मैं विद्यार्थी था । मेरे जो शिक्षक थे । उनका मुझसे अति प्रेम था । M. A. की अंतिम परीक्षा । उन्होंने मुझे कहा कि - खयाल रखना । जो किताबों में लिखा है । वही लिखना । रत्ती भर इधर उधर की बात मत करना । तुम्हें गलत भी मालूम पड़े । तो भी वही लिखना । जो किताबों में लिखा है । मुझे जानते थे कि मैं वही लिखूंगा । जो मुझे ठीक लगता है । मैंने वही लिखा भी । जो मुझे ठीक लगता है । मगर परीक्षा में जो लिखा गया था । वह तो उन्होंने किसी तरह सम्हाल लिया । फिर 1 मुखाग्र परीक्षा भी थी - अंतिम । उसमें तो उन्होंने मुझे बहुत समझाया कि अब तो दूसरे विश्वविद्यालय के शिक्षक आ रहे हैं । अब मेरे हाथ में बात नहीं है । अब तो तुम ठीक वही कहना । जो किताब में लिखा है । नहीं तो मैं भी कुछ सहायता नहीं कर सकूंगा । वे शिक्षक आये । अलीगढ़ विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र के प्रधान थे । बुजुर्ग थे । उन्होंने मुझसे पहला ही प्रश्न पूछा कि - भारतीय दर्शन की क्या विशिष्टता है ? मैंने उनसे कहा कि - दर्शन भी भारतीय और अभारतीय हो सकता है ? मेरे प्रोफेसर मेरे पास ही बैठे थे । वे मेरी टांग में टांग मारने लगे कि तुम्हें जवाब देना है । तुम्हें सवाल नहीं पूछना है । जब मैंने उनकी टांग की कोई फिक्र न की । तो वे मेरा कुर्ता खींचने लगे । तो मैंने अलीगढ़ से आये हुए प्रोफेसर को कहा कि - मैं बहुत अड़चन में हूं । मैं आपका उत्तर दूं कि मेरे प्रोफेसर टांग में टांग मारते हैं । मेरा कुर्ता खींचते हैं । मैं इनकी फिक्र करूं ? मेरे शिक्षक तो बहुत घबडा गये । उन्होंने कहा - यह भी कोई कहने की बात थी । मैंने कहा कि भारतीय दर्शन । और गैर भारतीय दर्शन । ऐसा भेद हो नहीं सकता । दर्शन तो दर्शन है ।
दर्शन का अर्थ है - दृष्टि । तो फिर जीसस की हुई कि कृष्ण की । भेद क्या होगा ? सफेद चमडी वाला देखे कि काली चमडी वाला देखे । भेद क्या होगा ? चमड़ी से कुछ आंखों के रंग बदल जायेंगे । देखने के ढंग बदल जायेंगे ? जिन्होंने पश्चिम में भी देखा है । उन्होंने वही देखा है । जो पूरब में देखा है । हेराक्लाइटस ने वही देखा । जो बुद्ध ने देखा । पाइथागोरस ने वही देखा । जो पार्श्वनाथ ने देखा । जरा भी भेद नहीं है । और जिन्होंने भिन्न भिन्न देखा । वे सब अंधे हैं । आँख वालों ने 1 ही देखा । तो मैंने उनसे पूछा - अगर दर्शन शास्त्र में आँख वालों की ही गिनती करो । तो कभी भी । कहीं भी । किसी ने देखा हो । तो 1 ही बात देखी है । और अगर अंधों की भी गिनती करते हो । तब तो फिर हिसाब लगाना बहुत मुश्किल हो जायेगा । पर अंधों की गिनती दर्शन शास्त्र में होनी ही नहीं चाहिए । दर्शन शास्त्र में तो सिर्फ द्रष्टाओं की गिनती होनी चाहिए । मेरे प्रोफेसर को तो पक्का हो गया कि यह परीक्षा गयी । मगर अलीगढ़ से आये उन बुजुर्ग को बात बहुत जमी । उन्होंने कहा - मैंने कभी सोचा ही नहीं था । इस तरह कि यह भेद ठीक नहीं है । हमने तो मान ही लिया है कि भारतीय दर्शन, पाश्चात्य दर्शन । तुम्हारा उत्तर किताब का तो नहीं है । मगर उत्तर सही है । उन्होंने मुझे 99 अंक दिये 100 में से । मैंने पूछा - 1 आपने कैसे काटा ? कुछ गलती हो । तो मुझे आप बता दें । उन्होंने कहा - नहीं । तुम्हारी गलती के लिए नहीं काटा है । यह तो केवल अपनी रक्षा के लिए कि लोग सोचेंगे कि मैंने पक्षपात किया है । 