आधारहीन, शाश्वत, निश्चल आकाश में प्रविष्ट होओ । इस विधि में आकाश के स्पेस के 3 गुण दिए गए हैं ।
1 आधारहीन - आकाश में कोई आधार नहीं हो सकता ।
2 शाश्वत - वह कभी समाप्त नहीं हो सकता ।
3 निश्चल - वह सदा ध्वनि रहित व मौन रहता है ।
इस आकाश में प्रवेश करो । वह तुम्हारे भीतर ही है । लेकिन मन सदा आधार खोजता है । मेरे पास लोग आते है । और मैं उनसे कहता हूं - आंखें बंद करके मौन बैठो । और कुछ भी मत करो । और वे कहते है - हमें कोई अवलंबन दो । सहारा दो । सहारे के लिए कोई मंत्र दो । क्योंकि हम खाली बैठ नहीं सकते हैं । खाली बैठना कठिन है । यदि मैं उन्हें कहता हूं कि - मैं तुम्हें मंत्र दे दूं । तो ठीक है । तब वह बहुत खुश होते हैं । वे उसे दोहराते रहते हैं । तब सरल है । आधार के रहते तुम कभी रिक्त नहीं हो सकते । यही कारण है कि वह सरल है । कुछ न कुछ होना चाहिए । तुम्हारे पास करने के लिए कुछ न कुछ होना चाहिए । करते रहने से कर्ता बना रहता है । करते रहने से तुम भरे रहते हो । चाहे तुम ओंकार से भरे हो । ओम से भरे हो । राम से भरे हो । जीसस से । आवमारिया से । किसी भी चीज से । किसी भी चीज से भरे हो । लेकिन तुम भरे हो । तब तुम ठीक रहते हो । मन खालीपन का विरोध करता है । वह सदा किसी चीज से भरा रहना चाहता है । क्योंकि जब तक वह भरा है । तब तक चल सकता है । यदि वह रिक्त हुआ । तो समाप्त हो जाएगा । रिक्तता में तुम अ-मन को उपलब्ध हो जाओगे । वही कारण है कि मन आधार की खोज करता है । यदि तुम अंतर आकाश, इनर स्पेस में प्रवेश करना चाहते हो । तो आधार मत खोजो । सब सहारे - मंत्र, परमात्मा, शास्त्र । जो भी तुम्हें सहारा देता है । वह सब छोड़ दो । यदि तुम्हें लगे कि किसी चीज से तुम्हें सहारा मिल रहा है । तो उसे छोड़ दो । और भीतर आ जाओ । आधारहीन । यह भयपूर्ण होगा । तुम भयभीत हो जाओगे । तुम वहां जा रहे हो । जहां तुम पूरी तरह खो सकते हो । हो सकता है । तुम वापस ही न आओ । क्योंकि वहां सब सहारे खो जाएंगे । किनारे से तुम्हारा संपर्क छूट जाएगा । और नदी तुम्हें कहां ले जाएगी । किसी को पता नहीं । तुम्हारा आधार खो सकता है । तुम 1 अनंत खाई में गिर सकते हो । इसलिए तुम्हें भय पकड़ता है । और तुम आधार खोजने लगते हो । चाहे वह झूठा ही आधार क्यों न हो । तुम्हें उससे राहत मिलती है । झूठा आधार भी मदद देता है । क्योंकि मन को कोई अंतर नहीं पड़ता कि आधार झूठा है । या सच्चा है । कोई आधार होना चाहिए । 1 बार 1 व्यक्ति मेरे पास आया । वह ऐसे घर में रहना था । जहां उसे लगता था कि - भूत प्रेत है । और वह बहुत चिंतित था । चिंता के कारण उसका भ्रम बढ़ने लगा । चिंता से वह बीमार पड़ गया । कमजोर हो गया । उसकी पत्नी ने कहा - यदि तुम इस घर से जरा रुके । तो मैं तो रहीं हूं । उसके बच्चों को 1 संबंधी के घर भेजना पडा । वह आदमी मेरे पास आया । और बोला - अब तो बहुत मुश्किल हो गयी है । मैं उन्हें साफ साफ देखता हूं । रात वे चलते है । पूरा घर भूतों से भरा हुआ है । आप मेरी मदद करें । तो मैंने उसे अपना 1 चित्र दिया । और कहा - इसे ले जाओ । अब उन भूतों से मैं निपट लूंगा । तुम बस आराम करो । और सो जाओ । तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है । उनसे मैं निपट लूंगा । उन्हें मैं देख लूंगा । अब यह मेरा काम है । और तुम बीच में मत आना । अब तुम्हें चिंता नहीं करनी है । वह अगले ही दिन आया । और बोला - बड़ी राहत मिली । मैं चैन से सोया । आपने तो चमत्कार कर दिया । और मैंने कुछ भी नहीं किया था । बस 1 आधार दिया । आधार से मन भर जाता है । वह खाली न रहा । वहां कोई उसके साथ था । सामान्य जीवन में तुम कई झूठे सहारों को पकड़े रहते हो । पर वे मदद करते हैं । और जब तक तुम स्वयं शक्तिशाली न हो जाओ । तुम्हें उनकी जरूरत रहेगी । इसीलिए मैं कहता हूं कि यह परम विधि है - कोई आधार नहीं ।
