उपनिषदों में 1 वचन है - उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्यवरान्निबोधत ।
उठो । जागो । और जो मिला ही हुआ है । उसे पा लो । जो मिला ही हुआ है । जिसे तुम खोजते हो । उसे अगर तुमने खो दिया होता । तो उसे पाने का कोई उपाय न था । इस विराट अस्तित्व में खोए को खोज लेने का कोई उपाय नहीं । तुम खुद इतने छोटे हो । और तुमने अगर अपना आनंद खो दिया । आत्मा खो दी । तो तुम इस विराट अस्तित्व में उसे कहां खोजोगे ? असंभव । तुम अपने को खोज ही न पाओगे । अगर खो चुके हो । फिर खोजेगा कौन ? अगर तुम खो ही चुके हो । तो खोजने वाला भी तो बचेगा नहीं । इसलिए उपनिषद कहते हैं - उसे पा लो । जो पाया ही हुआ है । तुम सिर्फ भूल गए हो । विस्मरण से ज्यादा और कोई बड़ी दुर्घटना नहीं घट गई है । खोया नहीं है । स्मृति खो गई है । है मौजूद । सो गए हो । नींद लग गई है । आंख झपक गई है । और तब तुम जो भी करोगे । इस झपकी हुई आंख की दशा में । वह सब विस्मृति को घना करेगा । जितना ही तुम दौड़ोगे । खोजोगे । उतना ही लगेगा कि पाना मुश्किल है । उतनी ही यात्रा असंभव प्रतीत होगी । दौड़ने से नहीं मिलेगा वह । जो तुम्हारे भीतर छिपा है । दौड़ने से तो उसका मिलना हो सकता है । जो तुम्हारे बाहर है । दूर है । जो पास ही है । उसे दौड़कर कहीं कोई पा सकेगा ? उसे पाना है । तो भीतर पाना है । भीतर पाने का अर्थ है - रुक जाना । दौड़ना नहीं । ठहर जाना । विश्राम के क्षण में मिलेगा - वह । विराम के क्षण में मिलेगा - वह । शांति के क्षण में मिलेगा । भागदौड़, आपाधापी में तो तुम उसे और खोते चले जाओगे । और जितना ही तुम जाल बुनते हो - खोजने का । आखिर में पाते हो । वही जाल गले की फांसी हो गया । ऐसी है दशा तुम्हारी । जैसे मकड़ी ने जाल बुना हो । और खुद ही फंस गई हो । और अब तड़फती हो । और निकलना चाहती हो । और निकल न पाती हो । और अपना ही बुना जाल है । जन्मों जन्मों में तुम जो खोज रहे हो । उसके कारण ही तुमने अपने चारों तरफ 1 जाल बुन लिया है - रास्तों का । विधियों का । मार्गों का । क्रियाकांडों का । धर्मों का । शास्त्रों का । सिद्धांतों का । अब उस जाल में तुम फंसे हो । अब उस जाल से निकलना मुश्किल मालूम पड़ता है । लेकिन 1 बात स्मरण आ जाए कि तुम्हारा ही बुना हुआ है कि तुम बाहर निकल गए । फिर निकलने को कुछ करना नहीं पड़ता । तुम फंसे थे । वह भी भ्रांति थी । इस फंसाव को ठीक से समझ लो । क्योंकि सारे उपद्रव की जड़ वहां है । और सारा विज्ञान भी उसी के समझने में छिपा है । जार्ज गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था - अगर तुम 1 बात समझ लो । तो सब समझ में आ जाए । उस बात को वह कहता था - आयडेंटिफिकेशन । तादात्म्य । अगर तुम यह समझ लो कि कैसे तुम उससे 1 हो गए हो । जो तुम नहीं हो । तो तुम्हें मार्ग मिल जाए वह होने का । जो तुम हो - ओशो
