बुद्ध के पास 1 आदमी आया । उसने कहा - जो नहीं कहा जा सकता । वही सुनने आया हूं । बुद्ध ने आंखें बंद कर लीं । बुद्ध को आंखें बंद किये देख वह आदमी भी आंख बंद करके बैठ गया । आनंद पास ही बैठा था बुद्ध का अनुचर । सदा का सेवक । सजग हो गया कि मामला क्या है ? झपकी खा रहा होगा । बैठा बैठा करेगा क्या । जम्हाई ले रहा होगा । देखा कि मामला क्या है ? इस आदमी ने कहा - जो नहीं कहा जा सकता । वही सुनने आया हूं । और बुद्ध आंख बंद करके चुप भी हो गये । और यह भी आंख बंद करके बैठ गया । दोनों किसी मस्ती में खो गये । कहीं दूर..। शून्य में दोनों का जैसे मिलन होने लगा । आनंद देख रहा है । कुछ हो जरूर रहा है । मगर शब्द नहीं कहे जा रहे है । न इधर से । न उधर से । न ओंठ से बन रहे हैं शब्द । न कान तक जा रहे हैं शब्द । मगर कुछ हो जरूर रहा है । कुछ अदृश्य उपस्थिति उसे अनुभव हुई । जैसे किसी 1 ही आभामंडल में दोनों डूब गये । और वह आदमी आधी घड़ी बाद उठा । उसकी आंखों से आनंद के आंसू बह रहे थे । झुका बुद्ध के चरणों में । प्रणाम किये । और कहा - धन्य भाग मेरे ! बस ऐसे ही आदमी की तलाश में था । जो बिना कहे कह दे । और आपने खूब सुंदरता से कह दिया । मैं तृप्त होकर जा रहा हूं ।
वह आदमी रोता आनंदमग्न, बुद्ध से विदा हुआ । उसके विदा होते ही आनंद ने पूछा कि मामला क्या है ? हुआ क्या ? न आप कुछ बोले । न उसने कुछ सुना । और जब वह जाने लगा । और उसने आपके पैर छुए । तो आपने इतनी गहनता से उसे आशीष दिया । उसके सिर पर हाथ रखा । जैसा आप शायद ही कभी किसी के सिर पर हाथ रखते हों । बात क्या है । इसकी गुणवत्ता क्या थी ?
बुद्ध ने कहा - आनंद ! तू जानता है । जब तू जवान था । हम सब जवान थे । सगे भाई थे । चचेरे भाई थे । बुद्ध और आनंद, 1 ही राजघर में पले थे । एक ही साथ बड़े हुए थे । तो तुझे घोड़ों से बहुत प्रेम था । तू जानता है न । कुछ घोड़े होते हैं कि उनको मारो । तो भी ठिठक जाते हैं । मारते जाओ । तो भी नहीं हटते । बड़े जिद्दी होते हैं । फिर कुछ घोड़े होते हैं । उनको जरा चोट करो कि चल पड़ते हैं । फिर कुछ घोड़े होते हैं । उनको चोट नहीं करनी पड़ती । सिर्फ कोड़ा फटकारो । आवाज कर दो । मारो मत । और चल पड़ते हैं । और भी कुछ घोड़े होते हैं । तू जानता है भलीभांति । जिनको कोड़े की आवाज करना भी अपमानजनक मालूम होगा । जो सिर्फ कोड़े की छाया देखकर चलते हैं । यह उन्हीं घोड़ों में से 1 था । कोड़े की छाया । मैंने इससे कुछ कहा नहीं । मैं सिर्फ अपनी शून्यता में लीन हो गया । इसे बस मेरी छाया दिख गयी । सत्संग हो गया । इसका नाम सत्संग ।
और ऐसा नहीं है कि बुद्ध बोलते नहीं हैं । जो बोलना ही समझ सकते हैं । उनसे बोलते हैं । जो धीरे धीरे न बोलने को समझने लगते हैं । उनसे नहीं भी बोलते हैं । बोलना 'नहीं बोलने' की तैयारी है ।
