16 जुलाई 2010

और जितना तुम प्रेम दे सको

प्रत्येक जीव तुरीया में जीता है । तुरीया का अर्थ तीन अवस्थाओं से है । ये चौथी अवस्था के सम्पर्क में भी आता है । पर बहुत अल्प समय के लिये । यह प्रत्येक जीव की बहुत रहस्यमय अवस्था होती है ? जिसे वो प्रत्येक वास्तविक निद्रा में दस से लेकर तीस और अधिकतम चालीस मिनट के लिये प्राप्त करता है । योगी या कुछ चले हुये साधक इस अवस्था को जान जाते हैं । जो बिना जाने तो लाभ पहुँचाती ही है । जान लेने पर इसके लाभ अनगिनत हैं । हैरत की बात है । कि हममें से प्रत्येक ही उस अवस्था को प्राप्त होता है ।चाहे वो छह महीने का बच्चा हो । अथवा अंतिम अवस्था में आ पहुँचा वृद्ध । क्या है ये रहस्य ?
लेकिन इस रहस्य को जानने से पहले आईये उन तीन अवस्थाओं के वारे में जानते हैं । जिनमें हम जीते हैं । साधारण बोलचाल की भाषा में इसको जागना । सोना और सपना कहते हैं । अर्थात स्वप्न । जाग्रति और सुषप्ति । विचार करकें देखें । आप इन्हीं तीनों अवस्थाओं में से किसी एक अवस्था में ही एक समय में होते हैं । या तो जाग रहे होते हैं । या सो रहे होते हैं । या स्वप्न देख रहे होते हैं । लेकिन इसमें भी एक रहस्य हैं ? आप को लगता होगा । कि आप इन तीनों अवस्थाओं में एक ही स्थान पर एक जैसे ही होते हैं ।
जबकि सत्य यह है । कि आप अलग अलग स्थिति और अलग अलग स्थानों पर होते हैं । अब ये क्रिया क्योंकि अनजाने में होती है । इसलिये आपको भय नहीं होता । इसी स्थिति का बदलाब आपकी जानकारी में हो तो आप को मृत्यु के समान भय प्रतीत होगा । क्योंकि मृत्यु के समय भी इसी से मिलती जुलती स्थिति होती है । पर उस समय इंसान उसको अपने होश में देखता है ।
मृत्यु के समय जो हमारी तमाम ग्रन्थियों और ब्रह्माण्ड द्वार पर ताला लगा होता है । वो आटोमैटिक ही खुल जाता है । क्योंकि जीवात्मा अपने उस जीवन के अंतिम सफ़र पर जा रहा होता है । अतः ब्रह्माण्डी रहस्यों को परदे में रखने का कोई लाभ नहीं । उसके भयभीत होने के अनेक कारणों में इस तरह का नया अनुभव और नये दृश्य भी होते हैं । दुबारा जीवन प्राप्त होने पर माया का यह ताला फ़िर से लगा दिया जाता है और जीव को महामाया द्वारा ये ग्यान भुला दिया जाता है ।
जबकि प्रत्येक दिन आदमी नशे जैसी हालत या बेहोशी में देखता है । आईये पहले इन तीन स्थितियों में अपनी स्थिति जानें ? जाग्रत अवस्था ( संत की जाग्रत अवस्था अलग होती है । जीव की अलग । जीव वास्तव में सत्य कहा जाय तो जागते में भी सोता या सपना देखता है । खुली आँखो का सपना ) में जीव " आग्या चक्र " पर या कहिये कि दोनों भोहों के मध्य कुछ पीछे की तरफ़ होता है । उस समय ये अपने " जीव " को जान रहा होता है । यानी खुद पर इसका नियन्त्रण होता है । ये हाथ उठाने का विचार करेगा तो हाथ उठा लेगा । इस तरह प्रत्येक क्रिया इसकी आग्या के