18 जून 2015

60000 जन्म बाद हुआ - नानक मोक्ष

नानकशाह कीन्हा तप भारी..जैसे शब्दों से आरम्भ हुआ कबीर और नानक का संवाद वर्णन उन कलियुगी शिष्यों और गुरुओं के लिये आँखे खोलने वाला है । जो ज्ञान और आत्मज्ञान को भी किसी भौतिक पदार्थ सा आसानी से उपलब्ध होने वाला मानते हैं । और आश्चर्य की बात है कि ये आधार भी कबीर का लेकर चलते हैं । 
अनुराग सागर के अनुसार धनी धर्मदास को भी उसके चार जन्म पूर्व सचखंड से जीवों के उद्धार कार्य से भेजा गया । और वह सत सुकृत मृत्युलोक की बलवती माया में बुरी तरह फ़ंस गया । अनुराग सागर के ही कबीर धर्मदास संवाद के अनुसार उसके चारो जन्म में स्वयं कबीर ही उसे चेताने आये । और अपनी पहचान भूला हुआ वह उनसे ही तर्क वितर्क करता रहा ।
गौर करने वाली बात है कि आज भी 6 000 का सेल फ़ोन लेने में आदमी को दस बार सोचना पङता है । कुछ इधर उधर करना होता है । पर सचखंड का जैसे लगभग मुफ़्त टूर पैकेज सरकार की तरफ़ से बांटा जा रहा हो । मेरे कहने का अर्थ लोगों आत्मज्ञान को बहुत हल्के में लेते हैं । और उनको दोष नहीं है । ये आजकल के नकली गुरुओं द्वारा विकसित किया गया बाजारवाद है । 
इस सम्बन्ध में धीरता गम्भीरता से सटीक चिन्तन के लिये कबीर और नानक साहब के इस संवाद में कई महत्वपूर्ण तथ्य हैं । जिन पर बारीकी से सोचना आवश्यक है ।
जबते हमते बिछुरे भाई । साठि हजार जन्म भक्त तुम पाई । 
कबीर साहब ने नानक को बताया कि जब से तुम सतलोक से बिछुङे हो । तुम्हारे 60 000 जन्म हो चुके हैं । और जन्म भी साधारण जन्म नहीं । बल्कि एक भक्त वाले जन्म - धरि धरि जन्म भक्ति भल कीना । फिर काल चक्र निरंजन दीना ।
यहाँ एक बहुत गूढ रहस्य है कि 60 000 या 60 00 000 जन्म क्यों न हो जायें । बिना सदगुरु और बिना सतनाम के - फिर काल चक्र निरंजन दीना...इस कालचक्र से बाहर निकला ही नहीं जा सकता ।
इन शब्दों पर गौर कीजिये -
निरंकार सब सृष्टि भुलावा । तुम करि भक्ति लौटि क्यों आवा । 
निरंकार आकाश ( तत्व ) को कहते हैं । और दूसरा इसे वह स्थान कह सकते हैं । जहाँ रंकार अर्थात वह ध्वनि नहीं । जो जीव चेतना में स्फ़ुरण से उत्पन्न हो रही है । ररंकार अर्थात वह ध्वनि जो सृष्टि चेतना से जुङी है । और खास इसका अर्थ है । इसको पकङ कर इसमें प्रविष्ट करना । अतः निरंकार सब सृष्टि भुलावा का एक और गूढ अर्थ है कि निरंकार यानी चित्त के फ़ैलाव में समस्त जीव फ़ंसे हुये हैं । और इसी में खुद की पहचान या परमात्मा को भी खोज रहे हैं । जो कि दूर दूर तक नहीं है । न हो सकता है ।
इसलिये कबीर साहब ने कहा - सभी चित्त की भूलभुलैया में भटके हैं । फ़िर तुम ही कैसे लौटते । यानी बिना भेदी के ।
तुम बड़ भक्त भवसागर आवा । और जीव की कौन चलावा । 
आगे कबीर साहब ने कहा - जब 60 000 जन्म तुम भक्ति में प्रयास रत रहे । और ऐसे बङे भक्त होकर भी तुम बारबार भवसागर में ही रहने को बाध्य हुये । फ़िर और साधारण जीव किस गिनती में आते हैं ?
