21 अप्रैल 2018

गूढ़ शब्द


सारनाम या सारशब्द वह मूल-ध्वनि है, 
जो आदि-सृष्टि के समय ‘आत्मा’ में उठने वाली पहली आवाज थी।
यही गुप्त है। इसी के प्रकंपन से सृष्टि की समस्त जङ, चेतन वस्तुयें
वृद्धि और हास को प्राप्त होती हैं।
वृद्धि और हास का यह क्रम हर क्षण और निरन्तर है।
सिर्फ़ अपनी ‘वास्तविक पहचान’ भूलने और स्व-स्थ के बजाय
मन-स्थ होने से ऐसा अहसास होता है। जैसे ही स्व-स्थ होंगे,
मनस्थ जो दरअसल कुछ है ही नहीं, खत्म हो जायेगा।
और यह नींद, स्वपन टूटने जैसा होगा।
स्व-पन (हमारी ही क्रियेट की अवस्था)
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दुनियां में फ़ंसकर वीरान हो रहा है।
खुद को भूलकर हैरान हो रहा है॥



॥परमात्मा॥ को
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हिन्दू शास्त्रों (ब्रह्मसूत्र) में ब्रह्मसूर्य तथा रूप को ‘ब्रह्मज्योति’ कहा।
(जिसे ज्ञान-दृष्टि से अनुभव किया जाता है।)
गुरूग्रन्थ साहिब में ॐकार, तथा रूप को चांदना कहा।
(जो अंतर की आंख से दिखायी देता है।)
वेदों में उसके रूप को ‘भर्गो ज्योति’ कहा।
(जिसे ‘उपनयन’ अर्थात अन्तरदृष्टि से अनुभव किया जाता है।)
गीता में उसे परमात्म तत्व कहा है। 
बाइबिल में ‘गाड’ कहा है तथा उसके रूप को डिवाइन लाइट।
(जो ‘थर्ड-आई’ अर्थात तीसरे नेत्र से अनुभव में आता है।)
कुर’आन में ‘अल्लाह’ तथा रूप को ‘नूर’ कहा है।
(जो चश्मे-वसीरत से नजर आता है।)


रवि पंचक जाके नहीं, ताहि चतुर्थी नाहिं।
तेहि सप्तक घेरे रहे, कबहुँ तृतीया नाहिं॥(रामचरित मानस)
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रवि पंचक..रवि से पाँचवाँ यानी गुरूवार (रवि, सोम, मंगल, बुद्ध, गुरू)
अर्थात जिनको गुरू नहीं है, तो उसको चतुर्थी नहीं होगी।
चतुर्थी यानी बुध (रवि, सोम, मंगल, बुध) अर्थात बुद्धि नहीं आयेगी।
बुद्धि न होने के कारण उसे ‘तेहि सप्तक घेरे रहे’
सप्तक..शनि (रवि, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि)
अर्थात उसको शनि घेरकर रखेगा।
और ‘कबहुँ तृतीया नाहिं।’
तृतीया..मंगल (रवि, सोम, मंगल)
(उसके जीवन में मंगल नहीं होगा।)

जिसके जीवन में गुरू नहीं। 
उसका जीवन अभी शुरू नहीं॥
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पर्वत ऊपर हर बहै, घोड़ा चढ़ि बसै गाँव।
बिना फूल भौरा रस चाहें, कहु बिरवा को नाँव॥ 
(बीजक साखी-36)

पर्वत पर हल चलाना, घोड़े पर चढ़कर (उस पर) गांव बसाना,
और (मन) भौंरा बिना फ़ूल के ही रस चाहे,
तो उस वृक्ष का नाम क्या हो सकता है?

