29 जून 2015

सट्टा का जालबट्टा

विशेष - यह लेख प्रकाशित होने के बाद सट्टे का नम्बर जानने हेतु हमारे पास रोज ही फ़ोन आने लगे । 
कृपया विशेष ध्यान दें - यह लेख सट्टा, मटका, जुआ आदि जैसी बुराईयों के प्रति जागरूकता के लिये है । न कि उन्हें प्रोत्साहन देने हेतु । सट्टे मटके से कोई धनी नहीं होता । न किसी की समस्या समाधान होती हैं । अतः इसका उल्टा अर्थ निकालकर सट्टे मटके का नम्बर आदि जानने के लिये फ़ोन न करें ।
यह साइट सिर्फ़ सन्त मत, आत्मज्ञान और योग ध्यान की क्रियायें सिखाता है ।
आप किसी भी प्रकार के सट्टे लाटरी जुये आदि के लिये फ़ोन न करें ।
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जैसा कि इस कमेंट में निजामाबाद के किसी रामप्रिय दास बाबा का जिक्र है । जो मटका (सट्टा) या अगले दिन के शेयर मार्केट का भाव बता देते थे और नगर सेठों की उनके स्थान के सामने लाइन लगी होती थी ।
विभिन्न प्रकार के साधुओं से अधिक मेलजोल और गहरा सम्पर्क अक्सर होते रहने के कारण कम से कम इस मामले में साधुओं की पोलपट्टी मैं बखूबी जानता हूँ ।
ऐसी बात नहीं कि इस तरह के मन्त्र या सिद्धियां नहीं होती या फ़िर साधु इन्हें किसी ‘जरूरतमन्द’ को बताते नहीं हैं । पर जैसा कि इस कमेंट में लिखा है और अक्सर अधिकांश ढोंगी साधुओं ने इसे सस्ती लोकप्रियता और आय का जरिया बनाया हुआ है । वह एकदम गलत है । कहने का भाव है कि कोई भी सिद्ध पुरुष क्यों न हो । यदि वह नियमित इसका उपयोग निजी लालचवश करता है तो परिणाम कभी सही नहीं आयेंगे । और प्रथम तो कोई सिद्ध पुरुष या मन्त्र ज्ञाता ऐसा करेगा ही क्यों ?
इस सम्बन्ध में झूठे बाबा एक चालाकी भरा तर्क देते हैं कि - कोई भी मन्त्र या सिद्धि निजी लाभ हेतु उपयोग नहीं की जा सकती । इसलिये वो परोपकार करते हुये अप्रत्यक्ष तरीके से अपना अंश मात्र ले लेते हैं ।
नरेश आर्य के इस कमेंट से मुझे अपना वह अतीत अंश स्मरण हो आया । जिनमें ऐसे बाबाओं से बने सोहबत के कुछ घण्टे थे और मुझे लगा कि इस विषय पर कम से कम बाबाओं की ढोंग लीला से परिचित कराकर मैं लोगों को धन की बरबादी और पतन से बचाने का अपना कर्तव्य पूरा कर सकता हूँ ।
क्या होता है सट्टा या मटका - जिस तरह लाटरी में नम्बर के आधार पर लाटरी के नम्बर का अन्तिम अंक 1 से लेकर 0 तक 10 अंकों का होता है और उस अन्तिम अंक का मिलान हो जाने पर लगभग 10 गुना हो जाता है । और न आने पर गांठ का लगाया हुआ 10% भी जाता है । फ़िर दहाई फ़िर सैकङा तक के अंक समान मिलने पर इनाम राशि में बढोत्तरी होती है और भी आगे तीन नम्बर 1st 2nd 3rd इनाम वाले होते हैं ।
इसी प्रकार मटके में 1 से लेकर 100 तक गिनती होती है । जिसमें 99 अंक (जिसे खिलाङी अक्सर ‘घर’ कहते हैं) मटका खेलने वाले के होते हैं और 1 अंक खिलाने वाला का होता है । अलग अलग मटका गद्दियों के हिसाब से नम्बर आ जाने पर 1 रुपये पर यह भुगतान 80 से लेकर 95 रुपये तक होता है । यानी सीधे सीधे 1 रुपये का 80 से लेकर 95 गुना तक हो जाना या फ़िर अपना 1 रुपया बिलकुल जाना ।
अब मटका व्यापार को समझें - जानकार सूत्रों के अनुसार छोटे छोटे गांवों से लेकर शहरों के मुहल्लों तक में इनका एक कलेक्शन एजेंट टायप बतौर कमीशन पर होता है । इसके लिये आवेदन करने की कोई जरूरत नहीं । बस पैसे और ग्राहक का इच्छित नम्बर लो और उसकी पर्ची बनाकर दे दो । एकत्रित धन और नम्बर किसी बङी प्रमुख गद्दी पर जमा कर आओ और नम्बर आने पर सुबह भुगतान ले आओ । 
और समझें - मान लीजिये, अलग अलग व्यक्तियों ने 20 नम्बर पर 500 रुपये की कुल जमा राशि लगायी । किसी ने 1 तो किसी ने 5 रुपये या किसी ने 100 भी लगाये हो सकते हैं । कलेक्शन एजेंट एक रजिस्टर में साथ के साथ 1 से 100 तक गिनती वाले फ़ार्म में बस उस नम्बर के सामने आने वाले रुपये लिखता जाता है और बुकिंग बन्द हो जाने पर अलग अलग नम्बरों पर आये पैसे जोङकर मुख्य गद्दी को पहुँचा देता है । मतलब यदि 100 व्यक्तियों ने 6 नम्बर पर कुल 1000 रुपये का दाव खेला तो प्रमुख गद्दी वाले के लिये यह सिर्फ़ 6 नम्बर पर 1000 रुपये की प्रविष्टि वाला एक ही खाना होगा ।
आगे फ़िर जो काम छोटा एजेंट अलग अलग व्यक्तियों के नम्बर को एक नम्बर बनाकर करता है । यही काम प्रमुख गद्दी वाला छोटी गद्दियों से आये कलेक्शन के लिये करता है । उदाहरण के लिये 50 छोटी गद्दियों से 8 नम्बर पर मान लो 10 000 का कलेक्शन आया । तो उसकी शीट में 8 नम्बर के आगे 50 खानों में राशि और उनका टोटल 10 000 होगा ।
इसी तरह उस चेन से जुङे फ़िर सभी शहरों का उससे ऊपर वाली गद्दी को सिर्फ़ नम्बर और लागत धन का संक्षिप्त ब्यौरा जाता है और इन बङी बङी गद्दियों को भी पता नहीं होता कि किस नम्बर पर कुल कितना धन लगा है या किस नम्बर पर सबसे कम धन लगा है ।
आश्चर्यजनक रूप से यह सब एकत्र हुआ कुल धन और उससे सम्बन्धित नम्बर रात्रि बारह बजे के आसपास मुख्य कलेक्टर के पास पहुँच जाते हैं । मतलब 1 से 100 तक के अंक और उन पर लगा अलग अलग धन । समझें आप, सिर्फ़ दो खानों का कार्य, जिसमें एक में सिर्फ़ गिनती और दूसरे में उस पर लगा धन दर्ज होता है ।
मुख्य कलेक्टर सिर्फ़ इतना करता है कि - सबसे कम धन किस नम्बर पर लगा है । वही नम्बर अगले दिन के लिये (लिस्ट प्राप्त होने के पाँच मिनट बाद ही लगभग 1 बजे तक) खोल दिया जाता है । क्योंकि उस पर सबसे कम भुगतान देना है ।
विशेष - ऐसा अक्सर हो जाता है कि एकाध महीने किसी किसी क्षेत्र में लगवाङी पर कोई नम्बर प्रायः नहीं खुलता और उस क्षेत्र के सटोरिये सट्टे के प्रति उदासीन होने लगते हैं । तब ऐसे क्षेत्रों को चिह्नित कर वहाँ का अधिक लगाया नम्बर जानबूझ कर खोल दिया जाता है और सटोरिये पुनः उत्साहित हो जाते हैं ।
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अब नम्बरी बाबाओं की चालाकी - वास्तव में अपवाद को छोङकर इन बाबाओं ने कोई मन्त्र या कोई सिद्धि नहीं की होती । बल्कि वे भी सट्टेबाजों का गणित और उनकी मानसिकता से परिचित खुद भी सटोरिये ही होते हैं । इसमें तुक्का भिङ जाना का भी इस्तेमाल में नहीं कर सकता । क्योंकि वे तुक्का भी नहीं लगाते । बल्कि एक दिमागी चाल चलते हैं ।
जैसा कि मैंने कहा, ये बाबा लोग भी आये नम्बरों का हिसाब किताब और पूरा आंकलन रखते हैं और उसी आधार पर (आने वालों की औसत गिनती के अनुसार) प्रतिदिन लगभग 40 अनुमानित नम्बर (कभी कभी 60-70 तक ) तैयार कर लेते हैं  और अलग अलग लोगों को इस हिदायत के अनुसार कि - किसी को बताना नहीं है, अलग अलग ही नम्बर दे देते हैं ।
अब आप सोचेंगे कि 40 नम्बर में से भी नहीं आया तो ?
जी नहीं, दरअसल सट्टे में दिये गये 40 नम्बर बदलकर पूरे 100 हो जाते हैं । और 100 में से एक तो आना निश्चित ही है ।
कैसे - इसके पीछे सटोरियों की सट्टा गणित मानसिकता है । मान लीजिये किसी बाबा ने 31 लकी नम्बर बताया । तो सटोरिया इसे लगाने के साथ साथ 69 को भी लगायेगा । जो 100 में से 31 घटाने पर आया और इनकी भाषा में ‘बाकी’ कहलाता है । इसके अलावा 13 को भी लगायेगा । जो 31 का उलटा है । जिसे खिलाङी ‘पलट’ बोलते हैं ।
इस तरह प्रमुखतया 1 नम्बर के 3 मुख्य नम्बर बन गये और इसमें छोटी सम्भावनायें अलग से जोङी जाती हैं । पर यदि हम 1 नम्बर के 3 नम्बर ही लेकर चलें और ‘ये बाबा’ 40 नम्बर तय करते हैं । तो आटोमेटिक 120 नम्बर बन जाते हैं । जिनमें से 1 निश्चय आना है ।
और ऐसे नम्बर खुल जाने पर ये बाबा ‘सिद्ध’ कहलाते हैं ।
- गणित और भी है । पिछले 2 दिन आ चुके नम्बर अक्सर हटा दिये जाते हैं । इस तरह 100 में सिर्फ़ 98 नम्बर ही बचे ( हालांकि ‘बायचांस’ सिद्धांत अनुसार कुल लगवाङी आधार पर इन्हें भी बहुत कम धन से लगा दिया जाता है कि संयोग से आ ही जाये । तो एक तरह से निवेश की मूल राशि वापस हो जाती है) 100 नम्बर बहुत कम आता है । अपवाद सा है तो यह 1 और कम हो जाता है ।
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क्योंकि मेरा उद्देश्य आपको ‘सट्टा शास्त्र’ ज्ञान देना नहीं बल्कि सट्टा बाबाओं की चालबाजियों से परिचित कराना है । तो बाबा एक और ‘तरीका’ अपनाते हैं । जिसे इनकी भाषा में ‘रमूज’ कहा जाता है ।
क्या है रमूज - रमूज दरअसल प्राकृतिक संकेतों को कहते हैं । ये वो संकेत होते हैं । जो खिलाङी को कुछ अजीब सा और संकेत सा करते हुये अलग सा दिखे और खास तब जब वह अगले दिन के संभावित नम्बर के बारे में सोच रहा था । तभी यकायक दिखे । जैसे - तार पर छाता टंगा था । औरत बच्चे को दूध पिला रही थी । आदमी भैंस ले जा रहा था/दुह रहा था आदि आदि कोई भी दृश्य या घटना ।
- अब इसमें उन्होंने ‘अंक ज्योतिष’ की भांति सबके लिये कोई न कोई 1 से 0 तक अंक निर्धारित किया हुआ है । जैसे औरत का 8 आदमी का 1 बच्चे का 4 आदि । इसी तरह पशु और अन्य निर्जीव वस्तुओं के भी हैं । और फ़िर वस्तु या आदमी के प्रथम या अन्तिम अक्षर में किस अंक का अक्षर बनता है । इस सबका विचार किया जाता है ।
अब उदाहरण के लिये जैसे - तार पर छाता टंगा था । तो यहाँ तार (का 3) और छाता (का 6) ही मुख्य हैं और ये कुछ अलग सी बात है । क्योंकि आमतौर पर तार पर छाता नहीं होता । अतः सटोरिया लकी नम्बर के तौर पर बङे धन के साथ 36 नम्बर लगायेगा । और साथ में छोटा गुणा भाग अलग ।
आपको अजीब सा लगेगा और यह मत कहना कि मैं प्रोत्साहित कर रहा हूँ । बाबाओं की अपेक्षा बहुत बार खुद के द्वारा देखे गये ऐसे अजीब संकेत ‘सच’ निकलते हैं । एक उदाहरण जो मेरी जानकारी में हुआ । बताता हूँ ।
बाजार में एक टेलर की दुकान पर बहस हो गयी और उस तू तू मैं मैं के अंजाम के बाद उनमें से एक लकङी की भारी कुर्सी को लेकर सर पर रखकर 5 किमी दूर घर तक गया । गौर करें । तो बात कुछ अजीब सी है । जो सामान्यतया देखने में नहीं आती । 
वहाँ कुछ सट्टा खिलाङी भी थे और उन्होंने आदमी (का 8) और कुर्सी (का 7) लगाकर बङा दाव खेला । परिणाम को लेकर बेहद उत्सुकता थी और यकीन करें । अगले दिन सटीक 87 नम्बर ही खुला ।
किसी और घटनाकृम में आदमी का अंक 1 होता है पर खिलाङियों ने जाने किस गणित के आधार पर 1 का 8 कर दिया और गणित सही बैठा । आप किसी परिपक्व सट्टेबाज से बात करेंगे । तो आपको आश्चर्य होगा कि इनका भी अच्छा खासा सट्टा गणित है ।
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जब बाबा दयालु हो जायें - इस तरह की छोटी बङी कई घटनायें होती हैं । पर 1 विशेष उल्लेखनीय है । करीब 32 वर्ष पहले एक लगभग गरीब आदमी फ़ुटपाथ पर तख्त तिरपाल के द्वारा गन्ने का रस बेचकर आजीविका निर्वाह करता था । जून की सुनसान और कङक दोपहरी में एक साधारण सा (मतलब ठीक से बाबा भी नहीं लगता था) लगभग गन्दे वस्त्रों वाला आदमी उसके पास आया और बोला - बङी प्यास महसूस हो रही है । जाहिर था । वह खरीद नहीं सकता था । वरना सीधा आर्डर ही देता ।
रस विक्रेता ने उसे पूरे धर्म भावना से बिना लाभ की आशा किये दो गिलास रस पिलाया । उसके बाद उस आदमी ने आगे मांगा तो नहीं । पर रस विक्रेता को लगा । अभी यह तृप्त नहीं हुआ । अतः अबकी उसने 1 लोटा ही भर दिया । अबकी आदमी वाकई तृप्त हो गया ।
और आंतरिक प्रसन्नता से बोला - मैं तुझे कुछ देना चाहता हूँ । इस नम्बर (25) पर जितना पैसा लगा सके लगा दे । लेकिन उसके पास ‘जितना’ जैसा पैसा नहीं था । अतः उस समय में उसने 5000 में अपना कोल्हू आदि सब सामान बेच दिया ।
और दूसरी सुबह उसकी जिन्दगी 5 लाख के साथ शुरू हुयी । बङी रकम पर पूरा 100% भुगतान होता है ।
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विशेष - ध्यान दें । ऐसी घटनायें आकस्मिक (बिना सोचे) और कभी कभी और विपन्न हालत में होती हैं । अतः रोज रोज और लालचवश और हराम में कमाने का जरिया सोच कर कभी सट्टा, जुआ आदि को न अपनायें । यह हमेशा हर तरह का पतनकारक ही है ।

