नारद बोले - कुन्तीनन्दन ! यहीं मेरे द्वारा स्थापित स्थान में जो हारित मुनि रहते थे । उन्हीं के वंश में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण उत्पन्न हुए । जो मांडूकि नाम से विख्यात थे । वे वेद वेदांगों के पारंगत पंडित थे । उनके ‘इतरा’ नाम वाली पत्नी थी जो नारी के समस्त गुणों से सुशोभित थी । उसके गर्भ से जो पुत्र हुआ । उसी का नाम ‘ऐतरेय’ था ।
ऐतरेय बाल्यावस्था से ही निरंतर द्वादशाक्षर मंत्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का जप करता था । उसे पूर्व जन्म में ही इस मंत्र की शिक्षा मिली थी ? वह न तो किसी की बात सुनता था और न स्वयं कुछ बोलता था और न अध्ययन ही करता था । इससे सबको निश्चय हो गया कि - यह बालक गूंगा है । पिता ने अनेक उपायों से उसको समझाया । बोध कराया । परन्तु उसने लौकिक व्यवहार में कभी मन नहीं लगाया । यह देख पिता ने भी यही निश्चय कर लिया कि यह सर्वथा जड़ है । तब उन्होंने ‘पिंगा’ नाम वाली दूसरी स्त्री से विवाह किया और उससे 4 पुत्र उत्पन्न किये । जो वेद वेदांगों में विद्वान हुए ।
ऐतरेय भी प्रतिदिन तीनों समय भगवान वासुदेव के मंदिर में जाकर उस उत्तम मंत्र का जप करने लगे । वे दूसरे किसी कार्य में परिश्रम नहीं करते थे । एक दिन उनकी माता अपनी सौत के पुत्रों की योग्यता देखकर संतप्त चित्त हो अपने पुत्र से बोली - अरे ! तू तो मुझे क्लेश देने के लिए ही पैदा हुआ । मेरे जन्म और जीवन को धिक्कार है । संसार में उस नारी का जन्म निश्चय ही व्यर्थ है । जो पति के द्वारा तिरस्कृत हो और जिसका पुत्र गुणवान न हो ।
वत्स ! मैं बड़े खोटे भाग्य वाली हूँ । अतः ‘महिसागर संगम’ में डूब मरूंगी । मेरा मर जाना ही अच्छा है । जीवित रहने में मुझे क्या लाभ है ? मेरे मर जाने पर तू भी भगवान का महामौनी भक्त होकर दीर्घकाल तक आनंद भोगना ।
नारद बोले - माता की बात सुनकर ऐतरेय ठठा कर हंस पड़े । वे बड़े धर्मज्ञ थे । उन्होंने 2 घडी भगवान का ध्यान करके माता के चरणों में प्रणाम किया ।
और कहा - माँ ! तुम झूठे मोह में पड़ी हुई हो । अज्ञान को ही ज्ञान मान बैठी हो । शुभे ! जो शोचनीय नहीं है । उसी के लिए तुम शोक करती हो और जो वास्तव में शोचनीय है । उसके लिए तुम्हारे मन में तनिक भी शोक नहीं होता । यह संसार मिथ्या है । इसमें तुम इस शरीर के लिए क्यों चिंतित एवं मोहित हो रही हो । यह तो मूर्खों का काम है । तुम जैसे विदुषी स्त्रियों को ये शोभा नहीं देता । संसार में ‘सारतत्व’ तो कुछ और ही है ? किन्तु अज्ञान से मोहित मनुष्य किसी और ही असार वस्तु को सार समझते हैं ।
तुम इस मानव शरीर को यदि सार मानती हो । तो लो । इसकी भी असारता सुनो । यह जो मानव शरीर है । यह गर्भ से लेकर मृत्युपर्यन्त सदा अत्यंत कष्टप्रद है । यह शरीर एक प्रकार का घर है । हड्डियों का समूह ही इसके भार को संभालने वाला खम्भा है । नाङी जाल रुपी रस्सियों से ही इसे बाँधा गया है । रक्त और मांस रूपी मिटटी से इसको लीपा गया है । विष्ठा और मूत्र रुपी द्रव्यों का यह संग्रह पात्र है । केश और रोम रूपी तृण से इसको छाया गया है । सुन्दर रंग की त्वचा से इसके ऊपर रंग किया गया है ।
मुख ही इसका प्रधान द्वार है । दो आँख । दो कान । और नाक के छिद्र - ये ही छह खिड़कियाँ है । दोनों ओठ ही इसके द्वार को ढकने वाले किवाड़ हैं । दांत ही अर्गला (किवाड़ बंद करने वाली कुण्डी) है । नाङी और पसीने ही नाली और जल प्रवाह है । यह सदा काल की मुखाग्नि में स्थित है । ऐसे इस देह रूपी गेह में ‘जीव’ नाम वाला गृहस्थ निवास करता है ।
इस घर में त्रिगुणमयी प्रकृति ही उसकी पत्नी है तथा क्रोध, अहंकार, काम, ईर्ष्या और लोभ आदि ही उक्त गृहस्थ की संतान हैं ।
हाय ! कितने कष्ट की बात है कि जीव इस देह-गेह की मोह माया से मूढ़ होकर तदनुकूल बर्ताव करता है । उसका जिस जिस विषय में जैसे जैसे मोह होता है ।
वह सब बताता हूँ । सुनो ! जैसे पर्वत से झरने गिरते हैं । उसी प्रकार शरीर से भी कफ और मूत्र आदि बहते रहते हैं । उसी देह के लिए जीव मोहित होता है । विष्ठा और मूत्र से भरे हुए चर्मपात्र की भांति यह शरीर समस्त अपवित्र वस्तुओं का भण्डार है । और इसका एक प्रदेश (एक अंश) भी पवित्र नहीं है । अपने शरीर से निकले हुए मल मूत्र आदि के जो प्रवाह हैं । उनका स्पर्श हो जाने पर मिटटी और जल से हाथ शुद्ध किया जाता है । तथापि उन्ही अपवित्र वस्तुओं के भण्डार स्वरुप इस देह से न जाने क्यों मनुष्य को वैराग्य नहीं होता ?
