राम किसी मिशन (खुदाई पैगाम, पंथ आदि) का दावा नही करता । यह कर्म सम्पूर्ण परमात्मा का ही है । हमें भगवान बुद्ध तथा अन्य लोगों के आदर्श और उदाहरणों से क्या करना है । हमारे मनों को तो दैवी-विधान की प्रत्यक्ष आज्ञाओं का पालन करना चाहिये । किन्तु भगवान बुद्ध और ईसामसीह भी अपने अनुयाईयों और मित्रों से त्यागे गये ।
इस प्रकार सात वर्ष के वनवास में से पिछले दो वर्ष बुद्ध भगवान ने नितान्त एकान्त में व्यतीत किये और तब एक दीप्तमान ज्योति प्राप्त (अनुभव) हुयी । जिसके बाद शिष्य लोग बुद्ध भगवान के पास एकत्र होने लगे । और बुद्ध भगवान ने भी आनन्द से उन्हें अपने पास आने दिया ।
प्यारे सदाशयवान ! माननीय सम्मतिदाताओं के मत और विचारों से प्रभावित मत हों । यदि इनके विचार ईश्वरीय नियमाकूल होते तो आज तक इन्होंने हजारों बुद्ध भगवान उत्पन्न कर दिये होते ।
धीरे धीरे किन्तु दृढ़तापूर्वक जिस प्रकार मधु में फ़ंसी हुयी मक्खी अपनी टांगे मधु से निकाल लेती है । इसी प्रकार रूप और व्यक्तिगत आसक्ति के एक एक कण को हमें अवश्य दूर करना होगा । सब संबन्ध एक दूसरे के बाद छिन्न भिन्न करने होंगे । सब बन्धन चट से तोङने होंगे । जब तक कि अन्तिम ईश्वर कृपा मृत्यु के रूप में आकर सारे अनिच्छित त्यागों की पूर्णाहुति न कर दे ।
दैवी-विधान का चक्र बङी निर्दयता से घूमता फ़िरता है । जो इस विधान (नियम) को आचरण में लाता है । वही इस पर आरूढ़ होता है अर्थात वही उस पर अनुशासन रखता है और जो अपनी इच्छा को दैवेच्छा के विरुद्ध खङा करता है । वह अवश्य कुचला जाता है और दारुण पीङायें झेलता है ।
दैवी-विधान त्रिशूल है । यह क्षुद्र अहंकार (अहंभाव) को छेद देता है । जो जानबूझ कर इस त्रिशूल रूपी सूली पर चढ़ता है । उसके लिये यह जगत स्वर्गवाटिका हो जाता है । अन्य सबके लिये यह जगत भ्रष्ट स्वर्ग है ।
यह दैवी-विधान अग्नि है । जो सबके सांसारिक स्नेह को भस्म कर देती है । मूढ़ मन को झुलसा देती है । और इससे बढ़कर अंतःकरण को शुद्ध करती तथा आध्यात्मिक रोग के सर्व प्रकार के कीङों को नष्ट कर देती है ।
धर्म इतना विश्व व्यापक (सार्वलौकिक) है और हमारे जीवन से इतना मार्मिक संबन्ध रखता है जितना कि भोजन क्रिया । सफ़ल नास्तिक व्यक्ति मानों अपने ही भीतर की इस पाचन विधि को नही जानता है ।
दैवी-विधान हमें छुरे की नोक के जोर से धार्मिक बनाता है । कोङे लगाकर हमें जगाता है । इस विधान से निस्तारा (छुटकारा) नही ।
दैवी-विधान सत्य है और अन्य सब मिथ्या है । समस्त रूप और व्यक्ति दैवी-विधान के सागर में केवल बुलबुले से हैं ।
सत्य की व्याख्या ऐसे की गयी है कि - सत्य वह है जो (एकरूप, एकरस) निरन्तर रहे । अथवा रहने का आग्रह करे ।
अब इस नाम रूप मय संसार में ये सब संबन्ध, देहें व पदार्थ, संस्थायें और सभायें कोई भी ऐसा नहीं, जो इस त्रिशूल के विधान के समान सदा एकरस रह सके ।
इस प्रकार सात वर्ष के वनवास में से पिछले दो वर्ष बुद्ध भगवान ने नितान्त एकान्त में व्यतीत किये और तब एक दीप्तमान ज्योति प्राप्त (अनुभव) हुयी । जिसके बाद शिष्य लोग बुद्ध भगवान के पास एकत्र होने लगे । और बुद्ध भगवान ने भी आनन्द से उन्हें अपने पास आने दिया ।
प्यारे सदाशयवान ! माननीय सम्मतिदाताओं के मत और विचारों से प्रभावित मत हों । यदि इनके विचार ईश्वरीय नियमाकूल होते तो आज तक इन्होंने हजारों बुद्ध भगवान उत्पन्न कर दिये होते ।
धीरे धीरे किन्तु दृढ़तापूर्वक जिस प्रकार मधु में फ़ंसी हुयी मक्खी अपनी टांगे मधु से निकाल लेती है । इसी प्रकार रूप और व्यक्तिगत आसक्ति के एक एक कण को हमें अवश्य दूर करना होगा । सब संबन्ध एक दूसरे के बाद छिन्न भिन्न करने होंगे । सब बन्धन चट से तोङने होंगे । जब तक कि अन्तिम ईश्वर कृपा मृत्यु के रूप में आकर सारे अनिच्छित त्यागों की पूर्णाहुति न कर दे ।
दैवी-विधान का चक्र बङी निर्दयता से घूमता फ़िरता है । जो इस विधान (नियम) को आचरण में लाता है । वही इस पर आरूढ़ होता है अर्थात वही उस पर अनुशासन रखता है और जो अपनी इच्छा को दैवेच्छा के विरुद्ध खङा करता है । वह अवश्य कुचला जाता है और दारुण पीङायें झेलता है ।
दैवी-विधान त्रिशूल है । यह क्षुद्र अहंकार (अहंभाव) को छेद देता है । जो जानबूझ कर इस त्रिशूल रूपी सूली पर चढ़ता है । उसके लिये यह जगत स्वर्गवाटिका हो जाता है । अन्य सबके लिये यह जगत भ्रष्ट स्वर्ग है ।
यह दैवी-विधान अग्नि है । जो सबके सांसारिक स्नेह को भस्म कर देती है । मूढ़ मन को झुलसा देती है । और इससे बढ़कर अंतःकरण को शुद्ध करती तथा आध्यात्मिक रोग के सर्व प्रकार के कीङों को नष्ट कर देती है ।
धर्म इतना विश्व व्यापक (सार्वलौकिक) है और हमारे जीवन से इतना मार्मिक संबन्ध रखता है जितना कि भोजन क्रिया । सफ़ल नास्तिक व्यक्ति मानों अपने ही भीतर की इस पाचन विधि को नही जानता है ।
दैवी-विधान हमें छुरे की नोक के जोर से धार्मिक बनाता है । कोङे लगाकर हमें जगाता है । इस विधान से निस्तारा (छुटकारा) नही ।
दैवी-विधान सत्य है और अन्य सब मिथ्या है । समस्त रूप और व्यक्ति दैवी-विधान के सागर में केवल बुलबुले से हैं ।
सत्य की व्याख्या ऐसे की गयी है कि - सत्य वह है जो (एकरूप, एकरस) निरन्तर रहे । अथवा रहने का आग्रह करे ।
अब इस नाम रूप मय संसार में ये सब संबन्ध, देहें व पदार्थ, संस्थायें और सभायें कोई भी ऐसा नहीं, जो इस त्रिशूल के विधान के समान सदा एकरस रह सके ।