गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुर्साक्षात परम ब्रह्म । तस्मै श्री गुरुवे नमः । यह सूत्र अपूर्व है । थोड़े से शब्दों में इतने राज़ों को 1 साथ रख देने की कला सदियों सदियों में निखरती है । यह सूत्र किसी 1 व्यक्ति ने निर्माण किया हो । ऐसा नहीं । अनंत काल में न मालूम कितने लोगो की जीवन चेतना से गुजर कर इस सूत्र ने यह रूप पाया होगा । इसलिये कौन इसका रचयिता है ? कहा नहीं जा सकता । यह सूत्र किसी 1 व्यक्ति का अनुदान नहीं है । सदियों के अनुभव का निचोड़ जैसे लाखों लाखों गुलाब के फूल से कोई इत्र की 1 बूंद निचोड़े । ऐसा यह अपूर्व अद्वितीय सूत्र है ।
सुना तुमने बहुत बार है । इसलिये शायद समझना भी भूल गये होओगे । यह भ्रांति होती है । जिस बात को हम बहुत बार सुन लेते हैं । लगता है । समझ गये । बिना समझे । और इस सूत्र को समझने के लिये प्रज्ञा चाहिये । बोध चाहिये । निखार चाहिये - चेतना का । ध्यान की गरिमा चाहिये । समझने की कोशिश करो ।
ईसाईयत ने परमात्मा को 3 रूप वाला कहा है । पता नहीं क्यों ? लेकिन पृथ्वी के कोने कोने में जहाँ भी धर्म का कभी भी अभ्युदय हुआ है । 3 का आंकड़ा किसी न किसी कोने से उभर ही आया है । ईसाई कहते हैं उसे - ट्रिनिटी । वह पिता रूप है । पुत्र रूप है । और दोनों के मध्य में - पवित्र आत्मा रूप है । लेकिन 3 का आंकड़ा तो ठीक पकड़ में आया । मगर 3 को जो शब्द दिये । वो बहुत बचकाने हैं । जैसे छोटा सा बच्चा परमात्मा के संबंध में सोचता हो । तो वो पिता के अर्थों में ही सोच सकता है । उसकी कल्पना उसकी मनोचेतना से बहुत दूर नहीं जा सकती । इसलिये ईसाईयत में थोड़ा बचकानापन है । उसकी धारणाओं में वह परिष्कार नहीं है ।
भारत ने भी इस 3 के आंकड़े को निखारा है । सदियों सदियों में इस पर धार रखी है । हम परमात्मा को त्रिमूर्ति कहते हैं । उसके 3 चेहरे हैं । वह तो 1 है । लेकिन उसके 3 पहलू हैं । वह तो 1 है । लेकिन उसके 3 आयाम हैं । उसके मंदिर के 3 द्वार हैं । और त्रिमूर्ति की धारणा में और विकास नहीं किया जा सकता । वह पराकाष्ठा है ।
ब्रह्मा विष्णु महेश । ये 3 परमात्मा के चेहरे हैं । ब्रह्मा का अर्थ होता है - सर्जक, सृष्टा । विष्णु का अर्थ होता है - संभालने वाला । और महेश का अर्थ होता है - विध्वंसक । यह विध्वंस की धारणा भी परमात्मा में समाविष्ट भी की जा सकती है । यह सिवाय इस देश के और कहीं भी घटी नहीं । सृष्टा तो सभी संस्कृतियों ने उसे कहा है । लेकिन विध्वंसक केवल हम कह सके ।
सृजन तो आधी बात है । 1 पहलू है । जो बनायेगा । वह मिटाने में भी समर्थ होना चाहिये । सच तो ये है । जो मिटा न सके । वह बना भी न सकेगा । जैसे कोई मूर्तिकार मूर्ति बनाये । तो मूर्ति का निर्माण ही विध्वंस से शुरू होता है । उठता है - छेनी हथोड़ी । तोड़ता है पत्थर को । अगर पत्थर में प्राण होते । तो चीखता कि - क्यों मुझे तोड़ते हो । यूं टूट टूट करके पत्थर में से प्रतिमा प्रकट होती है । बुद्ध की । महावीर की । कृष्ण की । विध्वंस के बिना सृजन नहीं है । और जो चीज़ भी बनेगी । उसे मिटना भी होगा । क्योंकि बनने की घटना समय में घटती है । और समय में शाश्वत कुछ भी नहीं हो सकता ।