100 के 100 दे दिये । 100 ही देने चाहिए । मुझे क्षमा करो । दिये नहीं जाते । 100 ही दिये जाने चाहिए । मगर दिये नहीं जाते - नियम से । अगर मैं 100 के 100 दे दूं । तो ऐसा लगेगा कि कुछ पक्षपात किया है । इसलिए 99 दे रहा हूं ।
1 पंडित है । लकीर का फकीर है । जैसा किताब में लिखा है । तोते की तरह दोहरा देता है । न सोचता । न विचार करता । न मनन है । न चिंतन है । न ध्यान है । वह विद्यार्थी है । विद्यार्थियों से सावधान रहना । उन्हें तो अभी स्वयं ही पता नहीं है । ओशो
**********
सिकंदर सारी दुनिया जीतना चाहता था । डायोजनीज ने उससे कहा - क्या करोगे सारी दुनिया को जीतने के बाद ? सिकंदर ने कहा - क्या करेंगे ? फिर विश्राम करेंगे ।
डायोजनीज खूब हंसने लगा । उसने कहा - अगर विश्राम ही करना है । तो हम अभी विश्राम कर रहे हैं । तो तुम भी करो । सारी दुनिया जीत कर विश्राम करोगे । यह बात कुछ समझ में नहीं आई । इसमें तर्क क्या है ? क्योंकि सारी दुनिया के जीतने का विश्राम से कोई भी तो संबंध नहीं है । विश्राम मैं बिना कुछ जीते कर रहा हूं । जरा मेरी तरफ देखो ।
और वह कर ही रहा था - विश्राम । वह नदी तट पर नग्न लेटा था । सुबह की सूरज की किरणें उसे नहला रही थीं । मस्त बैठा था । मस्त लेटा था । कहीं कुछ करने को न था । विश्राम में था । तो वह खूब
हंसने लगा । उसने कहा - सिकंदर तुम पागल हो । तुम जरा मुझे कहो तो कि अगर विश्राम दुनिया को जीतने के बाद हो सकता है । तो डायोजनीज कैसे विश्राम कर रहा है ? मैं कैसे विश्राम कर रहा हूं ? मैंने तो कुछ जीता नहीं । मेरे पास तो कुछ भी नहीं है । मेरे हाथ में 1 भिक्षा पात्र हुआ करता था । वह भी मैंने छोड़ दिया । वह इस कुत्ते की दोस्ती के कारण छोड़ दिया । कुत्ता उसके पास बैठा था । डायोजनीज का नाम ही हो गया था यूनान में - डायोजनीज कुत्ते वाला ।
वह कुत्ता सदा उसके साथ रहता था । उसने आदमियों से दोस्ती छोड़ दी । उसने कहा - आदमी कुत्तों से गए बीते हैं । उसने 1 कुत्ते से दोस्ती कर ली । और उसने कहा - इस कुत्ते से मुझे 1 शिक्षा मिली । इसलिए मैंने पात्र भी छोड़ दिया । पहले 1 भिक्षा पात्र रखता था । 1 दिन मैंने इस कुत्ते को नदी में पानी पीते देखा । मैंने कहा - अरे, यह बिना पात्र के पानी पी रहा है । मुझे पात्र की जरूरत पड़ती है । वहीं मैंने छोड़ दिया । इस कुत्ते ने मुझे हरा दिया । मैंने कहा - यह हमसे आगे पहुंचा हुआ है ? मुझे पात्र की जरूरत पड़ती है ? क्या जरूरत ? जब कुत्ता पी लेता है पानी । और कुत्ता भोजन कर लेता । तो मेरे पास कुछ भी नहीं है । फिर भी मैं विश्राम कर रहा हूं । और क्या तुम संदेह कर सकते हो मेरे विश्राम पर ?
