इश्क-हकीकी को बयान करती ये दो सूफ़ी रचनायें किसकी हैं, ये तो ज्ञात नही । पर ये आत्मा के उस ‘चरम बिन्दु’ को उपलब्ध होने को अवश्य सूचित करती हैं । जब ‘मैं और तू’ का पर्दा बहुत झीना होकर ‘खुद और खुदा’ ही रह जाता है ।
तमाशा ए जहान है, और भरे हैं सब तमाशाई ।
न सूरत अपने दिलवर सी, कहीं अब तक नजर आई ।
न उसका देखने वाला, न मेरा पूछने वाला ।
इधर ये बेकसी अपनी, उधर उसकी ये तनहाई । (बेकसी-मजबूरी)
मुझे ये धुन, कि उसके तालवों में नाम हो जाये । (तालवों-जिज्ञासुओं)
उसे ये कद कि, पहले देख लो है यह भी सौदाई । (कद-ख्याल, हठ)
मुझे मतलूब दीदार उसका, इक खिल्वत के आलम में । (मतलूब-जरूरत) (खिल्वत-एकान्त)
उसे मंजूर मेरी आजमायश, मेरी रुसवाई ।
मुझे घङका, कि आजुर्दा न हो मुझ से कुच्छ दिल में । (आजुर्दा-नाराज)
उसे शिकवा कि, क्यों तूने तबियत अपनी भटकाई ।
मैं कहता हूँ कि, तेरा हुसन आलम-सोज है जाना । (आलम-सोज-जगत)
वह कहता है कि, क्या हो गर करूँ मैं जुल्फ़ आराई । (जुल्फ़ आराई-सजाना)
मैं कहता हूँ कि, तुझ पर इक जमाना जान देता है ।
वह कहता है कि, हाँ बेइन्तहा है मेरे शैदाई । (शैदाई-आशिक)
मैं कहता हूँ कि, दिलवर ! मैं नहीं हूँ क्या तेरा आशिक ।
वह कहता है कि, मैं तो रखता हूँ ऐसी ही रानाई । (रानाई-सुन्दरता)
मैं कहता हूँ कि, तू नजरों से मेरी क्यों हुआ ओझल ।
वह कहता है, यही अपनी अदा मुझको पसन्द आई ।
मैं कहता हूँ, कि तेरा ये हुस्न और देखूँ न मैं उसको ।
वह कहता है कि, मैं खुद देखता हूँ अपनी जेवाई । (जेवाई-खूबसूरती)
मैं कहता हूँ कि, हद पर्दा की आखर तावकै परदा । (तावकै-आत्मवेत्ता)
वह कहता है कि, कोई जब तक न हो अपना शनासाई । (शनासाई-जुदाई सहना)
मैं कहता हूँ कि अब मुझ को नही है ताव फ़ुर्कत की ।
वह कहता है कि, आशिक हो के कैसी ना-शिकेवाई ।
मैं कहता हूँ कि, सूरत अपनी दिखला दीजिये मुझको ।
वह कहता है कि, सूरत मेरी किसको देगी दिखलाई ?
मैं कहता हूँ कि, जाना अब तो मेरी जान जाती है ।
वह कहता है कि, दिल में याद कर क्यों कर थी वह आई ?
मैं कहता हूँ कि, इक झलकी है काफ़ी मेरी तसकीं को । (तसकीं-तसल्ली)
वह कहता है कि, वामे-तूर पर थी क्या निदा आई । (वामेतूर-ज्ञान का शिखर । निदा-आवाज)
मैं कहता हूँ कि, मुझ बेसबर को किस तौर सबर आये ।
वह कहता है कि, मेरी याद की लज्जत नही पाई ।
मैं कहता हूँ कि, ये दाम-ए-इश्क बेढव तू ने फ़ैलाया । (दाम-ए-इश्क-इश्क का फ़ंदा)
वह कहता है कि, मेरी खुदपसन्दी मेरी खुदराई । (खुदराई-स्वयं बनाई हुयी)
--------------
इक ही दिल था, सो भी दिलवर ले गया अब क्या करूँ ।
दूसरा पाता नहीं, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
ले चुका था जाने जाना, जां को पहिले हाथ से ।
फ़िर भी हमले कर रहा, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
हम तो दर पर मुन्तजर थे, तिशन-ए-दीदार के ।
पहुँचते बिसमिल किया, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
याद्दाश्त के लिये, रहता था फ़ोटो जिस्मो जां ।
वह भी जायल कर दिया, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
यार के मुँह पर झरोखे, से नजर इक जा पङी ।
देखते घायल हुआ, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
आप को भी कत्ल कर, फ़िर आप ही इक रह गये ।