26 जून 2015

दान के भेद और फ़ल

राजा धर्म वर्मा ने दान का तत्व जानने की इच्छा से बहुत वर्षों तक तपस्या की । तब आकाशवाणी हुयी -
द्विहेतु षङिधष्ठानाम षडंगम च द्विपाक्युक । 
चतुष्प्रकारं त्रिविधिम त्रिनाशम दान्मुच्याते ।
- दान के 2 हेतु 6 अधिष्ठान 6 अंग 2 प्रकार के परिणाम (फल) 4 प्रकार 3 भेद और 3 विनाश साधन हैं । ऐसा कहा जाता है ।
यह एकमात्र श्लोक कहकर आकाशवाणी मौन हो गयी और राजा धर्म वर्मा के बारबार पूछने पर भी आकाशवाणी ने उसका अर्थ (विस्तार) नहीं बताया ।
तब राजा धर्म वर्मा ने ढिढोंरा पिटवा कर घोषणा की कि - जो भी इस श्लोक की ठीक ठीक व्याख्या कर देगा । उसे राजा द्वारा 7 लाख गाय इतनी ही स्वर्ण मुद्रा तथा 7 गाँव दिया जायेगा । कई ब्राह्मणों ने इसके लिए प्रयास किया । पर कोई भी श्लोक की ठीक ठीक व्याख्या नहीं कर पाया । 
इस मुनादी को नारद ने भी सुना । जो उस समय आश्रम बनाने के लिए पर्याप्त भूमि की तलाश में थे  और इस दुविधा में थे कि वह दान में ली हुई भूमि और बिना राजा की भूमि पर आश्रम नहीं बनाना चाहते थे । वह केवल अपने द्वारा अर्जित भूमि पर ही आश्रम बनाना चाहते थे । उन्होंने इस मुनादी से 7 गाँव के बराबर भूमि अर्जित करने का मन बनाया और वृद्ध ब्राह्मण का वेष रखकर राजा धर्म वर्मा के दरबार में इस श्लोक की व्याख्या करने पहुँचे ।
राजा ने नारद से बड़ी विनम्रता से पूछा कि - दान के कौन से 2 हेतु, कैसे भेद और फल होते हैं ?  कृपया श्लोक का अर्थ बतायें । जिसे बड़े बड़े ज्ञानी भी नहीं बता पाए । 
नारद बोले - दान के 2 हेतु हैं । दान का थोङा होना या बहुत होना अभ्युदय का कारण नहीं होता । अपितु श्रद्धा और शक्ति ही दान की वृद्धि और क्षय का कारण होती है । यदि कोई बिना श्रद्धा के अपना सर्वस्व दे दे अथवा अपना जीवन ही निछावर कर दे । तो भी यह उसका फल नहीं पाता । इसलिए सबको श्रद्धालु होना चाहिए । श्रद्धा से ही धर्म का साधन किया किया जाता है । धन की बहुत बड़ी राशि से नहीं ।
देहधारियों के लिए श्रद्धा 3 प्रकार की होती है - सात्विक, राजसी और तामसी ।
सात्विक श्रद्धा वाले - पुरुष देवताओं की पूजा करते हैं । 
राजसी श्रद्धा वाले - पुरुष यक्ष और राक्षसों की पूजा करते हैं । 
तामसी श्रद्धा वाले - पुरुष दैत्य, पिशाच की पूजा करते हैं । 
दान शक्ति (सामर्थ्यता) - के बारे में कहा गया है कि जो कुटुंब के भरण पोषण से अधिक हो । वही धन दान देने योग्य है । वही मधु के समान है और पुण्य करने वाला है और इसके विपरीत करने पर वह विष के समान होता है । अपने आत्मीयजन को दुख देकर किसी सुखी और समर्थ पुरुष को दान करने वाला मधु की जगह विष का ही पान कर रहा है । वह धर्म के अनुरूप नहीं, विपरीत ही चलता है ।
- जो वस्तु बड़ी तुच्छ हो । अथवा सर्व साधारण के लिए उपलब्ध हो । वह ‘सामान्य’ वस्तु कहलाती है ।
- कहीं से मांग कर लायी हुई वस्तु को ‘याचित’ कहते हैं । धरोहर का ही दूसरा नाम ‘न्यास’ है ।
- बंधक रखी हुई वस्तु को ‘आधि’ कहते हैं ।
- दी हुई वस्तु ‘दान’ के नाम से पुकारी जाती है । दान में मिली हुई वस्तु को ‘दान धन’ कहते हैं ।
- जो धन एक के यहाँ धरोहर रखा हो और जिसके यहाँ रखा हो । वह यदि उस धरोहर को किसी और को दे दे । तो उसे ‘अन्वाहित’ कहते हैं । 
- जिसको किसी के विश्वास पर उसके यहाँ छोड़ दिया हो । उस धन को ‘निक्षिप्त’ कहते हैं । 
- वंशजों के होते हुए भी अपना सब कुछ दान करने को ‘सान्याय सर्वस्व दान’ कहते हैं । 
विद्वान पुरुष को उपरोक्त नव वस्तुओं का दान नहीं करना चाहिए । वरना वह बड़े पाप का भागी होता है ।
6 अधिष्ठान - दान के 6 अधिष्ठान हैं । उन्हें बताता हूँ - धर्म, अर्थ, काम, लज्जा, हर्ष और भय ।
ये दान के 6 अधिष्ठान बताये गए हैं ।
- सदा ही किसी प्रयोजन की इच्छा न रखकर केवल धर्मबुद्धि से सुपात्र व्यक्तियों को जो दान दिया जाता है, उसे ‘धर्मदान’ कहते हैं ।
- मन में कोई प्रयोजन रखकर ही प्रसंगवश जो कुछ दिया जाता है, उसे ‘अर्थदान’ कहते हैं । वह इस लोक में ही फल देने वाला होता है ।
- स्त्रीगमन, सुरापान, शिकार और जुए के प्रसंग में अनधिकारी मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक जो कुछ दिया जाता है, वह ‘कामदान’ कहलाता है ।
- भरी सभा में याचकों के मांगने पर लज्जावश देने की प्रतिज्ञा करके उन्हें जो कुछ दिया जाता है । वह ‘लज्जादान’ माना गया है । 
- कोई प्रिय काम देख कर या प्रिय समाचार सुन कर हर्षोल्लास से जो कुछ दिया जाता है । उसे धर्म विचारक ‘हर्षदान’ कहते हैं । 
- निंदा, अनर्थ और हिंसा का निवारण करने के लिए अनुपकारी व्यक्तियों को विवश होकर जो कुछ दिया जाता है । उसे ‘भयदान’ कहते हैं ।
6 अंग - अब 6 अंगो का वर्णन सुनिए । दाता, प्रतिग्रहीता, शुद्धि, धर्म युक्त देय वस्तु, देश और काल - ये दान के 6 अंग माने गए हैं ।
दाता निरोग, धर्मात्मा, देने की इच्छा रखने वाला, व्यसन रहित, पवित्र तथा सदा अनिन्दनीय कर्म से आजीविका चलने वाला होना चाहिए । इन 6 गुणों से दाता की प्रशंसा होती है ।
सरलता से रहित, श्रद्धाहीन, दुष्टात्मा, दुर्व्यसनी, झूठी प्रतिज्ञा करने वाला तथा बहुत सोने वाला दाता तमोगुणी और अधम माना गया है ।
जिसके कुल, विद्या और आचार तीनों उज्जवल हो । जीवन निर्वाह की वृत्ति भी शुद्ध और सात्विक हो । वह ब्राह्मण दान का उत्तम पात्र (प्रतिग्रह का सर्वोत्तम अधिकारी) कहा जाता है । याचकों को देखकर सदा प्रसन्न मुख हो । उनके प्रति हार्दिक प्रेम होना, उनका सत्कार करना तथा उनमें दोष द्रष्टि न रखना, ये सब सदगुण दान में शुद्धिकारक माने गए हैं । 
जो धन किसी दूसरे को सताकर न लाया गया हो । अति कुंठा उठाये बिना अपने प्रयत्न से उपार्जित किया गया हो । वह थोङा हो या अधिक, वही देने योग्य बताया गया है ।
किसी के साथ कोई धार्मिक उद्देश्य लेकर जो वस्तु  दी जाती है । उसे धर्म युक्त देय कहते हैं ।
यदि देय वस्तु उपरोक्त गुणों से शून्य हो तो उसके दान से कोई फल नहीं होता । जिस देश अथवा काल में जो जो पदार्थ दुर्लभ हो । उस उस पदार्थ का दान करने योग्य वही वही देश और काल श्रेष्ठ है, दूसरा नहीं । इस प्रकार दान के 6 अंग बताये गए हैं ।
2 परिणाम (फल) - अब दान के 2 फलों का वर्णन सुनो । महात्माओं ने दान के 2 परिणाम (फल) बतलाये हैं । उनमें से 1 तो परलोक के लिए होता है और 1 इहलोक के लिए ।
- श्रेष्ठ पुरुषों को जो कुछ दिया जाता है । उसका परलोक में उपभोग होता है । 
- असत पुरुषों को जो कुछ दिया जाता है । वह दान यहीं भोग जाता है । ये 2 परिणाम बताये गए हैं ।
4 प्रकार - अब दान के 4 प्रकारों का श्रवण करो । ध्रुव, त्रिक, काम्य और नैमित्तिक । 
इस क्रम से द्विजों ने वैदिक दान मार्ग के 4 प्रकार बतलाये हैं ।
- कुआँ बनवाना, बगीचे लगवाना तथा पोखर खुदवाना आदि कार्यों में, जो उपयोग में आते हैं ।
धन लगाना ‘ध्रुव’ कहा गया है ।
- प्रतिदिन जो कुछ दिया जाता है । उस नित्य दान को ‘त्रिक’ कहते हैं ।
- संतान, विजय, ऐश्वर्य, स्त्री और बल आदि के निमित्त तथा इच्छा पूर्ति के लिए जो दान किया जाता है । वह ‘काम्य’ कहलाता है ।
नैमित्तिक दान 3 प्रकार का बतलाया गया है । वह होम से रहित होता है ।
- जो ग्रहण और संक्रांति आदि काल की अपेक्षा से दान किया जाता है । वह ‘कालाक्षेप’ नैमित्तिक दान है ।
- श्राद्ध आदि क्रियाओं की अपेक्षा से जो दान किया जाता है । वह ‘क्रियाक्षेप’ नैमित्तिक दान है ।
- तथा संस्कार और विद्या अध्ययन आदि गुणों की अपेक्षा रख कर जो दान दिया जाता है । वह ‘गुणाक्षेप’ नैमित्तिक दान है ।
3 भेद - इस प्रकार दान के 4 प्रकार बताये गए हैं । अब उसके 3 भेदों  का प्रतिपादन किया गया है । 8 वस्तुओं के दान उत्तम माने गए हैं । विधि के अनुसार किये गए 4 दान उत्तम माने गए हैं और शेष कनिष्ठ माने गए हैं । यही दान की त्रिविधिता है । जिसे विद्वान लोग जानते हैं । 
- गृह, मंदिर या महल, विद्या, भूमि, गौ, कूप, प्राण और स्वर्ण - इन वस्तुओं का दान अन्य वस्तुओं की अपेक्षा ‘उत्तम दान’ माना गया है ।
- अन्न, बगीचा, वस्त्र तथा अश्व आदि वाहन - इन मध्यम श्रेणी के द्रव्यों के दान को ‘मध्यम दान’ कहते हैं ।
- जूता, छाता, बर्तन, दही, मधु, आसन, दीपक, काष्ठ  और पत्थर आदि वस्तुओं के दान को श्रेष्ठ पुरुषों ने ‘कनिष्ठ दान’ बताया है ।
ये दान के 3 भेद बताये गए हैं ।
दान नाश के 3 हेतु
- जिसे देकर पीछे पश्चाताप किया जाए । जो अपात्र को दिया जाए और जो बिना श्रद्धा के अर्पण किया जाए । वह दान नष्ट हो जाता है ।
- पश्चाताप, अपात्रता और अश्रद्धा - ये तीनों दान के नाशक हैं । यदि दान देकर पश्चाताप हो । तो वह ‘असुर दान’ है । जो निष्फल माना गया है ।
- अश्रद्धा से जो दिया जाता है । वह ‘राक्षस दान’ कहलाता है । वह भी व्यर्थ होता है । 
- ब्राह्मण को डांट फटकार कर और कटुवचन सुनाकर जो दान दिया जाता है अथवा दान देकर जो ब्राह्मण को कोसा जाता है । वह ‘पिशाच दान’ कहते हैं । और उसे भी व्यर्थ समझाना चाहिए । 
यह तीनों भाव दान के नाशक हैं ।
इस प्रकार 7 पदों में बंधे हुए दान के उत्तम महात्म्य को मैंने तुम्हें सुनाया है ।
धर्म वर्मा बोले - आज मेरा जन्म सफल हुआ । आज मुझे अपनी तपस्या का फल मिल गया ।
विद्या पढ़ कर भी यदि मनुष्य दुराचारी हो गया तो उसका सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ है ।
बहुत क्लेश उठाकर जो पत्नी प्राप्त की गयी हो । वह यदि कटुवादिनी निकली तो वह भी व्यर्थ है । कष्ट उठाकर जो कुआँ बनवाया गया । उसका पानी यदि खारा निकला तो वह भी निरर्थक है ।
तथा अनेक प्रकार के क्लेश सहन करने के पश्चात जो मनुष्य जन्म मिला । वह यदि धर्माचरण के बिना बिताया गया तो उसे भी व्यर्थ ही समझाना चाहिए ।
इसी प्रकार मेरी तपस्या भी व्यर्थ चली गयी थी । उसे आज आपने सफल बना दिया । आपको बारम्बार नमस्कार है ।

शरीर एक प्रकार का घर है

अर्जुन बोला - मुने ! ऐतरेय किसके पुत्र थे । उनका निवास स्थान कहाँ था । परम बुद्धिमान ऐतरेय ने किस प्रकार भगवान के प्रसाद से सिद्धि प्राप्त की  ?
नारद बोले - कुन्तीनन्दन ! यहीं मेरे द्वारा स्थापित स्थान में जो हारित मुनि रहते थे । उन्हीं के वंश में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण उत्पन्न हुए । जो मांडूकि नाम से विख्यात थे । वे वेद वेदांगों के पारंगत पंडित थे । उनके ‘इतरा’ नाम वाली पत्नी थी जो नारी के समस्त गुणों से सुशोभित थी । उसके गर्भ से जो पुत्र हुआ । उसी का नाम ‘ऐतरेय’ था ।
ऐतरेय बाल्यावस्था से ही निरंतर द्वादशाक्षर मंत्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का जप करता था । उसे पूर्व जन्म में ही इस मंत्र की शिक्षा मिली थी ? वह न तो किसी की बात सुनता था और न स्वयं कुछ बोलता था और न अध्ययन ही करता था । इससे सबको निश्चय हो गया कि - यह बालक गूंगा है । पिता ने अनेक उपायों से उसको समझाया । बोध कराया । परन्तु उसने लौकिक व्यवहार में कभी मन नहीं लगाया । यह देख पिता ने भी यही निश्चय कर लिया कि यह सर्वथा जड़ है । तब उन्होंने ‘पिंगा’ नाम वाली दूसरी स्त्री से विवाह किया और उससे 4 पुत्र उत्पन्न किये । जो वेद वेदांगों में विद्वान हुए ।
ऐतरेय भी प्रतिदिन तीनों समय भगवान वासुदेव के मंदिर में जाकर उस उत्तम मंत्र का जप करने लगे । वे दूसरे किसी कार्य में परिश्रम नहीं करते थे । एक दिन उनकी माता अपनी सौत के पुत्रों की योग्यता देखकर संतप्त चित्त हो अपने पुत्र से बोली - अरे ! तू तो मुझे क्लेश देने के लिए ही पैदा हुआ । मेरे जन्म और जीवन को धिक्कार है । संसार में उस नारी का जन्म निश्चय ही व्यर्थ है । जो पति के द्वारा तिरस्कृत हो और जिसका पुत्र गुणवान न हो ।
वत्स ! मैं बड़े खोटे भाग्य वाली हूँ । अतः ‘महिसागर संगम’ में डूब मरूंगी । मेरा मर जाना ही अच्छा है । जीवित रहने में मुझे क्या लाभ  है ? मेरे मर जाने पर तू भी भगवान का महामौनी भक्त होकर दीर्घकाल तक आनंद भोगना ।

