जय श्री गुरुदेव, गुरूजी मेरा एक प्रश्न है कि चलते फिरते भजन कैसे करें ? क्योंकि चलते फिरते भजन करने पर ध्यान तो भटकेगा । और जब तक मन एक स्थान पर नहीं है । तो वो ध्यान कैसे हुआ ?
ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
भजन तथा काम दोनों एक साथ कैसे. वैसे चलते हुए भजन की सही विधि क्या है । व इसका आध्यत्मिक तथा भौतिक लाभ क्या है ?
गुरूजी की एक शिष्य
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लगभग दस महीने के अज्ञातवास के बाद एक बार फ़िर डेढ महीने से ‘चिन्ताहरण आश्रम’ में हूँ । ये ठीक ऐसा ही है । महीनों पूङी पराठें खाने के बाद रोटी का खाना 56 व्यंजन के समान लगे । अथवा मरीजी टायप मूंग की दाल की खिचङी भी ‘मोहन भोग’ लगे । बात विपरीत लग सकती है । पर बात परिवर्तन को लेकर है । आप आजमा कर देखें । कश्मीर या स्विटरजरलेंड जैसी वादियों से ऊब होने पर उजङी हवेलियां, भुतहा खंडहर, टूटे पुल भी उतन ही आकर्षक और सम्मोहक लगते हैं । जबकि जिन्हें प्राप्य नहीं । खूबसूरत वादियों की सिर्फ़ कल्पना भी उनके लिये स्वर्गिक ही है । अदृश्य परमात्मा, सुना हुआ सत्यलोक या सचखण्ड भी उनके लिये अति महत्वाकांक्षी महल है ।
शब्द बङे विचित्र होते हैं । इतने विचित्र ! कि हम उनके भी मायाजाल में फ़ंस जाते हैं । यदि हम उनके अस्तित्व को जानने की कोशिश न कर सिर्फ़ उनके सन्देश में बहते है ।
झूठलोक या झूठखण्ड से सत्यलोक सचखण्ड का सफ़र और फ़िर गुरु कृपा से वहाँ का स्थायी निवासी हो जाना । आवागमन का झंझट मिट जाना । रोग बुढापा दुख का सदा समाप्त हो जाना बराबर सत्यलोक और परमात्मा है ।
स्वयं अखण्ड परमात्मा ने मुख्यतया दो खण्ड, प्रथम सचखण्ड और दूसरा झूठखण्ड बनाया । जिनमें एक पारबृह्म का क्षेत्र कहलाता है । दूसरा काल निरंजन का । कुछ अधिक विद्वान आपत्ति उठा सकते हैं कि झूठखण्ड परमात्मा ने नहीं, काल निरंजन ने बनाया है । उठाईये, मुझे कोई आपत्ति नहीं । पर इनके लिये भूमि आवंटन ( अलाटमेंट ) किसी तीसरे जमींदार ( लेंडलार्ड ) ने किया होगा ?
सत्य में स्थित होना ही सचखण्ड है । जो सिर्फ़ आत्मिक है । मन में स्थित होना ही झूठखण्ड है । ऊपर मैंने लिखा - शब्द विचित्र होते हैं । इसलिये मैं कह रहा हूँ ।
तुम झूठलोक के झूठ से कभी ऊबते क्यों नहीं ?
शब्दों की गति, शब्दों का निर्माण, शब्दों की खाईयां, शब्दों की इमारतें, शब्दों की लय, शब्दों का बहाव..क्या कभी खोजा है ?
