त्रयोदशाह अर्थात तेरहवें दिन जीव यमदूतों द्वारा पकड लिया जाता है । यमदूतों द्वारा पकडा गया अकेला ही वह जीव यमलोक के मार्ग में चलता है । वायु के द्वारा बडाया गया यह जीव दूसरे शरीर में प्रवेश करता है । दूसरे शरीर में जाने के पहले का जो शरीर है । वह पिन्डज यानी दिये गये पिन्डो से निर्मित होता है । अन्य योनियों का शरीर माता पिता के रज वीर्य से उत्पन्न होने वाला होता है । यमपुरी और मृत्युलोक के बीच 86 000 हजार योजन यानी 10 32 000 किलोमीटर का अन्तर है । एक योजन में
बारह किलोमीटर या चार कोस होते हैं । इस तरह जीव एक दिन में दो सौ सैतालीस योजन और आधा कोस ही चल पाता है । इस प्रकार मृत्यु के बाद जीव की यमपुरी की यात्रा तीन सौ अडतालीस दिन में पूरी होती है । इस यात्रा में व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार कष्ट से या सुख से ले जाया जाता है । यमदूत उसको कठोर बन्धन में बांधकर दक्षिण दिशा में स्थित अपने लोक को ले जाते हैं । इस मार्ग में कटीले कांटे । कुश । कील । कठोर पत्थर । बांबी । जलती हुयी अग्नि । दरारों वाली भूमि । सूर्य की प्रचन्ड गर्मी और मच्छर आदि जैसी परेशानियां और कष्ट हैं । इस दारुण मार्ग में शरीर जलने के कारण । कर्म के अनुसार विभिन्न जन्तुओं के खाये जाने के कारण । भेदन । छेदन आदि कष्टों के कारण क्षीण हुआ पापी चीत्कार करता हुआ अत्यधिक दुख को प्राप्त करता है । यमलोक के इस मार्ग में सोलह नगर पडते हैं । इनके नाम । याम्य । सौरिपुर । नगेन्द्रभवन । गन्धर्वपुर । शैलागम । क्रौंच । क्रूरपुर । विचित्रभवन ।
ब्रह्मपद । दुखद । नानाक्रन्दपुर । सुतप्तभवन । रौद्र । पयोवर्षण । शीताढय़ । बहुभीति हैं । ये सभी भयंकर और दुर्दर्शन हैं । याम्यपुर मार्ग पहुंचकर इन सोलह नगरों की यात्रा पूरी करके जीव यमराज के नगर में पहुंच जाता है । यहां पुष्पभद्रा नाम की नदी बहती है । अत्यन्त घने सुन्दर वटवृक्ष हैं । जिनके नीचे जीव विश्राम करना चाहता है । परन्तु यमदूत ऐसा नहीं करने देते । यहां पर वह पुत्रादि द्वारा दिया गया मासिक पिन्डदान खाता है । यदि दिया गया हो तो ? उसकी यात्रा सौरिपुर से शुरू होती है ।
सौरिपुर में कामरूपधारी । इच्छानुसार स्थित एवं गति वाला राजा राज्य करता है । जिसको देखते हीजीव भय से कांप उठता है । यहां स्वजनों द्वारा दिया गया जलपिन्ड खाता है । इसके बाद नगेन्द्रनगर जाता है । जहां दूसरे महीने में स्वजनों द्वारा दिये गये अन्न को खाकर बडता है । तीसरा मास पूरा होते ही गन्धर्वनगर पहुंच जाता है । यहां तीसरा मासिक पिन्ड प्राप्त करता है । इसी तरह चौथे मास में शैलागमपुर । चौथा पिन्ड या मासिक श्राद्ध । पांचवे मास में क्रौंचपुर । पांचवे मास का श्राद्ध पिन्ड खाता है और एक घडी विश्राम करता है । छठे मास क्रूरपुर । यहां से यातना शरीर धारणकर विचित्रनगर के लिये जाता है । यहां विचित्र नाम का राजा राज्य करता है । यहां से आगे की रास्ता में वैतरणी नदी पडती है ।
यह सौ योजन यानी बारह सौ किलोमीटर चौडी और रक्त और पीव से भरी हुयी है । यदि वैतरणी गौ का दान किया हो तो यहां मौजूद नाव वाला मल्लाह सुख से नदी पार करा देता है । अन्यथा नाविक घसीटते हुये ले जाते हैं । ऊपर मंडराते कौआ । उल्लू । बगुला । आदि पक्षी । उसे नुकीली चौंच से प्रहार करके घायल करते हैं । जीवन में सत्कर्म । दान । परोपकार । वैतरणी गौ का दान करने वाला यमलोक न जाकर विष्णुलोक जाता है । सातवें महीने में । ब्रह्मपद नगर में । सातवां पिन्ड । आंठवें मास में दुखदपुर । आठवां पिन्ड । नवें मास में नानाक्रन्द । दसवां मास वहीं बिताकर ग्यारह मास पूर्ण होते ही रौद्रपुर पहुंच जाता है । इसके बाद पयोवर्षण के लिये जाता है । वर्ष पूरा होते ही शीताढय नगर की और चल देता । यहां इसकी जीभ काट दी जाती है । यहां वार्षिक श्राद्ध ग्रहणकर पिन्डज शरीर में प्रवेश कर बहुभीति नाम के नगर में जाता है । इसके बाद वह निकट ही स्थित यमपुरी जाता है । यह यमलोक चौवालीस योजन यानी 528 किलोमीटर में बसा है । इसमें श्रवण नामके तेरह प्रतिहार है । यमराज के दो रूप हैं । सौम्य और विकराल । यमलोक या सयंमिनी नगरी पहुंचकर जीव लेखा जोखा के अनुसार शुभ अशुभ गति प्राप्त करता है । यहां जीव को भूख बहुत लगती है । इसलिये एकादशा । द्वादशा । षणमास । बरसी पर बहुत से ब्राह्मणों को कराया गया भोजन मृतक को प्राप्त होता है । इस पूरे मार्ग की इस यात्रा में यमदूत और अन्य जन्तु जीव के कर्मों के अनुसार उसे बेहद कष्ट देते हैं । और वह जीवन में सत्कर्म आदि न करने के लिये बेहद पछताता है । परन्तु अब कुछ नहीं हो सकता है ।
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