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पवित्रता - प्रकाश को अंधकार का पता नहीं । प्रकाश तो सिर्फ प्रकाश को ही जानता है । जिनके हृदय प्रकाश और पवित्रता से आपूरित हो जाते हैं । उन्हें फिर कोई हृदय अंधकार पूर्ण और अपवित्र नहीं दिखाई पड़ता । जब तक हमें अपवित्रता दिखाई पड़े । जानना चाहिए कि उसके कुछ न कुछ अवशेष जरूर हमारे भीतर हैं । वह स्वयं के अपवित्र होने की सूचना ज्यादा और कुछ नहीं है । सुबह की प्रार्थना के स्वर मंदिर में गूंज रहे थे । आचार्य रामानुज भी प्रभु की प्रार्थना में तल्लीन से दीखते मंदिर की परिक्रमा करते थे । और तभी अकस्मात 1 चांडाल स्त्री उनके सम्मुख आ गई । उसे देख उनके पैर ठिठक गये । प्रार्थना की तथाकथित तल्लीनता खंडित हो गई । और मुंह से अत्यंत कलुष शब्द फूट पड़े - चांडालिन मार्ग से हट । मेरे मार्ग को अपवित्र न कर ।
प्रार्थना करती उनकी आंखों में क्रोध आ गया । और प्रभु की स्तुति में लगे होठों पर विष । किंतु वह चांडाल स्त्री हटी नहीं । अपितु हाथ जोड़कर पूछने लगी - स्वामी ! मैं किस ओर सरकूं ? प्रभु की पवित्रता तो चारों ओर ही है । मैं अपनी अपवित्रता किस ओर ले जाऊं ?
मानों कोई परदा रामानुज की आंखों के सामने से हट गया हो । ऐसे उन्होंने उस स्त्री की ओर देखा । उसके वे थोड़े से शब्द उनकी सारी कठोरता बहा ले गये ।
श्रद्धावनत उन्होंने कहा - मां ! क्षमा करो । भीतर का मैल ही हमें बाहर दिखाई पड़ता है । जो भीतर की पवित्रता से आंखों को जांच लेता है । उसे चहुं ओर पावनता ही दिखाई देती है ।
प्रभु को देखने का कोई और मार्ग मैं नहीं जानता हूं । एक ही मार्ग है । और वह है - सब ओर पवित्रता का अनुभव होना । जो सब में पावन को देखने लगता है । वही । और केवल वही । प्रभु के दर्शन की कुंजी उपलब्ध कर पाता है ।
उठो । जागो । और जो मिला ही हुआ है । उसे पा लो । जो मिला ही हुआ है । जिसे तुम खोजते हो । उसे अगर तुमने खो दिया होता । तो उसे पाने का कोई उपाय न था । इस विराट अस्तित्व में खोए को खोज लेने का कोई उपाय नहीं । तुम खुद इतने छोटे हो । और तुमने अगर अपना आनंद खो दिया । आत्मा खो दी । तो तुम इस विराट अस्तित्व में उसे कहां खोजोगे ? असंभव । तुम अपने को खोज ही न पाओगे । अगर खो चुके हो । फिर खोजेगा कौन ? अगर तुम खो ही चुके हो । तो खोजने वाला भी तो बचेगा नहीं । इसलिए उपनिषद कहते हैं - उसे पा लो । जो पाया ही हुआ है । तुम सिर्फ भूल गए हो । विस्मरण से ज्यादा और कोई बड़ी दुर्घटना नहीं घट गई है । खोया नहीं है । स्मृति खो गई है । है मौजूद । सो गए हो । नींद लग गई है । आंख झपक गई है । और तब तुम जो भी करोगे । इस झपकी हुई आंख की दशा में । वह सब विस्मृति को घना करेगा । जितना ही तुम दौड़ोगे । खोजोगे । उतना ही लगेगा कि पाना मुश्किल है । उतनी ही यात्रा असंभव प्रतीत होगी । दौड़ने से नहीं मिलेगा वह । जो तुम्हारे भीतर छिपा है । दौड़ने से तो उसका मिलना हो सकता है । जो तुम्हारे बाहर है । दूर है । जो पास ही है । उसे दौड़कर कहीं कोई पा सकेगा ? उसे पाना है । तो भीतर पाना है । भीतर पाने का अर्थ है - रुक जाना । दौड़ना नहीं । ठहर जाना । विश्राम के क्षण में मिलेगा - वह । विराम के क्षण में मिलेगा - वह । शांति के क्षण में मिलेगा । भागदौड़, आपाधापी में तो तुम उसे और