पुनर्जन्म कम से कम मेरे लिये अज्ञात या शोध का विषय नहीं है । कुंडलिनी की उच्च ध्यान क्रियाओं, जो समाधि जैसे अंगों से जुङती हों । या आत्मज्ञान में हंस से ऊपर की कोई भी स्थिति ‘पुनर्जन्म’ के रहस्य और कारण आदि को साफ़ साफ़ स्पष्ट कर देती है । इसके अतिरिक्त सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि आपका किसी जिज्ञासा या विधा के किस स्तर के गुरु से जुङाव है । गुरु आपसे प्रसन्न है । तब आपकी कोई भी स्थिति न होने पर भी प्रायोगिक या सन्तुष्टि के तौर पर आप ‘कारण शरीर’ की गतिविधियों को जान सकते हैं । जिसके ही आधार पर पुनर्जन्म या जीवन चक्र संचालित है ।
अतः यह कहना यह सब मेरे लिये ही सुलभ है । गलत है । इस विधा से जुङे किसी के भी लिये यह संभव है ।
जैसा कि मेरा स्वभाव रहा । मैं सदैव ही स्वय़ं द्वारा अनुभूत विषयों को लिखना अधिक पसन्द करता हूँ । जिन पर मैं अधिकारिक तौर से कह सकता हूँ । अब तक के मेरे 47 वर्षीय जीवन में एक दर्जन के लगभग पुनर्जन्म के मामले प्रत्यक्ष हुये । जिनका ध्यान से, सीधा सम्बन्ध नहीं था । और व्यवहारिक, बाह्य रूप से अन्य सामान्य लोगों को भी वह एकदम सत्य प्रतीत हुये ।
इस लेख हेतु मैंने जिन दो मामलों को चुना । वह आम पुनर्जन्म के मामले से भिन्न थे । और चिन्तन मनन हेतु उपर्युक्त थे । उनमें एक असली हंसदीक्षा प्राप्त था । और दूसरा व्यक्ति सामान्य जीव था । एक और बात थी । जो जीवन रहस्यों को उजागर करती है । ये दोनों अलग अलग यानी पुल्लिंग और स्त्रीलिंग थे । और पुनर्जन्म में भी उसी स्थिति में रहे । स्त्री स्त्री, पुरुष पुरुष ।
इसमें पहला सामान्य ( ज्ञान रहित ) जीव अपनी मृत्यु के समय करीब 54 वर्ष का था । और सरकारी नौकरी में था । उसके दो लङकियां, जो शादीशुदा थीं । और एक उनसे छोटा पुत्र था । पत्नी अभी जीवित थी । बस उल्लेखनीय बात जो पङोसी होने के नाते मैंने अक्सर महसूस की कि वह मृत्यु से पूर्व अजीब सी आदतों से जुङा था । और फ़िर धीरे धीरे पागलपन की तरफ़ बढ गया । फ़िर वह पागल ही हो गया ।
यह इंसान तत्कालीन समय अनुसार बेहतर आर्थिक स्थिति में था । लेकिन भूत प्रेत आदि किस्म की छोटी तन्त्र क्रियाओं में उसकी रुचि थी । और तीर तुक्का छोङने वाले साधु तथा तत्सम्बन्धी साहित्य और सामग्री के साथ ऐसी क्रियाओं में निरन्तर लगा था ।
एक और चीज जो मेरे अनुभव में आयी । उसकी उसी आयु में पराई स्त्रियों के प्रति कामवासना में जबर्दस्त वृद्धि हुयी थी । यद्यपि वह सब उसके आचरण प्रदर्शन में ही थी । उसने किसी स्त्री से सम्पर्की होने या घात करने जैसा कदम कभी नहीं उठाया ।
उन्हीं दिनों टीवी का भारत में नया नया चलन हुआ था । टीवी इक्का दुक्का घरों में ही थे । टीवी देखने और विशेष तौर पर उनमें चलचित्र, गीत, धारावाहिक आदि में प्रदर्शित स्त्री पात्रों को देखकर यह अपना आपा सा खो बैठता था । लेकिन वह आपा खोना सिर्फ़ इतना ही था । जैसे वह स्त्री पात्र को साक्षात महसूस कर रहा हो । और प्रतिक्रिया स्वरूप उन्मादी हंसी या शरीर को अजीब से हिलाना आदि सामान्य क्रियायें ही करता था । अर्थ ये कि अभी वह उस स्त्री की कल्पना बिस्तर पर नहीं करता था ।