नारद बोले - माता की बात सुनकर ऐतरेय ठठा कर हंस पड़े । वे बड़े धर्मज्ञ थे । उन्होंने 2 घडी भगवान का ध्यान करके माता के चरणों में प्रणाम किया ।
और कहा - माँ ! तुम झूठे मोह में पड़ी हुई हो । अज्ञान को ही ज्ञान मान बैठी हो । शुभे ! जो शोचनीय नहीं है । उसी के लिए तुम शोक करती हो और जो वास्तव में शोचनीय है । उसके लिए तुम्हारे मन में तनिक भी शोक नहीं होता । यह संसार मिथ्या है । इसमें तुम इस शरीर के लिए क्यों चिंतित एवं मोहित हो रही हो । यह तो मूर्खों का काम है । तुम जैसे विदुषी स्त्रियों को ये शोभा नहीं देता । संसार में ‘सारतत्व’ तो कुछ और ही है ? किन्तु अज्ञान से मोहित मनुष्य किसी और ही असार वस्तु को सार समझते हैं ।
तुम इस मानव शरीर को यदि सार मानती हो । तो लो । इसकी भी असारता सुनो । यह जो मानव शरीर है । यह गर्भ से लेकर मृत्युपर्यन्त सदा अत्यंत कष्टप्रद है । यह शरीर एक प्रकार का घर है । हड्डियों का समूह ही इसके भार को संभालने वाला खम्भा है । नाङी जाल रुपी रस्सियों से ही इसे बाँधा गया है । रक्त और मांस रूपी मिटटी से इसको लीपा गया है । विष्ठा और मूत्र रुपी द्रव्यों का यह संग्रह पात्र है । केश और रोम रूपी तृण से इसको छाया गया है । सुन्दर रंग की त्वचा से इसके ऊपर रंग किया गया है । 
मुख ही इसका प्रधान द्वार है । दो आँख । दो कान । और नाक के छिद्र - ये ही छह खिड़कियाँ है । दोनों ओठ ही इसके द्वार को ढकने वाले किवाड़ हैं । दांत ही अर्गला (किवाड़ बंद करने वाली कुण्डी) है । नाङी और पसीने ही नाली और जल प्रवाह है । यह सदा काल की मुखाग्नि में स्थित है । ऐसे इस देह रूपी गेह में ‘जीव’ नाम वाला गृहस्थ निवास करता है ।
इस घर में त्रिगुणमयी प्रकृति ही उसकी पत्नी है तथा क्रोध, अहंकार, काम, ईर्ष्या और लोभ आदि ही उक्त गृहस्थ की संतान हैं ।
हाय ! कितने कष्ट की बात है कि जीव इस देह-गेह की मोह माया से मूढ़ होकर तदनुकूल बर्ताव करता है । उसका जिस जिस विषय में जैसे जैसे मोह होता है ।
वह सब बताता हूँ । सुनो ! जैसे पर्वत से झरने गिरते हैं । उसी प्रकार शरीर से भी कफ और मूत्र आदि बहते रहते हैं । उसी देह के लिए जीव मोहित होता है । विष्ठा और मूत्र से भरे हुए चर्मपात्र की भांति यह शरीर समस्त अपवित्र वस्तुओं का भण्डार है । और इसका एक प्रदेश (एक अंश) भी पवित्र नहीं है । अपने शरीर से निकले हुए मल मूत्र आदि के जो प्रवाह हैं । उनका स्पर्श हो जाने पर मिटटी और जल से हाथ शुद्ध किया जाता है । तथापि उन्ही अपवित्र वस्तुओं के भण्डार स्वरुप इस देह से न जाने क्यों मनुष्य को वैराग्य नहीं होता ?
सुगन्धित तेल और जल आदि के द्वारा यत्नपूर्वक भलीभांति संस्कार (सफाई) करने पर भी यह शरीर अपनी स्वाभाविक अपवित्रता को नहीं छोड़ता । ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते की टेढ़ी पूँछ को कितना ही सीधा कर लिया जाए । वह अपना टेढ़ापन नहीं छोड़ पाती । अपनी देह की अपवित्र गंध से जो मनुष्य विरक्त नहीं होता । उसे वैराग्य के लिए अन्य किस साधन का उपदेश दिया जाए ? 
दुर्गन्ध तथा मल मूत्र लेप को दूर करने के लिए ही शारीरिक शुद्धि का विधान किया गया है । इन दोनों (गंध और लेप) का निवारण हो जाने के पश्चात आतंरिक भाव की शुद्धि होने से मनुष्य शुद्ध होता है । भाव शुद्धि ही सबसे बढ़कर पवित्रता है । वही सब कर्मों में प्रमाणभूत है ।
आलिंगन पत्नी का भी किया जाता है और पुत्री का भी । परन्तु दोनों में भाव का महान अंतर है । प्यारी पत्नी का आलिंगन किसी और भाव से किया जाता है एवं पुत्री का दूसरे भाव से । एक ही स्त्री के स्तनों को पुत्र दूसरे भाव से स्मरण करता है और पति दूसरे भाव से । अतः अपने चित्त को ही शुद्ध करना चाहिए । बाह्य शुद्धि के दूसरे दूसरे साधनों से क्या लेना है ?
भावदृष्टि से जिसका अन्तःकरण अत्यंत शुद्ध है । वह स्वर्ग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है ।
ज्ञान रूपी निर्मल जल तथा वैराग्य रूपी मृत्तिका से ही पुरुष के अविद्या एवं रागमय मल-मूत्र के लेप और दुर्गन्ध का शोधन होता है । इस प्रकार इस शरीर को स्वभावतः अशुद्ध माना गया है । जैसे केले के वृक्ष में केवल वल्कल ही सार है । उसी प्रकार इस देह में केवल त्वचा मात्र ही सार है । वास्तव में तो यह सर्वथा  निस्सार है । 
जो बुद्धिमान अपने शरीर को इस प्रकार दोष युक्त जान कर उदासीन हो जाता है । उसकी ओर से अनुराग शिथिल कर लेता है । वही इस संसार बंधन से छूट कर निकल पाता है । किन्तु जो दृणता पूर्वक इस शरीर को पकङे हुए रहता है । इसका मोह नहीं छोड़ता । वह संसार में ही पड़ा रह जाता है । इस प्रकार यह मानव जन्म लोगों के अज्ञान दोष से तथा नाना प्रकार के कर्मशात दुःख स्वरुप और महान कष्टप्रद बताया गया है ।
जैसे बड़े भारी पर्वत से दबा हुआ कोई प्राणी बड़े कष्ट से पीड़ित रहता है । उसी प्रकार गर्भ की झिल्ली में बंधा हुआ मनुष्य महान कष्ट से वहाँ ठहर पाता है । जैसे समुद्र में गिरा हुआ कोई मनुष्य अत्यंत व्याकुल होकर बड़े भारी दुःख से घिर जाता है । उसी प्रकार गर्भगत जल से भीगे हुए अंगों वाला गर्भस्थ शिशु अत्यंत व्याकुल रहता है । जैसे किसी को लोहे के घड़े में रखकर आग में पकाया जाता है । वैसे ही गर्भ रूपी घाट में डाला हुआ जीव जठरानल की आंच से पकता रहता है । यदि आग के समान दहकती हुई सुइयों से किसी को निरंतर छेदा जाए तो उसे कितनी पीड़ा हो सकती है । उससे आठ गुनी पीड़ा गर्भ में भोगनी पड़ती है ।
इस प्रकार स्थावर जंगम सभी प्राणियों को अपने अपने गर्भ के अनुरूप यह महान गर्भ दुःख प्राप्त होता है । ऐसा कहा गया है ।
गर्भ में स्थित होने पर सभी को अपने पूर्व जन्मों का स्मरण हो आता है । 
उस समय जीव इस प्रकार सोचता है - अहो ! मैं मरकर पुनः उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होकर पुनः मृत्यु को प्राप्त हुआ । जन्म से लेकर मैंने सहस्त्रों योनियों का दर्शन किया है । इस समय जन्म धारण करते ही मेरे पूर्व संस्कार जाग उठे हैं । अतः अब मैं ऐसे कल्याणकारी साधन का अनुष्ठान करूँगा । जिससे पुनः मेरा गर्भवास न हो । संसार बंधन को दूर करने वाले भगवदीय तत्व ज्ञान का मैं चिंतन करूँगा । इस प्रकार उस दुःख से छूटने के उपाय पर विचार करता हुआ गर्भस्थ जीव चिंतामय रहता है ।
जब उसका जन्म होने लगता है । उस समय तो उसे गर्भ की अपेक्षा भी ‘कोटि गुना’ अधिक दुःख होता है । गर्भवास के समय जो बुद्धि जागृत रहती है । वह जन्म हो जाने पर नष्ट हो जाती है । बाहर की हवा लगते ही मूढ़ता आ जाती है । मोहग्रस्त होने पर शीघ्र ही उसकी स्मरण शक्ति का नाश हो जाता है । स्मरण शक्ति नष्ट होने पर पूर्व कर्मवशात जीव का पुनः उसी जन्म (के शरीर आदि) में अनुराग हो जाता है । इस प्रकार राग और मोह के वशीभूत हुआ वह संसार में न करने योग्य पापादि कर्मों में लग जाता है ।
उनमें फंसकर न तो वह अपने को जानता है । न दूसरों को जानता है । और न किसी देवता को ही कुछ समझता है । अपने परम कल्याण की बात तक नहीं सुनता । आँख रहते हुए भी नहीं देखता । समतल मार्ग पर धीरे धीरे चलते हुए भी वह पग पग पर लड़खड़ाने लगता है । विद्वानों के समझाने पर भी । बुद्धि रहते हुए भी वह नहीं समझ पाता । इसलिए राग और मोह के वशीभूत होकर संसार में क्लेश उठाता रहता है । जन्म लेने पर गर्भकाल में जागृत हुई पूर्व जन्म की स्मृति अथवा गर्भ के दुखों की स्मृति नहीं रहती । 
इसलिए महर्षियों ने गर्भ दुःख का निरूपण करने के लिए शास्त्रों का प्रतिपादन किया है । वे शास्त्र स्वर्ग और मोक्ष के उत्तम साधन हैं । सब कार्यों और प्रयोजनों को सिद्ध करने वाले इस शास्त्र ज्ञान के रहते हुए भी लोग उससे अपने कल्याण का साधन नहीं करते । यह बड़ी अदभुत बात है ।
बाल्यावस्था में इन्द्रियों की वृत्तियाँ अव्यक्त रहती हैं । इसलिए जीव उस समय के महान दुःख को बताने की इच्छा होने पर भी बता नहीं सकता और न उस दुःख के निवारण के लिए कुछ कर ही सकता है । फिर जब दांत उठने लगते हैं । तब उसे महान कष्ट भोगना पड़ता है । मूल रोग (सर दर्द) नाना प्रकार के बाल रोग तथा पूतना आदि बालग्रह आदि से भी बालक को बड़ी पीड़ा होती है । भूख प्यास की पीड़ा से उसके सब अंग व्याकुल रहते हैं । तथा वह कभी खाट पर पड़ा हुआ रोता रहता है । इसके बाद जब वह कुछ बड़ा हो जाता है । तब अक्षरों के अध्ययन आदि से और गुरु के अनुशासन से उसको महान दुःख होता है ।
युवावस्था में रागोनमत्त पुरुष की सम्पूर्ण इन्द्रिय वृत्तियाँ काम तथा राग की पीड़ा से सदा मतवाली रहती हैं । अतः उसे भी कहाँ से सुख प्राप्त हो सकता है । मोहवश पुरुष को यदि कहीं अनुराग हो जाता है तो ईर्ष्या के कारण उसे बड़ा भारी दुःख होता है ।
जो उन्मत्त और क्रोधी है । उसका कहीं भी राग होना केवल दुःख का ही कारण है । रात में कामाग्नि जनित खेद से पुरुष को नींद नहीं आती । दिन में भी द्रव्योपार्जन की चिंता लगी रहने के कारण उसे सुख नहीं मिल सकता । 
स्त्रियाँ सब दोषों का आश्रय है । यह बात भलीभांति जान लेने पर भी जो लोग उनमें मैथुन से सुख मानते हैं । उनका वह सुख मल मूत्र त्याग के सदृश ही माना गया है । सम्मान अपमान से, प्रियजनों का संयोग वियोग से तथा जवानी वृद्धावस्था से ग्रस्त है । निर्विघ्न सुख कहाँ है ?
युवावस्था का शरीर एक दिन जरा अवस्था से जर्जर कर दिया जाने पर सम्पूर्ण कार्यों के लिए असमर्थ हो जाता है । उसके बदन में झुर्रियां पड़ जाती हैं । सर के बाल सफेद हो जाते हैं । और शरीर बहुत ढीला ढाला हो जाता है । स्त्री और पुरुष का वही रूप जो जवानी के दिनों में एक दूसरे का आधार था । जराग्रस्त हो जाने पर दोनों में से किसी को भी प्रिय नहीं लगता । बुढ़ापे में दबा हुआ पुरुष असमर्थ होने के कारण पत्नी पुत्र आदि बन्धु बांधवों तथा दुराचारी सेवकों द्वारा भी अपमानित होता है । वृद्धावस्था में रोगातुर पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन करने में असमर्थ हो जाता है । इसलिए युवावस्था में ही धर्म का आचरण करना चाहिए ।
वात, पित्त और कफ़ की विषमता ही व्याधि कहलाती है । इस शरीर को वात आदि का समूह बताया गया है । इसलिए अपना यह  शरीर व्याधिमय है । ऐसा जानना चाहिए । इस शरीर में अनेक प्रकार के रोगों द्वारा बहुतेरे दुःख प्रवेश कर जाते हैं । उनका पता अपने आपको भी नहीं चलता है । फिर दूसरों को तो लग ही कैसे सकता है । इस देह में 101 व्याधियां स्थित हैं । इनमें से 1 व्याधि तो काल के साथ रहती है और शेष आगंतुक मानी गयी है । जो आगंतुक बताई गयी है । वे तो दवा करने से तथा जप, होम और दान से शांत हो जाती हैं । परन्तु मृत्यु रूपी व्याधि कभी शांत नहीं होती । नाना प्रकार की व्याधियां, सर्प आदि प्राणी, विष एवं अभिचार (पुरश्चरण) - वे सब देहधारियों के मृत्यु के द्वार बताये गए हैं ।