10 अप्रैल 2018

परिचय को अंग



पिव परिचय तब जानिये, पिव सों हिलमिल होय।
पिव की लाली मुख परै, परगट दीसै सोय॥

लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल।
लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गई लाल॥

जिन पांवन भुईं बहु फ़िरै, घूमें देस विदेस।
पिया मिलन जब होईया, आंगन भया विदेस॥

उलटि समानी आप में, प्रगटी जोति अनंत।
साहिब सेवक एक संग, खेलें सदा बसंत॥

जोगी हुआ झक लगी, मिटि गइ ऐंचातान।
उलटि समाना आप में, हुआ ब्रह्म समान॥

हम वासी वा देस के, जहाँ पुरुष की आन।
दुख सुख कोइ व्यापै नहीं, सब दिन एक समान॥

हम वासी वा देस के, बारह मास बसंत।
नीझर झरै महा अमी, भीजत हैं सब संत॥

हम वासी वा देस के, गगन धरन दुइ नांहि।
भौंरा बैठा पंख बिन, देखौ पलकों मांहि॥

हम वासी वा देस के, जहाँ ब्रह्म का कूप।
अविनासी बिनसै नहीं, आवै जाय सरूप॥

हम वासी वा देस के, आदि पुरुष का खेल।
दीपक देखा गैब का, बिन बाती बिन तेल॥

हम वासी वा देस के, बारह मास विलास।
प्रेम झरै बिगसै कमल, तेजपुंज परकास॥

हम वासी वा देस के, जाति वरन कुल नांहि।
सब्द मिलावा ह्वै रहा, देह मिलावा नांहि॥

हम वासी वा देस के, रूप वरन कछु नांहि।
सैन मिलावा ह्वै रहा, शब्द मिलावा नांहि॥

हम वासी वा देस के, पिंड ब्रह्मंड कछु नांहि।
आपा पर दोइ बिसरा, सैन मिलावा नांहि॥

हम वासी वा देस के, गाजि रहा ब्रह्मंड।
अनहद बाजा बाजिया, अविचल जोत अखंड॥

संसै करौं न मैं डरौं, सब दुख दिये निवार।
सहज सुन्न में घर किया, पाया नाम अधार॥

बिन पांवन का पंथ है, बिन बस्ती का देस।
बिना देह का पुरुष है, कहैं कबीर संदेस॥

नौन गला पानी मिला, बहुरि न भरिहै गौन।
सुरति सब्द मेला भया, काल रहा गहि मौन॥

हिल मिल खेले सब्द सों, अन्तर रही न रेख।
समझै का मत एक है, क्या पंडित क्या सेख॥

अलख लखा लालच लगा, कहत न आवै बैन।
निज मन धसा सरूप में, सदगुरू दीन्ही सैन॥

कहना था सो कहि दिया, अब कछु कहा न जाय।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय॥

जो कोइ समझै सैन में, तासों कहिये धाय।
सैन बैन समझे नहीं, तासों कहै बलाय॥

पिंजर प्रेम प्रकासिया, जागी जोति अनंत।
संसै छूटा भय मिटा, मिला पियारा कंत॥

उनमुनि लागी सुन्न में, निसदिन रहि गलतान।
तन मन की कछु सुधि नहीं, पाया पद निरबान॥

उनमुनि चढ़ी अकास को, गई धरनि सें छूट।
हंस चला घर आपने, काल रहा सिर कूट॥

उनमुनि सों मन लागिया, गगनहि पहुँचा जाय।
चांद बिहूना चांदना, अलख निरंजन राय॥

उनमुनि सों मन लागिया, उनमुनि नहीं बिलंगि।
लौन बिलंग्या पानिया, पानी नौन बिलगि॥

पानी ही ते हिम भया, हिम ही गया बिलाय।
जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाय॥

मेरी मिटि मुक्ता भया, पाया अगम निवास।
अब मेरे दूजा नही, एक तुम्हारी आस॥

सुरति समानी निरति में, अजपा माही जाप।
लेख समाना अलेख में, आपा माही आप॥

सुरति समानी निरति में, निरति रही निरधार।
सुरति निरति परिचय भया, खुल गया सिंधु दुवार॥