नहीं । सिकंदर भी संदेह न कर सका । वह आदमी सच कह रहा था । वह निश्चित ही विश्राम में था । उसकी आंखें । उसका सारा भाव । उसके चेहरे की विभा । वह ऐसा था । जैसे दुनिया में कुछ पाने को बचा नहीं । सब पा लिया है । कुछ खोने को नहीं । कोई भय नहीं । कोई प्रलोभन नहीं ।
सिकंदर ने कहा - तुमसे मुझे ईर्ष्या होती है । चाहता मैं भी हूं ऐसा ही विश्राम । लेकिन अभी न कर सकूंगा । दुनियां तो जीतनी ही पड़ेगी । मैं यह तो बात मान ही नहीं सकता कि सिकंदर बिना दुनिया को जीते मर गया । डायोजनीज ने कहा - जाते हो । 1 बात कहे देता हूं । कहनी तो नहीं चाहिए । शिष्टाचार में आती भी नहीं । लेकिन मैं कहे देता हूं । तुम मरोगे बिना विश्राम किए ।
और सिकंदर बिना विश्राम किए ही मरा । भारत से लौटता था । रास्ते में ही मर गया । घर तक भी नहीं पहुंच पाया । और जब बीच में मरने लगा । और चिकित्सकों ने कहा कि - अब बचने की कोई उम्मीद नहीं । तो उसने कहा - सिर्फ मुझे 24 घंटे बचा दो । क्योंकि मैं अपनी मां को मिलना चाहता हूं । मैं अपना सारा राज्य देने को तैयार हूं । मैंने यह राज्य अपने पूरे जीवन को गंवा कर कमाया है । मैं वह सब लुटा देने को तैयार हूं - 24 घंटे । मैंने अपनी मां को वचन दिया है कि मरने के पहले जरूर उसके चरणों में आ जाऊंगा ।
चिकित्सकों ने कहा कि - तुम सारा राज्य दो । या कुछ भी करो । 1 श्वास भी बढ़ नहीं सकती । सिकंदर ने कहा - किसी ने अगर मुझे पहले यह कहा होता । तो मैं अपना जीवन न गंवाता । जिस राज्य को पाने में मैंने सारा जीवन गंवा दिया । उस राज्य को देने से 1 श्वास भी नहीं मिलती । डायोजनीज ठीक कहता था कि - मैं कभी विश्राम न कर सकूंगा ।
खयाल रखना । कठिन में 1 आकर्षण है - अहंकार को । सरल में अहंकार को कोई आकर्षण नहीं है । इसलिए सरल से हम चूक जाते हैं । सरल । परमात्मा बिलकुल सरल है । सत्य बिलकुल सरल है । सीधा साफ । जरा भी जटिलता नहीं ।
दर्शन का अर्थ है - दृष्टि । तो फिर जीसस की हुई कि कृष्ण की । भेद क्या होगा ? सफेद चमडी वाला देखे कि काली चमडी वाला देखे । भेद क्या होगा ? चमड़ी से कुछ आंखों के रंग बदल जायेंगे । देखने के ढंग बदल जायेंगे ? जिन्होंने पश्चिम में भी देखा है । उन्होंने वही देखा है । जो पूरब में देखा है । हेराक्लाइटस ने वही देखा । जो बुद्ध ने देखा । पाइथागोरस ने वही देखा । जो पार्श्वनाथ ने देखा । जरा भी भेद नहीं है । और जिन्होंने भिन्न भिन्न देखा । वे सब अंधे हैं । आँख वालों ने 1 ही देखा । तो मैंने उनसे पूछा - अगर दर्शन शास्त्र में आँख वालों की ही गिनती करो । तो कभी भी । कहीं भी । किसी ने देखा हो । तो 1 ही बात देखी है । और अगर अंधों की भी गिनती करते हो । तब तो फिर हिसाब लगाना बहुत मुश्किल हो जायेगा । पर अंधों की गिनती दर्शन शास्त्र में होनी ही नहीं चाहिए । दर्शन शास्त्र में तो सिर्फ द्रष्टाओं की गिनती होनी चाहिए । मेरे प्रोफेसर को तो पक्का हो गया कि यह परीक्षा गयी । मगर अलीगढ़ से आये उन बुजुर्ग को बात बहुत जमी । उन्होंने कहा - मैंने कभी सोचा ही नहीं था । इस तरह कि यह भेद ठीक नहीं है । हमने तो मान ही लिया है कि भारतीय दर्शन, पाश्चात्य दर्शन । तुम्हारा उत्तर किताब का तो नहीं है । मगर उत्तर सही है । उन्होंने मुझे 99 अंक दिये 100 में से । मैंने पूछा - 1 आपने कैसे काटा ? कुछ गलती हो । तो मुझे आप बता दें । उन्होंने कहा - नहीं । तुम्हारी गलती के लिए नहीं काटा है । यह तो केवल अपनी रक्षा के लिए कि लोग सोचेंगे कि मैंने पक्षपात किया है । 100 के 100 दे दिये । 100 ही देने चाहिए । मुझे क्षमा करो । दिये नहीं जाते । 100 ही दिये जाने चाहिए । मगर दिये नहीं जाते - नियम से । अगर मैं 100 के 100 दे दूं । तो ऐसा लगेगा कि कुछ पक्षपात किया है । इसलिए 99 दे रहा हूं ।
1 पंडित है । लकीर का फकीर है । जैसा किताब में लिखा है । तोते की तरह दोहरा देता है । न सोचता । न विचार करता । न मनन है । न चिंतन है । न ध्यान है । वह विद्यार्थी है । विद्यार्थियों से सावधान रहना । उन्हें तो अभी स्वयं ही पता नहीं है । ओशो
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सिकंदर सारी दुनिया जीतना चाहता था । डायोजनीज ने उससे कहा - क्या करोगे सारी दुनिया को जीतने के बाद ? सिकंदर ने कहा - क्या करेंगे ? फिर विश्राम करेंगे ।
डायोजनीज खूब हंसने लगा । उसने कहा - अगर विश्राम ही करना है । तो हम अभी विश्राम कर रहे हैं । तो तुम भी करो । सारी दुनिया जीत कर विश्राम करोगे । यह बात कुछ समझ में नहीं आई । इसमें तर्क क्या है ? क्योंकि सारी दुनिया के जीतने का विश्राम से कोई भी तो संबंध नहीं है । विश्राम मैं बिना कुछ जीते कर रहा हूं । जरा मेरी तरफ देखो ।
और वह कर ही रहा था - विश्राम । वह नदी तट पर नग्न लेटा था । सुबह की सूरज की किरणें उसे नहला रही थीं । मस्त बैठा था । मस्त लेटा था । कहीं कुछ करने को न था । विश्राम में था । तो वह खूब
हंसने लगा । उसने कहा - सिकंदर तुम पागल हो । तुम जरा मुझे कहो तो कि अगर विश्राम दुनिया को जीतने के बाद हो सकता है । तो डायोजनीज कैसे विश्राम कर रहा है ? मैं कैसे विश्राम कर रहा हूं ? मैंने तो कुछ जीता नहीं । मेरे पास तो कुछ भी नहीं है । मेरे हाथ में 1 भिक्षा पात्र हुआ करता था । वह भी मैंने छोड़ दिया । वह इस कुत्ते की दोस्ती के कारण छोड़ दिया । कुत्ता उसके पास बैठा था । डायोजनीज का नाम ही हो गया था यूनान में - डायोजनीज कुत्ते वाला ।
