गगन सिषर महि बालक बोले ।
उसके सहस्रार में, उसके मस्तिष्क में शून्य 0 पैदा हो जाता है । जब सब विचार विदा हो जाते हैं । जब अहंकार विदा हो जाता है । जब मैं हूं । ऐसा भाव ही नहीं रह जाता । जब वहाँ सिर्फ होता है मौन । शांत, शून्य । इसको समाधि कहते हैं । जब समाधि फल जाती है । जब तुम जागरूक होते हो । मगर कोई चित्त में विचार की धारा नहीं बहती । विचार का मार्ग शून्य हो गया । शांत हो गया । कोई यात्री नहीं चलते । निर्विचार, निर्विषय चित्त हो गया । तुम सिर्फ शुद्ध दर्पण रह गये । जिसमें अब कोई छाया नहीं बनती । कोई प्रतिबिंब नहीं बनता । इस अवस्था में तुम्हारे भीतर का कमल खिलता है । तुम्हारे मस्तिष्क में शून्य 0 का जन्म होता है । वहां कोई चीज भरने वाली नहीं रह जाती । तुम सिर्फ 1 खाली, पवित्र रिक्तता मात्र रह जाते हो ।
गगन सिषर महि बालक बोले...।
और तब उसकी निर्दोष आवाज । जैसे छोटे बच्चे की किलकारी ! जैसे अभी अभी पैदा हुए बच्चे की आवाज ! नई नई, ताजी ताजी, सद्य:स्नात, नहाई नहाई कुंवारी आवाज सुनाई पड़ती है । उसका नाद अनुभव होता है । ऐसी ही अवस्था में मुहम्मद ने कुरान को सुना । ऐसी ही अवस्था में ऋषियों ने वेद सुने । ऐसी ही अवस्था में जगत के सारे महत्वपूर्ण शास्त्रों का जन्म हुआ है । वे सभी अपौरुषेय हैं । पुरुष ने उनका निर्माण नहीं किया है । आदमी के हाथ उनमें नहीं लगे हैं । परमात्मा बहा है । आदमी तो सिर्फ मार्ग बना है ।
गगन सिषर महि बालक बोले । ताका नांव धरहुगे कैसा ।
और वह निर्दोष स्वर जब भीतर उठता है । तो उसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता । वह अनाम है । उसे कोई विशेषण भी नहीं दिया जा सकता । क्योंकि सब विशेषण सीमा बांध देंगे । और वह असीम है । वह अनंत है । बिंदु सिंधु हो गया । बूंद उड़ गयी । आकाश हो गयी । अब कौन बोले । क्या बोले ? वहाँ से जब कोई लौटता है तो गूंगा । बिलकुल गूंगा हो जाता है । बोलता है बहुत । और और बातें बोलता है । कैसे वहां तक पहुंचो । यह बोलता है । किस मार्ग से पहुंचों ? यह बोलता है । किस विधि विधान से पहुंचोगे ? यह बोलता है । लेकिन वहां क्या हुआ । इस संबंध में बिलकुल चुप रह जाता है । कहता है - तुम्हीं चलो । तुम्हीं देखो । झरोखा कैसे खोलोगे । यह विधि बता देता हूं । ताली कौन सी चलाओगे । जिससे ताला खुल जाये । यह बता देता हूं । मगर जो दर्शन होगा । वह तो तुम जाओगे । तभी होगा । उस दर्शन को उधार कोई किसी को दे नहीं सकता ।
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं ।
लेकिन जिसको यह अनुभव हो गया है । उसके जीवन में तुम्हें कुछ चीजें दिखाई पड़ने लगेंगी । बड़े प्यारे वचन हैं । बड़े गहरे वचन हैं ।
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं...।
उसे तुम देखोगे हंसते हुए । खेलते हुए । जीवन उसके लिये लीला हो गया । उसे तुम गंभीर नहीं पाओगे । यह कसौटी है सदगुरु की । उसे तुम गंभीर और उदास नहीं पाओगे । तुम उसे हंसता हुआ पाओगे । हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं...।
उसके लिये सब हंसी खेल है । सब लीला है । इसलिये हमने कृष्ण को पूर्णावतार कहा । राम गंभीर हैं । छोटी छोटी बात का हिसाब रखते हैं । नियम मर्यादा से चलते हैं । मर्यादा पुरुषोत्तम हैं । कृष्ण अमर्याद है । न कोई नियम है । न कोई मर्यादा है । कृष्ण के लिये जीवन लीला है ।
जीवन 1 खेल है । इसको खेल से ज्यादा मत लेना । खेल से ज्यादा लिया कि बस उलझे । नाटक समझो । अभिनय समझो । अभिनय में कोई परेशान थोड़े ही होता है । जो अभिनय मिल गया है । उसी को मस्ती से कर देतां है । रावण भी बनना पड़ता है रामलीला में । किसी को ते कुछ परेशान थोड़े ही होता है । कोई दिल ही दिल में रोता थोड़े ही है कि हाय, मैं कैसा अभागा कि मुझे रावण बनना पड़ा । पर्दा हटते ही राम और रावण सब बराबर हो जाते हैं । यहाँ एक दूसरे की जान लेने को उतारू थे । पर्दे के पीछे जाकर देखना बैठे चाय पी रहे हैं । गपशप कर रहे हैं । सीताजी दोनों के बीच में बैठी हैं । न कोई चुराने का सवाल है । न कोई बचाने का सवाल है । जीवन 1 अभिनय है । लेकिन उसी के लिये पूर्ण अभिनय हो पाता है । जो शून्य 0 को उपलब्ध हो जाता है ।
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं..।
फिर तो ध्यान भी खेल ही है । हंसी ही है । मुझसे लोग पूछते हैं कि यह आपका आश्रम कैसा । यहां लोग हंसते हैं । नाचते हैं । खेलते हैं । कूदते हैं । और कैसा आश्रम हो सकता है ?