अधीन होती है । सामान्य तौर पर जागने को जाग्रत अवस्था कहते हैं । उस स्थिति में ये संसार के कार्य व्यवहार करता है । दूसरी अवस्था स्वप्न की है । उस स्थिति में यह जीव " कंठ देश " या गले पर आ जाता है । इस स्थान पर " चित्रा नाङी । में हमारे नये पुराने करोङों जन्मों के संस्कार जमा है । जो कि चित्र के रूप में है । आज की परिचित भाषा में इसको " वीडियो क्लिप " भी कह सकते हैं । यानी कि हमारे इस जन्म या अन्य जन्मों की वे घटनायें जिन्होंने हमारे मानस पटल पर गहरा प्रभाव छोङा है । एक चल चित्रावली के रूप में संग्रहित हैं । यही संस्कार भी बन जाते हैं । यही कारण बीज बन जाते हैं । जिनसे हम बार बार जन्म लेने को बाध्य होते हैं । योग में इसी हुता नाङी के संस्कार जला दिये जाते हैं । जैसे किसी बीज को यदि भून दिया जाय
तो वो अंकुरित नहीं हो सकता । अब क्योंकि स्वप्न अवस्था में हम शरीर के उस हिस्से में आ जाते हैं । जहाँ एक तरह से फ़िल्म प्रोजेक्टर लगा है । तो हम अपनी वासना या मनोदशा के अनुसार स्वप्न जगत में विचरण करते हैं । मान लीजिये उस दिन आपको बहुत गहराई से पचास साल पूर्व का जीवन याद आया हो । और आप उसी का चिंतन करते रहे हों तो सोते समय उससे रिलेटिव कोई झलक आप देखेंगे । यह भी हरेक के लिये निश्चित नहीं है । क्योंकि मनुष्य का मष्तिष्क विलक्षण होता है । वहाँ क्या लीला होगी । यह ग्यान अवस्था में तो सटीक जाना जा सकता है । साधारण अवस्था में नहीं । हाँ लेकिन एक " कामन " या सामान्य अवस्था जिसे कहते हैं । उसके परिणाम हमेशा ही मिलते जुलते मगर एक से होते हैं । तो कहने का मतलब ये हुआ कि स्वप्न अवस्था में आपकी स्थिति गले या कंठ पर होती है । सोना या सपना देखना एक मिली जुली अवस्था होती है । फ़िर भी इनको दो ही माना गया है । अब तीसरी अवस्था सुषुप्ति यानी गहरी नींद को जानें । इस अवस्था में हम " ह्रदय देश " पर होते हैं । ये वो अवस्था होती है । जब सोने से पहले विचार करते करते अचानक हमें गहरी नींद दबा लेती है । और हम अपनी सुध बुध खो बैठते हैं । क्योंकि स्वप्न वाली स्थिति में तो हमें अपने होने का अहसास होता है । पर इस स्थिति में नहीं होता । ऐसा क्यों होता है ?
दरअसल ये ही वो दिव्य और पवित्र जगह है । जहाँ अंतकरण वृति यानी मन । बुद्धि । चित्त । अहम । नहीं होते । इस तरह ये स्वाभाविक मगर एक विलक्षण योग क्रिया प्रतिदिन आपके जीवन में एक दो बार होती है । यहाँ बङे सुन्दर और मनोहारी स्थान है । यही वो जगह है । जहाँ से प्रतिदिन के लिये आपको एक खुराक के रूप में आत्मिक ऊर्जा प्राप्त होती है । आप सोचते हैं कि भोजन से आपको स्फ़ूर्ति और ऊर्जा मिलती है । यह आधी बात सही है । आधी गलत । भोजन से ऊर्जा आपके शरीर को प्राप्त होती है । आपको नहीं । उदाहरण के तौर पर आप कितना भी पौष्टिक भोजन खायें । लेकिन तब तक थका थका महसूस करेंगे । जब तक आप भरपूर नींद सो न लें । और ये रहस्यमय वाली गहरी नींद न जब तक आपको आ जाय । ये बीस मिनट की गहरी नींद फ़िर से आपको तरोताजा कर देती है ।