यदि जीव का काल आ पहुंचा है तो सर्प और रोग आदि से पीड़ित होने पर उसे धनवंतरि भी जीवित नहीं रख सकते । काल से पीड़ित मनुष्य को औषधि, तपस्या, दान, मित्र तथा बन्धु बांधव कोई भी बचा नहीं सकते । रसायन, तपस्या, जरा, योग, सिद्ध महात्मा तथा पंडित - ये सब मिलकर भी कालजनित मृत्यु को नहीं टाल सकते ।
समस्त प्राणियों के लिए मृत्यु के समान कोई दुःख नहीं है । मृत्यु के समान कोई भय नहीं है । मृत्यु के समान कोई त्रास नहीं है । सती भार्या, उत्तम पुत्र, श्रेष्ट मित्र, राज्य, ऐश्वर्य और सुख - ये सभी स्नेहपाश में बंधे हुए हैं । मृत्यु इन सबका उच्छेद कर डालती है ।
माँ ! क्या तुम नहीं देखती हो कि हजारों मनुष्यों में से 5 भी शायद ऐसे होंगे । जो पूरे 100 वर्ष तक जीने वाले हो । कोई ही कोई 80 वर्ष और 70 वर्ष की अवस्था में मरते हैं । प्रायः 60 वर्ष तक की ही लोगों की परमायु हो गई है । किन्तु वह भी सबके लिए निश्चित नहीं है ।
जिस देहधारी को अपने  पूर्व कर्मानुसार जितनी आयु प्राप्त होती है । उसका आधा भाग तो मृत्यु रूपिणी रात्रि हर लेती है । बाल्यावस्था । अबोधावस्था और बृद्धावस्था के द्वारा 20 वर्ष और व्यतीत हो जाते हैं । जो धर्म, अर्थ और काम - किसी के भी उपयोग में नहीं आते । शेष आयु का आधा भाग मनुष्य के आने वाले बहुत से भय और अनेक प्रकार के रोग और शोक आदि हर लेते हैं । इन सबसे जो शेष रह जाता है । वही मनुष्य का जीवन है ।
इस जीवन की समाप्ति होने पर मनुष्य अत्यंत भयंकर मृत्यु को प्राप्त होता है । मृत्यु के बाद वह पुनः करोड़ों योनियों में जन्म ग्रहण करता है । कर्मों की गणना के अनुसार देह भेद से जो जीव एक शरीर से वियोग होता है । उसे ‘मृत्यु’ नाम दिया गया है । वास्तव में उससे जीव का विनाश नहीं होता । मृत्यु के समय महान मोह को प्राप्त हुए जीव के मर्म स्थान जब विदीर्ण होने लगते हैं । उस दशा में उसे जो बड़ा भारी कष्ट भोगना पड़ता है । उसकी इस संसार में कहीं कोई उपमा नहीं है ।
जैसे सांप मेंढक को निगल जाता है । उसी प्रकार मृत्यु जब मनुष्य को निगलने लगती है । उस समय वह हा तात ! हा मातः ! हा कान्ते ! इत्यादि रूप से पुकारता हुआ अत्यंत दुखी हो होकर रोता है । भाई बांधवों से साथ छूट रहा है । प्रेमीजन उसे चारों ओर से घेर कर खड़े हैं । वह सूखते हुए मुख से गरम गरम सांस खींचता है । चारपाई पर चारों ओर बारबार करवट बदलता है । पीड़ा से मोहित होकर बड़े वेग से इधर उधर हाथ फेंकता है । उसके वस्त्र खुल गए हैं । उसकी लज्जा छूट चुकी है । विष्ठा और मूत्र में सना हुआ है । 
कंठ, ओष्ठ और तालू सूख जाने के कारण बारबार पानी मांगता है । अपने धन वैभव के लिए इस बात की चिंता करता है कि मेरे मर जाने पर ये किसके हाथ में पड़ेंगे । पुनः ‘कालपाश’ से खींचे जाने पर उसका गला घुरघुराने लगता है और पार्श्ववर्ती लोगों के देखते देखते मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । जैसे तृण जलौका (जौंक) जल में बहते हुए तिनके के अंत तक पहुँच कर जब दूसरा तिनका थाम लेती है । तब पहले को छोड़ देती है । उसी प्रकार जीव एक देह से दूसरी देह में क्रमशः प्रवेश करता है । भावी शरीर में अंशतः प्रवेश करके पूर्व शरीर को त्याग करता है ।
विवेकी पुरुष के लिए किसी से कुछ माँगना मृत्यु से भी अधिक दुखदायी होता है । मृत्यु का दुःख तो क्षण भर में समाप्त हो जाता है । परन्तु याचनाजनित दुःख का कभी अंत नहीं होता । मैंने तो इस समय यह अनुभव किया है कि मृत मनुष्य जीवित रहकर याचना करने की अपेक्षा श्रेष्ठ है । क्योंकि अब वह फिर दूसरे किसी के सामने हाथ नहीं फैला सकता ।
तृष्णा ही लघुता का कारण है ।
आदि में दुःख है । मध्य में दुःख है । तथा अंत में भी दारुण दुःख प्राप्त होता है ।
दुखों की यह परंपरा समस्त प्राणियों को स्वभावतः प्राप्त होती है । क्षुधा को सब रोगों से महान रोग माना गया है । वह अन्न रूपी औषधि का लेप करने से कुछ क्षणों के लिए शांत हो जाती है । (यदि कहें कि धन धान्य संपन्न राजा सुखी होंगे । तो यह भी ठीक नहीं) राजा को केवल यह अभिमान ही होता है कि मेरे घर में इतना वैभव शोभा पा रहा है । वास्तव में तो उनका सारा आभरण भार रूप है । समस्त आलेपन द्रव्य मल मात्र हैं । सम्पूर्ण संगीत राग प्रलाप मात्र है तथा नृत्य आदि भी पागलों की सी  चेष्टा है । विचार दृष्टि से देखने पर इन राज्य भोगों के द्वारा राजाओं को सुख कहाँ प्राप्त होता है ? क्योंकि वे लोग तो एक दूसरे को जीतने के लिए सदा ही चिंतित रहते हैं । प्रायः राज्यलक्ष्मी के मद से उत्पन्न होने के कारण नहुष आदि महाराज स्वर्ग का साम्राज्य पाकर भी वहाँ से नीचे गिर गए हैं । राजलक्ष्मी अथवा धन ऐश्वर्य से भला कौन सुख पाता है ?
मनुष्य स्वर्ग लोक में जो पुण्य फल भोगते हैं । वह अपने मूल धन को गवां कर ही भोगते हैं । क्योंकि वहाँ वे दूसरा नवीन कर्म नहीं कर सकते । यही स्वर्ग में अत्यंत भयंकर दोष है । जैसे वृक्ष की जड़ काट देने पर वह विवश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ता है । उसी प्रकार पुण्य रूपी मूल का क्षय हो जाने पर स्वर्गवासी जीव पुनः पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं । इस तरह विचार पूर्वक देखा जाए । तो स्वर्ग में भी देवताओं को कोई सुख नहीं है ।
नर्क में गए हुए पापी जीवों का दुःख तो प्रसिद्ध है । उनका क्या वर्णन किया जाये । स्थावर योनि में पड़े हुए जीवों को भी बहुत दुःख भोगने पड़ते हैं । दावानल से जलना, पाला पड़ने से गलना, धूप और हवा से सूखना, कुल्हाड़ी से काटा जाना, उनके वल्कलों (छिलकों) का उतरा जाना, प्रचंड आंधी के वेग से पत्तों, डालियों और फलों का गिराया जाना तथा हाथियों और अन्य जंगली जंतुओं द्वारा कुचला जाना आदि उनके लिए महान दुःख हैं ।
सर्पों और बिच्छुओं को प्यास और भूख का कष्ट रहता है । उन्हें क्रोध का भी दारुण दुःख सहन करना पड़ता है । संसार में प्रायः दुष्ट सांप बिच्छुओं को मारा  जाता है । उन्हें जाल में फंसा कर बन्द रखा जाता है  ।
माता जी ! इस प्रकार उस योनि के जीवों को बारबार कष्ट उठाना पड़ता है । कीड़े आदि का अकस्मात जन्म होता है और अचानक ही उनकी मौत भी हो जाती है । अतः उनका दुःख भी कम नहीं है । मृगों और पक्षियों को वर्षा, सर्दी और धूप का महान कष्ट तो है ही । भूख प्यास के भारी दुःख से भी मृग सदा संत्रस्त रहते हैं । 
पशु समूह के जो दुःख हैं । उन्हें भी सुन लो । भूख प्यास तथा सर्दी गर्मी आदि का कष्ट सहना, मारा जाना, बंधन में डाला जाना और डंडे आदि से पीटा जाना, नाक का छेदा जाना, चाबुक और अंकुश की मार पड़ना आदि उनके महान क्लेश हैं । इनके अतिरिक्त बोझ ढोने का भी उन्हें  बड़ा भारी कष्ट है । कार्य की शिक्षा देते समय भी उन्हें मारा पीटा जाता है । फिर युद्ध आदि की भी पीड़ा भी सहनी पड़ती है । अपने झुण्ड से जो उनका वियोग होता  है और वे वन से जो अन्यत्र लाये जाते हैं । यह सब कष्ट अलग हैं ।
दुर्भिक्ष, दुर्भाग्य का प्रकोप, मूर्खता, दरिद्रता, नीच ऊँच का भय, मृत्यु, राष्ट्रविप्लव (एक राज्य का नाश करके दूसरे के स्थापना करना) पारस्परिक अपमान का दुःख, आपस में एक दूसरे से धन वैभव या मान प्रतिष्ठा में बढ़ जाने से कष्ट, अपनी प्रभुता का सदा स्थिर न होना, ऊंचे चढ़े हुए लोगों का नीचे गिराया जाना इत्यादि महान दुखों से यह सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है । 
जैसे इस कंधे का भार उस कंधे पर कर देने को मनुष्य विश्राम समझता है । उसी प्रकार इस लोक में एक दुःख दूसरे दुःख से ही शांत होता है । अतः एक दूसरे से ऊँची स्थिति में स्थित होते हुए इस सम्पूर्ण जगत को दुखों से भरा हुआ जानकर उसकी ओर से अत्यंत उद्विग्न हो जाना चाहिए । उद्वेग से वैराग्य होता है । वैराग्य से ज्ञान प्रकट होता है तथा ज्ञान से परमात्मा को जानकर मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
माँ ! जैसे कौओं के अपवित्र स्थान में विशुद्ध राजहंस नहीं रह सकता । उसी प्रकार ऐसे दुखमय संसार में मैं तो कभी नहीं रम सकता ।
मैया ! जहाँ रहकर मैं बिना किसी विघ्न बाधा के आनंदपूर्वक रह सकता हूँ । वह स्थान भी बताता हूँ । सुनो ! अविद्या रूपी वन तो बड़ा भयंकर है । उसमें नाना प्रकार के कर्ममय वृक्ष खड़े हैं । वहाँ संकल्पों के डांस और मच्छर बहुत हैं । शोक ओर हर्ष ही वहाँ की सर्दी और धूप हैं । उस वन में मोह का घना अन्धकार छाया रहता है । वहां लोभ रूपी सांप और बिच्छू रहते हैं । विषयों के अनेक मार्गों से वह प्रदेश व्याप्त है । काम और क्रोध रूपी वधिक तथा लुटेरे उसमें सदा डेरा डाले रहते हैं ।
उस महा दुखमय विशाल वन को लांघ कर अब मैं एक ऐसे महान विपिन में प्रवेश कर चुका हूँ । जहाँ पहुँच कर उसके तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुष न शोक करते हैं, न हर्ष ।
यहाँ किसी से भय नहीं है । किसी को भी भय नहीं है । उस विद्या रुपी वन में साथ बड़े भरी वृक्ष हैं । वहाँ सात ही पर्वत हैं । जिन्होंने तीनों लोकों को धारण कर रखा है । सात ही कुण्ड हैं और सात ही नदियाँ हैं । जो सदा ब्रह्मरूप जल बहाया करती है । 
तेज, अभयदान, अद्रोह, कौशल, अचपलता, अक्रोध और प्रिय वचन बोलना - ये ही सात पर्वत विद्यावान में स्थित हैं ।
दृण निश्चय, सबके साथ समता, मन और इन्द्रियों में संयम, गुणसंचय, ममता का अभाव, तपस्या तथा संतोष - ये सात कुण्ड हैं ।
भगवान के गुणों का विशेष ज्ञान होने से जो उनके प्रति भक्ति होती है । वह विद्या वन की पहली नदी है । वैराग्य दूसरी, ममता का त्याग तीसरी, भगवदाराधन चौथी, भाग्वादर्पण पांचवी, ब्रह्म एकत्व बोध छठी तथा सिद्धि सातवीं नदी है । ये ही सात नदियाँ वहाँ स्थित बताई गई हैं । बैकुंठ धाम के निकट इन सातों नदियों का संगम होता है ।
जो आत्मतृप्त, शांत तथा जितेन्द्रिय होते हैं । वे ही महात्मा उस मार्ग से परात्पर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं । कोई श्रेष्ठ ज्ञानीजन उन वृक्षों को प्राप्त करता है । कोई पर्वतों को, कोई कुण्डों को और कोई उन सात सरिताओं को ही प्राप्त होता है ।
माँ ! मैं ग्रहण किये हुए व्रत को धारण करने की इच्छा रख कर ब्रह्मचर्य का आचरण करता हूँ । इस ब्रह्मचर्य में ब्रह्म ही समिधा, ब्रह्म ही अग्नि तथा ब्रह्म ही कुशस्तरण है । जल भी ब्रह्म है और गुरु भी ब्रह्म ही है  - यही मेरा ब्रह्मचर्य है । विद्वान पुरुष इसी को सूक्ष्म ब्रह्मचर्य मानते हैं ।