पागलपन का यह दौर अपनी शुरूआती अवस्था से लेकर, अन्त में चरम पर पहुँचने तक कोई 10-12 वर्ष का समय लगा । और अन्ततः उसकी मृत्यु हो गयी ।
अब यहाँ उल्लेखनीय यह है कि मरने के समय तक उसके पुत्र की आयु 15 से कुछ ही ऊपर थी । और वह अविवाहित भी था । वह ( मृतक ) व्यक्ति उसके शीघ्र विवाह का इच्छुक था । और दहेज के नाम पर उसे छोटी श्वेत श्याम टीवी ही चाहिये थी । परिजन भी उसकी दिनोंदिन करीब आती मृत्यु को भांप चुके थे । अतः पिता की इच्छा पूर्ण करने हेतु उसके पुत्र की शादी एक गांव से हो गयी । इस शादी के आसानी से होने का कारण अकेला पुत्र, मृतकाश्रित की सरकारी नौकरी, अन्य सरकारी पैसा और बङा मकान होना आदि थे ।
लगभग 5 वर्ष बाद । उसके यहाँ पुत्र का जन्म हुआ । और हैरतअंगेज सा उसका चेहरा उसी मृतक की छवि वाला ही था । सब कहने भी लगे - बाऊजी ही आ गये । मृतक को बाऊजी कहकर ही सभी सम्बोधित करते थे ।
ज्यों ज्यों यह बालक बङा होता गया । उसकी आयु और स्थिति अनुसार उसके सभी हावभाव मृतक से मेल खाते थे । जैसे अपनी इस जन्म की माँ ( अब पुत्रवधू ) के बजाय अपनी पत्नी ( पूर्वजन्म की पत्नी, अब दादी ) से अधिक लगाव, गोद की स्थिति में भी पूर्व जन्म की चीजों को गौर से देखना और उनकी तरफ़ लपकना, कुछ चेष्टा सा करना आदि ।
इसके बाद जब यह बालक घुटनों चलने लायक हुआ । तो और भी प्रमाणित हो गया । यह मृतक के सरकारी कागज पत्र और अपने सभी सामान को उलटता पुलटता सा जैसे कुछ खोजने या याद करने की कोशिश कर रहा हो । ऐसा आचरण करता था ।
यहाँ तर्क की बात यह है कि अन्य वस्तुओं और बाल सुलभ वस्तुओं में इसकी दिलचस्पी नहीं थी । इसके बाद जब कुछ और बङा हुआ । और कुछ कुछ ही बोलना आरम्भ हुआ । तब उसका अन्दाज और शब्द उस आयु के बच्चे के न थे । यह अपनी दादी और पिता से बेहद अधिकारिक अन्दाज में आदेशात्मक ही बोलता था ।
फ़िर धीरे धीरे आयु बढने के साथ यह सामान्य होता गया । पर सूक्ष्म निगाह से देखने पर मृतक के स्वभाव की कई बातें इसमें अभी भी थीं ।
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जो दूसरा पुनर्जन्म का मामला था । इसके बारे में कुछ कारणों से मैं सभी तथ्य नहीं खोल सकता । यह लगभग 50 वर्षीय औरत का था । जो अपने कृशकाय शरीर के चलते और भी अधिक आयु की लगती थी । पर ग्रामीण जीवनशैली के चलते मजबूत स्थिति में थी । इस महिला से मेरा मिलना उस स्थान पर कई बार हुआ । जहाँ ये अक्सर शाम को पशु घुमाने चराने लाती थी । अगर इस महिला की मानसिक स्थिति का आंकलन किया जाये । तो यह समय से बहुत पीछे थी । और पारम्परिक पूजा पाठ के भी सही तौर तरीके नहीं जानती थी । इसके दो युवा पुत्र एक पुत्री थे । और पति भी जीवित थे ।
प्रभु की कोई कृपा से यह संयोग बना होगा कि उसने मुझसे पूछा कि - मरणोपरान्त के लिये जो तीर्थ वृत पुण्य धर्म आदि किये जाते हैं । उनमें से कुछ करने की उसकी बेहद इच्छा है । लेकिन परिजनों का ऐसा कोई भाव अथवा माहौल नहीं है । और खास पति तो उपहास ही करता है । कुछ आर्थिक सहयोग करना तो दूर की बात है ।