जो बना है । उसे मिटना ही होगा । होने में 1 तरह की थकान है । हर चीज़ थक जाती है । यह जानकार तुम चकित होगे कि आधुनिक विज्ञान कहता है कि धातुयें भी थक जाती हैं ।
सर जगदीश चन्द्र बसु की बहुत सी खोजों में 1 खोज यह भी थी । जिन पर उनको नोबल पुरस्कार मिला था कि धातुयें भी थक जाती हैं । जैसे कलम से तुम लिखते हो । तो तुम्हारा हाथ ही नहीं थकता । कलम भी थक जाती है । जगदीश चन्द्र बसु ने तो इसे मापने की भी व्यवस्था खोज ली थी । और अब तो जगदीश चन्द्र को हुये काफी समय हो गया । आधी सदी बीत गई । इस आधी सदी में बहुत परिष्कार हुआ है विज्ञान का । अब तो पता चला है । हर चीज़ थक जाती है । मशीने थक जाती हैं । उनको भी विश्राम चाहिये ।
विध्वंस विश्राम हैं ।
जन्म - 1 पहलू । जीवन - दूसरा पहलू । मृत्यु - तीसरा पहलू । जीवन तो थकायेगा । इसलिये मृत्यु को कभी हमने बुरे भाव से नहीं देखा । हमने यम को भी देवता कहा । हमने उसे भी शैतान नहीं कहा । वह भी दिव्य है । मृत्यु भी दिव्य है । हम लेकिन अकेले हैं । जिन्होंने यह बात पहचानी थी कि जीवन मूल्यवान है । जन्म मूल्यवान है । मृत्यु भी मूल्यवान है । और तीनो को दिव्य कहा । परमात्मा के 3 रूप कहा ।
ब्रह्मा विष्णु महेश । ये जानकार तुम चकित होओगे कि भारत में पूरे भारत में ब्रह्मा को समर्पित केवल 1 मंदिर हैं । यह बात महत्वपूर्ण है । क्योंकि ब्रह्मा का काम तो हो चुका । ये तो प्रतीक रूप से 1 मंदिर समर्पित कर दिया । यूं ब्रह्मा का काम पूरा हो चुका । हाँ विष्णु के बहुत मंदिर हैं । सारे अवतार विष्णु के है - राम, कृष्ण, बुद्ध, परशुराम । ये सब विष्णु के अवतार हैं । इनमें कोई भी ब्रह्मा का अवतार नहीं है । ये संभालने वाले हैं । जैसे घर में कोई बीमार हो । तो डॉक्टर को बुलाना पड़ता है । ऐसे आदमी बीमार है । तो जीवन के विराट स्रोत से चिकित्सक पैदा होते रहें ।
बुद्ध ने कहा है कि - मैं वैद्य हूं । विद्वान नहीं । और नानक ने भी कहा है कि - मैं वैद्य हूं । मेरा काम है । तुम्हारे जीवन को रोगों से मुक्त कर देना । तुम्हारे जीवन को स्वास्थ्य दे देना । तुम्हें जीवन जीने की जो कला है । उसे दिखा देना । तो विष्णु के बहुत मंदिर हैं । राम का मंदिर हो कि कृष्ण का मंदिर हो कि बुद्ध का मंदिर हो । सब विष्णु के मंदिर हैं । ये सब विष्णु के अवतार हैं । विष्णु का काम बड़ा है । क्योंकि जन्म 1 क्षण में घट जाता है । मृत्यु भी 1 क्षण में घट जाती हैं । जीवन तो वर्षों लम्बा होता है । और तीसरी बात भी ख्याल रखना कि विष्णु से भी ज्यादा मंदिर शिव के हैं । महेश के है । इतने मंदिर हैं कि मंदिर बनाना भी हमें बंद करना पड़ा । अब तो कहीं भी 1 शंकर की पिंडी रख दी - झाड़ के नीचे । मंदिर बन गया । कहीं से भी गोल मटोल शंकर को ढूंढ़ लाये । बिठा दिया । 2 फूल चढ़ा दिये । फूल भी कितने चढाओगे । इसलिए शंकर पर पत्तियां ही चढ़ा देते हैं - वेल पत्री । फूल भी कहाँ से लाओगे । इतने शंकर के मंदिर हैं । हर झाड़ के नीचे । गांव गांव में । ये प्रतीक उपयोगी हैं । जन्म हो चुका । सृष्टि हो चुकी । ब्रह्मा का काम निपट गया ।