माता ! अब मेरे गुरु का परिचय सुनो । जिन्होंने मुझे विद्या प्रदान की है । एक ही शिक्षक है । दूसरा कोई शिक्षक नहीं है । ह्रदय में विराजमान अन्तर्यामी पुरुष ही शिक्षक होकर शिक्षा देता है । उसी से प्रेरित होकर मैं झरने से बहकर जाने वाले जल की भांति  जहाँ जिस कार्य में नियुक्त होता हूँ । वहाँ वैसा ही करता हूँ । एक ही गुरु है । उनके सिवा दूसरा कोई गुरु नहीं है । जो ह्रदय में विराजमान हैं । वे गुरु हैं । उनको मैं प्रणाम करता हूँ । उन्हीं गुरु स्वरूप भगवान मुकुंद की अवहेलना करके सम्पूर्ण दानव पराभव को प्राप्त हुए हैं । एक ही बन्धु है । उसके सिवा दूसरा बन्धु नहीं है । जो ह्रदय में विराजमान है । वह परमात्मा ही बन्धु है । मैं उसे नमस्कार करता हूँ । उसी से शिक्षा प्राप्त करके सात बंधुमान भाई सप्तर्षि आकाश में प्रकाशित होते हैं । ऐसे ही ब्रह्मचर्य का भलीभांति सेवन करना चाहिए ।
अब मेरा गृहस्थ कैसा है । यह भी सुन लो । माता ! प्रकृति ही मेरी पत्नी है । किन्तु मैं कभी उसका चिंतन नहीं करता । वही सदा मेरा चिंतन किया करती है । वह मेरे सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है । 
नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कान, मन और बुद्धि - यह सात प्रकार की अग्नि सदा मेरी अग्निशाला में प्रज्ज्वलित रहती है । 
गंध, रस, रूप, शब्द, स्पर्श, मंतव्य और बोधव्य - ये ही सात मेरी समिधाएँ हैं । होता भी नारायण है । और ध्यान से साक्षात नारायण ही उपस्थित हो उस हविष्य का उपयोग करते हैं । ऐसे महायज्ञ द्वारा मैं अपनी इस ग्रहस्थी में उन परमेश्वर का यजन करता हूँ । किसी भी वस्तु की कामना नहीं रखता । यथापि मेरे सम्पूर्ण काम स्वयं सिद्ध हैं ।
मैं सांसारिक सम्पूर्ण दोषों से द्वेष नहीं करता तथापि कोई भी दोष मुझमें प्रकट नहीं होता । जैसे कमल के पत्ते पर जल की बूँद का लेप नहीं होता । उसी प्रकार मेरा स्वभाव राग द्वेष आदि से लिप्त नहीं होता ।
मैं नित्य हूँ व भूतों के स्वभाव का साक्षी हूँ । अनित्य भोग मुझ पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते । जैसे सूर्य की किरणें आकाश में लिप्त नहीं होती । वैसे ही मेरे भगवदर्थ किये गए निष्काम कर्मों में भोग समूह लिप्त नहीं होता (मेरे कर्मों का फल भोग सामग्री के रूप में नहीं उपस्थित होता । वे कर्म तो भगवत प्राप्ति कराने वाले हैं)
माता ! ऐसे मुझ पुत्र से तुम दुखी न हो । मैं तुम्हें उस पद पर पहुचा दूंगा । जहाँ सैकड़ों यज्ञ करके भी पहुँचना असम्भव है ।
अपने पुत्र की यह बात सुनकर इतरा को बड़ा विस्मय हुआ ।
वह सोचने लगी - अहो ! यदि मेरा पुत्र ऐसा दृढ़ निश्चय वाला विद्वान है तब तो संसार में जब इसकी ख्यति  होगी । उस समय मेरा भी महान यश फैलेगा ।
माता इस प्रकार की बातें सोच ही रही थी कि शंख चक्र गदाधारी भगवान विष्णु उस अर्चा विग्रह से साक्षात प्रकट हो गए । वे उस द्विज पुत्र की बातों से अत्यंत प्रसन्न थे । भगवान को देखते ही ऐतरेय धरती पर दंड की भांति गिर पड़े । उनके शरीर में रोमांच हो आया । नेत्रों से प्रेम के आंसू बहने लगे । वाणी गदगद हो गयी । बुद्धिमान ऐतरेय ने मस्तक पर अंजलि बाँध कर भगवान का इस प्रकार स्तवन प्रारंभ किया ।
- आप भगवान वासुदेव का हम ध्यान और नमस्कार करते हैं । आप ही प्रदुम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण हैं । आपको नमस्कार है । आप केवल विज्ञानरूप तथा परमानंद मूर्ति हैं । आपको नमस्कार है । आप आत्माराम, शांत तथा आप समस्त इन्द्रियों के स्वामी (हृषिकेश) हैं ।
सबसे महान तथा अनंत शक्तियों से संपन्न हैं । आपको नमस्कार है । मन सहित वाणी के थक कर निवृत हो जाने पर जो एक मात्र अपनी कृपा से ही सुलभ होने वाले हैं । नाम और रूप से रहित चैतन्य घन ही जिनका रूप है । वे सत और असत से परे विराजमान परमात्मा हम सबकी रक्षा करें । आप परम सत्य तथा निर्मल हैं । हम आपकी उपासना करते हैं । जो षङविध ऐश्वर्य से युक्त परम पुरुष महानुभाव एवं समस्त महाविभूतियों के अधिपति हैं । उन भगवान को नमस्कार है । परमेष्ठिन ! आप सबसे उत्कृष्ट हैं । सम्पूर्ण भक्त समुदाय आपके युगल चरणार्विन्दों की बड़े लाङ प्यार से सेवा करते हैं । आपको नमस्कार है । अग्नि आपका मुख है । पृथ्वी आपके दोनों चरण है । आकाश मस्तक है । चन्द्रमा तथा सूर्य दोनों नेत्र हैं । सम्पूर्ण लोक आपका शरीर है तथा चारों दिशाएँ आपकी चार भुजाएं हैं । भगवान ! आपको नमस्कार है ।
हे स्तुति करने योग्य परमात्मन ! हे नाथ ! इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है । जिनमें मेरा जन्म न हुआ हो । जहाँ मेरी मृत्यु न हुई हो । मैं समझता हूँ । यदि मेरे माता पिताओं की गणना की जाए तो यह विशाल पृथ्वी परमाणुओं की स्थिति में पहुँच जाएगी । असंख्य जन्मों के मेरे माता पिताओं की गणना करने के लिए पृथ्वी के परमाणु बराबर टुकड़े करने पड़ेंगे । 
देवदेव ! मेरे जो मित्र, शत्रु, अनुजीवी तथा भाई बन्धु इस संसार में हो गए हैं । उन सबको गणना करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ ।
नाथ ! मैंने अपना मन बारबार आपके चरणों में समर्पित किया परन्तु मेरा दुर्जय शत्रु काम अपने क्रोध आदि सहायकों द्वारा उसे हठात अपने वश में कर लेता है । भगवन ! अब आप ही बताईए । ऐसे दशा में मैं क्या करूँ ?
सर्वव्यापी परमेश्वर ! मैं बहुत ही पीड़ित हूँ । संसार रुपी गड्ढे में गिरे हुए इस दीन पर आप दया कीजिये । दुर्गति में पड़ा हुआ प्राणी भी महात्माओं की शरण में आ जाने पर कष्ट नहीं भोगता । रोगी मनुष्यों को शरण देने वाला वैद्य है । महासागरों में डूबे हुए मनुष्य का सहारा नौका है । बालक को आश्रय देने वाले माता और पिता हैं । परन्तु भगवन ! अत्यंत घोर संसार बंधन से दुखी हुए मनुष्य को शरण देने वाले केवल आप ही हैं ।
सर्वस्वरूप सर्वेश्वर ! प्रसन्न होइये । आप ही सबके कारण हैं । पारमार्थिक सारतत्व भी आप ही हैं । महान दुःख समूह से भरे हुए, संसार रूपी गड्ढे से स्वयं ही हाथ पकड़ कर मुझे निकालिए ।
हे अच्युत ! हे उरुक्रम ! यह संसार भूख और प्यास से, वात, पित्त और कफ - इन तीन धातुओं से, सर्दी गर्मी, आंधी और वर्षा से आपस में ही एक दूसरे से तथा कभी तृप्त न होने वाली कामाग्नि तथा क्रोधाग्नि से बारबार पीड़ित होता है । इसे इस दशा में देखकर मेरा मन बहुत ही दुखी हो रहा है । मैंने अपनी शक्ति के अनुसार सम्पूर्ण जगत को धारण करने वाले परमेश्वर भगवान आप वासुदेव का स्तवन किया है । इससे सबका कल्याण हो । सम्पूर्ण जगत के समस्त दोष नष्ट हो जाएँ ।
आज मेरे द्वारा जगत्धाता वासुदेव की स्तुति हुई है । इससे इस पृथ्वी पर, अंतरिक्ष में, स्वर्गलोक में तथा रसातल में भी जो कोई प्राणी रहते हों । वे सिद्धि को प्राप्त हो जाएँ । मेरे द्वारा स्तुति पाठ करते समय जो लोग इसको सुनते हों । इस स्तोत्र का उच्चारण करते समय जो मुझे देखते हैं । वे देवता, असुर, मनुष्य तथा पशु पक्षी कोई भी क्यों न हों । सभी भगवान विष्णु के तत्वज्ञान को प्राप्त करें । 
इनके सिवा जो गूंगे तथा अन्यान्य इन्द्रियों से रहित हों । जो देख सुन न सकते हों तथा पशु पक्षी, कीड़े मकोड़े आदि भी आज भग्वातत्व ज्ञान के भागी हो जाएँ । संसार में दुखों का नाश हो जाए । समस्त प्रजा के ह्रदय में लोभ आदि दोष समुदाय निकल जाए । अपने में, अपने भाई और पुत्र में जैसा प्रेम और आत्मीयता का भाव होता है । सब लोगों का सबके प्रति वैसा ही भाव हो जाए ।
जो संसार रूपी रोग के चिकित्सक, सम्पूर्ण दोषों के निवारण में चतुर तथा परमानन्द की प्राप्ति के हेतु भूत हैं । वे भगवान विष्णु सबके ह्रदय में विराजमान हों और ऐसा होने से सब लोगों के संसार बंधन शिथिल हो जाएँ । सम्पूर्ण विश्व को धारण करने वाले भगवान वासुदेव का स्मरण करने पर मन, वाणी और शरीर द्वारा आचरित मेरे समस्त पाप नष्ट हो जाएँ ।
हे वासुदेव ! ऐसा उच्चारण करने पर अथवा भगवान विष्णु के भक्त की महिमा का कीर्तन करने पर । अथवा श्रीहरि का स्मरण करने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है । यदि यह सत्य है । तो इस सत्य के प्रभाव से मेरा पाप नष्ट हो जाए ।
अखिलेश्वर ! आपके चरणों में पड़े हुए मुझ सेवक पर आप यह सोच कर कृपा कीजिये कि - यह बेचारा मूढ़ है । कुछ जानता नहीं । इसकी बुद्धि बहुत थोड़ी है । इसके द्वारा उद्यम भी बहुत कम हो पाता है । विषयों से इसका मन सदा क्लेश में पड़ा रहता है । इसलिए यह मुझ में नहीं लग पाता । देव ! आपकी स्तुति करने में ब्रह्मा भी समर्थ नहीं हैं । भगवन ! आप प्रसन्न होइये । 
विष्णो ! आप बड़े दयालु हैं । मुझ अनाथ पर कृपा कीजिये ।
हे अनंत ! हे पापहारी हरि ! आप पुरुषोत्तम हैं । संसार सागर में डूबे हुए मुझ दीन का उद्धार कीजिये ।
अर्जुन ! ऐतरेय के इस प्रकार स्तुति करने पर ‘विशालकाय’ भगवान वासुदेव ने आनंदमय होकर कहा - वत्स ऐतरेय ! मैं तुम्हारी भक्ति से और इस स्तुति से बहुत प्रसन्न हूँ । तुम मुझसे कोई मनोवांछित एवं दुर्लभ वर मांगो ।
ऐतरेय ने कहा - नाथ ! हरे ! मेरा अभीष्ट वर तो यही है कि घोर संसार सागर में डूबते हुए मुझ असहाय के लिए आप कर्णधार हों ।
भगवान वासुदेव बोले - वत्स ! तुम तो संसार सागर से मुक्त ही हो । जो सदा इस स्तोत्र से गुप्तक्षेत्र में स्थित हुए मुझ वासुदेव का स्तवन करेगा । उसके सम्पूर्ण पापों का नाश हो जायेगा । अतः यह ‘अघनाशन’ नाम से विख्यात होगा । जो एकादशी को उपवास करके मेरे आगे इस स्तोत्र का पाठ करेगा । वह शुद्धचित्त होकर मेरे परम धाम को प्राप्त होगा । 
जैसे सब क्षेत्रों में मुझे यह गुप्तक्षेत्र अधिक प्रिय है । उसी प्रकार सब स्तोत्रों में यह स्तोत्र मुझे विशेष प्रिय है । जिन प्राणियों के उद्देश्य से महात्मा पुरुष इस स्तोत्र का जप करते हैं । वे सब प्राणी मेरी कृपा से शान्ति, ऐश्वर्य तथा उत्तम बुद्धि प्राप्त करेंगे ।
बेटा ! तुम श्रद्धापूर्वक वैदिक धर्मों का आचरण करो । उन्हें निष्काम भाव से मुझे समर्पित कर देने पर उनके द्वारा तुम्हें बंधन प्राप्त नहीं होगा । पत्नी का पाणिग्रहण करके तुम यज्ञों द्वारा भगवान की आराधना करो और अपनी माता की प्रसन्नता बढाओ । मुझमें तीव्र ध्यान करने से तुम निसंदेह मुझे ही प्राप्त होगे ।
बुद्धि, मन, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ - ये तेरह ग्रह हैं ।
बोधव्य, मंतव्य, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, वचन, आदान, कर्म, गमन, मलोत्सर्ग और रतिजनित आनद - ये तेरह महाग्रह हैं ।
बेटा ! अपने बुद्धि आदि शुद्ध (आसक्ति शून्य) ग्रहों के द्वारा मेरा ध्यान करते हुए पूर्वोक्त महाग्रहों को शुद्ध रूप में ग्रहण करो । भागवत प्रसाद मानकर स्वीकार करो । ऐसा करने से तुम मोक्ष को प्राप्त होगे ।
यों कहकर भगवान विष्णु पुनः वासुदेव विग्रह में ही प्रवेश कर गए ।

