृति के उपहार को पहचानो - प्रकृति यानी परमात्मा ने हर मनुष्य को जीवन ऊर्जा के साथ एक ऐसा उपहार दिया है कि हर मनुष्य प्रतिपल हर रोज अपनी जीवन ऊर्जा के साथ जीता है । लेकिन उससे परिचित नही है । लोग कहते हैं - क्रोध आ जाता है । काम सताता है । मोह सताता है । प्रेम जागता है । हिंसा उत्पन्न होती है । ये सब काम, क्रोध, लोभ, मोह यह हमरे जीवन ऊर्जा के अभिन्न अंग है । इनके बगैर जीवन सम्भव नही है । जिस मनुष्य के पास इनमें से कोई अंग नही है । वह विकलांग की श्रेणी मे आता है । इसलिये मित्रों, इन अंगो को खत्म करने के चक्कर मे अपने जीवन को नष्ट मत करो । काम, क्रोध, लोभ, मोह के द्वारा अपनी ऊर्जा को जान सकते हो ! जैसे की तंत्र साधको द्वारा खजुराहो के मन्दिरो मे इन सारी ऊर्जाओं का वर्णन किया गया है । और इन ऊर्जाओं को जिस दिन मनुष्य जानने में सक्षम हो जाता है । उस दिन मनुष्य भगवान हो जाता है । तो आईये काम, क्रोध, लोभ, मोह को जानने के लिये विश्व चेतना कम्यून खजुराहो मे पधारें । अधिक जानकारी के लिये देखें । शिरोमणि स्वामी ।
http://www.vccitikhr.in/
http://www.vcciti.org/
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मकोय ( रसभरी ) - आजकल मकोय के फलों का मौसम चल रहा है । मौसमी फलों का सेवन अवश्य करना चाहिए । यह हर जगह अपने आप ही उग जाती है । सर्दियों में इसके नन्हें नन्हें लाल लाल फल बहुत अच्छे लगते हैं । ये फल बहुत स्वादिष्ट होते हैं । और लाभदायक भी । इसके फल जामुनी रंग के या हलके पीले लाल रंग के होते हैं ।
- मकोय के फल सवेरे सवेरे खाली पेट खाने से अपच की बीमारी ठीक होती है ।
- शहद मकोय के गुणों को सुरक्षित रखकर दोषों को दूर करता है ।
- यह वात, पित्त और कफ नाशक होता है ।
- यह सूजन और दर्द को दूर करता है ।
- शुगर की बीमारी हो । या फिर कमजोरी हो । तो मकोय के सूखे बीजों का पाउडर एक एक चम्मच सवेरे शाम लें । किडनी की बीमारी हो । तो 10-15 दिन लगातार इसकी सब्जी खाईए । इसके 10 ग्राम सूखे पंचांग का 200 ग्राम पानी में काढ़ा बनाकर पीयें ।
- बुढापे में हृदय गति कम हो जाए । तो इसके 10 ग्राम पंचांग का काढ़ा पीयें । हृदय की किसी भी प्रकार की बीमारी के लिए 5 ग्राम मकोय का पंचांग और 5 ग्राम अर्जुन की छाल, दोनों को मिलाकर 400 ग्राम पानी में पकाएं । जब एक चौथाई रह जाए तो पी लें ।
- लिवर ठीक नहीं है । पेट खराब है । आंतों में infection है । spleen बढ़ी हुई है । या फिर पेट में पानी भर गया है । सभी का इलाज है - मकोय की सब्जी । रोज़ इसकी सब्जी खाएं । या फिर इसके 10 ग्राम पंचांग का काढ़ा पीयें ।
- पीलिया होने पर इसके पत्तों का रस 2-4 चम्मच पानी मिलाकर ले लें ।
- अगर नींद न आये । तो इसकी 10 ग्राम जड़ का काढ़ा लें । अगर साथ में गुड भी मिला लें । तो नींद तो अच्छी आयेगी ही । साथ ही सवेरे पेट भी अच्छे से साफ़ होगा ।
- त्वचा सम्बन्धी बीमारियाँ भी इसके नित्य प्रयोग से ठीक होती हैं ।
- यह सर्दी, खांसी, श्वास के रोग, हिचकी आदि को ठीक करता है ।