जीवन चल रहा है । इसलिये विष्णु का काम जारी है । लेकिन बड़ा काम तो होने को है । वह महेश का है । वह है । जीवन को फिर से निमज्जित कर देना । असृष्टि । जीवन को विसर्जित कर देना ।
महाप्रलय । जिसमें कि सब खो जायेगा । और फिर सब जागेगा । ताज़ा होके जागेगा । हम निद्रा को भी छोटी मृत्यु कहते हैं । उसका भी कारण यही है कि प्रति रात्रि जब तुम गहरी निद्रा में होते हो । तो छोटी सी मृत्यु घटती है । छोटी सी आणविक । जब चित्त विल्कुल शून्य हो जाता है - निर्विचार । इतना निर्विचार कि स्वप्न की झलक भी नहीं रह जाती । तब तुम कहाँ चले जाते हो ? तब तुम मृत्यु में लीन हो जाते हो । तुम वहीँ पहुंच जाते हो । जहाँ लोग मरकर पहुँचते हैं ।
सुषुप्ति छोटी सी मृत्यु है । इसलिये तो सुबह तुम ताज़े मालुम पड़ते हो । वो ताजगी रात तुम जो मरे । उसके कारण होती है । सुबह तुम जो प्रसन्न उठते हो । जो प्रमुदित झलक होती है । फिर जीवन में रस आ गया होता है । फिर पैरों में गति आ गई होती है । फिर तुम काम धाम के लिये तत्पर हो गये होते हो । वो इसीलिये कि रात तुम मर गये ।
सुषुप्ति स्वप्न रहित निद्रा । अगर सिर्फ आधा घड़ी को भी रात मिल जाये । तो पर्याप्त है । तुम्हें 24 घंटे के लिये ताज़ा कर जाती । रात वृक्ष भी सो जाते । तभी तो सुबह उनके फूल फिर खिल आते हैं । फिर सुंगंध उड़ने लगती है । रात पक्षी भी सो जाते । तभी तो सुबह उनके कंठो से फिर गीत झरने लगते हैं । उन गीतों को मैं साधारण गीत नहीं कहता । श्रीमद भगवत गीता कहता हूं । वे वही गीत हैं । जो कृष्ण के गीत हैं । उनके कंठो से क़ुरआन की आयते उठने लगती हैं । लेकिन ये सारा चमत्कार घटता है । रात छोटी सी मृत्यु के कारण ।
तुम देखते हो । छोटे बच्चे पैदा होते हैं । उनकी सरलता उनका सौंदर्य उनकी सौम्यता उनका प्रसाद । ये कहाँ से आया ? ये भी वूढ़े थे । मर गये । फिर पुनर्जीवित हुये हैं । धर्म जीते जी मरने की । और पुनर्जीवित होने की कला है । इसलिये गुरु को हमने तीनो नाम दिये - ब्रह्मा विष्णु महेश । ब्रह्मा का अर्थ है - जो बनाये । विष्णु का अर्थ है - जो संभाले । और महेश का अर्थ है - जो मिटाये ।
सदगुरु वही है । जो तीनो कलाएं जानता हो । स्रष्टि तो 1 अवसर है । मंच है । जिस पर तुम जीने के अभिनय की कला सीखो । और यूं जियो । जैसे कमल के पत्ते पानी में । पानी में और पानी छुये भी न । सदगुरु तुम्हें यही सिखाता है । और ये 3 घटनाएं सदगुरु के पास घट जायें । तो चौथी घटना तुम्हारे भीतर घटती है । इसलिये उस चौथे को भी हमने गुरु स्मरण में कहा है - गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः ।
ये तो 3 चरण हुये । फिर जो अनुभूति तुम्हारे भीतर इन 3 चरणों से होगी । ये तो 3 द्वार हुए । इनसे प्रवेश करके मंदिर की जो प्रतिमा का मिलन होगा । वो चौथा तुरीय है - चौथी अवस्था ।
गुरुर्साक्षात परम ब्रह्म - तब तुम जानोगे । जिसके पास तुम बैठे थे । वो कोई व्यक्ति नहीं था । जिसने संभाला । मारा । पीटा । तोडा । जगाया । वो कोई व्यक्ति नहीं था । वह तो था ही नहीं । उसके भीतर परमात्मा ही था । और जिस दिन तुम अपने गुरु के भीतर परमात्मा को देख लोगे । उस दिन अपने भीतर भी परमात्मा को देख लोगे । क्योंकि गुरु तो दर्पण है । उसमें तुम्हे अपनी ही झलक दिखाई पड़ जायेगी । आँख निर्मल हुई कि झलक दिखाई पड़ी । 3 चरण हैं । चौथी मंजिल है । और सदगुरु के पास चारो कदम पूरे हो जाते हैं ।