18 जून 2015

60000 जन्म बाद हुआ - नानक मोक्ष

नानकशाह कीन्हा तप भारी..जैसे शब्दों से आरम्भ हुआ कबीर और नानक का संवाद वर्णन उन कलियुगी शिष्यों और गुरुओं के लिये आँखे खोलने वाला है । जो ज्ञान और आत्मज्ञान को भी किसी भौतिक पदार्थ सा आसानी से उपलब्ध होने वाला मानते हैं । और आश्चर्य की बात है कि ये आधार भी कबीर का लेकर चलते हैं । 
अनुराग सागर के अनुसार धनी धर्मदास को भी उसके चार जन्म पूर्व सचखंड से जीवों के उद्धार कार्य से भेजा गया । और वह सत सुकृत मृत्युलोक की बलवती माया में बुरी तरह फ़ंस गया । अनुराग सागर के ही कबीर धर्मदास संवाद के अनुसार उसके चारो जन्म में स्वयं कबीर ही उसे चेताने आये । और अपनी पहचान भूला हुआ वह उनसे ही तर्क वितर्क करता रहा ।
गौर करने वाली बात है कि आज भी 6 000 का सेल फ़ोन लेने में आदमी को दस बार सोचना पङता है । कुछ इधर उधर करना होता है । पर सचखंड का जैसे लगभग मुफ़्त टूर पैकेज सरकार की तरफ़ से बांटा जा रहा हो । मेरे कहने का अर्थ लोगों आत्मज्ञान को बहुत हल्के में लेते हैं । और उनको दोष नहीं है । ये आजकल के नकली गुरुओं द्वारा विकसित किया गया बाजारवाद है । 
इस सम्बन्ध में धीरता गम्भीरता से सटीक चिन्तन के लिये कबीर और नानक साहब के इस संवाद में कई महत्वपूर्ण तथ्य हैं । जिन पर बारीकी से सोचना आवश्यक है ।
जबते हमते बिछुरे भाई । साठि हजार जन्म भक्त तुम पाई । 
कबीर साहब ने नानक को बताया कि जब से तुम सतलोक से बिछुङे हो । तुम्हारे 60 000 जन्म हो चुके हैं । और जन्म भी साधारण जन्म नहीं । बल्कि एक भक्त वाले जन्म - धरि धरि जन्म भक्ति भल कीना । फिर काल चक्र निरंजन दीना ।
यहाँ एक बहुत गूढ रहस्य है कि 60 000 या 60 00 000 जन्म क्यों न हो जायें । बिना सदगुरु और बिना सतनाम के - फिर काल चक्र निरंजन दीना...इस कालचक्र से बाहर निकला ही नहीं जा सकता ।
इन शब्दों पर गौर कीजिये -
निरंकार सब सृष्टि भुलावा । तुम करि भक्ति लौटि क्यों आवा । 
निरंकार आकाश ( तत्व ) को कहते हैं । और दूसरा इसे वह स्थान कह सकते हैं । जहाँ रंकार अर्थात वह ध्वनि नहीं । जो जीव चेतना में स्फ़ुरण से उत्पन्न हो रही है । ररंकार अर्थात वह ध्वनि जो सृष्टि चेतना से जुङी है । और खास इसका अर्थ है । इसको पकङ कर इसमें प्रविष्ट करना । अतः निरंकार सब सृष्टि भुलावा का एक और गूढ अर्थ है कि निरंकार यानी चित्त के फ़ैलाव में समस्त जीव फ़ंसे हुये हैं । और इसी में खुद की पहचान या परमात्मा को भी खोज रहे हैं । जो कि दूर दूर तक नहीं है । न हो सकता है ।
इसलिये कबीर साहब ने कहा - सभी चित्त की भूलभुलैया में भटके हैं । फ़िर तुम ही कैसे लौटते । यानी बिना भेदी के ।
तुम बड़ भक्त भवसागर आवा । और जीव की कौन चलावा । 
आगे कबीर साहब ने कहा - जब 60 000 जन्म तुम भक्ति में प्रयास रत रहे । और ऐसे बङे भक्त होकर भी तुम बारबार भवसागर में ही रहने को बाध्य हुये । फ़िर और साधारण जीव किस गिनती में आते हैं ?
भली भई तुम हमको पावा । सकलो पंथ काल को ध्यावा । 
ये पंक्ति भी एक बङे रहस्य को उजागर करती है । सभी पंथ ( ध्यान रहे, स्वयं कबीर साहब का ज्ञान अथवा उनका तत्कालीन मंडल पंथ के अंतर्गत नहीं था । पंथ से कभी सत्यज्ञान या परमात्म ज्ञान हो ही नहीं सकता । सभी पंथ किसी जाग्रत पुरुष के बाद उसके नाम पर बनते हैं । ) कालपुरुष यानी निरंजन की तरफ़ ही जा रहे हैं । दौङ रहे हैं ।
स्पष्ट है । सदगुरु का कभी कोई पंथ नहीं होता ।
नानकशाह कीन्हा तप भारी । सब विधि भये ज्ञान अधिकारी । 
अब गौर करिये । विशेष गौर करिये । 60 000 जन्म तक थोङा थोङा करके जो पुण्य संचय ( तप भारी ) हुआ । तब नानक साहब हर तरह से ( सब विधि ) ज्ञान प्राप्त करने के अधिकारी हुये । और तब सदगुरु स्वयं प्रकट रूप में चलकर आये । और उन्हें ज्ञान दिया ।
क्या ज्ञान था वह ?
अनहद बानी कियौ पुकारा । सुनिकै नानक दरश निहारा ।
बेहद गौर से सोचिये । 60 000 जन्म के बाद ( जनक की तरह ) नानक वाले जन्म में भी कबीर साहब नानक को वही प्रवचन तन्त्र मन्त्र दे देते । वर्षों जपने को कहते । तो नानक साहब को - सुनिके अमर लोक की बानी । जानि परा निज समरथ ज्ञानी..ऐसा बोध कैसे होता ?
अर्थ यह कि प्रस्तावना और परिचय के बाद कबीर साहब ने जो ज्ञान दिया या मूल चेतना से जोङा - अनहद बानी कियौ पुकारा । उसे सुनकर नानक साहब को तुरन्त ही उनके समर्थ और ( वास्तविक ज्ञानी ) सदगुरु होने का अनुभव हुआ ।
ये अनहद वाणी वही ररंकार से लेकर ऊपर मूल शब्द की वह ध्वनि है । जो निरन्तर मनुष्य शरीर में हो रही है । और ‘मष्तिष्क के मध्य’ निरन्तर बदलाव की ध्वनि को प्राप्त करना समय के सदगुरु की एक बङी पहचान है । इसी को अनुभव कर नानक साहब कबीर के प्रति श्रद्धानवत हो गये । क्यों ? क्योंकि यह कोई मोहक जादू नहीं था । बल्कि यह जीव का निज मूल है । जो तुरन्त उसे झंकृत करता है - नाम खुमारी नानका चढी रहे दिन रात ।
काहु न कही अमर निजबानी - अर्थ इससे पूर्व नानक जिससे भी मिले । वह यह अनहद शब्द ध्वनि प्रकट नहीं करा सका ।
कोई न पावै तुमरो भेदा । खोज थके ब्रह्मा चहुँ वेदा - परम पुरुष का भेद स्वयं ब्रह्मा चारो वेदों में खोजते खोजते थक गया । पर सफ़लता नहीं मिली । फ़िर औरों के लिये क्या कहा जाये ?
पुरुष बिछोह भयौ तव जबते । काल कठिन मग रोक्यौ तब ते - जैसे ही परमात्मा का विस्मरण हो जाता है । काल उस जीव के लिये बहुत कठिन ( क्रूर ) हो जाता है । और उसकी वापसी के सभी रास्ते बन्द कर देता है । 
गहु मम शब्द तो उतरो पारा । बिन सत शब्द लहै यम द्वारा - यानी ये अनहद शब्द की डोर ( सुमरन ) पकङे रहो । तो पार उतर जाओगे । परन्तु बिना सत्य शब्द के बारबार यम के यहाँ ही जाना होगा । 
जबलों हम तुमको नहिं पावा । अगम अपार भर्म फैलावा - यह भी गौर करने लायक है । नानक साहब कहते हैं । जब तक सदगुरु नहीं मिला था । तब तक भ्रम की कोई सीमा नहीं थी । और इससे निकलना बेहद कठिन था ।
धनि जिंदा प्रभु पुरुष पुराना । बिरले जन तुमको पहिचाना - अर्थात हे पुरातन पुरुष या प्रथम पुरुष या सदगुरु आप धन्य हैं । आपको कोई बिरला ही पहचान पाता है । हरेक नहीं ।
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( स्वसम वेद बोध ) Page no158-159
नानकशाह कीन्हा तप भारी । सब विधि भये ज्ञान अधिकारी । 
भक्ति भाव ताको समिझाया । तापर सतगुरु कीनो दाया । 
जिंदा रूप धरयो तब भाई । हम पंजाब देश चलि आई । 
अनहद बानी कियौ पुकारा । सुनिकै नानक दरश निहारा । 
सुनिके अमर लोक की बानी । जानि परा निज समरथ ज्ञानी ।
नानक वचन ( Nanak Speech )
आवा पुरूष महागुरु ज्ञानी । अमरलोकी सुनी न बानी ।
अर्ज सुनो प्रभु जिंदा स्वामी । कहँ अमरलोक रहा निजधामी ।
काहु न कही अमर निजबानी । धन्य कबीर परमगुरु ज्ञानी । 
कोई न पावै तुमरो भेदा । खोज थके ब्रह्मा चहुँ वेदा । 
जिन्दा वचन ( Jinda Speech )
नानक तव बहुतै तप कीना । निरंकार बहुते दिन चीन्हा ।
निरंकार ते पुरुष निनारा । अजर द्वीप ताकी टकसारा ।
पुरुष बिछोह भयौ तव जबते । काल कठिन मग रोक्यौ तब ते । 
इत तव सरिस भक्त नहिं होई । क्यों कि परमपुरूष न भेटेंउ कोई ।
जबते हमते बिछुरे भाई । साठि हजार जन्म भक्त तुम पाई । 
धरि धरि जन्म भक्ति भल कीना । फिर काल चक्र निरंजन दीना । 
गहु मम शब्द तो उतरो पारा । बिन सत शब्द लहै यम द्वारा । 
तुम बड़ भक्त भवसागर आवा । और जीव की कौन चलावा ।
निरंकार सब सृष्टि भुलावा । तुम करि भक्ति लौटि क्यों आवा ।
नानक वचन ( Nanak Speech )
धन्य पुरुष तुम यह पद भाखी । यह पद हमसे गुप्त कह राखी ।
जबलों हम तुमको नहिं पावा । अगम अपार भर्म फैलावा । 
कहो गोसाँई हम ते ज्ञाना । परमपुरूष हम तुमको जाना ।
धनि जिंदा प्रभु पुरुष पुराना । बिरले जन तुमको पहिचाना । 
जिन्दा वचन ( Jinda Speech )
भये दयाल पुरूष गुरु ज्ञानी । दियो पान परवाना बानी ।
भली भई तुम हमको पावा । सकलो पंथ काल को ध्यावा । 
तुम इतने अब भये निनारा । फेरि जन्म ना होय तुम्हारा ।
भली सुरति तुम हमको चीन्हा । अमर मंत्र हम तुमको दीन्हा । 
स्वसम वेद हम कहि निज बानी । परमपुरूष गति तुम्हैं बखानी ।
नानक वचन ( Nanak Speech )
धन्य पुरुष ज्ञानी करतारा । जीवकाज प्रकटे संसारा ।
धनि करता तुम बंदी छोरा । ज्ञान तुम्हार महाबल जोरा ।
दिया नाम दान किया उबारा । नानक अमरलोक पग धारा ।
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गुरुनानक का जन्म मृत्यु - गुरुनानक देव ( जन्म - 15 अप्रैल 1469 तलवंडी, पंजाब, भारत । मृत्यु - 22 सितंबर 1539 भारत ) सिखों के प्रथम गुरु ( आदि गुरु ) हैं । इनके अनुयायी इन्हें गुरुनानक, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं ।
कबीरदास का जन्म मृत्यु - कबीर ( जन्म - सन 1398 काशी । मृत्यु - सन 1518 मगहर ) का नाम कबीरदास, कबीर साहब एवं संत कबीर जैसे रूपों में भी प्रसिद्ध है । 

16 जून 2015

अल्लाह बङा या राम

विहिप के नेता प्रवीण तोगडिय़ा ने एक बार फिर विवादित बयान दिया है । तोगड़िया ने कहा -  योग करते हुए अल्लाह शब्द का इस्तेमाल हिन्दू बर्दाश्त नहीं करेंगे । यूपी के बुलंदशहर में आयोजित कार्यक्रम में तोगड़िया ने कहा कि योग में अल्लाह शब्द का इस्तेमाल करने से भगवान शिव का अपमान होगा ।
उन्‍होंने कहा कि सूर्य नमस्कार करते हुए ॐ शब्द का उच्चारण करना योग का अहम हिस्सा है । जिन्हें ॐ शब्द और सूर्य नमस्कार से एलर्जी है । उन्हें बीमारियों के साथ जीना चाहिए । ये बयान ऐसे समय में आया है जब 21 जून को विश्व योग दिवस पर केंद्र सरकार की ओर से आयोजित योग सेशन में हिस्सा लेने के लिए दारुल उलूम देवबंद और कई मुस्लिम धर्मगुरु राजी हो गए हैं ।
http://m.khabar.ibnlive.com/news/politics/vhp-leader-ashok-singhal-controversial-statement-381441.html
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मेरी बात - धर्मों को लेकर इंसानों, देशों, जातियों की गुटबाजी एक सर्वथा अलग चीज है । लेकिन सिर्फ़ धर्म को लेकर इंसानों में ऐसा शाब्दिक, मानसिक, शारीरिक विभाजन एकदम असंभव है । इसीलिये मैंने आरम्भिक पंक्ति में ‘धर्मों’ और उसके बाद की पंक्ति में सिर्फ़ ‘धर्म’ शब्द का उपयोग किया है । बहुत धर्म (का भृम) सिर्फ़ इंसान के अज्ञान की उपज है । एक ही धर्म का होना परमात्मा की उत्पत्ति है ।
यहाँ फ़िर वही बात दोहरानी होगी कि योग करते समय ‘अल्लाह’ कहने से यदि भगवान शिव का अपमान होता है । नमाज अदा करते समय राम या जय सियाराम उच्चारने से अल्लाह नाराज हो जाये । तो या तो सृष्टि रचियता दो या और भी अधिक हैं ।
कबीर साहब की बहुप्रसिद्ध एक वाणी इसी स्थिति पर है । वाणियां तो इस सम्बन्ध में अनेकों हैं पर यह एकदम करीब है ।
हिन्दू कहे मोहि राम प्यारा, तुर्क कहे रहमाना ।
आपस में दोऊ लङ लङ मुए, मर्म न काहू जाना ।
हिन्दू मुस्लिम के इस अज्ञानता पूर्ण शाब्दिक विवाद में सिर्फ़ तीन शब्द - अल्लाह, राम, ॐ हैं और कबीर साहब के इन शब्दों को ध्यान से समझिये । जो उन्होंने हिन्दू मुस्लिम दोनों को कहे हैं - मर्म न काहू जाना ।
क्या है यह - मर्म ?

ना जानकारी के चलते आपको बेहद हैरानी होगी कि अल्लाह, राम, ॐ में धातु और उर्जा के आधार पर अल्लाह शब्द अधिक ठोस और शक्तिशाली है । यदि इसमें कृष्ण या श्रीकृष्ण (इन दोनों में अन्तर है, साकार निराकार का) नाम भी मिलाया जाये । तो भी उच्चता के आधार पर यह कृम बनेगा - अल्लाह, कृष्ण, राम, ॐ
असल में बीज मन्त्र ॐ मैंने सिर्फ़ विवाद का हिस्सा होने से लिया है । वरना इसका पहले तीन नामों से वैसा सम्बन्ध नहीं है । जैसा कि विषय है ।
अब ॐ को लें । तो इसी से मनुष्य शरीर की रचना हुयी है । ॐ के पाँच अंगों में .. चेतन, इच्छाशक्ति, (तीन गुण) सत, रज, तम हैं । इसी को रूपक में कृमशः ..राम, आदिशक्ति, विष्णु, बृह्मा, शंकर कहा जाता है । इसी पाँच का संयुक्त रूप जीव है । यहाँ स्मरण रखें । यह विवरण शास्त्रोक्त भी है ।
मुझे नहीं लगता । दुर्लभ व्यक्तियों को छोङकर किसी ने ॐ को सूक्ष्म रूप में जाना हो या उच्चारा हो । प्रायः बीज मन्त्र के स्थान पर उच्चारण करते समय भी मुझे वैज्ञानिक तरीके से उच्चारण करने वाले नहीं दिखे ।
फ़िर भी यदि ॐ का विधि अनुसार उच्चारण जाप किया जाये । तो यह शरीर के दायरे में आने वाली हर शक्ति को क्रियाशील करके उच्चस्तर पर पहुँचा देगा । लेकिन इससे अधिक लाभ नहीं कर सकेगा ।
अगर राम शब्द की बात की जाये तो इसका अर्थ है - जङ और चेतन । चेतना और माया । र-अ-म ।
यानी चेतन प्रवाह जो बहते हुये निरन्तर सृष्टि क्रिया कर रहा है । इसका मन्त्र रूप सूक्ष्म आंतरिक उच्चारण इससे सम्बन्धित फ़ल देगा ।
अब कृष्ण नाम की बात करते हैं । यह कर्षण क्रिया का हेतु है । कर्षण क्रिया द्वारा चुम्बकत्व का निर्माण होता है । अगर आप आ-कर्षण शब्द को समझें । तो एकदम सटीक समझ आयेगा । इसका वैधानिक उच्चारण करने से यौगिक उर्जा का निर्माण होता है । कृष्ण में समृद्धि या ऐश्वर्य का समानार्थी ‘श्री’ जोङने से, जिस अस्तित्व के लिये यह उपयोग हो रहा है । वह यौगिक उर्जा से पूर्ण और ऐश्वर्य का स्वामी होगा ।
और अब विवादित और अनेकानेक हिन्दुओं के लिये मुस्लिमों के आचरण की वजह से नफ़रत और हेय शब्द बन चुका ‘अल्लाह’ की बात करते हैं । अल-लाह, ये निराकार का द्योतक है (यहाँ विशेष ध्यान ये रखना कोई भी तथ्य मैं प्रचलित बातों या धर्म पुस्तकों के आधार पर न कहकर अक्षर धातु, शरीर विज्ञान और अंतरिक्षीय या आत्मिक उर्जा नियम के आधार पर कह रहा हूँ ।) और उच्चारण के समय एक ठोस शक्ति देता है । उच्चारण में कोई भी इच्छा या भावना संयुक्त कर देने से यह सिद्धि के समान शक्ति सहित कार्य करता है ।
खुदा शब्द मन या अहम भाव के लिये है । यह अभिमान या मन वासनाओं से सम्बन्धित है । इससे अहंकार बढने के अतिरिक्त कुछ नहीं होता । न इसका ऊपर जैसे शब्दों का कोई अन्य अर्थ है ।
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अब उपरोक्त को सिद्ध करने के लिये आप निरन्तर इन शब्दों ॐ राम कृष्ण अल्लाह का शुद्ध और निरन्तर मतलब ॐ ॐ ॐ..फ़िर राम राम राम फ़िर अल्लाह अल्लाह..इस तरह सधे अन्दाज में लय से, बिना बहुत जल्दी जल्दी किये उच्चारण करें ।
तो आप पायेंगे कि ‘अल्ल’ कहते ही आपकी जीभ तालू से उस स्थान पर लगती है । जो चिरंजीविता और बहुत सी अन्य शक्तिशाली सिद्धियों हेतु खेचरी मुद्रा का स्थान है और अल्ल कहते समय शरीर में और मुँह में एक ठोसपन की अनुभूति उसी समय होगी । तुलनात्मक ॐ राम या कृष्ण शब्दों के । तो अल्ल कहते समय यदि गहरा भाव है । तो शरीर और मन एक जबर्दस्त शक्ति ग्रहण करता है और बाद में लाह कहने से वह शक्ति आप में स्थिति हो जाती है ।
ध्यान रहे कि जितना ठोस उच्चारण और भाव होगा । शक्ति और उर्जा उसी अनुरूप होगी ।
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अगर आप अपने स्तर पर ऐसा उतना सटीक नहीं कर सकते । तो दूसरा एक आसान उपाय है । आजकल ऐसे गीत भजन प्रायः बहुत उपलब्ध हैं । जिनमें अल्लाह राम कृष्ण ॐ बारबार दुहराया जाता है । आप वह सुनें । और बारीकी से हरेक का क्या प्रभाव, ये स्वयं अनुभव करें ।
आपको एक और रहस्य बताऊँ । अपने म्लेच्छ आचरण के बावजूद मुस्लिम निराकार और एकेश्वर की गहरी और बेहद कट्टर मान्यता के कारण ही शक्तिशाली रहे हैं । क्योंकि उर्जा तो उर्जा है । वो राम या रावण किसी के पास हो । वह तो अपना कार्य करेगी । अतः यदि मुस्लिम समुदाय कयामत का दिन, स्वर्ग की प्राप्ति और काफ़िर शब्दों का सही अर्थ समझ लेता और तदनुसार आचरण करता । तो विश्व में सनातन के बाद यह सर्वोच्च धर्म होता और सर्वाधिक सनातनी इसी धर्म से होते ।
इन शब्दों का अर्थ इस प्रकार है । कयामत का दिन - मृत्यु । स्वर्ग - इच्छित की प्राप्ति । काफ़िर - धर्म विमुख । या जो धर्मी नहीं है । काफ़िर को मारने का अर्थ है । उसे धर्महीन से धर्मी बनाना ।
अब जैसा कि मैंने ऊपर कहा - आप किसी भी शब्द में भावना या वासना संन्निहित कर देते है । तो उर्जा उसी प्रकार से कार्य करती है । जैसा शब्द तन्त्र निर्मित हुआ ।
अतः मुस्लिमों का पतन उनके मुख्य सिद्धांतों का स्वार्थी और अवसरवादियों के गलत और भ्रामक अर्थ प्रचार प्रसार से हुआ ।
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अब मेरा आशय समस्त मानव जाति से है । आप कोई भी हो । हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आदि । एक बार इस प्रयोग को कुछ दिनों तक बिना किसी भावना के अल्लाह अल्लाह, जैसा कब्बाली गायक करते हैं । करिये अन्दाजा खुद ब खुद लग जायेगा ।
हाथ कंगन को आरसी क्या, पढे लिखे को फ़ारसी क्या ।
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अतः ऊपर के बयान से मुझे यही लगता है कि धार्मिक द्वेष हेतु सिर्फ़ मुसलमान ही दोषी नहीं । वे हिन्दू भी दोषी हैं । जो धर्म के असल स्वरूप से अपरिचित हैं ।
आपस में दोऊ लर लर मुए, मरम न काहू जाना ।
सत साहेब ।

