कहावत है - काठ की हांडी अधिक देर नहीं चढती । कागज के फ़ूलों में खुशबू नहीं आती और शेर की खाल ओढ लेने से सियार शेर नहीं हो जाता । सनातन धर्म के हास होने में यह कहावतें सटीक हैं । इन कहावतों पर गौर करने पर पता लगता है । एक चीज इनमें कामन है - असली के रूप में अन्दर नकली ।
लेकिन कहावतें और भी हैं - सांच को आंच नहीं होती । हीरे को अपना मोल नहीं बताना होता । सत्य कभी छुपता नहीं ।
परन्तु बात और भी है - यहाँ खरबूजे को देखकर खरबूजा अधिक रंग बदलता है । जमाना भेङचाल से सदा प्रभावित रहा है । अक्सर हमारे बहुत से कार्य अकारण अज्ञात और उद्देश्यहीन होते हैं ।
परेशानी यह है कि - हम अपना ही कहा हुआ नहीं विचारते । हम कह क्या रहे हैं और कर क्या रहे हैं । हमारा लक्ष्य क्या है और जा किधर रहे हैं ?
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मुझे एक मजेदार बात याद आती है । किसी धार्मिक चैनल से मेरे लिये फ़ोन था । वह श्री महाराज जी की भागवत कथा या प्रवचन या जीवन्त प्रसारण के लिये आग्रह कर धीरे धीरे व्यवसायिक मोलतोल पर आ रहे थे । मैंने उसी दिन उन्हें गारंटी दी कि - यदि महाराज जी कभी भी प्रवचन करेंगे । तो उसका लाइव टेलीकास्ट आपके यहाँ से ही करायेंगे ।
दरअसल यह पुरानी बात अक्सर की और कल की नयी बात से जुङती है । हमारे यहाँ विभिन्न भगवत प्रेमियों के आग्रह पर साप्ताहिक सतसंग रविवार को बारह से चार होता है । जिसमें तरह तरह के महात्मा बारी बारी से अपना उपदेश करते हैं । सबसे अन्त में नियमानुसार श्री महाराज जी का होता है ।
जब पूर्व के महात्मा लोभ, लालच, आचरण, समाज सुधार जैसी बातों को आधार बनाकर उससे जीवन सफ़ल होना उद्देश्य पूर्ति होना मनुष्य की उत्कृष्टता सिद्ध होना पर बोल चुके होते हैं । तब गुरुदेव का उपदेश उनके लिये आघात पहुंचाने वाला होता है ( क्योंकि वह इन सब कार्यों भावनाओं का सम्बन्ध परमात्म प्राप्ति से जोङ रहे होते हैं )
वह यह - परमात्मा कहीं खोया नहीं है । जो उसे खोज रहे हो । परमात्मा कोई वस्तु नहीं । जो उसे प्राप्त कर लोगे । परमात्मा को प्राप्त करने का कोई साधन नहीं है - यह गुन साधन से नहिं होई । तुम्हरी कृपा पाय कोई कोई ।
परमात्मा को प्राप्त करने का कोई मार्ग भी नहीं है -
पंथा पंथी कहे जमाना । निरपंथी कोई बिरला जाना ।
सोई जानहि जाहि देयु जनाही । जानत तुमहि तुमहि हुय जाही ।
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ऐसी ही कुछ बातें ।
संकर ‘सहज स्वरूप’ संवारा । लागि समाधि अखंड अपारा ।
शिष्यों की तेजी से बढती संख्या को देखकर गुरुदेव ने हंसदीक्षा ( जीव का ज्ञान स्वरूप या ज्ञान बोध ) के साथ साथ ‘समाधि दीक्षा’ भी साथ ही देना शुरू कर दिया । पहले समाधि दीक्षा पात्रता के अनुसार हंस ज्ञान के परिपक्व हो जाने पर कोई एक वर्ष बाद दी जाती थी । इससे अनोखा लाभ यह है कि ध्यान का सही अभ्यास न कर पाने वाला साधक समाधि दीक्षा हो जाने से सुगमता से ध्यान कर लेता है ।
नोट - हमारे जिन शिष्यों की हंस दीक्षा या परमहंस दीक्षा हो चुकी है । परन्तु समाधि दीक्षा नहीं हुयी । वो आश्रम से सम्पर्क करके शीघ्र दीक्षा ले लें ।
रामायण की इस चौपाई में शंकर जी जो ‘सहज स्वरूप’ संवारते हैं । इसी को समाधि दीक्षा में दिया जाता है । यह सिर्फ़ समर्थ गुरु के आदेश से क्रियाशील होती है । मेरे अनुमान से अभी हमारे यहाँ एक हजार से ऊपर समाधि साधक होंगे । ध्यान साधक कई हजार हैं ।
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सनमुख होय जीव मोहि जबहीं । कोटि जन्म अघ नासों तबहीं ।