मुझे भी अलग से कुछ करना नहीं था । उसकी बौद्धिक क्षमता के अनुसार मैं सतसंग आदि चर्चाओं के द्वारा उसका भक्ति भाव ( या आवश्यक भक्ति पदार्थ ) बढाता रहा । उसे ये सब सुनना सुखद लगता था । और फ़िर कुछ ऐसी परमात्म कृपा हुयी । उसकी हंसदीक्षा हो गयी ।
इसके बाद मैं फ़िर से बाहर चला गया । और कोई दो वर्ष बाद आया । तो उसकी कुछ दिनों की बीमारी के बाद मृत्यु हो चुकी थी ।
इसके कुछ ही महीने बाद मृतक महिला की पुत्रवधू गर्भवती हुयी । और नियत समय पर उसने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया ।
उल्लेखनीय यह था । उस दम्पत्ति के अन्य बच्चों की तुलना में इस बच्चे में एक दैवीय आभा सी थी । एक अनोखी चमक सी । और न जाने क्यों, यह कन्या उसकी जन्मदात्री को अन्य बच्चों से अधिक प्रिय थी । लेकिन जन्म के एक डेढ साल तक यह अक्सर बीमार रही । लेकिन फ़िर पूर्णतया स्वस्थ हो गयी ।
दरअसल ये परिवार शिक्षा आदि को लेकर आम परिवारों जैसा भी जागरूक नहीं था । अतः पुनर्जन्म और मृतक सास ही अपनी पुत्रवधू के गर्भ से जन्म लेगी । यह तो वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे ।
अब इन दोनों पुनर्जन्म घटनाओं में जो खास था । वह यह कि पिता अपने ही सगे पुत्र के पुत्र रूप में पैदा हुआ था । और माता अपने ही सगे पुत्र के पुत्री रूप में पैदा हुयी थी ।
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पारलौकिक से सम्बन्ध रखती ऐसी घटनाओं को देखना जानना बङा अजीब सा लगता है । कोई इस जन्म से परदे के पीछे मृत्यु के माध्यम से गया । और नये जन्म के माध्यम से आ गया । और दोनों को ही किसी ने साक्षात जाना हो । ये सामान्य नहीं ।
हंसदीक्षा प्राप्त स्त्री का दोबारा मानव जन्म मेरे लिये आश्चर्य का विषय नहीं था । वह तो होना ही था । पर इन दोनों केसों में जो ‘कामन’ और शोध की बात थी । वो यह कि मृत्यु से पूर्व पुरुष पागलपन की सी स्थिति में था । और दूसरी स्त्री लगभग अबोध जैसी ।
गहराई से समझें । इन्हें, हमारी मृत्यु हो जायेगी । हो जायेगी । तो फ़िर ये होगा या वो होगा । जैसी न कोई सुखद कल्पना थी । न ही मृत्यु या मृत्युपरांत की धारणाओं को लेकर भय ।
अतः 84 लाख योनियों के जीवन चक्र और हंसदीक्षा के बाद भी पुनः तुरन्त मनुष्य जीवन हेतु जो कुछ आवश्यकतायें नियमानुसार अपेक्षित होती हैं । उसके प्रति ये दोनों अपवाद थे । और यह ‘जहाँ आसा वहाँ वासा’ तथा ‘अन्त मता सोई गता’ सिद्धांत पर खरे उतरते थे ।
यहाँ कोई झूठी खुशफ़हमी न पाल लेना कि फ़िर तो सबके ही साथ ऐसा हो सकता है । मैंने ‘अपवाद’ यों ही नहीं कहा । क्योंकि न तो आप चाहने से पागल हो सकते हैं । और न ही अपनी बुद्धि क्षमता को सिर्फ़ मनुष्य जन्म के लिये ‘शून्य’ कर सकते हैं । इन दोनों के लिये यह स्वाभाविक था । कृतिम नहीं ।
मैंने स्वयं इस सबको बेहद गौर से देखा । और इसीलिये ऊपर उल्लेख भी किया ।
दरअसल पागल व्यक्ति मर के भी नहीं मरा था । वह अपनी पूर्ण सक्रियता के साथ उसी परिवार से जुङा था । और अपनी पूर्ण भूमिका में था । जैसा कि मरने वाले के सामने स्वतः ही सैकङों हजारों वैचारिक छवियां, इच्छायें सक्रिय हो जाती हैं । इनके साथ ऐसा नहीं था ।