08 जून 2015

योगी होने के लिये

वास्तविक अर्थों वाले तो सिर्फ़ ‘एक’ राम भक्त का ही मिलना दुर्लभ होता है ( यहाँ ध्यान रखना । मैं सूर्यवंशी अयोध्या नरेश श्रीराम की बात नहीं कह रहा ) और इसमें कोई आश्चर्य या अफ़सोस की बात भी नहीं - हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है ( तब ) बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा ।
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हजारों साल प्रकृति अपनी आभाहीनता को लेकर बुझी सी रहती है । जब तक उसमें आत्मिक चेतना से पूर्ण कोई प्रकाश पुंज प्रकट नहीं होता ।
बङा गहरा अर्थ है इसका । लेकिन भक्ति साहित्य के कवियों तुलसीदास आदि ने प्रकृति के इस उमंग उत्साह का वर्णन राम जन्म और अन्य अवसरों पर किया है । श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव पर प्रकृति का यह उल्लास साफ़ नजर आता है । ऐसे ही उदाहरण कुछ अन्य आत्मिक चेतनाओं के भी हैं । पर वह पूर्व के उदाहरणों जैसे प्रसिद्ध नहीं हैं ।
लेकिन मुझे लगता है । अगले 31 वर्ष में यहाँ प्रथ्वी पर बने रहने वाले ये स्वर्गिक नजारा अवश्य देख पायेंगे । जब ये धरा पूर्ण अलौकिक दैवीय श्रंगार से फ़िर सज्जित होगी । मेरे ख्याल से आज के अभी के वातावरण को अनुभव करने वाले, उस परिवर्तन की कल्पना भी नहीं कर सकते । क्या वैज्ञानिक, क्या दार्शनिक और क्या चिंतक ।
और वो कुछ इस तरह है । हमेशा अनुकूल मौसम, कलकल प्रवाहित स्वच्छ शीतल जल, वैसी ही प्रदूषण से एकदम रहित स्वच्छ जीवनदायिनी वायु, वनस्पतियां निर्दोष और जीवन रस से लबालब भरी हुयीं, सर्वत्र सात्विक वृति वाले सज्जन धर्मी पुरुषों स्त्रियों की अधिकता, सर्वत्र मंगलगान, निर्धनता और अभाव न के बराबर ।
ठीक यही वर्णन आपको रामराज्य या ऐसी किसी शक्ति के प्रकट होने पर मिलेगा । और ये सुखद कल्पना भर नहीं है । ये शक्ति से प्रकट होने से स्वाभाविक ही है । जो तर्क की कसौटी पर भी खरा उतरता है ।
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इसलिये अगर समग्र के सृष्टि संचालन का गहरा शोध किया जाये । तो यही परिणाम होगा कि ऐसा होना स्वाभाविक ही है । रामभक्त कोई अपनी भावना या इच्छा से यकायक नहीं बना जा सकता । वह तो होता ही है । और ऐसा होने के लिये करोङों जन्मों के उन असंख्य चेतन घटकों का संयोग उत्तरदायी है । जो सृष्टि की अनवरत प्रक्रिया में अनजाने में ही स्व स्फ़ूर्त मगर गुण प्रभाव से एक महायोग की भांति निर्मित होते गये थे ।
अतः आसानी से समझा जा सकता है । करोङों जन्मों का अपेक्षित संयोजन सिर्फ़ इसी जन्म में चाहकर तो किसी भी तरह नहीं हो सकता ।
यहाँ मैं समझाने के लिये कुछ तथ्य बताना चाहूँगा कि मान लो, इस तरह की नाजानकारी के चलते कोई अतिरिक्त आत्मविश्वास में भावनात्मक हो उठे - मैं बनूंगा । देखें क्या अङचन है ।
यह सिर्फ़ तत्कालिक झाग से बना बुलबुला भर है । क्योंकि वास्तविक रामभक्त होने की जो कसौटी है । उसमें अच्छे अच्छे महारथी मैदान छोङकर भाग गये । या योग की ऊँचाईयों पर पहुँचने के बाद भी त्राहि त्राहि कर उठे ।
इनमें मीरा, स्वामी रामतीर्थ, तुलसीदास, सूरदास आदि आदि बहुत से नाम हैं । जिन्हें समाज और सम्बन्धियों द्वारा प्राणान्तक कष्ट देने की दास्तानें भरी पङी है । तबरेज जैसों की जीते जी खाल उतार ली गयी । इसके अतिरिक्त पूर्व के संस्कार वश उत्पन्न हुयी रोग व्याधियां अलग से शरीर और मन को दारुण कष्ट देती हैं और ये सब इसी भक्ति पाठयकृम के अंतर्गत आता है ।
दूसरे जानकारी के आधार पर भी ‘रामभक्त’ को खोजना या परिवर्तित करना ही औचित्यहीन बात है । क्योंकि जो निर्माण प्राकृतिक नियम के अंतर्गत ही सम्भव है । उसे व्यक्तिगत नहीं कर सकते । बात एकदम अलग है । और बहुत गहरे में समझने का विषय भी है ।
लेकिन योग्यतानुसार विभिन्न सफ़ल योगियों को अवश्य रूपांतरित किया जा सकता है । और योग उतना कष्टप्रद भी नहीं है । बल्कि थोङा ही परिपक्वता आते ही यह पूर्णता भरा अदभुत जीवन है ।
अतः इस जानकारी के द्वारा उन खोजी और संघर्षशील को सुविधा होगी । जो इस भूमि में स्थायित्व की तलाश में जूझ रहे हैं ।
मेरे अनुभव से योगी होने के लिये 30-35 की आयु सर्वश्रेष्ठ है । जब शरीर में उचित गर्मी और भावनाओं में ठहराव आने लगता है । बहुत अच्छा होगा । यदि किसी योगी को ‘कामभावना’ दबाव वाली प्रतीत होती हो । दमन जैसी स्थिति हो । तो उसका भी उचित माध्यम विवाह आदि द्वारा शमन करे । पर कामभावना का दबाव सभी को एक सा प्रभावित नहीं करता ।
जिस तरह की योग विद्या में उसकी रुचि है । उससे सम्बन्धित साहित्य और व्यक्तियों से निरन्तर मेलजोल रखना भी बेहद सहायक होगा । बल्कि कहा जाये । बाद में किसी भटकाव और असफ़लता से बचने हेतु यह अनिवार्य भी है ।
सामान्य योग ध्यान क्रियायें आजकल बहु प्रचलित हैं । अतः अनुलोम विलोम, कपाल भांति, धौति, वस्ति, नेति, आज्ञाचक्रीय ध्यान, साधारण मन्त्र जाप, ध्यान क्रिया में अविचलित 3 घन्टे तक लगातार बैठने का अभ्यास, किसी भी योगी की नींव को बहुत मजबूत बना सकता है ।
एक और महत्वपूर्ण चीज जो योगी के लिये आवश्यक हो जाती है । वह है - सीमित हो जाना । बहुत सी अनावश्यक वस्तुओं, कार्यों, व्यक्तियों, स्थानों, गतिविधियों से उदासीन होना ।
खानपान भी हल्का, भूख से कम, सात्विक और पुष्टिकारक हो । तामसिक भोजन और स्वभाव का एकदम त्याग कर देना चाहिये ।
सबसे बढकर मृत्यु ( कभी भी हो सकती है इसका सदैव ) ध्यान रहे । और मृत्यु आये । उससे पहले इस सर्वश्रेष्ठ और दुर्लभ मनुष्य शरीर द्वारा हम वह लक्ष्य प्राप्त कर लें । जिसके लिये देवता भी तरसते हैं । और स्वयं हम उसी परमात्म लक्ष्य की तलाश में असंख्य जन्मों से असंख्य योनियों और असंख्य लोकों में भटकते रहे हैं - कौन जोनि जामें भरमे नाहीं ?
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उपरोक्त के सम्बन्ध में आपको कोई अन्य जानकारी या सहायता की आवश्यकता हो । तो हेडर फ़ोटो पर दिये फ़ोन न. या ईमेल पर सम्पर्क करें । सतसाहेब ।

02 जून 2015

हङबङी और जल्दबाजी में क्या अन्तर ?

आपने लिखा है कि, कर्मगति की पूर्ण कार्यप्रणाली को बता पाना बेहद दुष्कर कार्य है ।
- प्रश्न है कि किसके लिये बता पाना दुष्कर है ?
- हङबङाहट और जल्दबाज़ी में क्या कोई भेद है ?
- बाबा पूरे ब्रह्मांड मे नर्क की कही कोई भौगोलिक स्थित है ?
- क्या एक बार मनुष्य होने के बाद भी मनुष्य वापस पशु पक्षी हो सकता है ?
अंतरप्रकाश मिश्रा - लखनऊ ।
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प्रश्न - प्रश्न है कि किसके लिये बता पाना दुष्कर है ? 
उत्तर - वास्तव में अखिल सृष्टि में सबसे अधिक जटिल संरचना यदि किन्हीं सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों की है । तो वह कर्म के अणु परमाणु और इससे भी अधिक इसी के सूक्ष्म घटकों की है । इसीलिये बङे बङे प्रकृति योगी भी सिर्फ़ स्थूल आंकलन को छोङकर इसका सटीक निर्धारण नहीं कर पाते । और अक्सर स्वयं की गति को लेकर भी अटक गये । इसके लिये राम के राजतिलक, दशरथ का प्रथम विवाह, शंकर का लंका में गृहप्रवेश, गौतम के साथ छल, श्रीकृष्ण जैसे योगी के निरन्तर साथ होने पर भी पांडवों की अधोगति जैसे अनेकानेक उदाहरण हैं ।
अगर प्रमुखता से कहा जाये । तो जो सबको जानता है । उसको जानने से ही ‘यह’ जाना जा सकता है । और उसमें भी बङी बाधा यह है कि - वो ही जाने, जाहि देयु जनाई ।
अतः मैंने ‘बता पाना’ के स्थान पर ‘समझा पाना’ कहा होता । तो ज्यादा शाब्दिक स्पष्ट हो जाता ।
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अब जैसे आप किसी भी एक साधारण वृक्ष फ़ल को ही लें । तो उसकी संरचना, गुण, धर्म, स्वभाव, गति, विपरीतता आदि बहुत सी चीजें उसी के समान फ़ल से भिन्न क्यों हो जाती है । बताना बेहद कठिन है । एक एक अंग एक एक कोशिका पर बेहद विस्तार से बताना होगा । उसका वृक्ष से कैसे क्या सम्बन्ध, घनत्व आदि सब कुछ । फ़िर वृक्ष का वहीं के पर्यावरण, जल, वायु, भूमि, ताप से कैसा सम्बन्ध । फ़िर स्थानीय पर्यावरण का सीमान्त वायुमंडल से क्या सम्बन्ध ?
यह सब भी किसी प्रकार आंकङों में संजो लिया जाये । तो भी कई तथ्यात्मक बातें छूट जायेंगी ।
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उदाहरण बहुत से हो सकते हैं । आप सिर्फ़ जो एक गिलास सादा पानी पी रहे हैं । यदि उसके भी जन्म, गुण, धर्म, प्रकृति, प्रभाव आदि कब क्यों कैसे को वैज्ञानिक पहलू से जानने की कोशिश करेंगे । तो बेहद मुश्किल खङी हो जायेगी । आप यकीन करें । एक सफ़ल और धुरंधर वैज्ञानिक के पास भी आज तक इसका उत्तर नहीं है ।
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सिर्फ़ एक कर्म की कर्मगति बेहद सूक्ष्मातिसूक्ष्म लाखों चेतन विद्युत कणों पर कार्बन आदि यौगिकों का मिश्रण है । इसीलिये ऐसी स्थिति के लिये कहा है -
नाम रूप दोउ अकथ कहानी । समझत बनत न जात बखानी ।
बात सरल सी है । आप किसी सुहाने स्थल पर सुहाने ही मौसम का आनन्द अनुभव कर रहे हैं । तो ये समझने में बहुत आसान है । पर वर्णन में बहुत दुष्कर । जबकि जिसको बताना चाहते हैं । उसको इसका कोई पूर्व ज्ञान न हो ।
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प्रश्न - हङबङाहट और जल्दबाज़ी में क्या कोई भेद है ?
उत्तर - मेरे विचार से जल्दबाजी सिर्फ़ शीघ्रता अति शीघ्रता के लिये प्रयुक्त कर सकते हैं । इसमें सिर्फ़ गतिविधि को तेज करना होता है । जबकि हङबङाहट एक अनिश्चतता, संशय, किंकर्तव्यविमूढता वाले भावों के साथ होती है । इसमें आपके पास ज्यादा समय नहीं होता । और जो वस्तु स्थिति या परिस्थिति सर्वथा नयी है । उसके साथ चाहे अनचाहे सामंजस्य और क्रिया करनी होती है ।
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प्रश्न - बाबा पूरे ब्रह्मांड मे नर्क की कहीं कोई भौगोलिक स्थित है ?
उत्तर - यदि स्वर्ग की भौगोलिक स्थिति है । तो उसके उलट अर्थों वाले नर्क की भी भौगोलिक स्थिति है । वास्तव में सामान्य मनुष्यों के लिये इस प्रथ्वी को, जिसको वे इन्द्रियों से जीवन्त अनुभव  करते हैं, के अतिरिक्त सभी लोकों की स्थिति कल्पित समान ही है । स्वर्ग का राजा इन्द्र, स्वर्ग की स्थिति, स्थायित्व, और उसका शासन आदि इन सबका विस्तार से वर्णन उपलब्ध है । और इसी तरह नर्क का भी है ।
वास्तव में इस प्रश्न के पीछे वह ‘कामन’ मानवीय धारणा अधिक है कि स्वर्ग नर्क सभी कुछ इसी जीवन में हैं । पर यह एकदम गलत है । मनुष्य योनि कर्म योनि के साथ साथ भोग योनि भी है । पूर्व के अच्छे बुरे भोगों के आधार पर ही हम सीखना, जीवन संचालित करना और सबसे महत्वपूर्ण कर्म शोधन करना, तभी कर पाते हैं । जब दोनों पक्ष मौजूद होते हैं ।
मनुष्य शरीर के विराट संरचना अनुसार नर्क की स्थिति कूल्हे से नीचे पैरों में कई स्थान पर है । जहाँ अंधेरे और नीच लोक भी हैं । नर्क भी कोई एक प्रकार का नहीं है । और सभी नर्क काफ़ी ऊंच नीच के अन्तर पर बहुत बहुत दूरी पर स्थिति हैं । अंधेरे और नीचे लोकों में जीव की गति होना भी एक तरह से नर्क के समान ही दण्ड मिलना है । यमपुरी में और उसके आसपास भी कई नर्क हैं ।
जानिये जीव तबही जग जागा । जम का डंडा सर में लागा ।
ये जिन पर लागू होता है । उन्हें आसानी से नर्क का टूर पैकेज निशुल्क मिलता है ।
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प्रश्न - क्या एक बार मनुष्य होने के बाद भी मनुष्य वापस पशु पक्षी हो सकता है ?
उत्तर - संभवतः ये सिद्धांत स्त्री पुरुष को सिर्फ़ बहन भाई की मान्यता देने वाले भृम कुमारी भृम कुमार ज्ञानियों की उत्पत्ति है ।
बङे भाग मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सद ग्रन्थन गावा ।
येहि तन कर फ़ल विषय न भाई । स्वर्ग हू स्वल्प अन्त दुखदाई ।
अगर एक बार मनुष्य होने के बाद दोबारा पशु पक्षी नहीं हो सकता । तो फ़िर पापाचारी को फ़िक्र ही क्यों । जब नर्क भी नहीं । और आगे भी मनुष्य ही बनेगा ।
साढे 12 लाख वर्ष के 84 लाख योनियों के चक्र से गुजर कर दुर्लभ मनुष्य जन्म मिलता है । इसीलिये लिखा है । और..
साधन धाम मोक्ष करि द्वारा । जेहि न पाय परलोक संवारा ।
यदि अपना जीव उद्धार नहीं कर पाये । तो वापस इसी 84 लाख योनियों के चक्र में जाना होगा ।
कबहुक करुना कर नर देही । देत हेत बिन परम सनेही ।
अगर यह इतना ही सरल सुलभ है । तो फ़िर देवताओं के लिये भी दुर्लभ क्यों है ? स्वर्ग का भोगकाल पूरा होने पर देवता भी इसी मृत्युलोक में फ़ेंक दिये जाते हैं । इन्द्र जैसे चीटा हाथी वगैरह बनते हैं ।

