मुझे याद है, आगरा में हमारे परिचित के यहाँ 10-12 गोरे (अंग्रेज) लोग मेहमान हुये थे ।
वे लगभग एक सप्ताह रहे ।
गृह स्वामिनी ने देखा कि वे शौच में जल के बजाय सिर्फ़ टिशू पेपर उपयोग करते हैं और प्रायः शौच के बाद हाथ नही धोते ।
उनको गोरों की एक सप्ताह की मेजबानी बेहद अखरी ।
और खास उनके जाते ही गृह स्वामिनी ने उनके द्वारा इस्तेमाल किये सभी चाय, भोजन आदि के बर्तन और छोटे मोटे अन्य सामान फ़ेंकवा दिये ।
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हिन्दुस्तानी भी !
ऐसे लोग तो अब भी अनेक हैं जो शौच के बाद साबुन या मिट्टी से हाथ नही धोते । सिर्फ़ सादा पानी से हाथ धो लेते हैं ।
हैरानी होती है परन्तु अब भी अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं जो शौच के बाद शरीर ‘स्थान’ साफ़ नहीं करते ।
और ऐसे लोगों का प्रतिशत तो कही अधिक है जो (देहात क्षेत्र में) शौच उपरान्त मिट्टी से साफ़ करके सफ़ाई मान लेते हैं ।
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बौद्ध मतालम्बी जापानी ‘इकाई कावागुची’ की लगभग 125 वर्ष पूर्व की गयी ‘तिब्बत यात्रा’ तत्कालीन समय का रोचक दस्तावेज है ।
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तिब्बत के लोग बङे ही गन्दे होते हैं ।
जिस घर में मैं टिका हुआ था उसमें प्रायः बीस नौकर थे ।
वे लोग नित्य मेरे लिये चाय लाया करते थे ।
वे प्याले कभी न धोते थे ।
यदि मैं उनसे कहता कि प्याला गन्दा है तो वे उत्तर देते - कल ही रात को आपने ही तो चाय पी है ?
वे लोग प्याले को मैला तभी समझते थे जब उसमें कोई नीचे दर्जे का मनुष्य चाय पी लेता है ।
पर स्वयं अथवा बराबर दर्जे वालों के प्रयुक्त पात्र को वे झूठा नही मानते चाहे वह कितना ही गन्दा क्यों न हो ।
यदि मैं नौकर से प्याला धो लाने के लिये कहता तो वह उसे अपनी आस्तीन से पोंछ देता ।
आस्तीन इसी तरह के प्रयोग से एकदम काला हो गया था ।
वे इस तरह साफ़ कर उसमें चाय डाल देते थे ।
ऐसे गन्दे प्याले में कोई वस्तु पीना असम्भव था ।
पर मैं सफ़ाई की तरफ़ इतना जोर इस कारण नहीं दे सकता था कि सम्भव था मेरा भेद खुल जाय ।
बर्तनों का न धोना इतना गन्दा नही है जितना शौच आदि के बाद गुप्त स्थान का न धोना है ।
यह हालत बङे बङे लामाओं से लेकर छोटे छोटे चरवाहों तक की है ।
मुझे शौच के समय जल का प्रयोग करते देखकर बङे और छोटे सबों ने मेरा परिहास किया । इसके लिये मैं लाचार था ।
उनके यही काम गन्दे नही होते थे कि वे अपने शरीर को नही धोते ।
कितनों ने तो पैदायश के बाद से कभी भी शरीर को नहीं धोया है ।
आपको इस बात से आश्चर्य होगा ।
देहात के लोग और अधिकांश शहर के लोग भी इस बात का अभिमान करते हैं कि उन्होंने अपना बदन कभी साफ़ नही किया है ।
यदि कोई अपना हाथ भी धोये तो उसका परिहास किया जाता है ।
अतएव शरीर भर में हथेली और आँखों में ही मैल दिखाई नहीं देती अन्यथा सम्पूर्ण शरीर मैल से काला हो जाता है ।
शहर के रहने वाले सभ्य पुरुष और पुरोहित लोग कभी कभी अपने मुख और हाथों को धो डालते हैं ।
शेष शरीर ज्यों का त्यों काला बना रहता है ।
उनकी गर्दन और पीठ इत्यादि वैसी ही काली हो जाती है जैसी अफ़्रीका के हब्शियों की है ।
पर उनके हाथ उजले क्यों रहते हैं ?
इसका कारण है कि आटा गूंधते समय हाथों का मैल आटे में चला जाता है । अतएव उनके भोजन में आटा और मैल मिली रहती है ।
पर ऐसी घृणित व्यवस्था वे क्यों रखते हैं ?