तस्मै श्री गुरुवे नमः। इसलिये गुरु को नमस्कार । इसलिये गुरु को नमन । इसलिये झुकते हैं उसके लिये ।
सुना तुमने बहुत बार है । इसलिये शायद समझना भी भूल गये होओगे । यह भ्रांति होती है । जिस बात को हम बहुत बार सुन लेते हैं । लगता है । समझ गये । बिना समझे । और इस सूत्र को समझने के लिये प्रज्ञा चाहिये । बोध चाहिये । निखार चाहिये - चेतना का । ध्यान की गरिमा चाहिये । समझने की कोशिश करो ।
ईसाईयत ने परमात्मा को 3 रूप वाला कहा है । पता नहीं क्यों ? लेकिन पृथ्वी के कोने कोने में जहाँ भी धर्म का कभी भी अभ्युदय हुआ है । 3 का आंकड़ा किसी न किसी कोने से उभर ही आया है । ईसाई कहते हैं उसे - ट्रिनिटी । वह पिता रूप है । पुत्र रूप है । और दोनों के मध्य में - पवित्र आत्मा रूप है । लेकिन 3 का आंकड़ा तो ठीक पकड़ में आया । मगर 3 को जो शब्द दिये । वो बहुत बचकाने हैं । जैसे छोटा सा बच्चा परमात्मा के संबंध में सोचता हो । तो वो पिता के अर्थों में ही सोच सकता है । उसकी कल्पना उसकी मनोचेतना से बहुत दूर नहीं जा सकती । इसलिये ईसाईयत में थोड़ा बचकानापन है । उसकी धारणाओं में वह परिष्कार नहीं है ।
भारत ने भी इस 3 के आंकड़े को निखारा है । सदियों सदियों में इस पर धार रखी है । हम परमात्मा को त्रिमूर्ति कहते हैं । उसके 3 चेहरे हैं । वह तो 1 है । लेकिन उसके 3 पहलू हैं । वह तो 1 है । लेकिन उसके 3 आयाम हैं । उसके मंदिर के 3 द्वार हैं । और त्रिमूर्ति की धारणा में और विकास नहीं किया जा सकता । वह पराकाष्ठा है ।
ब्रह्मा विष्णु महेश । ये 3 परमात्मा के चेहरे हैं । ब्रह्मा का अर्थ होता है - सर्जक, सृष्टा । विष्णु का अर्थ होता है - संभालने वाला । और महेश का अर्थ होता है - विध्वंसक । यह विध्वंस की धारणा भी परमात्मा में समाविष्ट भी की जा सकती है । यह सिवाय इस देश के और कहीं भी घटी नहीं । सृष्टा तो सभी संस्कृतियों ने उसे कहा है । लेकिन विध्वंसक केवल हम कह सके ।
सृजन तो आधी बात है । 1 पहलू है । जो बनायेगा । वह मिटाने में भी समर्थ होना चाहिये । सच तो ये है । जो मिटा न सके । वह बना भी न सकेगा । जैसे कोई मूर्तिकार मूर्ति बनाये । तो मूर्ति का निर्माण ही विध्वंस से शुरू होता है । उठता है - छेनी हथोड़ी । तोड़ता है पत्थर को । अगर पत्थर में प्राण होते । तो चीखता कि - क्यों मुझे तोड़ते हो । यूं टूट टूट करके पत्थर में से प्रतिमा प्रकट होती है । बुद्ध की । महावीर की । कृष्ण की । विध्वंस के बिना सृजन नहीं है । और जो चीज़ भी बनेगी । उसे मिटना भी होगा । क्योंकि बनने की घटना समय में घटती है । और समय में शाश्वत कुछ भी नहीं हो सकता ।
जो बना है । उसे मिटना ही होगा । होने में 1 तरह की थकान है । हर चीज़ थक जाती है । यह जानकार तुम चकित होगे कि आधुनिक विज्ञान कहता है कि धातुयें भी थक जाती हैं ।
