क्षण भर में ही क्रमश: एक देश से दूसरे अत्यन्त दूर देश तक प्राप्त संवित (ज्ञान) का दोनों देशों के बीच में जो निर्मल, निर्विषयक रूप है वही पर-ब्रह्म परमात्मा का वह सर्वोत्कृष्ट अक्षुब्ध रूप है।
देशाद्देशान्तरं दूरं प्राप्ताया: संविद: क्षणात।
यद्रूपममलं मध्ये परं तद्रूपमात्मन:॥
एकलौ बीर दुसरौ धीर, तीसरौ खटपट चोथौ उपाध।
दस-पंच तहाँ, बाद-बिबाद॥
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ज्ञानी लोग पर्वत के समान अकम्पनीय, वायुरहित स्थान में स्थित दीपक की नाई सदा सम-प्रकाश युक्त तथा आचार शून्य होते हुए भी आचार युक्त स्वस्थ ही बने रहते हैं।
अचला इव निर्वाता दीपा इव समत्विष:।
साचारा वा निराचारास्तिष्ठन्ति स्वस्थमेव ते॥
गगन मंडल मैं गाय बियाई, कागद दही जमाया।
छांछि छांणि पंडिता पीवीं, सिद्धा माखण खाया।।
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शरीरधारियों के लिए महा भयंकर दो व्याधियाँ हैं - एक तो यह लोक, और दूसरा परलोक। क्योंकि इन्हीं दोनों के कारण पीड़ित होकर मनुष्य आध्यात्मिक आदि भावों से अनेक दु:ख भोगता है।
द्वौ व्याधी देहिनो घोरावयं लोकस्तथा पर:।
याभ्यां घोराणि दु:खानि भुङ्क्ते सर्वैर्हि पीङित:॥
नेह निबाहे ही बने, सोचे बने न आन।
तन दे मन दे सीस दे, नेह न दीजे जान।।