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं । अहनिसि कथिबा ब्रह्मगियानं ।
और फिर तो वह जो भी बोलता है । वही ब्रह्मज्ञान है । अहनिसि । जैसे उठता है । जैसे बोलता है । चुप रह जाये । तो चुप रहने में ब्रह्मज्ञान है । बोले तो बोलने में ब्रह्मज्ञान है । नाचे तो नाचने में ब्रह्मज्ञान है । और शात बैठ जाये । तो शात बैठ जाने में ब्रह्मज्ञान है । उसका सारा व्यक्तित्व ब्रह्म को समर्पित हो गया । समग्र को समर्पित हो गया । अब वह व्यक्ति अलग नहीं है । इसीलिये तो हंसता है । खेलता है । अब परमात्मा की लीला का अंग हो गया है ।
हंसै षेलै न करै मन भंग ?
इसलिये हंसो । और खेलो । और मन को व्यर्थ गंभीर करके दुखी और परेशान न हो जाओ । मन भंग न करो । ओशो
उसके सहस्रार में, उसके मस्तिष्क में शून्य 0 पैदा हो जाता है । जब सब विचार विदा हो जाते हैं । जब अहंकार विदा हो जाता है । जब मैं हूं । ऐसा भाव ही नहीं रह जाता । जब वहाँ सिर्फ होता है मौन । शांत, शून्य । इसको समाधि कहते हैं । जब समाधि फल जाती है । जब तुम जागरूक होते हो । मगर कोई चित्त में विचार की धारा नहीं बहती । विचार का मार्ग शून्य हो गया । शांत हो गया । कोई यात्री नहीं चलते । निर्विचार, निर्विषय चित्त हो गया । तुम सिर्फ शुद्ध दर्पण रह गये । जिसमें अब कोई छाया नहीं बनती । कोई प्रतिबिंब नहीं बनता । इस अवस्था में तुम्हारे भीतर का कमल खिलता है । तुम्हारे मस्तिष्क में शून्य 0 का जन्म होता है । वहां कोई चीज भरने वाली नहीं रह जाती । तुम सिर्फ 1 खाली, पवित्र रिक्तता मात्र रह जाते हो ।
गगन सिषर महि बालक बोले...।
और तब उसकी निर्दोष आवाज । जैसे छोटे बच्चे की किलकारी ! जैसे अभी अभी पैदा हुए बच्चे की आवाज ! नई नई, ताजी ताजी, सद्य:स्नात, नहाई नहाई कुंवारी आवाज सुनाई पड़ती है । उसका नाद अनुभव होता है । ऐसी ही अवस्था में मुहम्मद ने कुरान को सुना । ऐसी ही अवस्था में ऋषियों ने वेद सुने । ऐसी ही अवस्था में जगत के सारे महत्वपूर्ण शास्त्रों का जन्म हुआ है । वे सभी अपौरुषेय हैं । पुरुष ने उनका निर्माण नहीं किया है । आदमी के हाथ उनमें नहीं लगे हैं । परमात्मा बहा है । आदमी तो सिर्फ मार्ग बना है ।
गगन सिषर महि बालक बोले । ताका नांव धरहुगे कैसा ।
और वह निर्दोष स्वर जब भीतर उठता है । तो उसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता । वह अनाम है । उसे कोई विशेषण भी नहीं दिया जा सकता । क्योंकि सब विशेषण सीमा बांध देंगे । और वह असीम है । वह अनंत है । बिंदु सिंधु हो गया । बूंद उड़ गयी । आकाश हो गयी । अब कौन बोले । क्या बोले ? वहाँ से जब कोई लौटता है तो गूंगा । बिलकुल गूंगा हो जाता है । बोलता है बहुत । और और बातें बोलता है । कैसे वहां तक पहुंचो । यह बोलता है । किस मार्ग से पहुंचों ? यह बोलता है । किस विधि विधान से पहुंचोगे ? यह बोलता है । लेकिन वहां क्या हुआ । इस संबंध में बिलकुल चुप रह जाता है । कहता है - तुम्हीं चलो । तुम्हीं देखो । झरोखा कैसे खोलोगे । यह विधि बता देता हूं । ताली कौन सी चलाओगे । जिससे ताला खुल जाये । यह बता देता हूं । मगर जो दर्शन होगा । वह तो तुम जाओगे । तभी होगा । उस दर्शन को उधार कोई किसी को दे नहीं सकता ।