समाधि के विभिन्न चरणों में गिरते गिरते जब सभी असार गिर जाता है । तब सार शाश्वत आत्मा ( परमात्मा ) ही प्रकाशित होता है । यही वो क्षण है । जब सनमुख होने से करोङों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं ।
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जब हंसा परमहंस हुय जावे । पारबृह्म परमात्मा साफ़ साफ़ दिखलावे ।
परमहंस का ध्यान करना हंस और समाधि ज्ञान की तुलना में कुछ कठिन है । शुरूआत में आंखों से लेकर कपाल तक में एक तनाव और भारीपन सा हो जाता है । दूसरे यह वक्री दिशा ध्यान है । यानी आपका चेहरा जिस तरफ़ है । उससे कोई बीस डिग्री झुकाव पर बिना चेहरा मोङे ध्यान करना । जैसे नब्बे अंश पर आपका चेहरा एकदम सीधा है । तब सत्तर अंश पर ऊपर की तरफ़ ध्यान केन्द्रित करना । यहीं प्रथम मोक्ष द्वार है ।
लेकिन इस ध्यान को सरल करने में हंस अभ्यास और समाधि अभ्यास से सुगमता हो जाती है । क्योंकि इससे साधक में कृमशः सूक्ष्मता आती रहती है ।
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मम दरसन फ़ल परम अनूपा । जीव पाय जब सहज सरूपा ।
मेरे ( परमात्मा के ) दर्शन का फ़ल अनुपम है । जीव जब अपने सहज स्वरूप में स्थित हो जाता है । उसे सहज ही मेरा दर्शन हो जाता है ।
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सबसे ऊपर मैंने जो लिखा । वह हमारे यहाँ प्रचलित तमाम मंडलों से आने वालों के निराशाजनक अनुभवों पर है । जिसमें वाणी द्वारा एक या पांच छह नाम जपना, सिर से एक हाथ ऊपर ध्यान करना या गुरु द्वारा कहना - चिन्ता न करो मैं सबको सत्यलोक ले जाऊंगा..जैसी मिथ्या बातें हैं ।
मजे की बात यह है यह सब कबीर के नाम पर हो रहा है । लेकिन झूठ से लोगों को कब तक भरमाया जा सकता है । रोटी कहने से भूख और जल कहने से प्यास नहीं बुझती । शान्त आनन्दस्वरूप सच्चिदानन्द के दर्शन के बाद ही यह प्यास तृप्त होगी ।
लेकिन कहावतें और भी हैं - सांच को आंच नहीं होती । हीरे को अपना मोल नहीं बताना होता । सत्य कभी छुपता नहीं ।
परन्तु बात और भी है - यहाँ खरबूजे को देखकर खरबूजा अधिक रंग बदलता है । जमाना भेङचाल से सदा प्रभावित रहा है । अक्सर हमारे बहुत से कार्य अकारण अज्ञात और उद्देश्यहीन होते हैं ।
परेशानी यह है कि - हम अपना ही कहा हुआ नहीं विचारते । हम कह क्या रहे हैं और कर क्या रहे हैं । हमारा लक्ष्य क्या है और जा किधर रहे हैं ?
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मुझे एक मजेदार बात याद आती है । किसी धार्मिक चैनल से मेरे लिये फ़ोन था । वह श्री महाराज जी की भागवत कथा या प्रवचन या जीवन्त प्रसारण के लिये आग्रह कर धीरे धीरे व्यवसायिक मोलतोल पर आ रहे थे । मैंने उसी दिन उन्हें गारंटी दी कि - यदि महाराज जी कभी भी प्रवचन करेंगे । तो उसका लाइव टेलीकास्ट आपके यहाँ से ही करायेंगे ।
दरअसल यह पुरानी बात अक्सर की और कल की नयी बात से जुङती है । हमारे यहाँ विभिन्न भगवत प्रेमियों के आग्रह पर साप्ताहिक सतसंग रविवार को बारह से चार होता है । जिसमें तरह तरह के महात्मा बारी बारी से अपना उपदेश करते हैं । सबसे अन्त में नियमानुसार श्री महाराज जी का होता है ।
जब पूर्व के महात्मा लोभ, लालच, आचरण, समाज सुधार जैसी बातों को आधार बनाकर उससे जीवन सफ़ल होना उद्देश्य पूर्ति होना मनुष्य की उत्कृष्टता सिद्ध होना पर बोल चुके होते हैं । तब गुरुदेव का उपदेश उनके लिये आघात पहुंचाने वाला होता है ( क्योंकि वह इन सब कार्यों भावनाओं का सम्बन्ध परमात्म प्राप्ति से जोङ रहे होते हैं )