अगर आपने इस तरफ़ विचार या प्रक्टीकल न किया हो तो अब करके देख लेना । तो भोजन से ऊर्जा आपके शरीर को और चेतनात्मक ऊर्जा आपको ह्रदय देश में पहुँचने पर प्राप्त होती है । लेकिन ये बङे दुख की बात है । कि प्रथ्वीलोक या मृत्युलोक में जीव की स्थिति " माया " के कैदी की है । इसलिये इसको माया के बक्से में कैद करके ले जाया जाता है । अतः यह उन मनोहारी स्थानों को देखने से वंचित रह जाता है । यह उन दिव्य अनुभवों से भी वंचित रहता है । जोकि वहाँ पर होते है ।
उस अवस्था में इसको आत्मिक ऊर्जा की " पोलियो ( जैसी ) खुराक " दो बूंद पिलाकर वापस कर दिया जाता है । क्योंकि विशेष भक्ति के विना यह " महाप्रभु " के विधान के अनुसार उसको देखने या जानने का अधिकारी नहीं होता । इसके लिये भक्ति रूपी " वी .आई .पी " पास की आवश्यकता होती है । जो कुन्डलिनी स्तर के गुरु या आत्मग्यानी सतगुरु से प्राप्त होता है । तो इस तरह सामान्य अवस्था में यदि आप गहरी निद्रा वाले जीव हैं । तो ये तुरीया यानी तीन अवस्थायें हो गयी । चौथी अवस्था चेतन अवस्था कहलाती है । जो है तो यही । यानी आपका ह्रदय देश में जाना । पर बा होश जाना । बा इज्जत जाना । यानी उस अवस्था को जानना । उस अवस्था में जागना । तो मजे की बात ये है । कि ये जागना आपका सोने का काम कर देता है । संत इसी के लिये कहते हैं जागो जागो । योग या आत्मग्यान में जाग जाने पर जीव की " कागवृति " बदलकर " हँसवृति हो जाती है । फ़िर वह उन
मनोहारी स्थानों को देखने और दिव्यता के अनुभव प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है । हो सकता है । इस लेख में कुछ बातें छूट गयीं हो या आपको ठीक से समझ में न आयी हों । ऐसी स्थिति में आप फ़ोन या ई मेल द्वारा अपनी शंका का समाधान कर सकते हैं । क्योंकि इस चौथी अवस्था को जानना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है । तुरीया में तो जीव अनादिकाल से खेल रहा है ।
जब आप गहरी नींद में थे । तब भी आपको पता था । इसीलिये तो आप बाद में कहते हैं कि आज ऐसा सोया कि होश खबर नहीं रहा । तो जिसको ये पता था कि मैं गहरी नींद में सोया था ।वो कौन था । यदि वो आप थे । तो आपको सोते समय क्यों नहीं पता था । तो अपने इस गुप्त परिचय को । उसको जान जाना बहुत बङी बात है । ये ही वो है । जो सबको जानता है । इसको जानना और मिथ्या जगत में जागना बहुत बङी उपलब्धि है ।
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ज्ञानी का मार्ग भक्त के मार्ग से क्या सर्वथा भिन्न है ? जिस होश की आप चर्चा करते हैं । वह प्रेमी का मार्ग है । या ज्ञानी का ? यदि होश हो । तो प्रेम कैसे घटेगा ?
