ऊमरि तरु बिसाल तव माया । फल बृह्मांड अनेक निकाया ।
जीव चराचर जंतु समाना । भीतर बसहि न जानहिं आना ।
ते फल भच्छक कठिन कराला । तव भय डरत सदा सोउ काला ।जद्यपि बृह्म अखंड अनंता । अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता
ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ । जातें होइ चरन रति सोक मोह भृम जाइ
गो गोचर जहँ लग मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ । बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ।
एक दुष्ट अतिसय दुख रूपा । जा बस जीव परा भव कूपा ।
एक रचइ जग गुन बस जाके । प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके ।
ज्ञान मान जहँ एकउ नाहीं । देख बृह्म समान सब माही ।
कहिअ तात सो परम बिरागी । तृन सम सिद्धि तीन गुन त्यागी ।
माया ईस न आपु कहु जान कहिअ सो जीव । बंध मोच्छ प्रद सर्ब पर माया प्रेरक सीव ।
जाते बेगि द्रवउ मैं भाई । सो मम भगति भगत सुखदाई ।
डा. संजय । डा. संजय की पत्नी । डा. संजय की बेटी । डा. संजय का बेटा
सो सुतंत्र अवलंब न आना । तेहि आधीन ज्ञान बिज्ञाना । ???
भगति तात अनुपम सुखमूला । मिलइ जो संत होइ अनुकूला ।भगति कि साधन कहउ बखानी । सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ।
काम आदि मद दंभ न जाके । तात निरंतर बस मैं ताके ।
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा । तब मम धर्म उपज अनुरागा ।
लोभी जसु चह चार गुमानी । नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ।
डा. संजय
डा. संजय चिंताहरण आश्रम से दीक्षा प्राप्ति के बाद लौटकर । इसका विवरण अलग से लेख में प्रकाशित होगा । आपका बहुत बहुत आभार संजय जी ।
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