01 जून 2015

2 पुनर्जन्म

पुनर्जन्म कम से कम मेरे लिये अज्ञात या शोध का विषय नहीं है । कुंडलिनी की उच्च ध्यान क्रियाओं, जो समाधि जैसे अंगों से जुङती हों । या आत्मज्ञान में हंस से ऊपर की कोई भी स्थिति ‘पुनर्जन्म’ के रहस्य और कारण आदि को साफ़ साफ़ स्पष्ट कर देती है । इसके अतिरिक्त सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि आपका किसी जिज्ञासा या विधा के किस स्तर के गुरु से जुङाव है । गुरु आपसे प्रसन्न है । तब आपकी कोई भी स्थिति न होने पर भी प्रायोगिक या सन्तुष्टि के तौर पर आप ‘कारण शरीर’ की गतिविधियों को जान सकते हैं । जिसके ही आधार पर पुनर्जन्म या जीवन चक्र संचालित है ।
अतः यह कहना यह सब मेरे लिये ही सुलभ है । गलत है । इस विधा से जुङे किसी के भी लिये यह संभव है ।
जैसा कि मेरा स्वभाव रहा । मैं सदैव ही स्वय़ं द्वारा अनुभूत विषयों को लिखना अधिक पसन्द करता हूँ । जिन पर मैं अधिकारिक तौर से कह सकता हूँ । अब तक के मेरे 47 वर्षीय जीवन में एक दर्जन के लगभग पुनर्जन्म के मामले प्रत्यक्ष हुये । जिनका ध्यान से, सीधा सम्बन्ध नहीं था । और व्यवहारिक, बाह्य रूप से अन्य सामान्य लोगों को भी वह एकदम सत्य प्रतीत हुये ।
इस लेख हेतु मैंने जिन दो मामलों को चुना । वह आम पुनर्जन्म के मामले से भिन्न थे । और चिन्तन मनन हेतु उपर्युक्त थे । उनमें एक असली हंसदीक्षा प्राप्त था । और दूसरा व्यक्ति सामान्य जीव था । एक और बात थी । जो जीवन रहस्यों को उजागर करती है । ये दोनों अलग अलग यानी पुल्लिंग और स्त्रीलिंग थे । और पुनर्जन्म में भी उसी स्थिति में रहे । स्त्री स्त्री, पुरुष पुरुष ।
इसमें पहला सामान्य ( ज्ञान रहित ) जीव अपनी मृत्यु के समय करीब 54 वर्ष का था । और सरकारी नौकरी में था । उसके दो लङकियां, जो शादीशुदा थीं । और एक उनसे छोटा पुत्र था । पत्नी अभी जीवित थी । बस उल्लेखनीय बात जो पङोसी होने के नाते मैंने अक्सर महसूस की कि वह मृत्यु से पूर्व अजीब सी आदतों से जुङा था । और फ़िर धीरे धीरे पागलपन की तरफ़ बढ गया । फ़िर वह पागल ही हो गया ।
यह इंसान तत्कालीन समय अनुसार बेहतर आर्थिक स्थिति में था । लेकिन भूत प्रेत आदि किस्म की छोटी तन्त्र क्रियाओं में उसकी रुचि थी । और तीर तुक्का छोङने वाले साधु तथा तत्सम्बन्धी साहित्य और सामग्री के साथ ऐसी क्रियाओं में निरन्तर लगा था ।
एक और चीज जो मेरे अनुभव में आयी । उसकी उसी आयु में पराई स्त्रियों के प्रति कामवासना में जबर्दस्त वृद्धि हुयी थी । यद्यपि वह सब उसके आचरण प्रदर्शन में ही थी । उसने किसी स्त्री से सम्पर्की होने या घात करने जैसा कदम कभी नहीं उठाया ।
उन्हीं दिनों टीवी का भारत में नया नया चलन हुआ था । टीवी इक्का दुक्का घरों में ही थे । टीवी देखने और विशेष तौर पर उनमें चलचित्र, गीत, धारावाहिक आदि में प्रदर्शित स्त्री पात्रों को देखकर यह अपना आपा सा खो बैठता था । लेकिन वह आपा खोना सिर्फ़ इतना ही था । जैसे वह स्त्री पात्र को साक्षात महसूस कर रहा हो । और प्रतिक्रिया स्वरूप उन्मादी हंसी या शरीर को अजीब से हिलाना आदि सामान्य क्रियायें ही करता था । अर्थ ये कि अभी वह उस स्त्री की कल्पना बिस्तर पर नहीं करता था ।
पागलपन का यह दौर अपनी शुरूआती अवस्था से लेकर, अन्त में चरम पर पहुँचने तक कोई 10-12 वर्ष का समय लगा । और अन्ततः उसकी मृत्यु हो गयी ।
अब यहाँ उल्लेखनीय यह है कि मरने के समय तक उसके पुत्र की आयु 15 से कुछ ही ऊपर थी । और वह अविवाहित भी था । वह ( मृतक ) व्यक्ति उसके शीघ्र विवाह का इच्छुक था । और दहेज के नाम पर उसे छोटी श्वेत श्याम टीवी ही चाहिये थी । परिजन भी उसकी दिनोंदिन करीब आती मृत्यु को भांप चुके थे । अतः पिता की इच्छा पूर्ण करने हेतु उसके पुत्र की शादी एक गांव से हो गयी । इस शादी के आसानी से होने का कारण अकेला पुत्र, मृतकाश्रित की सरकारी नौकरी, अन्य सरकारी पैसा और बङा मकान होना आदि थे ।
लगभग 5 वर्ष बाद । उसके यहाँ पुत्र का जन्म हुआ । और हैरतअंगेज सा उसका चेहरा उसी मृतक की छवि वाला ही था । सब कहने भी लगे - बाऊजी ही आ गये । मृतक को बाऊजी कहकर ही सभी सम्बोधित करते थे ।
ज्यों ज्यों यह बालक बङा होता गया । उसकी आयु और स्थिति अनुसार उसके सभी हावभाव मृतक से मेल खाते थे । जैसे अपनी इस जन्म की माँ ( अब पुत्रवधू ) के बजाय अपनी पत्नी ( पूर्वजन्म की पत्नी, अब दादी ) से अधिक लगाव, गोद की स्थिति में भी पूर्व जन्म की चीजों को गौर से देखना और उनकी तरफ़ लपकना, कुछ चेष्टा सा करना आदि ।
इसके बाद जब यह बालक घुटनों चलने लायक हुआ । तो और भी प्रमाणित हो गया । यह मृतक के सरकारी कागज पत्र और अपने सभी सामान को उलटता पुलटता सा जैसे कुछ खोजने या याद करने की कोशिश कर रहा हो । ऐसा आचरण करता था ।
यहाँ तर्क की बात यह है कि अन्य वस्तुओं और बाल सुलभ वस्तुओं में इसकी दिलचस्पी नहीं थी । इसके बाद जब कुछ और बङा हुआ । और कुछ कुछ ही बोलना आरम्भ हुआ । तब उसका अन्दाज और शब्द उस आयु के बच्चे के न थे । यह अपनी दादी और पिता से बेहद अधिकारिक अन्दाज में आदेशात्मक ही बोलता था । 
फ़िर धीरे धीरे आयु बढने के साथ यह सामान्य होता गया । पर सूक्ष्म निगाह से देखने पर मृतक के स्वभाव की कई बातें इसमें अभी भी थीं ।
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जो दूसरा पुनर्जन्म का मामला था । इसके बारे में कुछ कारणों से मैं सभी तथ्य नहीं खोल सकता । यह लगभग 50 वर्षीय औरत का था । जो अपने कृशकाय शरीर के चलते और भी अधिक आयु की लगती थी । पर ग्रामीण जीवनशैली के चलते मजबूत स्थिति में थी । इस महिला से मेरा मिलना उस स्थान पर कई बार हुआ । जहाँ ये अक्सर शाम को पशु घुमाने चराने लाती थी । अगर इस महिला की मानसिक स्थिति का आंकलन किया जाये । तो यह समय से बहुत पीछे थी । और पारम्परिक पूजा पाठ के भी सही तौर तरीके नहीं जानती थी । इसके दो युवा पुत्र एक पुत्री थे । और पति भी जीवित थे ।
प्रभु की कोई कृपा से यह संयोग बना होगा कि उसने मुझसे पूछा कि - मरणोपरान्त के लिये जो तीर्थ वृत पुण्य धर्म आदि किये जाते हैं । उनमें से कुछ करने की उसकी बेहद इच्छा है । लेकिन परिजनों का ऐसा कोई भाव अथवा माहौल नहीं है । और खास पति तो उपहास ही करता है । कुछ आर्थिक सहयोग करना तो दूर की बात है ।
मुझे भी अलग से कुछ करना नहीं था । उसकी बौद्धिक क्षमता के अनुसार मैं सतसंग आदि चर्चाओं के द्वारा उसका भक्ति भाव ( या आवश्यक भक्ति पदार्थ ) बढाता रहा । उसे ये सब सुनना सुखद लगता था । और फ़िर कुछ ऐसी परमात्म कृपा हुयी । उसकी हंसदीक्षा हो गयी ।
इसके बाद मैं फ़िर से बाहर चला गया । और कोई दो वर्ष बाद आया । तो उसकी कुछ दिनों की बीमारी के बाद मृत्यु हो चुकी थी ।
इसके कुछ ही महीने बाद मृतक महिला की पुत्रवधू गर्भवती हुयी । और नियत समय पर उसने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया ।
उल्लेखनीय यह था । उस दम्पत्ति के अन्य बच्चों की तुलना में इस बच्चे में एक दैवीय आभा सी थी । एक अनोखी चमक सी । और न जाने क्यों, यह कन्या उसकी जन्मदात्री को अन्य बच्चों से अधिक प्रिय थी । लेकिन जन्म के एक डेढ साल तक यह अक्सर बीमार रही । लेकिन फ़िर पूर्णतया स्वस्थ हो गयी ।
दरअसल ये परिवार शिक्षा आदि को लेकर आम परिवारों जैसा भी जागरूक नहीं था । अतः पुनर्जन्म और मृतक सास ही अपनी पुत्रवधू के गर्भ से जन्म लेगी । यह तो वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे ।
अब इन दोनों पुनर्जन्म घटनाओं में जो खास था । वह यह कि पिता अपने ही सगे पुत्र के पुत्र रूप में पैदा हुआ था । और माता अपने ही सगे पुत्र के पुत्री रूप में पैदा हुयी थी ।
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पारलौकिक से सम्बन्ध रखती ऐसी घटनाओं को देखना जानना बङा अजीब सा लगता है । कोई इस जन्म से परदे के पीछे मृत्यु के माध्यम से गया । और नये जन्म के माध्यम से आ गया । और दोनों को ही किसी ने साक्षात जाना हो । ये सामान्य नहीं ।
हंसदीक्षा प्राप्त स्त्री का दोबारा मानव जन्म मेरे लिये आश्चर्य का विषय नहीं था । वह तो होना ही था । पर इन दोनों केसों में जो ‘कामन’ और शोध की बात थी । वो यह कि मृत्यु से पूर्व पुरुष पागलपन की सी स्थिति में था । और दूसरी स्त्री लगभग अबोध जैसी । 
गहराई से समझें । इन्हें, हमारी मृत्यु हो जायेगी । हो जायेगी । तो फ़िर ये होगा या वो होगा । जैसी न कोई सुखद कल्पना थी । न ही मृत्यु या मृत्युपरांत की धारणाओं को लेकर भय ।
अतः 84 लाख योनियों के जीवन चक्र और हंसदीक्षा के बाद भी पुनः तुरन्त मनुष्य जीवन हेतु जो कुछ आवश्यकतायें नियमानुसार अपेक्षित होती हैं । उसके प्रति ये दोनों अपवाद थे । और यह ‘जहाँ आसा वहाँ वासा’ तथा ‘अन्त मता सोई गता’ सिद्धांत पर खरे उतरते थे ।
यहाँ कोई झूठी खुशफ़हमी न पाल लेना कि फ़िर तो सबके ही साथ ऐसा हो सकता है । मैंने ‘अपवाद’ यों ही नहीं कहा । क्योंकि न तो आप चाहने से पागल हो सकते हैं । और न ही अपनी बुद्धि क्षमता को सिर्फ़ मनुष्य जन्म के लिये ‘शून्य’ कर सकते हैं । इन दोनों के लिये यह स्वाभाविक था । कृतिम नहीं ।
मैंने स्वयं इस सबको बेहद गौर से देखा । और इसीलिये ऊपर उल्लेख भी किया ।
दरअसल पागल व्यक्ति मर के भी नहीं मरा था । वह अपनी पूर्ण सक्रियता के साथ उसी परिवार से जुङा था । और अपनी पूर्ण भूमिका में था । जैसा कि मरने वाले के सामने स्वतः ही सैकङों हजारों वैचारिक छवियां, इच्छायें सक्रिय हो जाती हैं । इनके साथ ऐसा नहीं था ।
एक और खास बात थी कि इन दोनों की ही ‘वह जन्म’ आयु अभी शेष थी । और ये किसी भी प्रकार के पापाचरण में आजीवन लिप्त नहीं थे । जिस कारण से आयु क्षीण हो जाती । अतः ये उस सख्त नियम को अवश्य पूरा करते थे । जिसके अनुसार एक सांस भी अतिरिक्त नहीं मिल सकती । और अभी उनकी सांसे शेष थीं ।
कर्मगति की पूर्ण कार्यप्रणाली को बता पाना बेहद दुष्कर कार्य है । पर संक्षेप में, कोई भी जीवात्मा जब शरीर को मृत्यु द्वारा त्यागता है । तो भय मिश्रित बहुत ही हङबङाहट जैसी स्थिति में होता है । अब जिनके कर्म नीच रहे होते हैं । उनके सामने तो कोई विकल्प ही नहीं होता । नर्क आदि गतियां होने तक ये यमदूतों के प्रशासनिक नियंत्रण में रहते हैं ।
लेकिन जो 84 लाख तिर्यक योनि को पाते हैं । उनके सामने 4-5 पशु पक्षी आदि शरीरों का विकल्प होता है । शरीर पाने की जल्दी में वह उनमें से एक को चुन लेता है ।
तो ऊपर जैसे मगर सामान्य केसों में लगभग एक चुम्बकत्व की भांति सबसे पहले कुत्ता योनि को जीव प्राप्त होता है । यदि अभी उसका खाना दाना अभी के परिवार में शेष है । दूसरी बात यह है कि अपना कर्ज लेने के साथ साथ वह श्वान शरीर में अपने परिजनों के अधिक सम्पर्क में रहता है । इसके बाद घर ही में या आसपास पाये जाने वाले बिल्ली चूहा भैंस बकरी छिपकली आदि जीव, वासना और स्वभाव से बने कर्म पदार्थ अनुसार होते हैं । और परस्पर जीव कर्जे का व्यवहारिक लेन देन पूर्ण करते हैं ।
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इस लेख में जहाँ आपको समझ में न आया हो । अथवा कोई प्रश्न हो । कृपया मुझे ब्लाग के हेडर फ़ोटो पर लिखे मेल आई डी पर पूछें । आपकी जिज्ञासा का विस्त्रत वैज्ञानिक समाधान होगा ।

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