- 3 संभावनाएं हैं । 1 - कि कोई व्यक्ति ज्ञान के मार्ग से खोजे । जो व्यक्ति ज्ञान के मार्ग से खोजेगा । ध्यान उसकी विधि होगी । ध्यान उसका रास्ता होगा । जिस दिन उपलब्धि होगी । समाधि फलेगी । जीवन में चैतन्य का फूल लगेगा । उस दिन वह अचानक पाएगा कि करता तो जीवन भर ध्यान रहा । और समाधि मिली । लेकिन अब समाधि के साथ अचानक प्रेम का आविर्भाव हुआ है । प्रेम फल की भांति आता है - ध्यानी को । ध्यान साधन बनता है । और प्रेम फल की भांति आता है । परिणाम बनता है ।
दूसरा मार्ग है - कि तुम भक्ति के मार्ग से चलो । भक्ति के मार्ग पर प्रेम साधन है । और जब मंजिल आती है । और भक्त मंदिर पर पहुंचता है । तो अचानक चकित हो जाता है कि ध्यान की लवलीनता उपलब्ध हो गई है । वह परिणाम है । तो जो ध्यान के मार्ग से चलते हैं । वे प्रेम को पाते हैं अंत में । जो प्रेम के मार्ग से चलते हैं । वे ध्यान को पाते हैं अंत में । ज्ञानी भक्त हो जाते हैं । भक्त ज्ञानी हो जाते हैं ।
और 1 तीसरा मार्ग है - कि तुम दोनों पर 1 साथ चल सकते हो । तुम प्रेम को भी साथ साध सकते हो । तुम ध्यान को भी साथ साध सकते हो । तब तुम प्रेमी भक्त, ज्ञानी भक्त या भक्त ज्ञानी हो । मेरी पूरी चेष्टा यही है कि तुम दोनों साथ साथ साध लो । क्यों इतनी देर भी प्रतीक्षा करनी । ध्यान के साथ ही प्रेम साधा जा सकता है । और जब ध्यान के साथ प्रेम को साधोगे । तो तुम्हारे ध्यान में 1 रससिक्तता होगी । जो खाली ध्यान साधने वाले में नहीं होती । उसमें प्रेम तो होता नहीं । इसलिए खाली ध्यानी रूखा, मरुस्थल जैसा हो जाता है । उसमें मरुद्यान नहीं होते । उसमें तुम कहीं वृक्षों की छाया न पाओगे । वह रूखा हो जाएगा । कठोर हो जाएगा । तुम उसको पाओगे कि जीवन के प्रति उसके मन में 1 उपेक्षा है । 1 गहरी उदासी है । वह जीवन की तरफ पीठ कर लेगा । भगोड़ा हो जाएगा । अगर तुम ध्यान ही ध्यान साधोगे । तो प्रेम फलेगा अंत में । लेकिन पूरे रास्ते वह जो प्रेम की वर्षा साथ साथ हो सकती थी । उससे तुम वंचित रह जाओगे । मैं कहता हूं - क्यों वंचित रहना ? जो व्यक्ति प्रेम को साधेगा । उसके जीवन में प्रेम तो रहेगा । रस रहेगा । माधुर्य रहेगा । लेकिन ध्यान से जो शांति फलित होती है । वह जो परम शून्यता फलित होती है । वह फलित नहीं होगी । उसके जीवन में रंग तो होगा । प्रसन्नता भी होगी । लेकिन प्रसन्नता के भीतर शून्यता की शांति नहीं होगी । तो कभी कभी तुम पाओगे कि उसका परमात्मा भी 1 राग रंग है । उसकी भक्ति भी 1 राग रंग है । ये दोनों ही थोड़े अपंग होंगे । 1-1 पैर से चलने की कोशिश कर रहे हैं । और ये दोनों एक दूसरे के विपरीत होंगे । क्योंकि मार्ग पर ध्यानी को पता नहीं है कि अंत में प्रेम भी आ जाता है । और मार्ग में प्रेमी को भी पता नहीं है कि अंत में ध्यान भी आ जाता है । तो ध्यानी कहेगा - क्या व्यर्थ ही पूजा प्रार्थना में लगे हो । किसके लिए हाथ जोड़ रहे हो ? वहां कोई भी नहीं है । आंख बंद करो । परमात्मा भीतर है । गिराओ मंदिरों को । हटाओ मस्जिदों को । इनसे क्या सार है ? ज्ञानी ब्रह्मज्ञान की बात करेगा । और भक्त ? भक्त कहेगा - क्या आंख बंद करके बैठे हो ? सब तरफ परमात्मा की लीला हो रही है ।