उन लोगों में मिथ्या विश्वास है कि यदि वे अपने शरीर को धोयें तो उनका सौभाग्य धुल जायेगा ।
पर यह बात मध्य तिब्बत में नही है ।
सगाई होने के समय केवल बहू का मुख देखने ही से काम नही चलता है ।
यह भी देखना पङता है कि उसके शरीर पर कितनी मैल जमी है ।
यदि उसकी आँखों के अतिरिक्त अन्य सब अंग गन्दे हैं और उसके वस्त्र मैल और मक्खन के कारण चमक रहे हैं तो वह बङी भाग्यशाली बहू है अन्यथा बङी अभागिन है ।
क्योंकि सफ़ाई करने में उसका भाग्य धुल गया ।
लङकियां भी इसी मूढ़ विश्वास को मानती हैं ।
वे भी ऐसे स्वामी को चाहती हैं जो अधिक से अधिक मैल शरीर पर चढ़ाये हो ।
मैं जानता हूँ कि मेरी बात पर सहसा लोग विश्वास न करेंगे और जब तक मैंने अपनी आँखों से न देखा था तब तक मेरी भी यही दशा थी ।
नीचे दर्जे के लोग कपङे नही बदलते । नाक कपङों में ही साफ़ करते हैं ।
कपङों के ऊपर मैल और मक्खन जम कर चमढ़े की भांति कङा हो जाता है ।
(पूर्व तिब्बत में चाय में मक्खन डालकर पीने का जबरदस्त रिवाज था और यह अमीरी का प्रतीक भी था)
पर ऊँचे दर्जे के मनुष्य और पुरोहित हाथ मुँह भी धोते हैं और कपङे भी साफ़ रखते हैं ।
इन घृणित रीतियों के कारण किसी के यहाँ का निमन्त्रण स्वीकार करते समय मुझे बङा कलेश होता था ।
तसरंग में रहकर मैंने ऐसी आदतें डालने की चेष्टा की थी पर फ़िर भी अपने चित्त को पूर्णतया वैसा नही बना सका था ।
इन सब बातों के होते हुये भी वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य देखकर मुग्ध हो जाता था ।
तिब्बत के रीति रिवाज
(तेतालीसवां परिच्छेद)
प्रष्ठ - 172
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पुस्तक - तिब्बत में तीन वर्ष pdf
लेखक (जापानी यात्री) श्री इकाई कावागुची
अनुवादक - पण्डित गुलजारी लाल चतुर्वेदी
समय - मैंने मई सन 1897 में अपनी उस यात्रा की तैयारी की जिसमें केवल प्राणघातक घटनाओं की संभावना थी ।
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पुस्तक - तिब्बत में तीन वर्ष pdf
http://www.new.dli.ernet.in/handle/2015/287156?show=full
वे लगभग एक सप्ताह रहे ।
गृह स्वामिनी ने देखा कि वे शौच में जल के बजाय सिर्फ़ टिशू पेपर उपयोग करते हैं और प्रायः शौच के बाद हाथ नही धोते ।
उनको गोरों की एक सप्ताह की मेजबानी बेहद अखरी ।
और खास उनके जाते ही गृह स्वामिनी ने उनके द्वारा इस्तेमाल किये सभी चाय, भोजन आदि के बर्तन और छोटे मोटे अन्य सामान फ़ेंकवा दिये ।
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हिन्दुस्तानी भी !
ऐसे लोग तो अब भी अनेक हैं जो शौच के बाद साबुन या मिट्टी से हाथ नही धोते । सिर्फ़ सादा पानी से हाथ धो लेते हैं ।
हैरानी होती है परन्तु अब भी अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं जो शौच के बाद शरीर ‘स्थान’ साफ़ नहीं करते ।
और ऐसे लोगों का प्रतिशत तो कही अधिक है जो (देहात क्षेत्र में) शौच उपरान्त मिट्टी से साफ़ करके सफ़ाई मान लेते हैं ।
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बौद्ध मतालम्बी जापानी ‘इकाई कावागुची’ की लगभग 125 वर्ष पूर्व की गयी ‘तिब्बत यात्रा’ तत्कालीन समय का रोचक दस्तावेज है ।
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तिब्बत के लोग बङे ही गन्दे होते हैं ।
जिस घर में मैं टिका हुआ था उसमें प्रायः बीस नौकर थे ।
वे लोग नित्य मेरे लिये चाय लाया करते थे ।
वे प्याले कभी न धोते थे ।
यदि मैं उनसे कहता कि प्याला गन्दा है तो वे उत्तर देते - कल ही रात को आपने ही तो चाय पी है ?