भली भई तुम हमको पावा । सकलो पंथ काल को ध्यावा । 
ये पंक्ति भी एक बङे रहस्य को उजागर करती है । सभी पंथ ( ध्यान रहे, स्वयं कबीर साहब का ज्ञान अथवा उनका तत्कालीन मंडल पंथ के अंतर्गत नहीं था । पंथ से कभी सत्यज्ञान या परमात्म ज्ञान हो ही नहीं सकता । सभी पंथ किसी जाग्रत पुरुष के बाद उसके नाम पर बनते हैं । ) कालपुरुष यानी निरंजन की तरफ़ ही जा रहे हैं । दौङ रहे हैं ।
स्पष्ट है । सदगुरु का कभी कोई पंथ नहीं होता ।
नानकशाह कीन्हा तप भारी । सब विधि भये ज्ञान अधिकारी । 
अब गौर करिये । विशेष गौर करिये । 60 000 जन्म तक थोङा थोङा करके जो पुण्य संचय ( तप भारी ) हुआ । तब नानक साहब हर तरह से ( सब विधि ) ज्ञान प्राप्त करने के अधिकारी हुये । और तब सदगुरु स्वयं प्रकट रूप में चलकर आये । और उन्हें ज्ञान दिया ।
क्या ज्ञान था वह ?
अनहद बानी कियौ पुकारा । सुनिकै नानक दरश निहारा ।
बेहद गौर से सोचिये । 60 000 जन्म के बाद ( जनक की तरह ) नानक वाले जन्म में भी कबीर साहब नानक को वही प्रवचन तन्त्र मन्त्र दे देते । वर्षों जपने को कहते । तो नानक साहब को - सुनिके अमर लोक की बानी । जानि परा निज समरथ ज्ञानी..ऐसा बोध कैसे होता ?
अर्थ यह कि प्रस्तावना और परिचय के बाद कबीर साहब ने जो ज्ञान दिया या मूल चेतना से जोङा - अनहद बानी कियौ पुकारा । उसे सुनकर नानक साहब को तुरन्त ही उनके समर्थ और ( वास्तविक ज्ञानी ) सदगुरु होने का अनुभव हुआ ।
ये अनहद वाणी वही ररंकार से लेकर ऊपर मूल शब्द की वह ध्वनि है । जो निरन्तर मनुष्य शरीर में हो रही है । और ‘मष्तिष्क के मध्य’ निरन्तर बदलाव की ध्वनि को प्राप्त करना समय के सदगुरु की एक बङी पहचान है । इसी को अनुभव कर नानक साहब कबीर के प्रति श्रद्धानवत हो गये । क्यों ? क्योंकि यह कोई मोहक जादू नहीं था । बल्कि यह जीव का निज मूल है । जो तुरन्त उसे झंकृत करता है - नाम खुमारी नानका चढी रहे दिन रात ।
काहु न कही अमर निजबानी - अर्थ इससे पूर्व नानक जिससे भी मिले । वह यह अनहद शब्द ध्वनि प्रकट नहीं करा सका ।
कोई न पावै तुमरो भेदा । खोज थके ब्रह्मा चहुँ वेदा - परम पुरुष का भेद स्वयं ब्रह्मा चारो वेदों में खोजते खोजते थक गया । पर सफ़लता नहीं मिली । फ़िर औरों के लिये क्या कहा जाये ?