देखो । आंख खोलो । ऐसा हुआ । 1 सूफी फकीर औरत हुई - राबिया । वह ध्यानी थी । 1 भक्त । हसन नाम का फकीर । उसके घर में मेहमान था । सुबह सूरज उगा । और हसन बाहर नाचने लगा । क्योंकि भक्त को तो सभी इशारे उसी के हैं । सूरज उगे । तो वही उगा । फूल खिले । तो वही खिला । पक्षी गाए । तो वही गाया । वही दिखायी पड़ता है । बाकी तो सब रूप रह जाते हैं । भीतर वही दिखाई पड़ता है । तो हसन नाचने लगा । और हसन ने जोर से आवाज दी कि - राबिया, क्या भीतर बैठी है । अंधेरे में ? बाहर आ । देख कैसा सूरज निकला है । देख । परमात्मा कैसे प्रकट हुए हैं । राबिया ने भीतर से ही कहा - हसन ! मैं आंख बंद किए हूं । और मैं निश्चित ही भीतर हूं । और मैं तुमसे कहती हूं । तुम भी भीतर आ जाओ । बाहर के सूरज को देखने से क्या होगा ? हम भीतर उसी को देख रहे हैं । जिसने सूरज को बनाया । यह प्रेमी और भक्त का विरोध है । मगर दोनों अधूरे हैं । दोनों अधूरे हैं । एकांगी है । दोनों पहुंच जाते हैं । इसलिए किसी को अगर एकांगी ही होकर चलना हो । कुछ लोग शौकीन होते हैं । 1 टांग से ही उनको यात्रा करनी है । क्या करोगे ? तो ठीक है । मौज है । स्वतंत्रता है । ऐसे ही चलो । किसी ने यह ही तय कर लिया कि 1 टांग से ही परमात्मा के मंदिर तक पहुंचना है । पहुंचो । लेकिन तुम अचानक मंदिर के द्वार पर पाओगे कि परमात्मा दोनों ही टांगें पसंद करता है । नहीं तो वह 2 देता ही नहीं । उसने 2 दी हैं । उसका प्रयोजन है । उसने 2 पंख दिए हैं कि उड़ो संतुलन से । उसने 2 पैर दिए हैं कि चलो संतुलन से । जीवन में 1 संतुलन हो । संतुलन यानी संयम । तो कभी कभी भक्ति भी अति हो जाती है । वह भी असंयम है । और ध्यान भी अति हो जाता है । वह भी असंयम है । ध्यान अगर ऐसा हो जाए कि तुम सब बाहर को बिलकुल भूल ही जाओ । तो बाहर भी परमात्मा था । तुम्हारा परमात्मा अधूरा हो गया । और भक्ति ऐसी अगर हो जाए कि तुम मंदिर में बैठे प्रार्थना करते रहो । कभी भीतर आंख बंद ही न करो । देखते रहो कि कृष्ण का कैसा सुंदर रूप है । कैसे मोर मुकुट । कैसी पैर में पैंजनियां । और उसी रूप को निहारते रहो । और उसी में डूबे रहो । तो भीतर भी परमात्मा था । उससे तुम वंचित रह गए । अंत में तो तुम्हें पूरा हो जाना पड़ेगा । परमात्मा के पास पहुंचकर तो तुम्हें पूरा हो जाना पड़ेगा । इसलिए भक्त ज्ञानी हो जाता है । ध्यानी हो जाता है । ध्यानी भक्त हो जाता है । लेकिन जो अंत में हो जाना है । मैं कहता हूं । पहले से ही क्यों न हो जाओ ? मंजिल पर ही जाकर क्यों पूरे को उपलब्ध करो । यात्रा को भी क्यों न मंजिल बना लो ? हर कदम क्यों न मंजिल हो जाए ? राह भी क्यों न मंजिल हो जाए ? साधना भी क्यों न साध्य हो जाए ? तो मेरी सारी चेष्टा यह है कि तुम ध्यान भी करो । तुम नाचो भी । तुम प्रेम भी करो । तुम भक्ति भी करो । तुम शून्यता में भी जाओ । और तुम पूर्णता के गीत भी गाओ । और जिस दिन तुम दोनों