वे लोग प्याले को मैला तभी समझते थे जब उसमें कोई नीचे दर्जे का मनुष्य चाय पी लेता है ।
पर स्वयं अथवा बराबर दर्जे वालों के प्रयुक्त पात्र को वे झूठा नही मानते चाहे वह कितना ही गन्दा क्यों न हो ।
यदि मैं नौकर से प्याला धो लाने के लिये कहता तो वह उसे अपनी आस्तीन से पोंछ देता ।
आस्तीन इसी तरह के प्रयोग से एकदम काला हो गया था ।
वे इस तरह साफ़ कर उसमें चाय डाल देते थे ।
ऐसे गन्दे प्याले में कोई वस्तु पीना असम्भव था ।
पर मैं सफ़ाई की तरफ़ इतना जोर इस कारण नहीं दे सकता था कि सम्भव था मेरा भेद खुल जाय ।
बर्तनों का न धोना इतना गन्दा नही है जितना शौच आदि के बाद गुप्त स्थान का न धोना है ।
यह हालत बङे बङे लामाओं से लेकर छोटे छोटे चरवाहों तक की है ।
मुझे शौच के समय जल का प्रयोग करते देखकर बङे और छोटे सबों ने मेरा परिहास किया । इसके लिये मैं लाचार था ।
उनके यही काम गन्दे नही होते थे कि वे अपने शरीर को नही धोते ।
कितनों ने तो पैदायश के बाद से कभी भी शरीर को नहीं धोया है ।
आपको इस बात से आश्चर्य होगा ।
देहात के लोग और अधिकांश शहर के लोग भी इस बात का अभिमान करते हैं कि उन्होंने अपना बदन कभी साफ़ नही किया है ।
यदि कोई अपना हाथ भी धोये तो उसका परिहास किया जाता है ।
अतएव शरीर भर में हथेली और आँखों में ही मैल दिखाई नहीं देती अन्यथा सम्पूर्ण शरीर मैल से काला हो जाता है ।
शहर के रहने वाले सभ्य पुरुष और पुरोहित लोग कभी कभी अपने मुख और हाथों को धो डालते हैं ।
शेष शरीर ज्यों का त्यों काला बना रहता है ।
उनकी गर्दन और पीठ इत्यादि वैसी ही काली हो जाती है जैसी अफ़्रीका के हब्शियों की है ।
पर उनके हाथ उजले क्यों रहते हैं ?
इसका कारण है कि आटा गूंधते समय हाथों का मैल आटे में चला जाता है । अतएव उनके भोजन में आटा और मैल मिली रहती है ।
पर ऐसी घृणित व्यवस्था वे क्यों रखते हैं ?
उन लोगों में मिथ्या विश्वास है कि यदि वे अपने शरीर को धोयें तो उनका सौभाग्य धुल जायेगा ।
पर यह बात मध्य तिब्बत में नही है ।
सगाई होने के समय केवल बहू का मुख देखने ही से काम नही चलता है ।
यह भी देखना पङता है कि उसके शरीर पर कितनी मैल जमी है ।
यदि उसकी आँखों के अतिरिक्त अन्य सब अंग गन्दे हैं और उसके वस्त्र मैल और मक्खन के कारण चमक रहे हैं तो वह बङी भाग्यशाली बहू है अन्यथा बङी अभागिन है ।
क्योंकि सफ़ाई करने में उसका भाग्य धुल गया ।
लङकियां भी इसी मूढ़ विश्वास को मानती हैं ।
वे भी ऐसे स्वामी को चाहती हैं जो अधिक से अधिक मैल शरीर पर चढ़ाये हो ।
मैं जानता हूँ कि मेरी बात पर सहसा लोग विश्वास न करेंगे और जब तक मैंने अपनी आँखों से न देखा था तब तक मेरी भी यही दशा थी ।
नीचे दर्जे के लोग कपङे नही बदलते । नाक कपङों में ही साफ़ करते हैं ।
कपङों के ऊपर मैल और मक्खन जम कर चमढ़े की भांति कङा हो जाता है ।
(पूर्व तिब्बत में चाय में मक्खन डालकर पीने का जबरदस्त रिवाज था और यह अमीरी का प्रतीक भी था)
इन घृणित रीतियों के कारण किसी के यहाँ का निमन्त्रण स्वीकार करते समय मुझे बङा कलेश होता था ।
तसरंग में रहकर मैंने ऐसी आदतें डालने की चेष्टा की थी पर फ़िर भी अपने चित्त को पूर्णतया वैसा नही बना सका था ।
इन सब बातों के होते हुये भी वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य देखकर मुग्ध हो जाता था ।
तिब्बत के रीति रिवाज
(तेतालीसवां परिच्छेद)
प्रष्ठ - 172
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लेखक (जापानी यात्री) श्री इकाई कावागुची
अनुवादक - पण्डित गुलजारी लाल चतुर्वेदी
समय - मैंने मई सन 1897 में अपनी उस यात्रा की तैयारी की जिसमें केवल प्राणघातक घटनाओं की संभावना थी ।
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