एक और खास बात थी कि इन दोनों की ही ‘वह जन्म’ आयु अभी शेष थी । और ये किसी भी प्रकार के पापाचरण में आजीवन लिप्त नहीं थे । जिस कारण से आयु क्षीण हो जाती । अतः ये उस सख्त नियम को अवश्य पूरा करते थे । जिसके अनुसार एक सांस भी अतिरिक्त नहीं मिल सकती । और अभी उनकी सांसे शेष थीं ।
कर्मगति की पूर्ण कार्यप्रणाली को बता पाना बेहद दुष्कर कार्य है । पर संक्षेप में, कोई भी जीवात्मा जब शरीर को मृत्यु द्वारा त्यागता है । तो भय मिश्रित बहुत ही हङबङाहट जैसी स्थिति में होता है । अब जिनके कर्म नीच रहे होते हैं । उनके सामने तो कोई विकल्प ही नहीं होता । नर्क आदि गतियां होने तक ये यमदूतों के प्रशासनिक नियंत्रण में रहते हैं ।
लेकिन जो 84 लाख तिर्यक योनि को पाते हैं । उनके सामने 4-5 पशु पक्षी आदि शरीरों का विकल्प होता है । शरीर पाने की जल्दी में वह उनमें से एक को चुन लेता है ।
तो ऊपर जैसे मगर सामान्य केसों में लगभग एक चुम्बकत्व की भांति सबसे पहले कुत्ता योनि को जीव प्राप्त होता है । यदि अभी उसका खाना दाना अभी के परिवार में शेष है । दूसरी बात यह है कि अपना कर्ज लेने के साथ साथ वह श्वान शरीर में अपने परिजनों के अधिक सम्पर्क में रहता है । इसके बाद घर ही में या आसपास पाये जाने वाले बिल्ली चूहा भैंस बकरी छिपकली आदि जीव, वासना और स्वभाव से बने कर्म पदार्थ अनुसार होते हैं । और परस्पर जीव कर्जे का व्यवहारिक लेन देन पूर्ण करते हैं ।
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इस लेख में जहाँ आपको समझ में न आया हो । अथवा कोई प्रश्न हो । कृपया मुझे ब्लाग के हेडर फ़ोटो पर लिखे मेल आई डी पर पूछें । आपकी जिज्ञासा का विस्त्रत वैज्ञानिक समाधान होगा ।
अतः यह कहना यह सब मेरे लिये ही सुलभ है । गलत है । इस विधा से जुङे किसी के भी लिये यह संभव है ।
जैसा कि मेरा स्वभाव रहा । मैं सदैव ही स्वय़ं द्वारा अनुभूत विषयों को लिखना अधिक पसन्द करता हूँ । जिन पर मैं अधिकारिक तौर से कह सकता हूँ । अब तक के मेरे 47 वर्षीय जीवन में एक दर्जन के लगभग पुनर्जन्म के मामले प्रत्यक्ष हुये । जिनका ध्यान से, सीधा सम्बन्ध नहीं था । और व्यवहारिक, बाह्य रूप से अन्य सामान्य लोगों को भी वह एकदम सत्य प्रतीत हुये ।
इस लेख हेतु मैंने जिन दो मामलों को चुना । वह आम पुनर्जन्म के मामले से भिन्न थे । और चिन्तन मनन हेतु उपर्युक्त थे । उनमें एक असली हंसदीक्षा प्राप्त था । और दूसरा व्यक्ति सामान्य जीव था । एक और बात थी । जो जीवन रहस्यों को उजागर करती है । ये दोनों अलग अलग यानी पुल्लिंग और स्त्रीलिंग थे । और पुनर्जन्म में भी उसी स्थिति में रहे । स्त्री स्त्री, पुरुष पुरुष ।
इसमें पहला सामान्य ( ज्ञान रहित ) जीव अपनी मृत्यु के समय करीब 54 वर्ष का था । और सरकारी नौकरी में था । उसके दो लङकियां, जो शादीशुदा थीं । और एक उनसे छोटा पुत्र था । पत्नी अभी जीवित थी । बस उल्लेखनीय बात जो पङोसी होने के नाते मैंने अक्सर महसूस की कि वह मृत्यु से पूर्व अजीब सी आदतों से जुङा था । और फ़िर धीरे धीरे पागलपन की तरफ़ बढ गया । फ़िर वह पागल ही हो गया ।