को साध लोगे । उस दिन तुम पाओगे कि - अद्वैत सधा । नहीं तो ज्ञानी भक्तों के खिलाफ हैं । भक्त ज्ञानियों के खिलाफ हैं । संप्रदाय खड़े होते हैं । विरोध खड़ा होता है । द्वैत खड़ा होता है । विभाजन करो ही मत । तुम्हें परमात्मा ने हृदय भी दिया है । उसे भक्ति में डूबने दो । तुम्हें परमात्मा ने प्रज्ञा दी है । बुद्धि दी है । उसे ध्यान में डूबने दो । ये तुम्हारे 2 पंख । दोनों ही उड़ें । परमात्मा का खुला आकाश । बड़ा आकाश । तुम क्यों लंगड़ाने को उत्सुक हो ? लेकिन मैं जानता हूं । कारण है । लंगड़ाने की उत्सुकता में राज है । राज यह है कि 1 को चुनने में सरलता लगती है । जटिलता नहीं लगती । सीधा सीधा मामला लगता है । 2 और 2 = 4 । ऐसा मालूम पड़ता है । दोनों को चुनने में विरोधाभास हो जाता है । अगर तुम ध्यान को और भक्ति को 1 साथ चुनोगे । तो तुम पाओगे कि ये दोनों बड़ी विरोधी चीजें हैं । कहां प्रेम ।
उसमें तो दूसरे से जुड़ना है । परमात्मा के चरण खोजने हैं । और कहां ध्यान । उसमें तो सब दूसरे को छोड़ देना है । अकेले रह जाना है । दोनों विपरीत लगते हैं । और मैं तुमसे कहता हूं कि अगर तुम 2 विपरीत के बीच एकता को न देख पाए । तो तुम अंधे ही हो । जैसे दिन है । और रात है । और श्रम है । और विश्राम है । और जन्म है । और मृत्यु है । ऐसे ही भक्ति है । और ध्यान है । तुम जन्मे । तुम मरोगे भी । तुम यह नहीं कह सकते कि जन्मे । अब मर कैसे सकते हैं ? क्योंकि जन्म और मृत्यु में तो बड़ा विरोध मालूम पड़ता है । 1 में तो आते हैं । दूसरे में जाते हैं । तुम यह नहीं कहते कि दिन में तो सूरज उगता है । प्रकाश ही प्रकाश । रात में अंधकार हो जाता है । यह विरोध बरदाश्त के बाहर है । जीवन विरोध से बना है । जीवन विरोधाभासी है । पैराडाक्सिकल है । जीवन का रस और मजा ही यही है कि यहां पुरुष ही पुरुष नहीं हैं । स्त्रियां भी हैं । विरोध है । नदी के 2 किनारे हैं । और तभी तो सेतु बन पाता है । नहीं तो सेतु बने ही न । 1 ही किनारे पर कैसे तुम सेतु बनाओगे ? यहां अंधकार भी है । उजाला भी है । यहां भीतर की तरफ यात्रा भी हो सकती है । और बाहर की तरफ भी यात्रा हो सकती है । और अगर तुम दोनों को साथ साथ सम्हाल लो । कभी भीतर डुबकी ले लो । कभी बाहर भी डुबकी लो । बाहर भी वही है । और भीतर भी वही है । यह फर्क ही तुम्हारी नासमझी का है कि तुम बाहर और भीतर को 2 कर रहे हो । 1 ही है । जो आकाश तुम्हारे घर के बाहर है । वही तुम्हारे आंगन में भी है । आंगन के आकाश का गुण धर्म नहीं बदलता । और तुम्हारी दीवारों के भीतर जो कमरा घिरा है । उसमें जो आकाश है । उसका भी गुण धर्म नहीं बदलता । वह भी वही है । तुम्हारी अंतरात्मा और बाहर फैला हुआ परमात्मा 1 ही है । अगर इस 1 को तुम शुरू से ही साधो । तो तुम्हारे जीवन में बड़ा अदभुत अर्थ प्रकट होगा । जो साधारण ध्यानी के जीवन में प्रकट नहीं होता । जैसे मैं तुम्हें कहूं । जैन धर्म, बौद्ध धर्म ध्यान पर खड़े हैं । वे दोनों अंतर्मुखी धर्म हैं । तो तुम उनके साधुओं के जीवन में किसी तरह की