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं ।
लेकिन जिसको यह अनुभव हो गया है । उसके जीवन में तुम्हें कुछ चीजें दिखाई पड़ने लगेंगी । बड़े प्यारे वचन हैं । बड़े गहरे वचन हैं ।
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं...।
उसे तुम देखोगे हंसते हुए । खेलते हुए । जीवन उसके लिये लीला हो गया । उसे तुम गंभीर नहीं पाओगे । यह कसौटी है सदगुरु की । उसे तुम गंभीर और उदास नहीं पाओगे । तुम उसे हंसता हुआ पाओगे । हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं...।
उसके लिये सब हंसी खेल है । सब लीला है । इसलिये हमने कृष्ण को पूर्णावतार कहा । राम गंभीर हैं । छोटी छोटी बात का हिसाब रखते हैं । नियम मर्यादा से चलते हैं । मर्यादा पुरुषोत्तम हैं । कृष्ण अमर्याद है । न कोई नियम है । न कोई मर्यादा है । कृष्ण के लिये जीवन लीला है ।
जीवन 1 खेल है । इसको खेल से ज्यादा मत लेना । खेल से ज्यादा लिया कि बस उलझे । नाटक समझो । अभिनय समझो । अभिनय में कोई परेशान थोड़े ही होता है । जो अभिनय मिल गया है । उसी को मस्ती से कर देतां है । रावण भी बनना पड़ता है रामलीला में । किसी को ते कुछ परेशान थोड़े ही होता है । कोई दिल ही दिल में रोता थोड़े ही है कि हाय, मैं कैसा अभागा कि मुझे रावण बनना पड़ा । पर्दा हटते ही राम और रावण सब बराबर हो जाते हैं । यहाँ एक दूसरे की जान लेने को उतारू थे । पर्दे के पीछे जाकर देखना बैठे चाय पी रहे हैं । गपशप कर रहे हैं । सीताजी दोनों के बीच में बैठी हैं । न कोई चुराने का सवाल है । न कोई बचाने का सवाल है । जीवन 1 अभिनय है । लेकिन उसी के लिये पूर्ण अभिनय हो पाता है । जो शून्य 0 को उपलब्ध हो जाता है ।
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं..।
फिर तो ध्यान भी खेल ही है । हंसी ही है । मुझसे लोग पूछते हैं कि यह आपका आश्रम कैसा । यहां लोग हंसते हैं । नाचते हैं । खेलते हैं । कूदते हैं । और कैसा आश्रम हो सकता है ?
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं । अहनिसि कथिबा ब्रह्मगियानं ।
और फिर तो वह जो भी बोलता है । वही ब्रह्मज्ञान है । अहनिसि । जैसे उठता है । जैसे बोलता है । चुप रह जाये । तो चुप रहने में ब्रह्मज्ञान है । बोले तो बोलने में ब्रह्मज्ञान है । नाचे तो नाचने में ब्रह्मज्ञान है । और शात बैठ जाये । तो शात बैठ जाने में ब्रह्मज्ञान है । उसका सारा व्यक्तित्व ब्रह्म को समर्पित हो गया । समग्र को समर्पित हो गया । अब वह व्यक्ति अलग नहीं है । इसीलिये तो हंसता है । खेलता है । अब परमात्मा की लीला का अंग हो गया है ।
हंसै षेलै न करै मन भंग ?
इसलिये हंसो । और खेलो । और मन को व्यर्थ गंभीर करके दुखी और परेशान न हो जाओ । मन भंग न करो । ओशो
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