गुरू मिले सीतल भया, मिटी मोह तन ताप।
निस बासर सुख निधि लहूं, अन्तर प्रगटे आप॥

सुचि पाया सुख ऊपजा, दिल दरिया भरपूर।
सकल पाप सहजै गया, साहिब मिले हजूर॥

तत पाया तन बीसरा, मन धाया धरि ध्यान।
तपन मिटी सीतल भया, सुन्न किया अस्थान॥

कौतुक देखा देह बिना, रवि ससि बिना उजास।
साहेब सेवा माहीं है, बेपरवाही दास॥

नेव बिहूंना देहरा, देह बिहूना देव।
कबीर तहाँ बिलंबिया, करै अलख की सेव॥

देवल मांहि देहुरी, तिल जैसा विस्तार।
माहीं पाती फ़ूल जल, माहीं पूजनहार॥ 

पवन नहीं पानी नहीं, नहि धरनी आकास।
तहाँ कबीरा संतजन, साहिब पास खवास॥

अगुवानी तो आइया, ज्ञान विचार विवेक।
पीछै हरि भी आयेंगे, सारे सौंज समेत॥

पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान।
कहिबे की सोभा नही, देखै ही परमान॥

सुरज समाना चांद में, दोउ किया घर एक।
मन का चेता तब भया, पुरब जनम का लेख॥

पिंजर प्रेम प्रकासिया, अंतर भया उजास।
सुख करि सूती महल में, बानी फ़ूटी वास॥

आया था संसार में, देखन को बहुरूप।
कहै कबीरा संत हो, परि गया नजर अनूप॥

पाया था सो गहि रहा, रसना लागी स्वाद।
रतन निराला पाइया, जगत ठठोला बाद॥

हिम से पानी ह्वै गया, पानी हुआ आप।
जो पहिले था सो भया, प्रगटा आपहि आप॥

कुछ करनी कुछ करम गति, कुछ पुरबले लेख।
देखो भाग कबीर का, लेख से भया अलेख॥

जब मैं था तब गुरू नहीं, अब गुरू हैं मैं नाहिं।
कबीर नगरी एक में, दो राजा न समांहि॥

मैं जाना मैं और था, मैं तजि ह्वै गय सोय।
मैं तैं दोऊ मिटि गये, रहे कहन को दोय॥

अगम अगोचर गम नहीं, जहाँ झिलमिली जोत।
तहाँ कबीरा रमि रहा, पाप पुन्न नहि छोत॥

कबीर तेज अनंत का, मानो सूरज सैन।
पति संग जागी सुन्दरी, कौतुक देखा नैन॥

कबीर देखा एक अंग, महिमा कही न जाय।
तेजपुंज परसा धनी, नैनों रहा समाय॥

कबीर कमल प्रकासिया, ऊगा निरमल सूर।
रैन अंधेरी मिटि गई, बाजै अनहद तूर॥

कबीर मन मधुकर भया, करै निरन्तर बास।
कमल खिला है नीर बिन, निरखै कोइ निज दास॥

कबीर मोतिन की लङी, हीरों का परकास।
चांद सूर की गम नही, दरसन पाया दास॥

कबीर दिल दरिया मिला, पाया फ़ल समरत्थ।
सायर मांहि ढिंढोरता, हीरा चढ़ि गया हत्थ॥

कबीर जब हम गावते, तब जाना गुरू नांहि।
अब गुरू दिल में देखिया, गावन को कछु नांहि॥

कबीर दिल दरिया मिला, बैठा दरगह आय।
जीव ब्रह्म मेला भया, अब कछु कहा न जाय॥

कबीर कंचन भासिया, ब्रह्म वास जहाँ होय।
मन भौंरा तहाँ लुब्धिया, जानेगा जन कोय॥

गगन गरजि बरसै अमी, बादल गहिर गम्भीर।
चहुँदिस दमके दामिनी, भीजै दास कबीर॥

गगन मंडल के बीच में, झलकै सत का नूर।
निगुरा गम पावै नहीं, पहुँचै गुरूमुख सूर॥

गगन मंडल के बीच में, महल पङा इक चीन्हि।
कहै कबीर सो पावई, जिहि गुरू परचै दीन्हि॥

गगन मंडल के बीच में, बिना कलम की छाप।
पुरुष तहाँ एक रमि रहा, नहीं मन्त्र नहि जाप॥