वह कुत्ता सदा उसके साथ रहता था । उसने आदमियों से दोस्ती छोड़ दी । उसने कहा - आदमी कुत्तों से गए बीते हैं । उसने 1 कुत्ते से दोस्ती कर ली । और उसने कहा - इस कुत्ते से मुझे 1 शिक्षा मिली । इसलिए मैंने पात्र भी छोड़ दिया । पहले 1 भिक्षा पात्र रखता था । 1 दिन मैंने इस कुत्ते को नदी में पानी पीते देखा । मैंने कहा - अरे, यह बिना पात्र के पानी पी रहा है । मुझे पात्र की जरूरत पड़ती है । वहीं मैंने छोड़ दिया । इस कुत्ते ने मुझे हरा दिया । मैंने कहा - यह हमसे आगे पहुंचा हुआ है ? मुझे पात्र की जरूरत पड़ती है ? क्या जरूरत ? जब कुत्ता पी लेता है पानी । और कुत्ता भोजन कर लेता । तो मेरे पास कुछ भी नहीं है । फिर भी मैं विश्राम कर रहा हूं । और क्या तुम संदेह कर सकते हो मेरे विश्राम पर ?
नहीं । सिकंदर भी संदेह न कर सका । वह आदमी सच कह रहा था । वह निश्चित ही विश्राम में था । उसकी आंखें । उसका सारा भाव । उसके चेहरे की विभा । वह ऐसा था । जैसे दुनिया में कुछ पाने को बचा नहीं । सब पा लिया है । कुछ खोने को नहीं । कोई भय नहीं । कोई प्रलोभन नहीं ।
सिकंदर ने कहा - तुमसे मुझे ईर्ष्या होती है । चाहता मैं भी हूं ऐसा ही विश्राम । लेकिन अभी न कर सकूंगा । दुनियां तो जीतनी ही पड़ेगी । मैं यह तो बात मान ही नहीं सकता कि सिकंदर बिना दुनिया को जीते मर गया । डायोजनीज ने कहा - जाते हो । 1 बात कहे देता हूं । कहनी तो नहीं चाहिए । शिष्टाचार में आती भी नहीं । लेकिन मैं कहे देता हूं । तुम मरोगे बिना विश्राम किए ।
और सिकंदर बिना विश्राम किए ही मरा । भारत से लौटता था । रास्ते में ही मर गया । घर तक भी नहीं पहुंच पाया । और जब बीच में मरने लगा । और चिकित्सकों ने कहा कि - अब बचने की कोई उम्मीद नहीं । तो उसने कहा - सिर्फ मुझे 24 घंटे बचा दो । क्योंकि मैं अपनी मां को मिलना चाहता हूं । मैं अपना सारा राज्य देने को तैयार हूं । मैंने यह राज्य अपने पूरे जीवन को गंवा कर कमाया है । मैं वह सब लुटा देने को तैयार हूं - 24 घंटे । मैंने अपनी मां को वचन दिया है कि मरने के पहले जरूर उसके चरणों में आ जाऊंगा ।
चिकित्सकों ने कहा कि - तुम सारा राज्य दो । या कुछ भी करो । 1 श्वास भी बढ़ नहीं सकती । सिकंदर ने कहा - किसी ने अगर मुझे पहले यह कहा होता । तो मैं अपना जीवन न गंवाता । जिस राज्य को पाने में मैंने सारा जीवन गंवा दिया । उस राज्य को देने से 1 श्वास भी नहीं मिलती । डायोजनीज ठीक कहता था कि - मैं कभी विश्राम न कर सकूंगा ।
खयाल रखना । कठिन में 1 आकर्षण है - अहंकार को । सरल में अहंकार को कोई आकर्षण नहीं है । इसलिए सरल से हम चूक जाते हैं । सरल । परमात्मा बिलकुल सरल है । सत्य बिलकुल सरल है । सीधा साफ । जरा भी जटिलता नहीं ।
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