बुद्ध मृत्यु शय्या पर थे । और आनंद ने उनसे पूछा - आप हमें छोड़कर जा रहे है । अब हम क्या करेंगें ? हम कैसे उपलब्ध होंगे ? जब आप ही चले जाएंगे । तो हम जन्मों जन्मों के अंधकार में भटकते रहेंगे । हमारा मार्गदर्शन करने के लिए कोई भी नहीं रहेगा । प्रकाश तो विदा हो रहा है । तो बुद्ध ने कहा - तुम्हारे लिए यह अच्छा रहेगा । जब मैं नहीं रहूंगा । तो तुम अपना प्रकाश स्वयं बनोगे । अकेले चलो । कोई सहारा मत खोजों । क्योंकि सहारा ही अंतिम बाधा है । और ऐसा ही हुआ । आनंद संबुद्ध नहीं हुआ था । 40 वर्ष से वह बुद्ध के साथ था । वह निकटतम शिष्य था । बुद्ध की छाया की भांति था । उनके साथ चलता था । उनके साथ रहता था । उनका बुद्ध के साथ सबसे लंबा संबंध था । 40 वर्ष तक बुद्ध की करूणा उस पर बरसती रही थी । लेकिन कुछ भी नहीं हुआ । आनंद सदा की भांति अज्ञानी ही रहा । और जिस दिन बुद्ध ने शरीर छोड़ा । उसके दूसरे ही दिन आनंद संबुद्ध हो गया - दूसरे ही दिन । वह आधार ही बाधा था । जब बुद्ध न रहे । तो आनंद कोई आधार न खोज सका । यह कठिन है । यदि तुम किसी बुद्ध के साथ रहो । वह बुद्ध चला जाए । तो कोई भी तुम्हें सहारा नहीं दे सकता । अब कोई भी ऐसा न रहेगा । जिसे तुम पकड़ सकोगे । जिसने किसी बुद्ध को पकड़ लिया । वह संसार में किसी और को न पकड़ पायेगा । यह पूरा संसार खाली होगा । 1 बार तुमने किसी बुद्ध के प्रेम और करूणा को जान लिया हो । तो कोई प्रेम, कोई करूणा उसकी तुलना नहीं कर सकती । 1 बार तुमने उसका स्वाद ले लिया । तो और कुछ भी स्वाद लेने जैसा न रहा । तो 40 वर्ष में पहली बार आनंद अकेला हुआ । किसी भी सहारे को खोजने का कोई उपाय नहीं था । उसने परम सहारे को जाना था । अब छोटे छोटे सहारे किसी काम के नहीं । दूसरे ही दिन वह संबुद्ध हो गया । वह निश्चित ही आधारहीन, शाश्वत निश्चल अंतर आकाश में प्रवेश कर गया होगा । तो स्मरण रखो । कोई सहारा खोजने का प्रयास मत करो । आधारहीन ही जानो । यदि इस विधि को कहने का प्रयास कर रहे हो । तो आधारहीन हो जाओ । यही कृष्ण मूर्ति सिखा रहा है - आधारहीन हो जाओ । किसी गुरु को मत पकड़ो । किसी शास्त्र को मत पकड़ो । किसी भी चीज को मत पकड़ो । सब गुरु यही करते रहे है । हर गुरू का सारा प्रयास ही यह होता है कि पहले वह तुम्हें अपनी और आकर्षित करे । ताकि तुम उससे जुड़ने लगो । और जब तुम उससे जुड़ने लगते हो । जब तुम उसके निकट और घनिष्ठ होने लगते हो । तब वह जानता है कि पकड़ छुड़ाना होगा । और अब तुम किसी और को नहीं पकड़ सकते । यह बात ही खत्म हो गई । तुम किसी और के पास नहीं जा सकते । यह बात असंभव हो गई । तब वह पकड़ को काट डालता है । और अचानक तुम आधारहीन हो जाते हो । शुरू शुरू में तो बड़ा दुःख होगा । तुम रोओगे । और चिल्लाओगे । और चीखोगे । और तुम्हें लगेगा कि - सब कुछ खो गया । तुम दुःख की गहनत्म गहराइयों में गिर जाओगे । लेकिन वहां से व्यक्ति उठता है - अकेला और आधारहीन ।
आधारहीन, शाश्वत, निश्चल आकाश में प्रविष्ट होओ । उस आकाश को न कोई आदि है । न कोई अंत । और वह आकाश पूर्णत: शांत है । वहां कुछ भी नहीं है - कोई आवाज भी नहीं । कोई आवाज भी नहीं । कोई बुलबुला तक नहीं । सब कुछ निश्चल है । वह बिंदु तुम्हारे ही भीतर है । किसी भी क्षण तुम उससे प्रवेश कर सकते हो । यदि तुममें आधारहीन होने का साहस है । तो इसी क्षण तुम उसमें प्रवेश कर सकते हो । द्वार सुला है । निमंत्रण सबके लिए है । लेकिन साहस चाहिए - अकेले होने का । रिक्त होने का । मिट जाने का । और मरने का । और यदि तुम अपने भीतर आकाश में मिट जाओ । तो तुम ऐसे जीवन को पा लोगे । जो कभी नहीं मरता । तुम अमृत को उपलब्ध हो जाओगे । ओशो
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