जिस दिन उपरोक्त कमेंट हुआ । उसी दिन मैंने फ़ेसबुक के किसी पेज पर लिखा देखा - Art of living without doing anything
बात अजीब सी है न । प्रश्न उठने से पहले उत्तर आ चुका था - Art of living without doing anything
बहुत कम शब्द, बहुत सटीक उत्तर - Art of living without doing anything
मैं बङे गौर से देखता हूँ शब्दों को । यह कहूँ तो गलत हो जायेगा । लेकिन आपके लिये वह देखना ऐसा है । यह सही है । मैं तो सामान्यतयाः गौर से ही देखता हूँ । मैं गौर से ही सामान्यतयाः देखता हूँ ।
उपरोक्त कमेंट में यदि ‘गुरूजी की एक शिष्य’ में यदि ‘की’ न लिखा होता । तो यह कहीं से भी स्त्री वर्ग में नहीं था । लेकिन सिर्फ़ इस एक ही शब्द के बाद ‘शिष्य’ लिखना उलझन पैदा करता है - ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
लगभग 4-5 पंक्तियों में किये प्रश्न में प्रश्नकर्ता ( या कर्ती ) ओशो का उदाहरण देते हुये मुझसे प्रश्न करता है ।
क्या उत्तर दूँ ? अब मेरे लिये यह प्रश्न है । क्योंकि शब्द खुद में विचित्र होते हैं । विचित्र ! उलझो मत । उनका सिर्फ़ एक चित्र बनाना मुमकिन नहीं है ।
या तो आपने ओशो को पढने सुनने में भूल की । या ओशो ने ऐसा मोटा अन्दाज बोलकर भूल की । लेकिन यह शोधार्थियों की खोज का विषय है - ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
दरअसल मन कभी 100% होता ही नहीं । यदि आप 100% को पूर्णता का मानक मानते हुये सिर्फ़ अंतःकरण के 25% मन भाग ( पार्ट ) को ही 100% मान लें । तो यह गलत तो नहीं होगा । लेकिन फ़िर ऐसा मन किसी काम का नहीं । यह ऐसे स्टेयरिंग की भांति होगा । जिसमें गति हेतु पहिये और इंजन न हो । और अकेला स्टेयरिंग वाहन का कार्य नहीं कर पायेगा । तब जाहिर है 100% मन से सक्रियता नहीं हो सकती । इसके लिये वाहन के अन्य तीन भाग - बुद्धि, चित्त, अहम का होना अनिवार्य है ।
आगे झगङा झंझट और भी है । जब दो प्रकार की निश्चयात्मक अनिश्चयात्मक बुद्धि सही गलत के निर्णय में बेहद अङचन पैदा करेगी । इसकी भी बारीकी में जायें । तो और भी बङा झमेला है । क्योंकि कोई गारंटी नहीं । बुद्धि सही पर ही निर्णय दे । कभी कभी यह गुणों के आधार पर ‘गलत’ को सही ठहरा देगी । अतः इसका भी भरोसा नहीं ।
एक तीसरा भाग ‘चित्त’ या तो चापलूस है । या बेहद मजबूर ? यह बुद्धि के विचारण के साथ ही तुरन्त ( इंस्टेंट ) विचारित आधारित दृश्य और भूमि तैयार करता रहेगा ।
हाँ अहम ( शरीर युक्त स्व होने का भाव ) बेचारा किंकर्तव्यविमूढ सा इनके निर्णय का इंतजार करेगा कि कब फ़ैसला हो । और कब ये शरीर रूपी वाहन सक्रिय हो ?
दोहराना आवश्यक तो नहीं लगता । पर सिर्फ़ 100% मन से आप हिल भी नहीं सकते ।
अतः जब मन बुद्धि चित्त अहम जुङे होंगे । तभी कार्य होगा ।
लेकिन जब ये चारों मिलकर 1 हो जाते हैं । तो उसको फ़िर मन नहीं ‘सुरति’ कहते हैं । और इस एकाग्रता में जो कार्य होता है । वह बुद्धि के बजाय ‘विवेक’ का होता है । और विवेक का निर्णय बुद्धि की भांति दो पक्षीय न होकर सिर्फ़ 1 पक्षीय ही ( ऐसा जिसका दूसरा पक्ष न हो ) सत्य ही होता है ।
जो प्रश्न किया गया । इसका उत्तर बहुत पहले दिया जा चुका है । सर पर ( बिना हाथ लगाये ) घङा लाती पनिहारिन की भांति । कछुवी के अंडे सेने की भांति, ये प्रसिद्ध उदाहरण हैं । तुलसीदास ने इस तरह बताया है ।
कर से कर्म करो विधि नाना । राखो ध्यान जहाँ कृपा निधाना ।
पर मेरा सोचना, इन सबमें नहीं है । कहाँ पुरानी बातों के चक्कर में पङते हैं ? आज की आपाधापी वाली जिन्दगी में एक साथ चार चार काम कौन नहीं कर रहा भला । और स्थिति अनुसार उन 4-5-6 कामों से महत्वपूर्ण काम पर सर्वाधिक ध्यान देना प्रयत्न करना क्या किसी को सिखाना पङता है ?
अतः भजन न कर पाने का बहाना ढूंङना या असमर्थता प्रकट करना बेकार है ।
अतः प्रश्न के नीचे यह लिखा होना - वैसे चलते हुए भजन की सही विधि क्या है । व इसका आध्यत्मिक तथा भौतिक लाभ क्या है ? बेहद हास्यास्प्रद है ।
ये ( पूरा प्रश्न ही ) तब और भी अधिक हास्यास्प्रद है जब इसके ठीक नीचे लिखा हो - गुरूजी की एक शिष्य
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आपने किसी गुरुजी से नामदीक्षा ली है ? या फ़िल्म एक्टिंग कोर्स में एडमिशन लिया है । पहले यह विचार करें ?
ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
भजन तथा काम दोनों एक साथ कैसे. वैसे चलते हुए भजन की सही विधि क्या है । व इसका आध्यत्मिक तथा भौतिक लाभ क्या है ?
गुरूजी की एक शिष्य
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लगभग दस महीने के अज्ञातवास के बाद एक बार फ़िर डेढ महीने से ‘चिन्ताहरण आश्रम’ में हूँ । ये ठीक ऐसा ही है । महीनों पूङी पराठें खाने के बाद रोटी का खाना 56 व्यंजन के समान लगे । अथवा मरीजी टायप मूंग की दाल की खिचङी भी ‘मोहन भोग’ लगे । बात विपरीत लग सकती है । पर बात परिवर्तन को लेकर है । आप आजमा कर देखें । कश्मीर या स्विटरजरलेंड जैसी वादियों से ऊब होने पर उजङी हवेलियां, भुतहा खंडहर, टूटे पुल भी उतन ही आकर्षक और सम्मोहक लगते हैं । जबकि जिन्हें प्राप्य नहीं । खूबसूरत वादियों की सिर्फ़ कल्पना भी उनके लिये स्वर्गिक ही है । अदृश्य परमात्मा, सुना हुआ सत्यलोक या सचखण्ड भी उनके लिये अति महत्वाकांक्षी महल है ।
शब्द बङे विचित्र होते हैं । इतने विचित्र ! कि हम उनके भी मायाजाल में फ़ंस जाते हैं । यदि हम उनके अस्तित्व को जानने की कोशिश न कर सिर्फ़ उनके सन्देश में बहते है ।
झूठलोक या झूठखण्ड से सत्यलोक सचखण्ड का सफ़र और फ़िर गुरु कृपा से वहाँ का स्थायी निवासी हो जाना । आवागमन का झंझट मिट जाना । रोग बुढापा दुख का सदा समाप्त हो जाना बराबर सत्यलोक और परमात्मा है ।
स्वयं अखण्ड परमात्मा ने मुख्यतया दो खण्ड, प्रथम सचखण्ड और दूसरा झूठखण्ड बनाया । जिनमें एक पारबृह्म का क्षेत्र कहलाता है । दूसरा काल निरंजन का । कुछ अधिक विद्वान आपत्ति उठा सकते हैं कि झूठखण्ड परमात्मा ने नहीं, काल निरंजन ने बनाया है । उठाईये, मुझे कोई आपत्ति नहीं । पर इनके लिये भूमि आवंटन ( अलाटमेंट ) किसी तीसरे जमींदार ( लेंडलार्ड ) ने किया होगा ?
सत्य में स्थित होना ही सचखण्ड है । जो सिर्फ़ आत्मिक है । मन में स्थित होना ही झूठखण्ड है । ऊपर मैंने लिखा - शब्द विचित्र होते हैं । इसलिये मैं कह रहा हूँ ।
तुम झूठलोक के झूठ से कभी ऊबते क्यों नहीं ?
शब्दों की गति, शब्दों का निर्माण, शब्दों की खाईयां, शब्दों की इमारतें, शब्दों की लय, शब्दों का बहाव..क्या कभी खोजा है ?