रसधार न देखोगे । सूखे सूखे । मरे मरे । जितना मरा हुआ साधु हो । जैनी कहते हैं - उतना ही पहुंचा हुआ कि देखो । बिलकुल मरा हुआ है । देखो कैसा तप चल रहा है । शरीर बिलकुल पीला पड़ जाए । तो वे कहते हैं - स्वर्ण जैसी काया । शरीर पीला पड़ गया उपवास कर करके । मगर वे कहते हैं - देखो कैसी तपश्चर्या कि कुंदन जैसा चेहरा दिखाई पड़ रहा है । यही पता हो उनको कि यह आदमी संन्यासी नहीं है । तो वे पूछेंगे - भाई, कौन सी बीमारी हो गई है ? पीलिया हो गया है । क्या हो गया है ? अस्पताल में भरती हो जाओ । लेकिन ये मुनि महाराज हैं । तो उनके चरण छू रहे हैं । गुणगान गा रहे हैं । क्योंकि उनको पीलापन नहीं दिखाई पड़ता । स्वर्ण दिखाई पड़ता है । अपनी धारणा है । तो जैन साधु, बौद्ध भिक्षु धीरे धीरे सूख गए हैं । रस नहीं है । तुम उन्हें हंसते हुए न पाओगे । अगर जैन मुनि हंस दे । तो भक्तों को शक हो जाएगा कि यह कैसा मुनि । हंस रहा है । खिलखिला रहा है ? यह कहीं साधु का लक्षण है ? अगर वह छोटी छोटी बातों में रस ले । तो अनुयायी छोड़ देंगे उसे । उसे तो रस लेना ही नहीं है । उसे तो ऐसा डरा हुआ । दूर अपने को सिकोड़े हुए खड़ा रहना है । तो 1 भ्रांति पैदा हुई है । फिर दूसरी तरफ हिंदू हैं । उनके साधु संन्यासी हैं । भक्ति संप्रदाय हैं - रामानुज का । वल्लभ का । तुम उनको पाओगे कि वे सिर्फ खा पी रहे हैं । और मोटे हो रहे हैं । और कुछ नहीं । खीर पूड़ी । वह उनके जीवन की कुल साधना है । क्योंकि वही भोग भगवान को लगाते हैं । भगवान तो बहाना है । वही भोग खुद को लगाते हैं । तुम उनको मोर मुकुट पहने हुए देखोगे । वे तुम्हें विदूषक मालूम पड़ेंगे । किसी सर्कस में होते । नाटक में होते । जंचते । यहां क्या कर रहे हैं ? उनका व्यक्तित्व तुम्हें भोगी का मालूम पड़ेगा । योगी का नहीं मालूम पड़ेगा । लेकिन भक्त कहेंगे कि यह तो भक्ति का रस है । ये दोनों ही बातें अधूरी हो गई हैं । और दोनों ने नुकसान पहुंचाया । तो मैं तो तुमसे कहता हूं । दोनों को साथ ही लेना । और दोनों के बीच 1 रिदम । 1 छंदबद्धता पैदा कर लेना । कभी बाहर रस से भरे नाचते हुए । कभी भीतर शांत । शून्य । दोनों ही । और अगर तुम दोनों ही किनारों को छूकर बह सको । तो तुम्हारी जीवन सरिता सागर तक निश्चित ही पहुंच जाएगी । और तब तुम परमात्मा को पाकर ऐसा न पाओगे कि कुछ नया पा रहे हो । तुम ऐसा पाओगे कि यह तो पाया ही हुआ था । प्रतिपल पाया हुआ था । थोड़ा बड़ा हो गया । बड़ा हो गया । अब विराट हो गया । लेकिन ऐसा नहीं था कि कभी ऐसा भी था कि न पाया हो । थोड़ा था । हर कदम पर था । इसको मैं कदम कदम को मंजिल बना लेना कहता हूं । लेकिन ऐसा व्यक्ति विरोधाभासी होगा । कभी तुम उसे नाचते पाओगे । कभी उसे तुम शांत ध्यान करते पाओगे । कभी तुम उसे भोजन का आनंद लेते हुए भी पाओगे । क्योंकि वह कहेगा - अन्नम ब्रह्म कि अन्न ब्रह्म है । कभी तुम उसे उपवास करते हुए भी पाओगे । क्योंकि वह भीतर इतना डूब गया कि भोजन की याद ही न रही । ऐसा व्यक्ति ही मेरे लिए जीवन का काव्य है । ऐसा व्यक्ति मेरे लिए परिपूर्ण है । अंत में तो यह घटना सभी को घटती है । लेकिन शुरू से घट जाए । तो सौभाग्य । इसलिए मैं 3 विभाजन करता हूं । 