आईये आज शब्दों में छुपे रहस्य की बात करते हैं । मैंने अपने पिछले कुछ लेखों में भी इस बात का जिक्र किया है । कि शब्दों को यदि हम ध्यान से देखें तो बहुत से प्रकृति के रहस्य खुलने लगते हैं । और यदि हमशब्दों की प्रकृति या धातु को जानने लगें । तो फ़िर कहने ही क्या हैं ? आज में आपको बिलकुल शुरुआत में ले चलता हूँ । इन शब्दों को देखें ।( रज । वीर्य ।)( स्त्री ।मनुष्य ।)( पुरुष । प्रकृति ।) ये प्रत्येक जोङा एक ही अर्थ को बताता है । जैसे किसी भी चीज का रहस्य जानने के किये हमें उसका पोस्टमार्टम करना आवश्यक होता है । शब्दों पर भी यही बात लागू होती है । पहले रज । वीर्य को लेते हैं । रज । धूल या मिट्टी को कहते हैं । स्त्री रज और पुरुष वीर्य के संयोग से बच्चे का जन्म होता है । वीर्य को सामान्य भाषामें बीरज या बीज भी कहते हैं । जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि रहस्य जानने के लिये शब्द का पोस्टमार्टम करना होगा । अब वीर्य को लें । वीर्य को वीर । य । इस तरह कर लें । रज तो पहले ही अलग है । वीर । य । का अर्थ हुआ । ये । चेतन । यानी चेतन का कारण बीज । रज यानी मिट्टी यानी जङ प्रकृति से संयोग होने के कारण सृष्टि में परिवर्तन हो रहें हैं ।रज में भी र चेतन और ज जङ है । यानी आत्मा जो ऊर्जा का अक्षय स्रोत है ।( इसको मुख्य विधुत केन्द्र मान लें ) र जो इस तरह का करेंट बनाता है। र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र तो र एक ट्रांसफ़ार्मर का काम करता है । तो मुख्य लाइन । फ़िर र ट्रान्सफ़ार्मर और ज
जङ प्रकृति या वो उपकरण । जिसमें करेंट प्रवाहित होकर उसे एक्टिव बनाता है । सृष्टि का पूरा सिस्टम इसी नियम पर आधारित है । तो वीर्य र ( चेतन ) होकर ज ( जङ ) में मिला । और नया निर्माण होने लगा ।हांलाकि साधारण अवस्था में इसको समझना थोङा कठिन है । पर प्रयास करने से कुछ तो समझ में आयेगा ही । अब स्त्री और मनुष्य को लें । स्त्री । इस । तरी । यानी इस और त्र यानी तीन गुणों वाली सृष्टि । मनुष्य । मन । उस । य । यानी आत्मा के मन से संयुक्त होने से ये सब । ये मनुष्य का वास्तविक अर्थ है । यानी आत्मा जब मन से संयुक्त होकर सत रज तम इन तीन गुणों के द्वारा क्रीङा करता है । ये स्त्री पुरुष है । अब पुरुष और प्रकृति को लें । पुरुष । पुर । उस । पुर यानी पूरना । उस यानी आत्मा या चेतन द्वारा । प्रकृति । पर । करती । यानी आत्मा के द्वारा पूरने पर ये प्रकृति पर आश्रित होकर अपना कार्य कर रही है । अन्यथा तो ये जङ है । यानी इसमें चेतन से हरकत या हलचल हो रही है । इसकी अपनी सामर्थ्य नहीं है । वास्तव में पुरुष का । प । उर । उस । इस तरह भी किया जा सकता है । पर ये अत्यधिक गूढ है । सिया राम में सब जग जानी । ये यही तो बात कही जा रही है । सिया या सीना ( सिलाई ) इसी से बना है । राम तीन गुणों की प्रकृति के साथ स्वांसों की सिलाई द्वारा जङ प्रकृति को पूरित कर रहा है । शास्त्र में लिखा है । कि प्रकृति पुरुष से निरंतर " सम्भोग " कर रही है । इसका यही अर्थ है । कुछ ग्यानियों ने कह दिया कि वो पुरुष का उद्धार कर रही है । वास्तव में इसको " रगङ " के रूप में देखें तो तो बात सही लगती है । लेकिन जङ प्रकृति चेतन का उद्धार कैसे कर सकती है ? जबकि चेतन तो स्वयं निर्लेप है । उसमें बिगाङ होता ही नहीं । लेकिन जीव संयुक्त हो जाने पर ये बात सही हो जाती है । जीव तो आवरण में आ जाता है । इसी हेतु शास्त्रों में जगह जगह नारी को पुरुष के अधीन बताया गया है । जो कि रूपक है । और वास्तव में नारी में प्रकृति के गुण अधिक होते हैं । इसलिये ग्यानियों ने इससे बचने की सलाह दे । क्योंकि अपनी ही बनायी हुयी प्रकृति में खोकर ये ( आत्मा ) अपनी पहचान भूल गया । इसी को कबीर ने कहा है । कि नय्या में नदिया डूबी जाय । तमाशा देखने वाले तमाशा हो नहीं जाना । तो सत्य यही है कि तमाशा बनाकर तमाशा देखने वाला आज इस स्थिति में पहुँच गया कि खुद तमाशा हो गया । इसी लिये संत कहते हैं । चेत । चेत । जिस तमाशे में तू भरमा हुआ है । वह तमाशा तेरे ही द्वारा बनाया गया है । पर ये " माया " के खेल में ऐसा खो गया । कि अपना पता भी नहीं जानना चाहता कि " आखिर मैं हूँ कौन " जो इस तरह पाप पुण्य की चक्की में पिस रहा हूँ ।