यह इंसान तत्कालीन समय अनुसार बेहतर आर्थिक स्थिति में था । लेकिन भूत प्रेत आदि किस्म की छोटी तन्त्र क्रियाओं में उसकी रुचि थी । और तीर तुक्का छोङने वाले साधु तथा तत्सम्बन्धी साहित्य और सामग्री के साथ ऐसी क्रियाओं में निरन्तर लगा था ।
एक और चीज जो मेरे अनुभव में आयी । उसकी उसी आयु में पराई स्त्रियों के प्रति कामवासना में जबर्दस्त वृद्धि हुयी थी । यद्यपि वह सब उसके आचरण प्रदर्शन में ही थी । उसने किसी स्त्री से सम्पर्की होने या घात करने जैसा कदम कभी नहीं उठाया ।
उन्हीं दिनों टीवी का भारत में नया नया चलन हुआ था । टीवी इक्का दुक्का घरों में ही थे । टीवी देखने और विशेष तौर पर उनमें चलचित्र, गीत, धारावाहिक आदि में प्रदर्शित स्त्री पात्रों को देखकर यह अपना आपा सा खो बैठता था । लेकिन वह आपा खोना सिर्फ़ इतना ही था । जैसे वह स्त्री पात्र को साक्षात महसूस कर रहा हो । और प्रतिक्रिया स्वरूप उन्मादी हंसी या शरीर को अजीब से हिलाना आदि सामान्य क्रियायें ही करता था । अर्थ ये कि अभी वह उस स्त्री की कल्पना बिस्तर पर नहीं करता था ।
पागलपन का यह दौर अपनी शुरूआती अवस्था से लेकर, अन्त में चरम पर पहुँचने तक कोई 10-12 वर्ष का समय लगा । और अन्ततः उसकी मृत्यु हो गयी ।
अब यहाँ उल्लेखनीय यह है कि मरने के समय तक उसके पुत्र की आयु 15 से कुछ ही ऊपर थी । और वह अविवाहित भी था । वह ( मृतक ) व्यक्ति उसके शीघ्र विवाह का इच्छुक था । और दहेज के नाम पर उसे छोटी श्वेत श्याम टीवी ही चाहिये थी । परिजन भी उसकी दिनोंदिन करीब आती मृत्यु को भांप चुके थे । अतः पिता की इच्छा पूर्ण करने हेतु उसके पुत्र की शादी एक गांव से हो गयी । इस शादी के आसानी से होने का कारण अकेला पुत्र, मृतकाश्रित की सरकारी नौकरी, अन्य सरकारी पैसा और बङा मकान होना आदि थे ।
लगभग 5 वर्ष बाद । उसके यहाँ पुत्र का जन्म हुआ । और हैरतअंगेज सा उसका चेहरा उसी मृतक की छवि वाला ही था । सब कहने भी लगे - बाऊजी ही आ गये । मृतक को बाऊजी कहकर ही सभी सम्बोधित करते थे ।
ज्यों ज्यों यह बालक बङा होता गया । उसकी आयु और स्थिति अनुसार उसके सभी हावभाव मृतक से मेल खाते थे । जैसे अपनी इस जन्म की माँ ( अब पुत्रवधू ) के बजाय अपनी पत्नी ( पूर्वजन्म की पत्नी, अब दादी ) से अधिक लगाव, गोद की स्थिति में भी पूर्व जन्म की चीजों को गौर से देखना और उनकी तरफ़ लपकना, कुछ चेष्टा सा करना आदि ।
इसके बाद जब यह बालक घुटनों चलने लायक हुआ । तो और भी प्रमाणित हो गया । यह मृतक के सरकारी कागज पत्र और अपने सभी सामान को उलटता पुलटता सा जैसे कुछ खोजने या याद करने की कोशिश कर रहा हो । ऐसा आचरण करता था ।
यहाँ तर्क की बात यह है कि अन्य वस्तुओं और बाल सुलभ वस्तुओं में इसकी दिलचस्पी नहीं थी । इसके बाद जब कुछ और बङा हुआ । और कुछ कुछ ही बोलना आरम्भ हुआ । तब उसका अन्दाज और शब्द उस आयु के बच्चे के न थे । यह अपनी दादी और पिता से बेहद अधिकारिक अन्दाज में आदेशात्मक ही बोलता था ।