वह यह - परमात्मा कहीं खोया नहीं है । जो उसे खोज रहे हो । परमात्मा कोई वस्तु नहीं । जो उसे प्राप्त कर लोगे । परमात्मा को प्राप्त करने का कोई साधन नहीं है - यह गुन साधन से नहिं होई । तुम्हरी कृपा पाय कोई कोई ।
परमात्मा को प्राप्त करने का कोई मार्ग भी नहीं है -
पंथा पंथी कहे जमाना । निरपंथी कोई बिरला जाना ।
सोई जानहि जाहि देयु जनाही । जानत तुमहि तुमहि हुय जाही ।
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ऐसी ही कुछ बातें ।
संकर ‘सहज स्वरूप’ संवारा । लागि समाधि अखंड अपारा ।
शिष्यों की तेजी से बढती संख्या को देखकर गुरुदेव ने हंसदीक्षा ( जीव का ज्ञान स्वरूप या ज्ञान बोध ) के साथ साथ ‘समाधि दीक्षा’ भी साथ ही देना शुरू कर दिया । पहले समाधि दीक्षा पात्रता के अनुसार हंस ज्ञान के परिपक्व हो जाने पर कोई एक वर्ष बाद दी जाती थी । इससे अनोखा लाभ यह है कि ध्यान का सही अभ्यास न कर पाने वाला साधक समाधि दीक्षा हो जाने से सुगमता से ध्यान कर लेता है ।
नोट - हमारे जिन शिष्यों की हंस दीक्षा या परमहंस दीक्षा हो चुकी है । परन्तु समाधि दीक्षा नहीं हुयी । वो आश्रम से सम्पर्क करके शीघ्र दीक्षा ले लें ।
रामायण की इस चौपाई में शंकर जी जो ‘सहज स्वरूप’ संवारते हैं । इसी को समाधि दीक्षा में दिया जाता है । यह सिर्फ़ समर्थ गुरु के आदेश से क्रियाशील होती है । मेरे अनुमान से अभी हमारे यहाँ एक हजार से ऊपर समाधि साधक होंगे । ध्यान साधक कई हजार हैं ।
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सनमुख होय जीव मोहि जबहीं । कोटि जन्म अघ नासों तबहीं ।
समाधि के विभिन्न चरणों में गिरते गिरते जब सभी असार गिर जाता है । तब सार शाश्वत आत्मा ( परमात्मा ) ही प्रकाशित होता है । यही वो क्षण है । जब सनमुख होने से करोङों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं ।
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जब हंसा परमहंस हुय जावे । पारबृह्म परमात्मा साफ़ साफ़ दिखलावे ।
परमहंस का ध्यान करना हंस और समाधि ज्ञान की तुलना में कुछ कठिन है । शुरूआत में आंखों से लेकर कपाल तक में एक तनाव और भारीपन सा हो जाता है । दूसरे यह वक्री दिशा ध्यान है । यानी आपका चेहरा जिस तरफ़ है । उससे कोई बीस डिग्री झुकाव पर बिना चेहरा मोङे ध्यान करना । जैसे नब्बे अंश पर आपका चेहरा एकदम सीधा है । तब सत्तर अंश पर ऊपर की तरफ़ ध्यान केन्द्रित करना । यहीं प्रथम मोक्ष द्वार है ।
लेकिन इस ध्यान को सरल करने में हंस अभ्यास और समाधि अभ्यास से सुगमता हो जाती है । क्योंकि इससे साधक में कृमशः सूक्ष्मता आती रहती है ।
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मम दरसन फ़ल परम अनूपा । जीव पाय जब सहज सरूपा ।
मेरे ( परमात्मा के ) दर्शन का फ़ल अनुपम है । जीव जब अपने सहज स्वरूप में स्थित हो जाता है । उसे सहज ही मेरा दर्शन हो जाता है ।
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सबसे ऊपर मैंने जो लिखा । वह हमारे यहाँ प्रचलित तमाम मंडलों से आने वालों के निराशाजनक अनुभवों पर है । जिसमें वाणी द्वारा एक या पांच छह नाम जपना, सिर से एक हाथ ऊपर ध्यान करना या गुरु द्वारा कहना - चिन्ता न करो मैं सबको सत्यलोक ले जाऊंगा..जैसी मिथ्या बातें हैं ।
मजे की बात यह है यह सब कबीर के नाम पर हो रहा है । लेकिन झूठ से लोगों को कब तक भरमाया जा सकता है । रोटी कहने से भूख और जल कहने से प्यास नहीं बुझती । शान्त आनन्दस्वरूप सच्चिदानन्द के दर्शन के बाद ही यह प्यास तृप्त होगी ।
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