सत्संग के 2 रूप हैं । एक जब गुरु बोलता है । क्योंकि अभी तुम बोलना ही समझ सकोगे । बोलना भी समझ जाओ तो बहुत । फिर दूसरी घड़ी आती है - परम घड़ी । जब बोलने का कोई सवाल नहीं रह जाता । जब गुरु बैठता है । तुम पास बैठे होते हो । इस घड़ी को पुराने दिनों में उपनिषद कहते थे । गुरु के पास बैठना । इसी पास बैठने में हमारे उपनिषद पैदा हुए हैं । उनका नाम भी उपनिषद पड़ गया । गुरु के पास बैठ बैठकर शून्य 0 में जो संगीत सुना गया था । उसको ही संग्रहीत किया गया है । उन्हीं से उपनिषद बने । उपनिषद का मतलब होता है - पास बैठना, सत्संग । ओशो
वह आदमी रोता आनंदमग्न, बुद्ध से विदा हुआ । उसके विदा होते ही आनंद ने पूछा कि मामला क्या है ? हुआ क्या ? न आप कुछ बोले । न उसने कुछ सुना । और जब वह जाने लगा । और उसने आपके पैर छुए । तो आपने इतनी गहनता से उसे आशीष दिया । उसके सिर पर हाथ रखा । जैसा आप शायद ही कभी किसी के सिर पर हाथ रखते हों । बात क्या है । इसकी गुणवत्ता क्या थी ?
बुद्ध ने कहा - आनंद ! तू जानता है । जब तू जवान था । हम सब जवान थे । सगे भाई थे । चचेरे भाई थे । बुद्ध और आनंद, 1 ही राजघर में पले थे । एक ही साथ बड़े हुए थे । तो तुझे घोड़ों से बहुत प्रेम था । तू जानता है न । कुछ घोड़े होते हैं कि उनको मारो । तो भी ठिठक जाते हैं । मारते जाओ । तो भी नहीं हटते । बड़े जिद्दी होते हैं । फिर कुछ घोड़े होते हैं । उनको जरा चोट करो कि चल पड़ते हैं । फिर कुछ घोड़े होते हैं । उनको चोट नहीं करनी पड़ती । सिर्फ कोड़ा फटकारो । आवाज कर दो । मारो मत । और चल पड़ते हैं । और भी कुछ घोड़े होते हैं । तू जानता है भलीभांति । जिनको कोड़े की आवाज करना भी अपमानजनक मालूम होगा । जो सिर्फ कोड़े की छाया देखकर चलते हैं । यह उन्हीं घोड़ों में से 1 था । कोड़े की छाया । मैंने इससे कुछ कहा नहीं । मैं सिर्फ अपनी शून्यता में लीन हो गया । इसे बस मेरी छाया दिख गयी । सत्संग हो गया । इसका नाम सत्संग ।
और ऐसा नहीं है कि बुद्ध बोलते नहीं हैं । जो बोलना ही समझ सकते हैं । उनसे बोलते हैं । जो धीरे धीरे न बोलने को समझने लगते हैं । उनसे नहीं भी बोलते हैं । बोलना 'नहीं बोलने' की तैयारी है ।
सत्संग के 2 रूप हैं । एक जब गुरु बोलता है । क्योंकि अभी तुम बोलना ही समझ सकोगे । बोलना भी समझ जाओ तो बहुत । फिर दूसरी घड़ी आती है - परम घड़ी । जब बोलने का कोई सवाल नहीं रह जाता । जब गुरु बैठता है । तुम पास बैठे होते हो । इस घड़ी को पुराने दिनों में उपनिषद कहते थे । गुरु के पास बैठना । इसी पास बैठने में हमारे उपनिषद पैदा हुए हैं । उनका नाम भी उपनिषद पड़ गया । गुरु के पास बैठ बैठकर शून्य 0 में जो संगीत सुना गया था । उसको ही संग्रहीत किया गया है । उन्हीं से उपनिषद बने । उपनिषद का मतलब होता है - पास बैठना, सत्संग । ओशो
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