सुगन्धित तेल और जल आदि के द्वारा यत्नपूर्वक भलीभांति संस्कार (सफाई) करने पर भी यह शरीर अपनी स्वाभाविक अपवित्रता को नहीं छोड़ता । ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते की टेढ़ी पूँछ को कितना ही सीधा कर लिया जाए । वह अपना टेढ़ापन नहीं छोड़ पाती । अपनी देह की अपवित्र गंध से जो मनुष्य विरक्त नहीं होता । उसे वैराग्य के लिए अन्य किस साधन का उपदेश दिया जाए ?
दुर्गन्ध तथा मल मूत्र लेप को दूर करने के लिए ही शारीरिक शुद्धि का विधान किया गया है । इन दोनों (गंध और लेप) का निवारण हो जाने के पश्चात आतंरिक भाव की शुद्धि होने से मनुष्य शुद्ध होता है । भाव शुद्धि ही सबसे बढ़कर पवित्रता है । वही सब कर्मों में प्रमाणभूत है ।
आलिंगन पत्नी का भी किया जाता है और पुत्री का भी । परन्तु दोनों में भाव का महान अंतर है । प्यारी पत्नी का आलिंगन किसी और भाव से किया जाता है एवं पुत्री का दूसरे भाव से । एक ही स्त्री के स्तनों को पुत्र दूसरे भाव से स्मरण करता है और पति दूसरे भाव से । अतः अपने चित्त को ही शुद्ध करना चाहिए । बाह्य शुद्धि के दूसरे दूसरे साधनों से क्या लेना है ?
भावदृष्टि से जिसका अन्तःकरण अत्यंत शुद्ध है । वह स्वर्ग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है ।
ज्ञान रूपी निर्मल जल तथा वैराग्य रूपी मृत्तिका से ही पुरुष के अविद्या एवं रागमय मल-मूत्र के लेप और दुर्गन्ध का शोधन होता है । इस प्रकार इस शरीर को स्वभावतः अशुद्ध माना गया है । जैसे केले के वृक्ष में केवल वल्कल ही सार है । उसी प्रकार इस देह में केवल त्वचा मात्र ही सार है । वास्तव में तो यह सर्वथा निस्सार है ।
जो बुद्धिमान अपने शरीर को इस प्रकार दोष युक्त जान कर उदासीन हो जाता है । उसकी ओर से अनुराग शिथिल कर लेता है । वही इस संसार बंधन से छूट कर निकल पाता है । किन्तु जो दृणता पूर्वक इस शरीर को पकङे हुए रहता है । इसका मोह नहीं छोड़ता । वह संसार में ही पड़ा रह जाता है । इस प्रकार यह मानव जन्म लोगों के अज्ञान दोष से तथा नाना प्रकार के कर्मशात दुःख स्वरुप और महान कष्टप्रद बताया गया है ।
जैसे बड़े भारी पर्वत से दबा हुआ कोई प्राणी बड़े कष्ट से पीड़ित रहता है । उसी प्रकार गर्भ की झिल्ली में बंधा हुआ मनुष्य महान कष्ट से वहाँ ठहर पाता है । जैसे समुद्र में गिरा हुआ कोई मनुष्य अत्यंत व्याकुल होकर बड़े भारी दुःख से घिर जाता है । उसी प्रकार गर्भगत जल से भीगे हुए अंगों वाला गर्भस्थ शिशु अत्यंत व्याकुल रहता है । जैसे किसी को लोहे के घड़े में रखकर आग में पकाया जाता है । वैसे ही गर्भ रूपी घाट में डाला हुआ जीव जठरानल की आंच से पकता रहता है । यदि आग के समान दहकती हुई सुइयों से किसी को निरंतर छेदा जाए तो उसे कितनी पीड़ा हो सकती है । उससे आठ गुनी पीड़ा गर्भ में भोगनी पड़ती है ।
इस प्रकार स्थावर जंगम सभी प्राणियों को अपने अपने गर्भ के अनुरूप यह महान गर्भ दुःख प्राप्त होता है । ऐसा कहा गया है ।
गर्भ में स्थित होने पर सभी को अपने पूर्व जन्मों का स्मरण हो आता है ।
उस समय जीव इस प्रकार सोचता है - अहो ! मैं मरकर पुनः उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होकर पुनः मृत्यु को प्राप्त हुआ । जन्म से लेकर मैंने सहस्त्रों योनियों का दर्शन किया है । इस समय जन्म धारण करते ही मेरे पूर्व संस्कार जाग उठे हैं । अतः अब मैं ऐसे कल्याणकारी साधन का अनुष्ठान करूँगा । जिससे पुनः मेरा गर्भवास न हो । संसार बंधन को दूर करने वाले भगवदीय तत्व ज्ञान का मैं चिंतन करूँगा । इस प्रकार उस दुःख से छूटने के उपाय पर विचार करता हुआ गर्भस्थ जीव चिंतामय रहता है ।
जब उसका जन्म होने लगता है । उस समय तो उसे गर्भ की अपेक्षा भी ‘कोटि गुना’ अधिक दुःख होता है । गर्भवास के समय जो बुद्धि जागृत रहती है । वह जन्म हो जाने पर नष्ट हो जाती है । बाहर की हवा लगते ही मूढ़ता आ जाती है । मोहग्रस्त होने पर शीघ्र ही उसकी स्मरण शक्ति का नाश हो जाता है । स्मरण शक्ति नष्ट होने पर पूर्व कर्मवशात जीव का पुनः उसी जन्म (के शरीर आदि) में अनुराग हो जाता है । इस प्रकार राग और मोह के वशीभूत हुआ वह संसार में न करने योग्य पापादि कर्मों में लग जाता है ।
उनमें फंसकर न तो वह अपने को जानता है । न दूसरों को जानता है । और न किसी देवता को ही कुछ समझता है । अपने परम कल्याण की बात तक नहीं सुनता । आँख रहते हुए भी नहीं देखता । समतल मार्ग पर धीरे धीरे चलते हुए भी वह पग पग पर लड़खड़ाने लगता है । विद्वानों के समझाने पर भी । बुद्धि रहते हुए भी वह नहीं समझ पाता । इसलिए राग और मोह के वशीभूत होकर संसार में क्लेश उठाता रहता है । जन्म लेने पर गर्भकाल में जागृत हुई पूर्व जन्म की स्मृति अथवा गर्भ के दुखों की स्मृति नहीं रहती ।
इसलिए महर्षियों ने गर्भ दुःख का निरूपण करने के लिए शास्त्रों का प्रतिपादन किया है । वे शास्त्र स्वर्ग और मोक्ष के उत्तम साधन हैं । सब कार्यों और प्रयोजनों को सिद्ध करने वाले इस शास्त्र ज्ञान के रहते हुए भी लोग उससे अपने कल्याण का साधन नहीं करते । यह बड़ी अदभुत बात है ।
बाल्यावस्था में इन्द्रियों की वृत्तियाँ अव्यक्त रहती हैं । इसलिए जीव उस समय के महान दुःख को बताने की इच्छा होने पर भी बता नहीं सकता और न उस दुःख के निवारण के लिए कुछ कर ही सकता है । फिर जब दांत उठने लगते हैं । तब उसे महान कष्ट भोगना पड़ता है । मूल रोग (सर दर्द) नाना प्रकार के बाल रोग तथा पूतना आदि बालग्रह आदि से भी बालक को बड़ी पीड़ा होती है । भूख प्यास की पीड़ा से उसके सब अंग व्याकुल रहते हैं । तथा वह कभी खाट पर पड़ा हुआ रोता रहता है । इसके बाद जब वह कुछ बड़ा हो जाता है । तब अक्षरों के अध्ययन आदि से और गुरु के अनुशासन से उसको महान दुःख होता है ।
युवावस्था में रागोनमत्त पुरुष की सम्पूर्ण इन्द्रिय वृत्तियाँ काम तथा राग की पीड़ा से सदा मतवाली रहती हैं । अतः उसे भी कहाँ से सुख प्राप्त हो सकता है । मोहवश पुरुष को यदि कहीं अनुराग हो जाता है तो ईर्ष्या के कारण उसे बड़ा भारी दुःख होता है ।
जो उन्मत्त और क्रोधी है । उसका कहीं भी राग होना केवल दुःख का ही कारण है । रात में कामाग्नि जनित खेद से पुरुष को नींद नहीं आती । दिन में भी द्रव्योपार्जन की चिंता लगी रहने के कारण उसे सुख नहीं मिल सकता ।
स्त्रियाँ सब दोषों का आश्रय है । यह बात भलीभांति जान लेने पर भी जो लोग उनमें मैथुन से सुख मानते हैं । उनका वह सुख मल मूत्र त्याग के सदृश ही माना गया है । सम्मान अपमान से, प्रियजनों का संयोग वियोग से तथा जवानी वृद्धावस्था से ग्रस्त है । निर्विघ्न सुख कहाँ है ?
युवावस्था का शरीर एक दिन जरा अवस्था से जर्जर कर दिया जाने पर सम्पूर्ण कार्यों के लिए असमर्थ हो जाता है । उसके बदन में झुर्रियां पड़ जाती हैं । सर के बाल सफेद हो जाते हैं । और शरीर बहुत ढीला ढाला हो जाता है । स्त्री और पुरुष का वही रूप जो जवानी के दिनों में एक दूसरे का आधार था । जराग्रस्त हो जाने पर दोनों में से किसी को भी प्रिय नहीं लगता । बुढ़ापे में दबा हुआ पुरुष असमर्थ होने के कारण पत्नी पुत्र आदि बन्धु बांधवों तथा दुराचारी सेवकों द्वारा भी अपमानित होता है । वृद्धावस्था में रोगातुर पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन करने में असमर्थ हो जाता है । इसलिए युवावस्था में ही धर्म का आचरण करना चाहिए ।
वात, पित्त और कफ़ की विषमता ही व्याधि कहलाती है । इस शरीर को वात आदि का समूह बताया गया है । इसलिए अपना यह शरीर व्याधिमय है । ऐसा जानना चाहिए । इस शरीर में अनेक प्रकार के रोगों द्वारा बहुतेरे दुःख प्रवेश कर जाते हैं । उनका पता अपने आपको भी नहीं चलता है । फिर दूसरों को तो लग ही कैसे सकता है । इस देह में 101 व्याधियां स्थित हैं । इनमें से 1 व्याधि तो काल के साथ रहती है और शेष आगंतुक मानी गयी है । जो आगंतुक बताई गयी है । वे तो दवा करने से तथा जप, होम और दान से शांत हो जाती हैं । परन्तु मृत्यु रूपी व्याधि कभी शांत नहीं होती । नाना प्रकार की व्याधियां, सर्प आदि प्राणी, विष एवं अभिचार (पुरश्चरण) - वे सब देहधारियों के मृत्यु के द्वार बताये गए हैं ।
यदि जीव का काल आ पहुंचा है तो सर्प और रोग आदि से पीड़ित होने पर उसे धनवंतरि भी जीवित नहीं रख सकते । काल से पीड़ित मनुष्य को औषधि, तपस्या, दान, मित्र तथा बन्धु बांधव कोई भी बचा नहीं सकते । रसायन, तपस्या, जरा, योग, सिद्ध महात्मा तथा पंडित - ये सब मिलकर भी कालजनित मृत्यु को नहीं टाल सकते ।
समस्त प्राणियों के लिए मृत्यु के समान कोई दुःख नहीं है । मृत्यु के समान कोई भय नहीं है । मृत्यु के समान कोई त्रास नहीं है । सती भार्या, उत्तम पुत्र, श्रेष्ट मित्र, राज्य, ऐश्वर्य और सुख - ये सभी स्नेहपाश में बंधे हुए हैं । मृत्यु इन सबका उच्छेद कर डालती है ।
माँ ! क्या तुम नहीं देखती हो कि हजारों मनुष्यों में से 5 भी शायद ऐसे होंगे । जो पूरे 100 वर्ष तक जीने वाले हो । कोई ही कोई 80 वर्ष और 70 वर्ष की अवस्था में मरते हैं । प्रायः 60 वर्ष तक की ही लोगों की परमायु हो गई है । किन्तु वह भी सबके लिए निश्चित नहीं है ।
जिस देहधारी को अपने पूर्व कर्मानुसार जितनी आयु प्राप्त होती है । उसका आधा भाग तो मृत्यु रूपिणी रात्रि हर लेती है । बाल्यावस्था । अबोधावस्था और बृद्धावस्था के द्वारा 20 वर्ष और व्यतीत हो जाते हैं । जो धर्म, अर्थ और काम - किसी के भी उपयोग में नहीं आते । शेष आयु का आधा भाग मनुष्य के आने वाले बहुत से भय और अनेक प्रकार के रोग और शोक आदि हर लेते हैं । इन सबसे जो शेष रह जाता है । वही मनुष्य का जीवन है ।
इस जीवन की समाप्ति होने पर मनुष्य अत्यंत भयंकर मृत्यु को प्राप्त होता है । मृत्यु के बाद वह पुनः करोड़ों योनियों में जन्म ग्रहण करता है । कर्मों की गणना के अनुसार देह भेद से जो जीव एक शरीर से वियोग होता है । उसे ‘मृत्यु’ नाम दिया गया है । वास्तव में उससे जीव का विनाश नहीं होता । मृत्यु के समय महान मोह को प्राप्त हुए जीव के मर्म स्थान जब विदीर्ण होने लगते हैं । उस दशा में उसे जो बड़ा भारी कष्ट भोगना पड़ता है । उसकी इस संसार में कहीं कोई उपमा नहीं है ।
जैसे सांप मेंढक को निगल जाता है । उसी प्रकार मृत्यु जब मनुष्य को निगलने लगती है । उस समय वह हा तात ! हा मातः ! हा कान्ते ! इत्यादि रूप से पुकारता हुआ अत्यंत दुखी हो होकर रोता है । भाई बांधवों से साथ छूट रहा है । प्रेमीजन उसे चारों ओर से घेर कर खड़े हैं । वह सूखते हुए मुख से गरम गरम सांस खींचता है । चारपाई पर चारों ओर बारबार करवट बदलता है । पीड़ा से मोहित होकर बड़े वेग से इधर उधर हाथ फेंकता है । उसके वस्त्र खुल गए हैं । उसकी लज्जा छूट चुकी है । विष्ठा और मूत्र में सना हुआ है ।
कंठ, ओष्ठ और तालू सूख जाने के कारण बारबार पानी मांगता है । अपने धन वैभव के लिए इस बात की चिंता करता है कि मेरे मर जाने पर ये किसके हाथ में पड़ेंगे । पुनः ‘कालपाश’ से खींचे जाने पर उसका गला घुरघुराने लगता है और पार्श्ववर्ती लोगों के देखते देखते मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । जैसे तृण जलौका (जौंक) जल में बहते हुए तिनके के अंत तक पहुँच कर जब दूसरा तिनका थाम लेती है । तब पहले को छोड़ देती है । उसी प्रकार जीव एक देह से दूसरी देह में क्रमशः प्रवेश करता है । भावी शरीर में अंशतः प्रवेश करके पूर्व शरीर को त्याग करता है ।
विवेकी पुरुष के लिए किसी से कुछ माँगना मृत्यु से भी अधिक दुखदायी होता है । मृत्यु का दुःख तो क्षण भर में समाप्त हो जाता है । परन्तु याचनाजनित दुःख का कभी अंत नहीं होता । मैंने तो इस समय यह अनुभव किया है कि मृत मनुष्य जीवित रहकर याचना करने की अपेक्षा श्रेष्ठ है । क्योंकि अब वह फिर दूसरे किसी के सामने हाथ नहीं फैला सकता ।
तृष्णा ही लघुता का कारण है ।
आदि में दुःख है । मध्य में दुःख है । तथा अंत में भी दारुण दुःख प्राप्त होता है ।
दुखों की यह परंपरा समस्त प्राणियों को स्वभावतः प्राप्त होती है । क्षुधा को सब रोगों से महान रोग माना गया है । वह अन्न रूपी औषधि का लेप करने से कुछ क्षणों के लिए शांत हो जाती है । (यदि कहें कि धन धान्य संपन्न राजा सुखी होंगे । तो यह भी ठीक नहीं) राजा को केवल यह अभिमान ही होता है कि मेरे घर में इतना वैभव शोभा पा रहा है । वास्तव में तो उनका सारा आभरण भार रूप है । समस्त आलेपन द्रव्य मल मात्र हैं । सम्पूर्ण संगीत राग प्रलाप मात्र है तथा नृत्य आदि भी पागलों की सी चेष्टा है । विचार दृष्टि से देखने पर इन राज्य भोगों के द्वारा राजाओं को सुख कहाँ प्राप्त होता है ? क्योंकि वे लोग तो एक दूसरे को जीतने के लिए सदा ही चिंतित रहते हैं । प्रायः राज्यलक्ष्मी के मद से उत्पन्न होने के कारण नहुष आदि महाराज स्वर्ग का साम्राज्य पाकर भी वहाँ से नीचे गिर गए हैं । राजलक्ष्मी अथवा धन ऐश्वर्य से भला कौन सुख पाता है ?
मनुष्य स्वर्ग लोक में जो पुण्य फल भोगते हैं । वह अपने मूल धन को गवां कर ही भोगते हैं । क्योंकि वहाँ वे दूसरा नवीन कर्म नहीं कर सकते । यही स्वर्ग में अत्यंत भयंकर दोष है । जैसे वृक्ष की जड़ काट देने पर वह विवश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ता है । उसी प्रकार पुण्य रूपी मूल का क्षय हो जाने पर स्वर्गवासी जीव पुनः पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं । इस तरह विचार पूर्वक देखा जाए । तो स्वर्ग में भी देवताओं को कोई सुख नहीं है ।
नर्क में गए हुए पापी जीवों का दुःख तो प्रसिद्ध है । उनका क्या वर्णन किया जाये । स्थावर योनि में पड़े हुए जीवों को भी बहुत दुःख भोगने पड़ते हैं । दावानल से जलना, पाला पड़ने से गलना, धूप और हवा से सूखना, कुल्हाड़ी से काटा जाना, उनके वल्कलों (छिलकों) का उतरा जाना, प्रचंड आंधी के वेग से पत्तों, डालियों और फलों का गिराया जाना तथा हाथियों और अन्य जंगली जंतुओं द्वारा कुचला जाना आदि उनके लिए महान दुःख हैं ।
सर्पों और बिच्छुओं को प्यास और भूख का कष्ट रहता है । उन्हें क्रोध का भी दारुण दुःख सहन करना पड़ता है । संसार में प्रायः दुष्ट सांप बिच्छुओं को मारा जाता है । उन्हें जाल में फंसा कर बन्द रखा जाता है ।
माता जी ! इस प्रकार उस योनि के जीवों को बारबार कष्ट उठाना पड़ता है । कीड़े आदि का अकस्मात जन्म होता है और अचानक ही उनकी मौत भी हो जाती है । अतः उनका दुःख भी कम नहीं है । मृगों और पक्षियों को वर्षा, सर्दी और धूप का महान कष्ट तो है ही । भूख प्यास के भारी दुःख से भी मृग सदा संत्रस्त रहते हैं ।
पशु समूह के जो दुःख हैं । उन्हें भी सुन लो । भूख प्यास तथा सर्दी गर्मी आदि का कष्ट सहना, मारा जाना, बंधन में डाला जाना और डंडे आदि से पीटा जाना, नाक का छेदा जाना, चाबुक और अंकुश की मार पड़ना आदि उनके महान क्लेश हैं । इनके अतिरिक्त बोझ ढोने का भी उन्हें बड़ा भारी कष्ट है । कार्य की शिक्षा देते समय भी उन्हें मारा पीटा जाता है । फिर युद्ध आदि की भी पीड़ा भी सहनी पड़ती है । अपने झुण्ड से जो उनका वियोग होता है और वे वन से जो अन्यत्र लाये जाते हैं । यह सब कष्ट अलग हैं ।
दुर्भिक्ष, दुर्भाग्य का प्रकोप, मूर्खता, दरिद्रता, नीच ऊँच का भय, मृत्यु, राष्ट्रविप्लव (एक राज्य का नाश करके दूसरे के स्थापना करना) पारस्परिक अपमान का दुःख, आपस में एक दूसरे से धन वैभव या मान प्रतिष्ठा में बढ़ जाने से कष्ट, अपनी प्रभुता का सदा स्थिर न होना, ऊंचे चढ़े हुए लोगों का नीचे गिराया जाना इत्यादि महान दुखों से यह सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है ।
जैसे इस कंधे का भार उस कंधे पर कर देने को मनुष्य विश्राम समझता है । उसी प्रकार इस लोक में एक दुःख दूसरे दुःख से ही शांत होता है । अतः एक दूसरे से ऊँची स्थिति में स्थित होते हुए इस सम्पूर्ण जगत को दुखों से भरा हुआ जानकर उसकी ओर से अत्यंत उद्विग्न हो जाना चाहिए । उद्वेग से वैराग्य होता है । वैराग्य से ज्ञान प्रकट होता है तथा ज्ञान से परमात्मा को जानकर मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
माँ ! जैसे कौओं के अपवित्र स्थान में विशुद्ध राजहंस नहीं रह सकता । उसी प्रकार ऐसे दुखमय संसार में मैं तो कभी नहीं रम सकता ।
मैया ! जहाँ रहकर मैं बिना किसी विघ्न बाधा के आनंदपूर्वक रह सकता हूँ । वह स्थान भी बताता हूँ । सुनो ! अविद्या रूपी वन तो बड़ा भयंकर है । उसमें नाना प्रकार के कर्ममय वृक्ष खड़े हैं । वहाँ संकल्पों के डांस और मच्छर बहुत हैं । शोक ओर हर्ष ही वहाँ की सर्दी और धूप हैं । उस वन में मोह का घना अन्धकार छाया रहता है । वहां लोभ रूपी सांप और बिच्छू रहते हैं । विषयों के अनेक मार्गों से वह प्रदेश व्याप्त है । काम और क्रोध रूपी वधिक तथा लुटेरे उसमें सदा डेरा डाले रहते हैं ।
उस महा दुखमय विशाल वन को लांघ कर अब मैं एक ऐसे महान विपिन में प्रवेश कर चुका हूँ । जहाँ पहुँच कर उसके तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुष न शोक करते हैं, न हर्ष ।
यहाँ किसी से भय नहीं है । किसी को भी भय नहीं है । उस विद्या रुपी वन में साथ बड़े भरी वृक्ष हैं । वहाँ सात ही पर्वत हैं । जिन्होंने तीनों लोकों को धारण कर रखा है । सात ही कुण्ड हैं और सात ही नदियाँ हैं । जो सदा ब्रह्मरूप जल बहाया करती है ।
तेज, अभयदान, अद्रोह, कौशल, अचपलता, अक्रोध और प्रिय वचन बोलना - ये ही सात पर्वत विद्यावान में स्थित हैं ।
दृण निश्चय, सबके साथ समता, मन और इन्द्रियों में संयम, गुणसंचय, ममता का अभाव, तपस्या तथा संतोष - ये सात कुण्ड हैं ।
भगवान के गुणों का विशेष ज्ञान होने से जो उनके प्रति भक्ति होती है । वह विद्या वन की पहली नदी है । वैराग्य दूसरी, ममता का त्याग तीसरी, भगवदाराधन चौथी, भाग्वादर्पण पांचवी, ब्रह्म एकत्व बोध छठी तथा सिद्धि सातवीं नदी है । ये ही सात नदियाँ वहाँ स्थित बताई गई हैं । बैकुंठ धाम के निकट इन सातों नदियों का संगम होता है ।
जो आत्मतृप्त, शांत तथा जितेन्द्रिय होते हैं । वे ही महात्मा उस मार्ग से परात्पर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं । कोई श्रेष्ठ ज्ञानीजन उन वृक्षों को प्राप्त करता है । कोई पर्वतों को, कोई कुण्डों को और कोई उन सात सरिताओं को ही प्राप्त होता है ।
माँ ! मैं ग्रहण किये हुए व्रत को धारण करने की इच्छा रख कर ब्रह्मचर्य का आचरण करता हूँ । इस ब्रह्मचर्य में ब्रह्म ही समिधा, ब्रह्म ही अग्नि तथा ब्रह्म ही कुशस्तरण है । जल भी ब्रह्म है और गुरु भी ब्रह्म ही है - यही मेरा ब्रह्मचर्य है । विद्वान पुरुष इसी को सूक्ष्म ब्रह्मचर्य मानते हैं ।
माता ! अब मेरे गुरु का परिचय सुनो । जिन्होंने मुझे विद्या प्रदान की है । एक ही शिक्षक है । दूसरा कोई शिक्षक नहीं है । ह्रदय में विराजमान अन्तर्यामी पुरुष ही शिक्षक होकर शिक्षा देता है । उसी से प्रेरित होकर मैं झरने से बहकर जाने वाले जल की भांति जहाँ जिस कार्य में नियुक्त होता हूँ । वहाँ वैसा ही करता हूँ । एक ही गुरु है । उनके सिवा दूसरा कोई गुरु नहीं है । जो ह्रदय में विराजमान हैं । वे गुरु हैं । उनको मैं प्रणाम करता हूँ । उन्हीं गुरु स्वरूप भगवान मुकुंद की अवहेलना करके सम्पूर्ण दानव पराभव को प्राप्त हुए हैं । एक ही बन्धु है । उसके सिवा दूसरा बन्धु नहीं है । जो ह्रदय में विराजमान है । वह परमात्मा ही बन्धु है । मैं उसे नमस्कार करता हूँ । उसी से शिक्षा प्राप्त करके सात बंधुमान भाई सप्तर्षि आकाश में प्रकाशित होते हैं । ऐसे ही ब्रह्मचर्य का भलीभांति सेवन करना चाहिए ।
अब मेरा गृहस्थ कैसा है । यह भी सुन लो । माता ! प्रकृति ही मेरी पत्नी है । किन्तु मैं कभी उसका चिंतन नहीं करता । वही सदा मेरा चिंतन किया करती है । वह मेरे सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है ।
नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कान, मन और बुद्धि - यह सात प्रकार की अग्नि सदा मेरी अग्निशाला में प्रज्ज्वलित रहती है ।
गंध, रस, रूप, शब्द, स्पर्श, मंतव्य और बोधव्य - ये ही सात मेरी समिधाएँ हैं । होता भी नारायण है । और ध्यान से साक्षात नारायण ही उपस्थित हो उस हविष्य का उपयोग करते हैं । ऐसे महायज्ञ द्वारा मैं अपनी इस ग्रहस्थी में उन परमेश्वर का यजन करता हूँ । किसी भी वस्तु की कामना नहीं रखता । यथापि मेरे सम्पूर्ण काम स्वयं सिद्ध हैं ।
मैं सांसारिक सम्पूर्ण दोषों से द्वेष नहीं करता तथापि कोई भी दोष मुझमें प्रकट नहीं होता । जैसे कमल के पत्ते पर जल की बूँद का लेप नहीं होता । उसी प्रकार मेरा स्वभाव राग द्वेष आदि से लिप्त नहीं होता ।
मैं नित्य हूँ व भूतों के स्वभाव का साक्षी हूँ । अनित्य भोग मुझ पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते । जैसे सूर्य की किरणें आकाश में लिप्त नहीं होती । वैसे ही मेरे भगवदर्थ किये गए निष्काम कर्मों में भोग समूह लिप्त नहीं होता (मेरे कर्मों का फल भोग सामग्री के रूप में नहीं उपस्थित होता । वे कर्म तो भगवत प्राप्ति कराने वाले हैं)
माता ! ऐसे मुझ पुत्र से तुम दुखी न हो । मैं तुम्हें उस पद पर पहुचा दूंगा । जहाँ सैकड़ों यज्ञ करके भी पहुँचना असम्भव है ।
अपने पुत्र की यह बात सुनकर इतरा को बड़ा विस्मय हुआ ।
वह सोचने लगी - अहो ! यदि मेरा पुत्र ऐसा दृढ़ निश्चय वाला विद्वान है तब तो संसार में जब इसकी ख्यति होगी । उस समय मेरा भी महान यश फैलेगा ।
माता इस प्रकार की बातें सोच ही रही थी कि शंख चक्र गदाधारी भगवान विष्णु उस अर्चा विग्रह से साक्षात प्रकट हो गए । वे उस द्विज पुत्र की बातों से अत्यंत प्रसन्न थे । भगवान को देखते ही ऐतरेय धरती पर दंड की भांति गिर पड़े । उनके शरीर में रोमांच हो आया । नेत्रों से प्रेम के आंसू बहने लगे । वाणी गदगद हो गयी । बुद्धिमान ऐतरेय ने मस्तक पर अंजलि बाँध कर भगवान का इस प्रकार स्तवन प्रारंभ किया ।
- आप भगवान वासुदेव का हम ध्यान और नमस्कार करते हैं । आप ही प्रदुम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण हैं । आपको नमस्कार है । आप केवल विज्ञानरूप तथा परमानंद मूर्ति हैं । आपको नमस्कार है । आप आत्माराम, शांत तथा आप समस्त इन्द्रियों के स्वामी (हृषिकेश) हैं ।
सबसे महान तथा अनंत शक्तियों से संपन्न हैं । आपको नमस्कार है । मन सहित वाणी के थक कर निवृत हो जाने पर जो एक मात्र अपनी कृपा से ही सुलभ होने वाले हैं । नाम और रूप से रहित चैतन्य घन ही जिनका रूप है । वे सत और असत से परे विराजमान परमात्मा हम सबकी रक्षा करें । आप परम सत्य तथा निर्मल हैं । हम आपकी उपासना करते हैं । जो षङविध ऐश्वर्य से युक्त परम पुरुष महानुभाव एवं समस्त महाविभूतियों के अधिपति हैं । उन भगवान को नमस्कार है । परमेष्ठिन ! आप सबसे उत्कृष्ट हैं । सम्पूर्ण भक्त समुदाय आपके युगल चरणार्विन्दों की बड़े लाङ प्यार से सेवा करते हैं । आपको नमस्कार है । अग्नि आपका मुख है । पृथ्वी आपके दोनों चरण है । आकाश मस्तक है । चन्द्रमा तथा सूर्य दोनों नेत्र हैं । सम्पूर्ण लोक आपका शरीर है तथा चारों दिशाएँ आपकी चार भुजाएं हैं । भगवान ! आपको नमस्कार है ।
हे स्तुति करने योग्य परमात्मन ! हे नाथ ! इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है । जिनमें मेरा जन्म न हुआ हो । जहाँ मेरी मृत्यु न हुई हो । मैं समझता हूँ । यदि मेरे माता पिताओं की गणना की जाए तो यह विशाल पृथ्वी परमाणुओं की स्थिति में पहुँच जाएगी । असंख्य जन्मों के मेरे माता पिताओं की गणना करने के लिए पृथ्वी के परमाणु बराबर टुकड़े करने पड़ेंगे ।
देवदेव ! मेरे जो मित्र, शत्रु, अनुजीवी तथा भाई बन्धु इस संसार में हो गए हैं । उन सबको गणना करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ ।
नाथ ! मैंने अपना मन बारबार आपके चरणों में समर्पित किया परन्तु मेरा दुर्जय शत्रु काम अपने क्रोध आदि सहायकों द्वारा उसे हठात अपने वश में कर लेता है । भगवन ! अब आप ही बताईए । ऐसे दशा में मैं क्या करूँ ?
सर्वव्यापी परमेश्वर ! मैं बहुत ही पीड़ित हूँ । संसार रुपी गड्ढे में गिरे हुए इस दीन पर आप दया कीजिये । दुर्गति में पड़ा हुआ प्राणी भी महात्माओं की शरण में आ जाने पर कष्ट नहीं भोगता । रोगी मनुष्यों को शरण देने वाला वैद्य है । महासागरों में डूबे हुए मनुष्य का सहारा नौका है । बालक को आश्रय देने वाले माता और पिता हैं । परन्तु भगवन ! अत्यंत घोर संसार बंधन से दुखी हुए मनुष्य को शरण देने वाले केवल आप ही हैं ।
सर्वस्वरूप सर्वेश्वर ! प्रसन्न होइये । आप ही सबके कारण हैं । पारमार्थिक सारतत्व भी आप ही हैं । महान दुःख समूह से भरे हुए, संसार रूपी गड्ढे से स्वयं ही हाथ पकड़ कर मुझे निकालिए ।
हे अच्युत ! हे उरुक्रम ! यह संसार भूख और प्यास से, वात, पित्त और कफ - इन तीन धातुओं से, सर्दी गर्मी, आंधी और वर्षा से आपस में ही एक दूसरे से तथा कभी तृप्त न होने वाली कामाग्नि तथा क्रोधाग्नि से बारबार पीड़ित होता है । इसे इस दशा में देखकर मेरा मन बहुत ही दुखी हो रहा है । मैंने अपनी शक्ति के अनुसार सम्पूर्ण जगत को धारण करने वाले परमेश्वर भगवान आप वासुदेव का स्तवन किया है । इससे सबका कल्याण हो । सम्पूर्ण जगत के समस्त दोष नष्ट हो जाएँ ।
आज मेरे द्वारा जगत्धाता वासुदेव की स्तुति हुई है । इससे इस पृथ्वी पर, अंतरिक्ष में, स्वर्गलोक में तथा रसातल में भी जो कोई प्राणी रहते हों । वे सिद्धि को प्राप्त हो जाएँ । मेरे द्वारा स्तुति पाठ करते समय जो लोग इसको सुनते हों । इस स्तोत्र का उच्चारण करते समय जो मुझे देखते हैं । वे देवता, असुर, मनुष्य तथा पशु पक्षी कोई भी क्यों न हों । सभी भगवान विष्णु के तत्वज्ञान को प्राप्त करें ।
इनके सिवा जो गूंगे तथा अन्यान्य इन्द्रियों से रहित हों । जो देख सुन न सकते हों तथा पशु पक्षी, कीड़े मकोड़े आदि भी आज भग्वातत्व ज्ञान के भागी हो जाएँ । संसार में दुखों का नाश हो जाए । समस्त प्रजा के ह्रदय में लोभ आदि दोष समुदाय निकल जाए । अपने में, अपने भाई और पुत्र में जैसा प्रेम और आत्मीयता का भाव होता है । सब लोगों का सबके प्रति वैसा ही भाव हो जाए ।
जो संसार रूपी रोग के चिकित्सक, सम्पूर्ण दोषों के निवारण में चतुर तथा परमानन्द की प्राप्ति के हेतु भूत हैं । वे भगवान विष्णु सबके ह्रदय में विराजमान हों और ऐसा होने से सब लोगों के संसार बंधन शिथिल हो जाएँ । सम्पूर्ण विश्व को धारण करने वाले भगवान वासुदेव का स्मरण करने पर मन, वाणी और शरीर द्वारा आचरित मेरे समस्त पाप नष्ट हो जाएँ ।
हे वासुदेव ! ऐसा उच्चारण करने पर अथवा भगवान विष्णु के भक्त की महिमा का कीर्तन करने पर । अथवा श्रीहरि का स्मरण करने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है । यदि यह सत्य है । तो इस सत्य के प्रभाव से मेरा पाप नष्ट हो जाए ।
अखिलेश्वर ! आपके चरणों में पड़े हुए मुझ सेवक पर आप यह सोच कर कृपा कीजिये कि - यह बेचारा मूढ़ है । कुछ जानता नहीं । इसकी बुद्धि बहुत थोड़ी है । इसके द्वारा उद्यम भी बहुत कम हो पाता है । विषयों से इसका मन सदा क्लेश में पड़ा रहता है । इसलिए यह मुझ में नहीं लग पाता । देव ! आपकी स्तुति करने में ब्रह्मा भी समर्थ नहीं हैं । भगवन ! आप प्रसन्न होइये ।
विष्णो ! आप बड़े दयालु हैं । मुझ अनाथ पर कृपा कीजिये ।
हे अनंत ! हे पापहारी हरि ! आप पुरुषोत्तम हैं । संसार सागर में डूबे हुए मुझ दीन का उद्धार कीजिये ।
अर्जुन ! ऐतरेय के इस प्रकार स्तुति करने पर ‘विशालकाय’ भगवान वासुदेव ने आनंदमय होकर कहा - वत्स ऐतरेय ! मैं तुम्हारी भक्ति से और इस स्तुति से बहुत प्रसन्न हूँ । तुम मुझसे कोई मनोवांछित एवं दुर्लभ वर मांगो ।
ऐतरेय ने कहा - नाथ ! हरे ! मेरा अभीष्ट वर तो यही है कि घोर संसार सागर में डूबते हुए मुझ असहाय के लिए आप कर्णधार हों ।
भगवान वासुदेव बोले - वत्स ! तुम तो संसार सागर से मुक्त ही हो । जो सदा इस स्तोत्र से गुप्तक्षेत्र में स्थित हुए मुझ वासुदेव का स्तवन करेगा । उसके सम्पूर्ण पापों का नाश हो जायेगा । अतः यह ‘अघनाशन’ नाम से विख्यात होगा । जो एकादशी को उपवास करके मेरे आगे इस स्तोत्र का पाठ करेगा । वह शुद्धचित्त होकर मेरे परम धाम को प्राप्त होगा ।
जैसे सब क्षेत्रों में मुझे यह गुप्तक्षेत्र अधिक प्रिय है । उसी प्रकार सब स्तोत्रों में यह स्तोत्र मुझे विशेष प्रिय है । जिन प्राणियों के उद्देश्य से महात्मा पुरुष इस स्तोत्र का जप करते हैं । वे सब प्राणी मेरी कृपा से शान्ति, ऐश्वर्य तथा उत्तम बुद्धि प्राप्त करेंगे ।
बेटा ! तुम श्रद्धापूर्वक वैदिक धर्मों का आचरण करो । उन्हें निष्काम भाव से मुझे समर्पित कर देने पर उनके द्वारा तुम्हें बंधन प्राप्त नहीं होगा । पत्नी का पाणिग्रहण करके तुम यज्ञों द्वारा भगवान की आराधना करो और अपनी माता की प्रसन्नता बढाओ । मुझमें तीव्र ध्यान करने से तुम निसंदेह मुझे ही प्राप्त होगे ।
बुद्धि, मन, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ - ये तेरह ग्रह हैं ।
बोधव्य, मंतव्य, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, वचन, आदान, कर्म, गमन, मलोत्सर्ग और रतिजनित आनद - ये तेरह महाग्रह हैं ।
बेटा ! अपने बुद्धि आदि शुद्ध (आसक्ति शून्य) ग्रहों के द्वारा मेरा ध्यान करते हुए पूर्वोक्त महाग्रहों को शुद्ध रूप में ग्रहण करो । भागवत प्रसाद मानकर स्वीकार करो । ऐसा करने से तुम मोक्ष को प्राप्त होगे ।
यों कहकर भगवान विष्णु पुनः वासुदेव विग्रह में ही प्रवेश कर गए ।
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