जिस दिन उपरोक्त कमेंट हुआ । उसी दिन मैंने फ़ेसबुक के किसी पेज पर लिखा देखा - Art of living without doing anything
बात अजीब सी है न । प्रश्न उठने से पहले उत्तर आ चुका था - Art of living without doing anything
बहुत कम शब्द, बहुत सटीक उत्तर - Art of living without doing anything
मैं बङे गौर से देखता हूँ शब्दों को । यह कहूँ तो गलत हो जायेगा । लेकिन आपके लिये वह देखना ऐसा है । यह सही है । मैं तो सामान्यतयाः गौर से ही देखता हूँ । मैं गौर से ही सामान्यतयाः देखता हूँ ।
उपरोक्त कमेंट में यदि ‘गुरूजी की एक शिष्य’ में यदि ‘की’ न लिखा होता । तो यह कहीं से भी स्त्री वर्ग में नहीं था । लेकिन सिर्फ़ इस एक ही शब्द के बाद ‘शिष्य’ लिखना उलझन पैदा करता है - ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
लगभग 4-5 पंक्तियों में किये प्रश्न में प्रश्नकर्ता ( या कर्ती ) ओशो का उदाहरण देते हुये मुझसे प्रश्न करता है ।
क्या उत्तर दूँ ? अब मेरे लिये यह प्रश्न है । क्योंकि शब्द खुद में विचित्र होते हैं । विचित्र ! उलझो मत । उनका सिर्फ़ एक चित्र बनाना मुमकिन नहीं है ।
या तो आपने ओशो को पढने सुनने में भूल की । या ओशो ने ऐसा मोटा अन्दाज बोलकर भूल की । लेकिन यह शोधार्थियों की खोज का विषय है - ओशो कहते हैं कि जो भी करो 100% मन से करो । ये भी एक ध्यान है ।
दरअसल मन कभी 100% होता ही नहीं । यदि आप 100% को पूर्णता का मानक मानते हुये सिर्फ़ अंतःकरण के 25% मन भाग ( पार्ट ) को ही 100% मान लें । तो यह गलत तो नहीं होगा । लेकिन फ़िर ऐसा मन किसी काम का नहीं । यह ऐसे स्टेयरिंग की भांति होगा । जिसमें गति हेतु पहिये और इंजन न हो । और अकेला स्टेयरिंग वाहन का कार्य नहीं कर पायेगा । तब जाहिर है 100% मन से सक्रियता नहीं हो सकती । इसके लिये वाहन के अन्य तीन भाग - बुद्धि, चित्त, अहम का होना अनिवार्य है ।
आगे झगङा झंझट और भी है । जब दो प्रकार की निश्चयात्मक अनिश्चयात्मक बुद्धि सही गलत के निर्णय में बेहद अङचन पैदा करेगी । इसकी भी बारीकी में जायें । तो और भी बङा झमेला है । क्योंकि कोई गारंटी नहीं । बुद्धि सही पर ही निर्णय दे । कभी कभी यह गुणों के आधार पर ‘गलत’ को सही ठहरा देगी । अतः इसका भी भरोसा नहीं ।
एक तीसरा भाग ‘चित्त’ या तो चापलूस है । या बेहद मजबूर ? यह बुद्धि के विचारण के साथ ही तुरन्त ( इंस्टेंट ) विचारित आधारित दृश्य और भूमि तैयार करता रहेगा ।
हाँ अहम ( शरीर युक्त स्व होने का भाव ) बेचारा किंकर्तव्यविमूढ सा इनके निर्णय का इंतजार करेगा कि कब फ़ैसला हो । और कब ये शरीर रूपी वाहन सक्रिय हो ?
दोहराना आवश्यक तो नहीं लगता । पर सिर्फ़ 100% मन से आप हिल भी नहीं सकते ।
अतः जब मन बुद्धि चित्त अहम जुङे होंगे । तभी कार्य होगा ।
लेकिन जब ये चारों मिलकर 1 हो जाते हैं । तो उसको फ़िर मन नहीं ‘सुरति’ कहते हैं । और इस एकाग्रता में जो कार्य होता है । वह बुद्धि के बजाय ‘विवेक’ का होता है । और विवेक का निर्णय बुद्धि की भांति दो पक्षीय न होकर सिर्फ़ 1 पक्षीय ही ( ऐसा जिसका दूसरा पक्ष न हो ) सत्य ही होता है ।
जो प्रश्न किया गया । इसका उत्तर बहुत पहले दिया जा चुका है । सर पर ( बिना हाथ लगाये ) घङा लाती पनिहारिन की भांति । कछुवी के अंडे सेने की भांति, ये प्रसिद्ध उदाहरण हैं । तुलसीदास ने इस तरह बताया है ।
कर से कर्म करो विधि नाना । राखो ध्यान जहाँ कृपा निधाना ।
पर मेरा सोचना, इन सबमें नहीं है । कहाँ पुरानी बातों के चक्कर में पङते हैं ? आज की आपाधापी वाली जिन्दगी में एक साथ चार चार काम कौन नहीं कर रहा भला । और स्थिति अनुसार उन 4-5-6 कामों से महत्वपूर्ण काम पर सर्वाधिक ध्यान देना प्रयत्न करना क्या किसी को सिखाना पङता है ?
अतः भजन न कर पाने का बहाना ढूंङना या असमर्थता प्रकट करना बेकार है ।
अतः प्रश्न के नीचे यह लिखा होना - वैसे चलते हुए भजन की सही विधि क्या है । व इसका आध्यत्मिक तथा भौतिक लाभ क्या है ? बेहद हास्यास्प्रद है ।
ये ( पूरा प्रश्न ही ) तब और भी अधिक हास्यास्प्रद है जब इसके ठीक नीचे लिखा हो - गुरूजी की एक शिष्य
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आपने किसी गुरुजी से नामदीक्षा ली है ? या फ़िल्म एक्टिंग कोर्स में एडमिशन लिया है । पहले यह विचार करें ?