फ़िर धीरे धीरे आयु बढने के साथ यह सामान्य होता गया । पर सूक्ष्म निगाह से देखने पर मृतक के स्वभाव की कई बातें इसमें अभी भी थीं ।
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जो दूसरा पुनर्जन्म का मामला था । इसके बारे में कुछ कारणों से मैं सभी तथ्य नहीं खोल सकता । यह लगभग 50 वर्षीय औरत का था । जो अपने कृशकाय शरीर के चलते और भी अधिक आयु की लगती थी । पर ग्रामीण जीवनशैली के चलते मजबूत स्थिति में थी । इस महिला से मेरा मिलना उस स्थान पर कई बार हुआ । जहाँ ये अक्सर शाम को पशु घुमाने चराने लाती थी । अगर इस महिला की मानसिक स्थिति का आंकलन किया जाये । तो यह समय से बहुत पीछे थी । और पारम्परिक पूजा पाठ के भी सही तौर तरीके नहीं जानती थी । इसके दो युवा पुत्र एक पुत्री थे । और पति भी जीवित थे ।
प्रभु की कोई कृपा से यह संयोग बना होगा कि उसने मुझसे पूछा कि - मरणोपरान्त के लिये जो तीर्थ वृत पुण्य धर्म आदि किये जाते हैं । उनमें से कुछ करने की उसकी बेहद इच्छा है । लेकिन परिजनों का ऐसा कोई भाव अथवा माहौल नहीं है । और खास पति तो उपहास ही करता है । कुछ आर्थिक सहयोग करना तो दूर की बात है ।
मुझे भी अलग से कुछ करना नहीं था । उसकी बौद्धिक क्षमता के अनुसार मैं सतसंग आदि चर्चाओं के द्वारा उसका भक्ति भाव ( या आवश्यक भक्ति पदार्थ ) बढाता रहा । उसे ये सब सुनना सुखद लगता था । और फ़िर कुछ ऐसी परमात्म कृपा हुयी । उसकी हंसदीक्षा हो गयी ।
इसके बाद मैं फ़िर से बाहर चला गया । और कोई दो वर्ष बाद आया । तो उसकी कुछ दिनों की बीमारी के बाद मृत्यु हो चुकी थी ।
इसके कुछ ही महीने बाद मृतक महिला की पुत्रवधू गर्भवती हुयी । और नियत समय पर उसने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया ।
उल्लेखनीय यह था । उस दम्पत्ति के अन्य बच्चों की तुलना में इस बच्चे में एक दैवीय आभा सी थी । एक अनोखी चमक सी । और न जाने क्यों, यह कन्या उसकी जन्मदात्री को अन्य बच्चों से अधिक प्रिय थी । लेकिन जन्म के एक डेढ साल तक यह अक्सर बीमार रही । लेकिन फ़िर पूर्णतया स्वस्थ हो गयी ।
दरअसल ये परिवार शिक्षा आदि को लेकर आम परिवारों जैसा भी जागरूक नहीं था । अतः पुनर्जन्म और मृतक सास ही अपनी पुत्रवधू के गर्भ से जन्म लेगी । यह तो वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे ।
अब इन दोनों पुनर्जन्म घटनाओं में जो खास था । वह यह कि पिता अपने ही सगे पुत्र के पुत्र रूप में पैदा हुआ था । और माता अपने ही सगे पुत्र के पुत्री रूप में पैदा हुयी थी ।
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पारलौकिक से सम्बन्ध रखती ऐसी घटनाओं को देखना जानना बङा अजीब सा लगता है । कोई इस जन्म से परदे के पीछे मृत्यु के माध्यम से गया । और नये जन्म के माध्यम से आ गया । और दोनों को ही किसी ने साक्षात जाना हो । ये सामान्य नहीं ।
हंसदीक्षा प्राप्त स्त्री का दोबारा मानव जन्म मेरे लिये आश्चर्य का विषय नहीं था । वह तो होना ही था । पर इन दोनों केसों में जो ‘कामन’ और शोध की बात थी । वो यह कि मृत्यु से पूर्व पुरुष पागलपन की सी स्थिति में था । और दूसरी स्त्री लगभग अबोध जैसी ।
गहराई से समझें । इन्हें, हमारी मृत्यु हो जायेगी । हो जायेगी । तो फ़िर ये होगा या वो होगा । जैसी न कोई सुखद कल्पना थी । न ही मृत्यु या मृत्युपरांत की धारणाओं को लेकर भय ।
अतः 84 लाख योनियों के जीवन चक्र और हंसदीक्षा के बाद भी पुनः तुरन्त मनुष्य जीवन हेतु जो कुछ आवश्यकतायें नियमानुसार अपेक्षित होती हैं । उसके प्रति ये दोनों अपवाद थे । और यह ‘जहाँ आसा वहाँ वासा’ तथा ‘अन्त मता सोई गता’ सिद्धांत पर खरे उतरते थे ।
यहाँ कोई झूठी खुशफ़हमी न पाल लेना कि फ़िर तो सबके ही साथ ऐसा हो सकता है । मैंने ‘अपवाद’ यों ही नहीं कहा । क्योंकि न तो आप चाहने से पागल हो सकते हैं । और न ही अपनी बुद्धि क्षमता को सिर्फ़ मनुष्य जन्म के लिये ‘शून्य’ कर सकते हैं । इन दोनों के लिये यह स्वाभाविक था । कृतिम नहीं ।
मैंने स्वयं इस सबको बेहद गौर से देखा । और इसीलिये ऊपर उल्लेख भी किया ।
दरअसल पागल व्यक्ति मर के भी नहीं मरा था । वह अपनी पूर्ण सक्रियता के साथ उसी परिवार से जुङा था । और अपनी पूर्ण भूमिका में था । जैसा कि मरने वाले के सामने स्वतः ही सैकङों हजारों वैचारिक छवियां, इच्छायें सक्रिय हो जाती हैं । इनके साथ ऐसा नहीं था ।
एक और खास बात थी कि इन दोनों की ही ‘वह जन्म’ आयु अभी शेष थी । और ये किसी भी प्रकार के पापाचरण में आजीवन लिप्त नहीं थे । जिस कारण से आयु क्षीण हो जाती । अतः ये उस सख्त नियम को अवश्य पूरा करते थे । जिसके अनुसार एक सांस भी अतिरिक्त नहीं मिल सकती । और अभी उनकी सांसे शेष थीं ।
कर्मगति की पूर्ण कार्यप्रणाली को बता पाना बेहद दुष्कर कार्य है । पर संक्षेप में, कोई भी जीवात्मा जब शरीर को मृत्यु द्वारा त्यागता है । तो भय मिश्रित बहुत ही हङबङाहट जैसी स्थिति में होता है । अब जिनके कर्म नीच रहे होते हैं । उनके सामने तो कोई विकल्प ही नहीं होता । नर्क आदि गतियां होने तक ये यमदूतों के प्रशासनिक नियंत्रण में रहते हैं ।
लेकिन जो 84 लाख तिर्यक योनि को पाते हैं । उनके सामने 4-5 पशु पक्षी आदि शरीरों का विकल्प होता है । शरीर पाने की जल्दी में वह उनमें से एक को चुन लेता है ।
तो ऊपर जैसे मगर सामान्य केसों में लगभग एक चुम्बकत्व की भांति सबसे पहले कुत्ता योनि को जीव प्राप्त होता है । यदि अभी उसका खाना दाना अभी के परिवार में शेष है । दूसरी बात यह है कि अपना कर्ज लेने के साथ साथ वह श्वान शरीर में अपने परिजनों के अधिक सम्पर्क में रहता है । इसके बाद घर ही में या आसपास पाये जाने वाले बिल्ली चूहा भैंस बकरी छिपकली आदि जीव, वासना और स्वभाव से बने कर्म पदार्थ अनुसार होते हैं । और परस्पर जीव कर्जे का व्यवहारिक लेन देन पूर्ण करते हैं ।
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इस लेख में जहाँ आपको समझ में न आया हो । अथवा कोई प्रश्न हो । कृपया मुझे ब्लाग के हेडर फ़ोटो पर लिखे मेल आई डी पर पूछें । आपकी जिज्ञासा का विस्त्रत वैज्ञानिक समाधान होगा ।
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