सर जगदीश चन्द्र बसु की बहुत सी खोजों में 1 खोज यह भी थी । जिन पर उनको नोबल पुरस्कार मिला था कि धातुयें भी थक जाती हैं । जैसे कलम से तुम लिखते हो । तो तुम्हारा हाथ ही नहीं थकता । कलम भी थक जाती है । जगदीश चन्द्र बसु ने तो इसे मापने की भी व्यवस्था खोज ली थी । और अब तो जगदीश चन्द्र को हुये काफी समय हो गया । आधी सदी बीत गई । इस आधी सदी में बहुत परिष्कार हुआ है विज्ञान का । अब तो पता चला है । हर चीज़ थक जाती है । मशीने थक जाती हैं । उनको भी विश्राम चाहिये ।
विध्वंस विश्राम हैं ।
जन्म - 1 पहलू । जीवन - दूसरा पहलू । मृत्यु - तीसरा पहलू । जीवन तो थकायेगा । इसलिये मृत्यु को कभी हमने बुरे भाव से नहीं देखा । हमने यम को भी देवता कहा । हमने उसे भी शैतान नहीं कहा । वह भी दिव्य है । मृत्यु भी दिव्य है । हम लेकिन अकेले हैं । जिन्होंने यह बात पहचानी थी कि जीवन मूल्यवान है । जन्म मूल्यवान है । मृत्यु भी मूल्यवान है । और तीनो को दिव्य कहा । परमात्मा के 3 रूप कहा ।
ब्रह्मा विष्णु महेश । ये जानकार तुम चकित होओगे कि भारत में पूरे भारत में ब्रह्मा को समर्पित केवल 1 मंदिर हैं । यह बात महत्वपूर्ण है । क्योंकि ब्रह्मा का काम तो हो चुका । ये तो प्रतीक रूप से 1 मंदिर समर्पित कर दिया । यूं ब्रह्मा का काम पूरा हो चुका । हाँ विष्णु के बहुत मंदिर हैं । सारे अवतार विष्णु के है - राम, कृष्ण, बुद्ध, परशुराम । ये सब विष्णु के अवतार हैं । इनमें कोई भी ब्रह्मा का अवतार नहीं है । ये संभालने वाले हैं । जैसे घर में कोई बीमार हो । तो डॉक्टर को बुलाना पड़ता है । ऐसे आदमी बीमार है । तो जीवन के विराट स्रोत से चिकित्सक पैदा होते रहें ।
बुद्ध ने कहा है कि - मैं वैद्य हूं । विद्वान नहीं । और नानक ने भी कहा है कि - मैं वैद्य हूं । मेरा काम है । तुम्हारे जीवन को रोगों से मुक्त कर देना । तुम्हारे जीवन को स्वास्थ्य दे देना । तुम्हें जीवन जीने की जो कला है । उसे दिखा देना । तो विष्णु के बहुत मंदिर हैं । राम का मंदिर हो कि कृष्ण का मंदिर हो कि बुद्ध का मंदिर हो । सब विष्णु के मंदिर हैं । ये सब विष्णु के अवतार हैं । विष्णु का काम बड़ा है । क्योंकि जन्म 1 क्षण में घट जाता है । मृत्यु भी 1 क्षण में घट जाती हैं । जीवन तो वर्षों लम्बा होता है । और तीसरी बात भी ख्याल रखना कि विष्णु से भी ज्यादा मंदिर शिव के हैं । महेश के है । इतने मंदिर हैं कि मंदिर बनाना भी हमें बंद करना पड़ा । अब तो कहीं भी 1 शंकर की पिंडी रख दी - झाड़ के नीचे । मंदिर बन गया । कहीं से भी गोल मटोल शंकर को ढूंढ़ लाये । बिठा दिया । 2 फूल चढ़ा दिये । फूल भी कितने चढाओगे । इसलिए शंकर पर पत्तियां ही चढ़ा देते हैं - वेल पत्री । फूल भी कहाँ से लाओगे । इतने शंकर के मंदिर हैं । हर झाड़ के नीचे । गांव गांव में । ये प्रतीक उपयोगी हैं । जन्म हो चुका । सृष्टि हो चुकी । ब्रह्मा का काम निपट गया ।
जीवन चल रहा है । इसलिये विष्णु का काम जारी है । लेकिन बड़ा काम तो होने को है । वह महेश का है । वह है । जीवन को फिर से निमज्जित कर देना । असृष्टि । जीवन को विसर्जित कर देना ।