1 - ज्ञानी, ध्यानी - वह लंगड़ा है । पहुंच जाता है लंगड़ाते । लंगड़े भी पहुंच जाते हैं । फिर भक्त - रस से भरा । लेकिन अधूरा है । उसे भीतर का कोई अनुभव नहीं है । शून्य की कोई प्रतीति नहीं है । वह परमात्मा की स्तुति तो गा सकता है । लेकिन चुप और मौन नहीं हो सकता । प्रार्थना कर सकता है । लेकिन ध्यान नहीं कर सकता । ध्यान और प्रार्थना का यही फर्क है । प्रार्थना है भक्त का अंग । जोर जोर से बोलता है । भगवान की स्तुति करता है । सुनता ही नहीं किसी की । मैंने पढ़ा है । 1 बहुत बड़ा मूर्तिकार और चित्रकार हुआ - माइकल ऐंजिलो । उसके जीवन को मैं पढ़ता था । तो 1 बढ़ा चर्च बन रहा था - सिसटाइन चैपल । और उसकी सीलिंग पर उसने वर्षो तक चित्र खोदे हैं । माइकल ऐंजिलो ने । बड़ा कठिन काम था । क्योंकि 24 घंटे पड़ा रहता । सीलिंग पर खोदता रहता । पीठ पर पड़े पड़े खोदना पड़ता । 1 दिन उसने देखा । थक गया था । तो हाथ थोड़े रुक गए थे । नीचे देखा कि कोई भी नहीं है । सिर्फ 1 औरत जो सदा आती है । और सदा प्रार्थना करती है बड़े जोर जोर से । वह परमात्मा से बातें कर रही है । बड़े जोर जोर से । उसे ऐसा मजाक सूझा । थका मांदा था । थोड़ी हंसी हो जाएगी । थोड़ा मन बहलाव हो जाएगा । उसे मजाक सूझा । तो उसने जोर से कहा कि - देखो, मैं जीसस क्राइस्ट हूं । और जो तुझे मांगना हो । मांग ले । ऊपर चढ़े हुए अपनी सीढ़ी से । वहीं से वह चिल्लाया । उस औरत ने ऊपर भी न देखा । उसने कहा - चुप रहो । बकवास बंद करो । मैं तुम्हारे बाप से बात कर रही हूं । भक्त कहीं किसी की सुनता है । वह अपनी धुन में है । मैं परम पिता परमात्मा से । तुम्हारे बाप से बात कर रही हूं । तुम बीच में न बोलो । उसने कहा । माइकल ऐंजिलो ने लिखा है कि मैं भी चौंक गया । मैं तो सोचता था कि यह मजाक समझेगी । बाकी वह अपने में लगी थी इतना कि उसको यह भी पता नहीं चला कि मैंने क्या कहा । क्या मामला था । भक्त अपनी लगाए हुए है स्तुति । चुप होना । वह जानता ही नहीं । वह भी अधूरापन है । वे भी पहुंच जाते हैं । लेकिन द्वार पर दोनों 1 हो जाते हैं । मैं तुमसे कहता हूं । तुम अभी से 1 हो जाओ । 
मेरा मार्ग तीसरा है । और उसमें प्रेम और ध्यान संयुक्त हैं । जितने तुम शांत हो सको । जितने मौन हो सको । उतने मौन हो जाओ । और जितना तुम प्रेम दे सको । उतना तुम प्रेम दे दो । 1 ऐसी घड़ी तुम्हारे जीवन में आ जाए कि शरीर तो नाचे । और तुम ध्यान में संलग्न । भीतर सब चुप । बाहर गीत चलता रहे । भीतर ध्यान । बाहर प्रार्थना होती रहे । वह मेरे लिए परिपूर्ण पुरुष का लक्षण है । और जिस दिन दुनिया में वैसा धर्म होगा । उस दिन दुनिया में अधिकतम लोगों के लिए धर्म के द्वार खुल जाएंगे । क्योंकि लंगड़े लंगड़े जाना बहुत थोड़े लोगों के लिए संभव है । दोनों पैर से जाना बहुत लोगों के लिए संभव हो सकता है । ओशो 

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326