वाह नजाकत आपकी, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
(तिशन-ए-दीदार-दर्शन के प्यासे) (जायल-नष्ट)
तमाशा ए जहान है, और भरे हैं सब तमाशाई ।
न सूरत अपने दिलवर सी, कहीं अब तक नजर आई ।
न उसका देखने वाला, न मेरा पूछने वाला ।
इधर ये बेकसी अपनी, उधर उसकी ये तनहाई । (बेकसी-मजबूरी)
मुझे ये धुन, कि उसके तालवों में नाम हो जाये । (तालवों-जिज्ञासुओं)
उसे ये कद कि, पहले देख लो है यह भी सौदाई । (कद-ख्याल, हठ)
मुझे मतलूब दीदार उसका, इक खिल्वत के आलम में । (मतलूब-जरूरत) (खिल्वत-एकान्त)
उसे मंजूर मेरी आजमायश, मेरी रुसवाई ।
मुझे घङका, कि आजुर्दा न हो मुझ से कुच्छ दिल में । (आजुर्दा-नाराज)
उसे शिकवा कि, क्यों तूने तबियत अपनी भटकाई ।
मैं कहता हूँ कि, तेरा हुसन आलम-सोज है जाना । (आलम-सोज-जगत)
वह कहता है कि, क्या हो गर करूँ मैं जुल्फ़ आराई । (जुल्फ़ आराई-सजाना)
मैं कहता हूँ कि, तुझ पर इक जमाना जान देता है ।
वह कहता है कि, हाँ बेइन्तहा है मेरे शैदाई । (शैदाई-आशिक)
मैं कहता हूँ कि, दिलवर ! मैं नहीं हूँ क्या तेरा आशिक ।
वह कहता है कि, मैं तो रखता हूँ ऐसी ही रानाई । (रानाई-सुन्दरता)
मैं कहता हूँ कि, तू नजरों से मेरी क्यों हुआ ओझल ।
वह कहता है, यही अपनी अदा मुझको पसन्द आई ।
मैं कहता हूँ, कि तेरा ये हुस्न और देखूँ न मैं उसको ।
वह कहता है कि, मैं खुद देखता हूँ अपनी जेवाई । (जेवाई-खूबसूरती)
मैं कहता हूँ कि, हद पर्दा की आखर तावकै परदा । (तावकै-आत्मवेत्ता)
वह कहता है कि, कोई जब तक न हो अपना शनासाई । (शनासाई-जुदाई सहना)
मैं कहता हूँ कि अब मुझ को नही है ताव फ़ुर्कत की ।
वह कहता है कि, आशिक हो के कैसी ना-शिकेवाई ।
मैं कहता हूँ कि, सूरत अपनी दिखला दीजिये मुझको ।
वह कहता है कि, सूरत मेरी किसको देगी दिखलाई ?
मैं कहता हूँ कि, जाना अब तो मेरी जान जाती है ।
वह कहता है कि, दिल में याद कर क्यों कर थी वह आई ?
मैं कहता हूँ कि, इक झलकी है काफ़ी मेरी तसकीं को । (तसकीं-तसल्ली)
वह कहता है कि, वामे-तूर पर थी क्या निदा आई । (वामेतूर-ज्ञान का शिखर । निदा-आवाज)
मैं कहता हूँ कि, मुझ बेसबर को किस तौर सबर आये ।
वह कहता है कि, मेरी याद की लज्जत नही पाई ।
मैं कहता हूँ कि, ये दाम-ए-इश्क बेढव तू ने फ़ैलाया । (दाम-ए-इश्क-इश्क का फ़ंदा)
वह कहता है कि, मेरी खुदपसन्दी मेरी खुदराई । (खुदराई-स्वयं बनाई हुयी)
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इक ही दिल था, सो भी दिलवर ले गया अब क्या करूँ ।
दूसरा पाता नहीं, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
ले चुका था जाने जाना, जां को पहिले हाथ से ।
फ़िर भी हमले कर रहा, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
हम तो दर पर मुन्तजर थे, तिशन-ए-दीदार के ।
पहुँचते बिसमिल किया, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
याद्दाश्त के लिये, रहता था फ़ोटो जिस्मो जां ।
वह भी जायल कर दिया, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
यार के मुँह पर झरोखे, से नजर इक जा पङी ।
देखते घायल हुआ, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
आप को भी कत्ल कर, फ़िर आप ही इक रह गये ।
वाह नजाकत आपकी, किसको कहूँ अब क्या करूँ ।
(तिशन-ए-दीदार-दर्शन के प्यासे) (जायल-नष्ट)