08 सितंबर 2010

भगवान का मन्त्रालय । ministry of god




मुझसे अक्सर लोग प्रश्न करते हैं कि कौन सा भगवान बडा है । क्योंकि शास्त्रों की घुमावदार बातों से लोग भृमित हो जाते हैं । यह एक दिलचस्प बात है कि संत मत sant mat ग्यान के लोगों को छोडकर ज्यादातर लोग बृह्मा । विष्णु । महेश से ऊपर की बात नहीं जानते । मैंने कई बार अपने लेखों में इस बात का जिक्र भी किया है । आपके आग्रह पर फ़िर से बता रहा हूं । पर थोडा हट के बता रहा हूं । इस त्रिलोकी सत्ता का सबसे बडा भगवान काल निरंजन है । जिसको बहुत समय पहले धर्मराज कहा जाता था । लेकिन जब इसने सतपुरुष की अंश अष्टांगी कन्या यानी आध्याशक्ति जिसे शास्त्र की भाषा में आदिशक्ति भी कहते हैं । को खा लिया । तब से इसका नाम काल या काल निरंजन पड गया । यही काल निरंजन राम और कृष्ण के रूप में अवतार लेता है । आमधारणा के विपरीत । जैसा कि लोग विष्णु को समझते हैं ।.. ये ठीक है कि अधिकतर छोटे अवतार जैसे वराह अवतार । कूर्म अवतार । वामन अवतार विष्णु लेते हैं । पर ये दो मुख्य पूर्ण अवतार काल निरंजन ही लेता है । जब काल निरंजन ने अष्टांगी कन्या को खा लिया । तब वह पिता समान सतपुरुष का ध्यान करके उनकी आग्या से काल निरंजन के उदर से बाहर आ गयी । वह काल से भयभीत थी । काल ने उससे कामभावना जाहिर की । जिसे भयभीत मगर बाद में आसक्त अष्टांगी कन्या ने मान लिया । और लम्बे समय तक दोनों ने कामक्रीडा की । जिसके फ़लस्वरूप बृह्मा । विष्णु । महेश का जन्म हुआ । इस तरह काल की स्थिति इस त्रिलोकी सत्ता में राष्ट्रपति की है । अष्टांगी कन्या जिसको माया महामाया । इच्छाशक्ति । आदिशक्ति । देवीशक्ति कहते हैं । ये इस समय काल निरंजन की पत्नी और बृह्मा । विष्णु । महेश की मां है । काल की पत्नी बनने के बाद ये उसी के रंग में रंग गयी । और इसने माया का रूप बना लिया । काल निरंजन जब राम या कृष्ण के रूप में अवतरित होता है । तब ये सीता और राधा के रूप में अवतार लेती है । आप लोगों को ध्यान होगा । सीताहरण के बाद सती ने जब राम की परीक्षा लेने के लिये सीता का रूप बना लिया था । तब शंकर ने उनको त्याग दिया था । और कहा था । कि सीता का रूप धरने के बाद वह सती को कामभावना से नही देख सकते । क्योंकि सीता उनकी मां है । इस तरह काल निरंजन और आध्याशक्ति । ये दोनों इस त्रिलोकी की प्रमुख शक्तियां हैं । और इनके तीनों पुत्र Head of the all department हैं । सभी प्रमुख मंत्रालय इन तीनों भाईयों के अधीन हैं । इसके बाद इन्द्र जैसे सिंचाई मन्त्री । वरुणदेव जैसे जल मन्त्री । पवनदेव वायु मन्त्रालय । अग्नि्देव फ़ायर मन्त्रालय । सरस्वती शिक्षा मन्त्रालय । लक्ष्मी वित्त मन्त्रालय आदि कार्य के अनुसार मन्त्रालय विभाजित हैं । लेकिन एक बात ध्यान रखना चाहिये कि इनमें से परमात्मा या सबसे बडी शक्ति कोई नहीं हैं । ये सब काल निरंजन के कर्मचारी है । परमात्मा यानी केन्द्रीय सत्ता त्रिलोकी की सीमा से ऊपर सत्यलोक यानी चौथे लोक से शुरू होती है । ये special department कहलाता है । यहां के एक छोटे से छोटे कर्मचारी के अधिकार और हैसियत त्रिलोकी के बडे से बडे पदाधिकारी को ललचाते हैं । इसमें भी काफ़ी पद हैं । मगर मुख्य पद ज्यादा नहीं हैं । ये पूरी सत्ता ही अलख । अगम्य । अगोचर । दुर्लभ कहलाती है । इसका एक सीमा तक संतो को ग्यान होता है । उसके बाद परमहंस को इसकी जानकारी होती है । केवल विहंगम मार्ग और
संत मत sant mat की दिव्य साधना DIVY SADHNA द्वारा इसको जाना जा सकता है । वास्तव में
आत्म दर्शन के द्वारा स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति संभव है । और तब परमात्मा के बारे में सही जाना जा सकता है । सही ग्यान प्राप्त किया जा सकता है । जो लोग इस सम्बन्ध में विस्तार से जानकारी लेना चाहते हैं । या केवल 20 दिन से भी कम समय में चेतन समाधि का अनुभव प्राप्त करना चाहते हैं । वो इटावा मैंनपुरी के मध्य करहल के पास । ग्वारी आश्रम । में आ सकते हैं । इस सम्बन्ध में पूर्व शंका समाधान या कोई जिग्यासा आदि हेतु आप 0 9639892934 पर सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस से बात कर सकते हैं ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326