पुरुष बिछोह भयौ तव जबते । काल कठिन मग रोक्यौ तब ते - जैसे ही परमात्मा का विस्मरण हो जाता है । काल उस जीव के लिये बहुत कठिन ( क्रूर ) हो जाता है । और उसकी वापसी के सभी रास्ते बन्द कर देता है । 
गहु मम शब्द तो उतरो पारा । बिन सत शब्द लहै यम द्वारा - यानी ये अनहद शब्द की डोर ( सुमरन ) पकङे रहो । तो पार उतर जाओगे । परन्तु बिना सत्य शब्द के बारबार यम के यहाँ ही जाना होगा । 
जबलों हम तुमको नहिं पावा । अगम अपार भर्म फैलावा - यह भी गौर करने लायक है । नानक साहब कहते हैं । जब तक सदगुरु नहीं मिला था । तब तक भ्रम की कोई सीमा नहीं थी । और इससे निकलना बेहद कठिन था ।
धनि जिंदा प्रभु पुरुष पुराना । बिरले जन तुमको पहिचाना - अर्थात हे पुरातन पुरुष या प्रथम पुरुष या सदगुरु आप धन्य हैं । आपको कोई बिरला ही पहचान पाता है । हरेक नहीं ।
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( स्वसम वेद बोध ) Page no158-159
नानकशाह कीन्हा तप भारी । सब विधि भये ज्ञान अधिकारी । 
भक्ति भाव ताको समिझाया । तापर सतगुरु कीनो दाया । 
जिंदा रूप धरयो तब भाई । हम पंजाब देश चलि आई । 
अनहद बानी कियौ पुकारा । सुनिकै नानक दरश निहारा । 
सुनिके अमर लोक की बानी । जानि परा निज समरथ ज्ञानी ।
नानक वचन ( Nanak Speech )
आवा पुरूष महागुरु ज्ञानी । अमरलोकी सुनी न बानी ।
अर्ज सुनो प्रभु जिंदा स्वामी । कहँ अमरलोक रहा निजधामी ।
काहु न कही अमर निजबानी । धन्य कबीर परमगुरु ज्ञानी । 
कोई न पावै तुमरो भेदा । खोज थके ब्रह्मा चहुँ वेदा । 
जिन्दा वचन ( Jinda Speech )
नानक तव बहुतै तप कीना । निरंकार बहुते दिन चीन्हा ।
निरंकार ते पुरुष निनारा । अजर द्वीप ताकी टकसारा ।
पुरुष बिछोह भयौ तव जबते । काल कठिन मग रोक्यौ तब ते । 
इत तव सरिस भक्त नहिं होई । क्यों कि परमपुरूष न भेटेंउ कोई ।
जबते हमते बिछुरे भाई । साठि हजार जन्म भक्त तुम पाई । 
धरि धरि जन्म भक्ति भल कीना । फिर काल चक्र निरंजन दीना । 
गहु मम शब्द तो उतरो पारा । बिन सत शब्द लहै यम द्वारा । 
तुम बड़ भक्त भवसागर आवा । और जीव की कौन चलावा ।
निरंकार सब सृष्टि भुलावा । तुम करि भक्ति लौटि क्यों आवा ।
नानक वचन ( Nanak Speech )
धन्य पुरुष तुम यह पद भाखी । यह पद हमसे गुप्त कह राखी ।
जबलों हम तुमको नहिं पावा । अगम अपार भर्म फैलावा । 
कहो गोसाँई हम ते ज्ञाना । परमपुरूष हम तुमको जाना ।
धनि जिंदा प्रभु पुरुष पुराना । बिरले जन तुमको पहिचाना । 
जिन्दा वचन ( Jinda Speech )
भये दयाल पुरूष गुरु ज्ञानी । दियो पान परवाना बानी ।
भली भई तुम हमको पावा । सकलो पंथ काल को ध्यावा । 
तुम इतने अब भये निनारा । फेरि जन्म ना होय तुम्हारा ।
भली सुरति तुम हमको चीन्हा । अमर मंत्र हम तुमको दीन्हा । 
स्वसम वेद हम कहि निज बानी । परमपुरूष गति तुम्हैं बखानी ।
नानक वचन ( Nanak Speech )
धन्य पुरुष ज्ञानी करतारा । जीवकाज प्रकटे संसारा ।
धनि करता तुम बंदी छोरा । ज्ञान तुम्हार महाबल जोरा ।
दिया नाम दान किया उबारा । नानक अमरलोक पग धारा ।
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गुरुनानक का जन्म मृत्यु - गुरुनानक देव ( जन्म - 15 अप्रैल 1469 तलवंडी, पंजाब, भारत । मृत्यु - 22 सितंबर 1539 भारत ) सिखों के प्रथम गुरु ( आदि गुरु ) हैं । इनके अनुयायी इन्हें गुरुनानक, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं ।
कबीरदास का जन्म मृत्यु - कबीर ( जन्म - सन 1398 काशी । मृत्यु - सन 1518 मगहर ) का नाम कबीरदास, कबीर साहब एवं संत कबीर जैसे रूपों में भी प्रसिद्ध है । 

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (20-06-2015) को "समय के इस दौर में रमज़ान मुबारक हो" {चर्चा - 2012} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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