चलती चाकी देखकर । दिया कबीरा रोय । दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय । ये दो पाट पाप और पुण्य ही तो है । जिनमें जीव समय रूपी चक्की में पिस रहा है । इस सबसे आपको थोङे संकेत अवश्य मिल सकते हैं । पर असली बात और सही ग्यान उच्चतम साधकों को ही समझ में आ सकता है । इसलिये मैंने सरलता से समझाने की कोशिश की है । एक बात ये भी है । कि ऊपर लिखी बातों को मोटे तौर पर मैंने समझाया है । इनके गूढ अर्थ तो बेहद रहस्यमय और विस्तार वाले हैं । जो जन सामान्य के लिये वर्जित भी हैं और इतनी आसानी से समझ में आने वाले भी नहीं हैं ।
जङ प्रकृति या वो उपकरण । जिसमें करेंट प्रवाहित होकर उसे एक्टिव बनाता है । सृष्टि का पूरा सिस्टम इसी नियम पर आधारित है । तो वीर्य र ( चेतन ) होकर ज ( जङ ) में मिला । और नया निर्माण होने लगा ।हांलाकि साधारण अवस्था में इसको समझना थोङा कठिन है । पर प्रयास करने से कुछ तो समझ में आयेगा ही । अब स्त्री और मनुष्य को लें । स्त्री । इस । तरी । यानी इस और त्र यानी तीन गुणों वाली सृष्टि । मनुष्य । मन । उस । य । यानी आत्मा के मन से संयुक्त होने से ये सब । ये मनुष्य का वास्तविक अर्थ है । यानी आत्मा जब मन से संयुक्त होकर सत रज तम इन तीन गुणों के द्वारा क्रीङा करता है । ये स्त्री पुरुष है । अब पुरुष और प्रकृति को लें । पुरुष । पुर । उस । पुर यानी पूरना । उस यानी आत्मा या चेतन द्वारा । प्रकृति । पर । करती । यानी आत्मा के द्वारा पूरने पर ये प्रकृति पर आश्रित होकर अपना कार्य कर रही है । अन्यथा तो ये जङ है । यानी इसमें चेतन से हरकत या हलचल हो रही है । इसकी अपनी सामर्थ्य नहीं है । वास्तव में पुरुष का । प । उर । उस । इस तरह भी किया जा सकता है । पर ये अत्यधिक गूढ है । सिया राम में सब जग जानी । ये यही तो बात कही जा रही है । सिया या सीना ( सिलाई ) इसी से बना है । राम तीन गुणों की प्रकृति के साथ स्वांसों की सिलाई द्वारा जङ प्रकृति को पूरित कर रहा है । शास्त्र में लिखा है । कि प्रकृति पुरुष से निरंतर " सम्भोग " कर रही है । इसका यही अर्थ है । कुछ ग्यानियों ने कह दिया कि वो पुरुष का उद्धार कर रही है । वास्तव में इसको " रगङ " के रूप में देखें तो तो बात सही लगती है । लेकिन जङ प्रकृति चेतन का उद्धार कैसे कर सकती है ? जबकि चेतन तो स्वयं निर्लेप है । उसमें बिगाङ होता ही नहीं । लेकिन जीव संयुक्त हो जाने पर ये बात सही हो जाती है । जीव तो आवरण में आ जाता है । इसी हेतु शास्त्रों में जगह जगह नारी को पुरुष के अधीन बताया गया है । जो कि रूपक है । और वास्तव में नारी में प्रकृति के गुण अधिक होते हैं । इसलिये ग्यानियों ने इससे बचने की सलाह दे । क्योंकि अपनी ही बनायी हुयी प्रकृति में खोकर ये ( आत्मा ) अपनी पहचान भूल गया । इसी को कबीर ने कहा है । कि नय्या में नदिया डूबी जाय । तमाशा देखने वाले तमाशा हो नहीं जाना । तो सत्य यही है कि तमाशा बनाकर तमाशा देखने वाला आज इस स्थिति में पहुँच गया कि खुद तमाशा हो गया । इसी लिये संत कहते हैं । चेत । चेत । जिस तमाशे में तू भरमा हुआ है । वह तमाशा तेरे ही द्वारा बनाया गया है । पर ये " माया " के खेल में ऐसा खो गया । कि अपना पता भी नहीं जानना चाहता कि " आखिर मैं हूँ कौन " जो इस तरह पाप पुण्य की चक्की में पिस रहा हूँ ।
चलती चाकी देखकर । दिया कबीरा रोय । दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय । ये दो पाट पाप और पुण्य ही तो है । जिनमें जीव समय रूपी चक्की में पिस रहा है । इस सबसे आपको थोङे संकेत अवश्य मिल सकते हैं । पर असली बात और सही ग्यान उच्चतम साधकों को ही समझ में आ सकता है । इसलिये मैंने सरलता से समझाने की कोशिश की है । एक बात ये भी है । कि ऊपर लिखी बातों को मोटे तौर पर मैंने समझाया है । इनके गूढ अर्थ तो बेहद रहस्यमय और विस्तार वाले हैं । जो जन सामान्य के लिये वर्जित भी हैं और इतनी आसानी से समझ में आने वाले भी नहीं हैं ।
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