खोते चले जाओगे । और जितना ही तुम जाल बुनते हो - खोजने का । आखिर में पाते हो । वही जाल गले की फांसी हो गया । ऐसी है दशा तुम्हारी । जैसे मकड़ी ने जाल बुना हो । और खुद ही फंस गई हो । और अब तड़फती हो । और निकलना चाहती हो । और निकल न पाती हो । और अपना ही बुना जाल है । जन्मों जन्मों में तुम जो खोज रहे हो । उसके कारण ही तुमने अपने चारों तरफ 1 जाल बुन लिया है - रास्तों का । विधियों का । मार्गों का । क्रियाकांडों का । धर्मों का । शास्त्रों का । सिद्धांतों का । अब उस जाल में तुम फंसे हो । अब उस जाल से निकलना मुश्किल मालूम पड़ता है । लेकिन 1 बात स्मरण आ जाए कि तुम्हारा ही बुना हुआ है कि तुम बाहर निकल गए । फिर निकलने को कुछ करना नहीं पड़ता । तुम फंसे थे । वह भी भ्रांति थी । इस फंसाव को ठीक से समझ लो । क्योंकि सारे उपद्रव की जड़ वहां है । और सारा विज्ञान भी उसी के समझने में छिपा है । जार्ज गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था - अगर तुम 1 बात समझ लो । तो सब समझ में आ जाए । उस बात को वह कहता था - आयडेंटिफिकेशन । तादात्म्य । अगर तुम यह समझ लो कि कैसे तुम उससे 1 हो गए हो । जो तुम नहीं हो । तो तुम्हें मार्ग मिल जाए वह होने का । जो तुम हो - ओशो
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पवित्रता - प्रकाश को अंधकार का पता नहीं । प्रकाश तो सिर्फ प्रकाश को ही जानता है । जिनके हृदय प्रकाश और पवित्रता से आपूरित हो जाते हैं । उन्हें फिर कोई हृदय अंधकार पूर्ण और अपवित्र नहीं दिखाई पड़ता । जब तक हमें अपवित्रता दिखाई पड़े । जानना चाहिए कि उसके कुछ न कुछ अवशेष जरूर हमारे भीतर हैं । वह स्वयं के अपवित्र होने की सूचना ज्यादा और कुछ नहीं है । सुबह की प्रार्थना के स्वर मंदिर में गूंज रहे थे । आचार्य रामानुज भी प्रभु की प्रार्थना में तल्लीन से दीखते मंदिर की परिक्रमा करते थे । और तभी अकस्मात 1 चांडाल स्त्री उनके सम्मुख आ गई । उसे देख उनके पैर ठिठक गये । प्रार्थना की तथाकथित तल्लीनता खंडित हो गई । और मुंह से अत्यंत कलुष शब्द फूट पड़े - चांडालिन मार्ग से हट । मेरे मार्ग को अपवित्र न कर ।
प्रार्थना करती उनकी आंखों में क्रोध आ गया । और प्रभु की स्तुति में लगे होठों पर विष । किंतु वह चांडाल स्त्री हटी नहीं । अपितु हाथ जोड़कर पूछने लगी - स्वामी ! मैं किस ओर सरकूं ? प्रभु की पवित्रता तो चारों ओर ही है । मैं अपनी अपवित्रता किस ओर ले जाऊं ?
मानों कोई परदा रामानुज की आंखों के सामने से हट गया हो । ऐसे उन्होंने उस स्त्री की ओर देखा । उसके वे थोड़े से शब्द उनकी सारी कठोरता बहा ले गये ।
श्रद्धावनत उन्होंने कहा - मां ! क्षमा करो । भीतर का मैल ही हमें बाहर दिखाई पड़ता है । जो भीतर की पवित्रता से आंखों को जांच लेता है । उसे चहुं ओर पावनता ही दिखाई देती है ।
प्रभु को देखने का कोई और मार्ग मैं नहीं जानता हूं । एक ही मार्ग है । और वह है - सब ओर पवित्रता का अनुभव होना । जो सब में पावन को देखने लगता है । वही । और केवल वही । प्रभु के दर्शन की कुंजी उपलब्ध कर पाता है ।