महाप्रलय । जिसमें कि सब खो जायेगा । और फिर सब जागेगा । ताज़ा होके जागेगा । हम निद्रा को भी छोटी मृत्यु कहते हैं । उसका भी कारण यही है कि प्रति रात्रि जब तुम गहरी निद्रा में होते हो । तो छोटी सी मृत्यु घटती है । छोटी सी आणविक । जब चित्त विल्कुल शून्य हो जाता है - निर्विचार । इतना निर्विचार कि स्वप्न की झलक भी नहीं रह जाती । तब तुम कहाँ चले जाते हो ? तब तुम मृत्यु में लीन हो जाते हो । तुम वहीँ पहुंच जाते हो । जहाँ लोग मरकर पहुँचते हैं ।
सुषुप्ति छोटी सी मृत्यु है । इसलिये तो सुबह तुम ताज़े मालुम पड़ते हो । वो ताजगी रात तुम जो मरे । उसके कारण होती है । सुबह तुम जो प्रसन्न उठते हो । जो प्रमुदित झलक होती है । फिर जीवन में रस आ गया होता है । फिर पैरों में गति आ गई होती है । फिर तुम काम धाम के लिये तत्पर हो गये होते हो । वो इसीलिये कि रात तुम मर गये ।
सुषुप्ति स्वप्न रहित निद्रा । अगर सिर्फ आधा घड़ी को भी रात मिल जाये । तो पर्याप्त है । तुम्हें 24 घंटे के लिये ताज़ा कर जाती । रात वृक्ष भी सो जाते । तभी तो सुबह उनके फूल फिर खिल आते हैं । फिर सुंगंध उड़ने लगती है । रात पक्षी भी सो जाते । तभी तो सुबह उनके कंठो से फिर गीत झरने लगते हैं । उन गीतों को मैं साधारण गीत नहीं कहता । श्रीमद भगवत गीता कहता हूं । वे वही गीत हैं । जो कृष्ण के गीत हैं । उनके कंठो से क़ुरआन की आयते उठने लगती हैं । लेकिन ये सारा चमत्कार घटता है । रात छोटी सी मृत्यु के कारण ।
तुम देखते हो । छोटे बच्चे पैदा होते हैं । उनकी सरलता उनका सौंदर्य उनकी सौम्यता उनका प्रसाद । ये कहाँ से आया ? ये भी वूढ़े थे । मर गये । फिर पुनर्जीवित हुये हैं । धर्म जीते जी मरने की । और पुनर्जीवित होने की कला है । इसलिये गुरु को हमने तीनो नाम दिये - ब्रह्मा विष्णु महेश । ब्रह्मा का अर्थ है - जो बनाये । विष्णु का अर्थ है - जो संभाले । और महेश का अर्थ है - जो मिटाये ।
सदगुरु वही है । जो तीनो कलाएं जानता हो । स्रष्टि तो 1 अवसर है । मंच है । जिस पर तुम जीने के अभिनय की कला सीखो । और यूं जियो । जैसे कमल के पत्ते पानी में । पानी में और पानी छुये भी न । सदगुरु तुम्हें यही सिखाता है । और ये 3 घटनाएं सदगुरु के पास घट जायें । तो चौथी घटना तुम्हारे भीतर घटती है । इसलिये उस चौथे को भी हमने गुरु स्मरण में कहा है - गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः ।
ये तो 3 चरण हुये । फिर जो अनुभूति तुम्हारे भीतर इन 3 चरणों से होगी । ये तो 3 द्वार हुए । इनसे प्रवेश करके मंदिर की जो प्रतिमा का मिलन होगा । वो चौथा तुरीय है - चौथी अवस्था ।
गुरुर्साक्षात परम ब्रह्म - तब तुम जानोगे । जिसके पास तुम बैठे थे । वो कोई व्यक्ति नहीं था । जिसने संभाला । मारा । पीटा । तोडा । जगाया । वो कोई व्यक्ति नहीं था । वह तो था ही नहीं । उसके भीतर परमात्मा ही था । और जिस दिन तुम अपने गुरु के भीतर परमात्मा को देख लोगे । उस दिन अपने भीतर भी परमात्मा को देख लोगे । क्योंकि गुरु तो दर्पण है । उसमें तुम्हे अपनी ही झलक दिखाई पड़ जायेगी । आँख निर्मल हुई कि झलक दिखाई पड़ी । 3 चरण हैं । चौथी मंजिल है । और सदगुरु के पास चारो कदम पूरे हो जाते हैं ।
तस्मै श्री गुरुवे नमः। इसलिये गुरु को नमस्कार । इसलिये गुरु को नमन । इसलिये झुकते हैं उसके लिये ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें