वास्तविक अर्थों वाले तो सिर्फ़ ‘एक’ राम भक्त का ही मिलना दुर्लभ होता है ( यहाँ ध्यान रखना । मैं सूर्यवंशी अयोध्या नरेश श्रीराम की बात नहीं कह रहा ) और इसमें कोई आश्चर्य या अफ़सोस की बात भी नहीं - हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है ( तब ) बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा ।
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हजारों साल प्रकृति अपनी आभाहीनता को लेकर बुझी सी रहती है । जब तक उसमें आत्मिक चेतना से पूर्ण कोई प्रकाश पुंज प्रकट नहीं होता ।
बङा गहरा अर्थ है इसका । लेकिन भक्ति साहित्य के कवियों तुलसीदास आदि ने प्रकृति के इस उमंग उत्साह का वर्णन राम जन्म और अन्य अवसरों पर किया है । श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव पर प्रकृति का यह उल्लास साफ़ नजर आता है । ऐसे ही उदाहरण कुछ अन्य आत्मिक चेतनाओं के भी हैं । पर वह पूर्व के उदाहरणों जैसे प्रसिद्ध नहीं हैं ।
लेकिन मुझे लगता है । अगले 31 वर्ष में यहाँ प्रथ्वी पर बने रहने वाले ये स्वर्गिक नजारा अवश्य देख पायेंगे । जब ये धरा पूर्ण अलौकिक दैवीय श्रंगार से फ़िर सज्जित होगी । मेरे ख्याल से आज के अभी के वातावरण को अनुभव करने वाले, उस परिवर्तन की कल्पना भी नहीं कर सकते । क्या वैज्ञानिक, क्या दार्शनिक और क्या चिंतक ।
और वो कुछ इस तरह है । हमेशा अनुकूल मौसम, कलकल प्रवाहित स्वच्छ शीतल जल, वैसी ही प्रदूषण से एकदम रहित स्वच्छ जीवनदायिनी वायु, वनस्पतियां निर्दोष और जीवन रस से लबालब भरी हुयीं, सर्वत्र सात्विक वृति वाले सज्जन धर्मी पुरुषों स्त्रियों की अधिकता, सर्वत्र मंगलगान, निर्धनता और अभाव न के बराबर ।
ठीक यही वर्णन आपको रामराज्य या ऐसी किसी शक्ति के प्रकट होने पर मिलेगा । और ये सुखद कल्पना भर नहीं है । ये शक्ति से प्रकट होने से स्वाभाविक ही है । जो तर्क की कसौटी पर भी खरा उतरता है ।
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इसलिये अगर समग्र के सृष्टि संचालन का गहरा शोध किया जाये । तो यही परिणाम होगा कि ऐसा होना स्वाभाविक ही है । रामभक्त कोई अपनी भावना या इच्छा से यकायक नहीं बना जा सकता । वह तो होता ही है । और ऐसा होने के लिये करोङों जन्मों के उन असंख्य चेतन घटकों का संयोग उत्तरदायी है । जो सृष्टि की अनवरत प्रक्रिया में अनजाने में ही स्व स्फ़ूर्त मगर गुण प्रभाव से एक महायोग की भांति निर्मित होते गये थे ।
अतः आसानी से समझा जा सकता है । करोङों जन्मों का अपेक्षित संयोजन सिर्फ़ इसी जन्म में चाहकर तो किसी भी तरह नहीं हो सकता ।
यहाँ मैं समझाने के लिये कुछ तथ्य बताना चाहूँगा कि मान लो, इस तरह की नाजानकारी के चलते कोई अतिरिक्त आत्मविश्वास में भावनात्मक हो उठे - मैं बनूंगा । देखें क्या अङचन है ।
यह सिर्फ़ तत्कालिक झाग से बना बुलबुला भर है । क्योंकि वास्तविक रामभक्त होने की जो कसौटी है । उसमें अच्छे अच्छे महारथी मैदान छोङकर भाग गये । या योग की ऊँचाईयों पर पहुँचने के बाद भी त्राहि त्राहि कर उठे ।
इनमें मीरा, स्वामी रामतीर्थ, तुलसीदास, सूरदास आदि आदि बहुत से नाम हैं । जिन्हें समाज और सम्बन्धियों द्वारा प्राणान्तक कष्ट देने की दास्तानें भरी पङी है । तबरेज जैसों की जीते जी खाल उतार ली गयी । इसके अतिरिक्त पूर्व के संस्कार वश उत्पन्न हुयी रोग व्याधियां अलग से शरीर और मन को दारुण कष्ट देती हैं और ये सब इसी भक्ति पाठयकृम के अंतर्गत आता है ।
दूसरे जानकारी के आधार पर भी ‘रामभक्त’ को खोजना या परिवर्तित करना ही औचित्यहीन बात है । क्योंकि जो निर्माण प्राकृतिक नियम के अंतर्गत ही सम्भव है । उसे व्यक्तिगत नहीं कर सकते । बात एकदम अलग है । और बहुत गहरे में समझने का विषय भी है ।
लेकिन योग्यतानुसार विभिन्न सफ़ल योगियों को अवश्य रूपांतरित किया जा सकता है । और योग उतना कष्टप्रद भी नहीं है । बल्कि थोङा ही परिपक्वता आते ही यह पूर्णता भरा अदभुत जीवन है ।
अतः इस जानकारी के द्वारा उन खोजी और संघर्षशील को सुविधा होगी । जो इस भूमि में स्थायित्व की तलाश में जूझ रहे हैं ।
मेरे अनुभव से योगी होने के लिये 30-35 की आयु सर्वश्रेष्ठ है । जब शरीर में उचित गर्मी और भावनाओं में ठहराव आने लगता है । बहुत अच्छा होगा । यदि किसी योगी को ‘कामभावना’ दबाव वाली प्रतीत होती हो । दमन जैसी स्थिति हो । तो उसका भी उचित माध्यम विवाह आदि द्वारा शमन करे । पर कामभावना का दबाव सभी को एक सा प्रभावित नहीं करता ।
जिस तरह की योग विद्या में उसकी रुचि है । उससे सम्बन्धित साहित्य और व्यक्तियों से निरन्तर मेलजोल रखना भी बेहद सहायक होगा । बल्कि कहा जाये । बाद में किसी भटकाव और असफ़लता से बचने हेतु यह अनिवार्य भी है ।
सामान्य योग ध्यान क्रियायें आजकल बहु प्रचलित हैं । अतः अनुलोम विलोम, कपाल भांति, धौति, वस्ति, नेति, आज्ञाचक्रीय ध्यान, साधारण मन्त्र जाप, ध्यान क्रिया में अविचलित 3 घन्टे तक लगातार बैठने का अभ्यास, किसी भी योगी की नींव को बहुत मजबूत बना सकता है ।
एक और महत्वपूर्ण चीज जो योगी के लिये आवश्यक हो जाती है । वह है - सीमित हो जाना । बहुत सी अनावश्यक वस्तुओं, कार्यों, व्यक्तियों, स्थानों, गतिविधियों से उदासीन होना ।
खानपान भी हल्का, भूख से कम, सात्विक और पुष्टिकारक हो । तामसिक भोजन और स्वभाव का एकदम त्याग कर देना चाहिये ।
सबसे बढकर मृत्यु ( कभी भी हो सकती है इसका सदैव ) ध्यान रहे । और मृत्यु आये । उससे पहले इस सर्वश्रेष्ठ और दुर्लभ मनुष्य शरीर द्वारा हम वह लक्ष्य प्राप्त कर लें । जिसके लिये देवता भी तरसते हैं । और स्वयं हम उसी परमात्म लक्ष्य की तलाश में असंख्य जन्मों से असंख्य योनियों और असंख्य लोकों में भटकते रहे हैं - कौन जोनि जामें भरमे नाहीं ?
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उपरोक्त के सम्बन्ध में आपको कोई अन्य जानकारी या सहायता की आवश्यकता हो । तो हेडर फ़ोटो पर दिये फ़ोन न. या ईमेल पर सम्पर्क करें । सतसाहेब ।
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हजारों साल प्रकृति अपनी आभाहीनता को लेकर बुझी सी रहती है । जब तक उसमें आत्मिक चेतना से पूर्ण कोई प्रकाश पुंज प्रकट नहीं होता ।
बङा गहरा अर्थ है इसका । लेकिन भक्ति साहित्य के कवियों तुलसीदास आदि ने प्रकृति के इस उमंग उत्साह का वर्णन राम जन्म और अन्य अवसरों पर किया है । श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव पर प्रकृति का यह उल्लास साफ़ नजर आता है । ऐसे ही उदाहरण कुछ अन्य आत्मिक चेतनाओं के भी हैं । पर वह पूर्व के उदाहरणों जैसे प्रसिद्ध नहीं हैं ।
लेकिन मुझे लगता है । अगले 31 वर्ष में यहाँ प्रथ्वी पर बने रहने वाले ये स्वर्गिक नजारा अवश्य देख पायेंगे । जब ये धरा पूर्ण अलौकिक दैवीय श्रंगार से फ़िर सज्जित होगी । मेरे ख्याल से आज के अभी के वातावरण को अनुभव करने वाले, उस परिवर्तन की कल्पना भी नहीं कर सकते । क्या वैज्ञानिक, क्या दार्शनिक और क्या चिंतक ।
और वो कुछ इस तरह है । हमेशा अनुकूल मौसम, कलकल प्रवाहित स्वच्छ शीतल जल, वैसी ही प्रदूषण से एकदम रहित स्वच्छ जीवनदायिनी वायु, वनस्पतियां निर्दोष और जीवन रस से लबालब भरी हुयीं, सर्वत्र सात्विक वृति वाले सज्जन धर्मी पुरुषों स्त्रियों की अधिकता, सर्वत्र मंगलगान, निर्धनता और अभाव न के बराबर ।
ठीक यही वर्णन आपको रामराज्य या ऐसी किसी शक्ति के प्रकट होने पर मिलेगा । और ये सुखद कल्पना भर नहीं है । ये शक्ति से प्रकट होने से स्वाभाविक ही है । जो तर्क की कसौटी पर भी खरा उतरता है ।
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इसलिये अगर समग्र के सृष्टि संचालन का गहरा शोध किया जाये । तो यही परिणाम होगा कि ऐसा होना स्वाभाविक ही है । रामभक्त कोई अपनी भावना या इच्छा से यकायक नहीं बना जा सकता । वह तो होता ही है । और ऐसा होने के लिये करोङों जन्मों के उन असंख्य चेतन घटकों का संयोग उत्तरदायी है । जो सृष्टि की अनवरत प्रक्रिया में अनजाने में ही स्व स्फ़ूर्त मगर गुण प्रभाव से एक महायोग की भांति निर्मित होते गये थे ।
अतः आसानी से समझा जा सकता है । करोङों जन्मों का अपेक्षित संयोजन सिर्फ़ इसी जन्म में चाहकर तो किसी भी तरह नहीं हो सकता ।
यहाँ मैं समझाने के लिये कुछ तथ्य बताना चाहूँगा कि मान लो, इस तरह की नाजानकारी के चलते कोई अतिरिक्त आत्मविश्वास में भावनात्मक हो उठे - मैं बनूंगा । देखें क्या अङचन है ।
यह सिर्फ़ तत्कालिक झाग से बना बुलबुला भर है । क्योंकि वास्तविक रामभक्त होने की जो कसौटी है । उसमें अच्छे अच्छे महारथी मैदान छोङकर भाग गये । या योग की ऊँचाईयों पर पहुँचने के बाद भी त्राहि त्राहि कर उठे ।
इनमें मीरा, स्वामी रामतीर्थ, तुलसीदास, सूरदास आदि आदि बहुत से नाम हैं । जिन्हें समाज और सम्बन्धियों द्वारा प्राणान्तक कष्ट देने की दास्तानें भरी पङी है । तबरेज जैसों की जीते जी खाल उतार ली गयी । इसके अतिरिक्त पूर्व के संस्कार वश उत्पन्न हुयी रोग व्याधियां अलग से शरीर और मन को दारुण कष्ट देती हैं और ये सब इसी भक्ति पाठयकृम के अंतर्गत आता है ।
दूसरे जानकारी के आधार पर भी ‘रामभक्त’ को खोजना या परिवर्तित करना ही औचित्यहीन बात है । क्योंकि जो निर्माण प्राकृतिक नियम के अंतर्गत ही सम्भव है । उसे व्यक्तिगत नहीं कर सकते । बात एकदम अलग है । और बहुत गहरे में समझने का विषय भी है ।
लेकिन योग्यतानुसार विभिन्न सफ़ल योगियों को अवश्य रूपांतरित किया जा सकता है । और योग उतना कष्टप्रद भी नहीं है । बल्कि थोङा ही परिपक्वता आते ही यह पूर्णता भरा अदभुत जीवन है ।
अतः इस जानकारी के द्वारा उन खोजी और संघर्षशील को सुविधा होगी । जो इस भूमि में स्थायित्व की तलाश में जूझ रहे हैं ।
मेरे अनुभव से योगी होने के लिये 30-35 की आयु सर्वश्रेष्ठ है । जब शरीर में उचित गर्मी और भावनाओं में ठहराव आने लगता है । बहुत अच्छा होगा । यदि किसी योगी को ‘कामभावना’ दबाव वाली प्रतीत होती हो । दमन जैसी स्थिति हो । तो उसका भी उचित माध्यम विवाह आदि द्वारा शमन करे । पर कामभावना का दबाव सभी को एक सा प्रभावित नहीं करता ।
जिस तरह की योग विद्या में उसकी रुचि है । उससे सम्बन्धित साहित्य और व्यक्तियों से निरन्तर मेलजोल रखना भी बेहद सहायक होगा । बल्कि कहा जाये । बाद में किसी भटकाव और असफ़लता से बचने हेतु यह अनिवार्य भी है ।
सामान्य योग ध्यान क्रियायें आजकल बहु प्रचलित हैं । अतः अनुलोम विलोम, कपाल भांति, धौति, वस्ति, नेति, आज्ञाचक्रीय ध्यान, साधारण मन्त्र जाप, ध्यान क्रिया में अविचलित 3 घन्टे तक लगातार बैठने का अभ्यास, किसी भी योगी की नींव को बहुत मजबूत बना सकता है ।
एक और महत्वपूर्ण चीज जो योगी के लिये आवश्यक हो जाती है । वह है - सीमित हो जाना । बहुत सी अनावश्यक वस्तुओं, कार्यों, व्यक्तियों, स्थानों, गतिविधियों से उदासीन होना ।
खानपान भी हल्का, भूख से कम, सात्विक और पुष्टिकारक हो । तामसिक भोजन और स्वभाव का एकदम त्याग कर देना चाहिये ।
सबसे बढकर मृत्यु ( कभी भी हो सकती है इसका सदैव ) ध्यान रहे । और मृत्यु आये । उससे पहले इस सर्वश्रेष्ठ और दुर्लभ मनुष्य शरीर द्वारा हम वह लक्ष्य प्राप्त कर लें । जिसके लिये देवता भी तरसते हैं । और स्वयं हम उसी परमात्म लक्ष्य की तलाश में असंख्य जन्मों से असंख्य योनियों और असंख्य लोकों में भटकते रहे हैं - कौन जोनि जामें भरमे नाहीं ?
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उपरोक्त के सम्बन्ध में आपको कोई अन्य जानकारी या सहायता की आवश्यकता हो । तो हेडर फ़ोटो पर दिये फ़ोन न. या ईमेल पर सम्पर्क करें । सतसाहेब ।
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