गगन मंडल के बीच में, तुरी तत्त इक गांव।
लच्छ निसाना रूप का, परखि दिखाया ठांव॥

गगन मंडल के बीच में, जहाँ सोहंगम डोर।
सब्द अनाहद होत है, सुरति लगी तहँ मोर॥

गरजै गगन अमी चुवै, कदली कमल प्रकास।
तहाँ कबीरा संतजन, सत्तपुरुष के पास॥

गरजै गगन अमी चुवै, कदली कमल प्रकास।
तहाँ कबीरा बंदगी, कर कोई निजदास॥

दीपक जोया ज्ञान का, देखा अपरम देव।
चार वेद की गम नहीं, तहाँ कबीरा सेव॥

मान सरोवर सुगम जल, हंसा केलि कराय।
मुक्ताहल मोती चुगै, अब उङि अंत न जाय॥

सुन्न महल में घर किया, बाजै सब्द रसाल।
रोम रोम दीपक भया, प्रगटै दीन दयाल॥

पूरे से परिचय भया, दुख सुख मेला दूर।
जम सों बाकी कटि गई, साईं मिला हजूर॥70

परिचय को अंग 2



सुरति उङानी गगन को, चरन बिलंबी जाय।
सुख पाया साहेब मिला, आनंद उर न समाय॥

जा वन सिंघ न संचरै, पंछी उङि नहि जाय।
रैन दिवस की गमि नही, रहा कबीर समाय॥

सीप नही सायर नही, स्वाति बूंद भी नांहि।
कबीर मोती नीपजै, सुन्न सरवर घट मांहि॥

काया सिप संसार में, पानी बूंद सरीर।
बिना सीप के मोतिया, प्रगटे दास कबीर॥

घट में औघट पाइया, औघट माहीं घाट।
कहैं कबीर परिचय भया, गुरू दिखाई बाट॥

जा कारन मैं जाय था, सो तो मिलिया आय।
साईं ते सनमुख भया, लगा कबीरा पाय।

जा कारन मैं जाय था, सो तो पाया ठौर।
सो ही फ़िर आपन भया, को कहता और॥

जा दिन किरतम ना हता, नहीं हाट नहि बाट।
हता कबीरा संतजन, देखा औघट घाट॥

नहीं हाट नहि बाट था, नही धरति नहि नीर।
असंख जुग परलै गया, तबकी कहैं कबीर॥

चाँद नहीं सूरज नहीं, हता नही ओंकार।
तहाँ कबीरा संतजन, को जानै संसार॥

धरति गगन पवनै नही, नहि होते तिथि वार।
तब हरि के हरिजन हुते, कहैं कबीर विचार॥

धरति हती नहि पग धरूं, नीर हता नहि न्हाऊं।
माता ते जनम्या नहीं, क्षीर कहाँ ते खाऊं॥

अगन नहीं जहँ तप करूं, नीर नहि तहँ न्हाऊं।
धरती नहीं जहँ पग धरूं, गगन नहिं तहँ जाऊं॥

पांच तत्व गुन तीन के, आगे मुक्ति मुकाम।
तहाँ कबीरा घर किया, गोरख दत्त न राम॥

सुर नर मुनिजन औलिया, ये सब उरली तीर।
अलह राम की गम नहीं, तहँ घर किया कबीर॥

सुर नर मुनिजन देवता, ब्रह्मा विस्नु महेस।
ऊंचा महल कबीर का, पार न पावै सेस॥

जब दिल मिला दयाल सों, तब कछु अंतर नांहि।
पाला गलि पानी भया, यौं हरिजन हरि मांहि॥

ममता मेरा क्या करै, प्रेम उघारी पोल।
दरसन भया दयाल का, सूल भई सुख सोल॥

सुन्न सरोवर मीन मन, नीर निरंजन देव।
सदा समूह सुख बिलसिया, बिरला जानै भेव॥

सुन्न सरोवर मीन मन, नीर तीर सब देव।
सुधा सिंधु सुख बिलसहीं, बिरला जाने भेव॥

लौन गला पानी मिला, बहुरि न भरिहै गून।
हरिजन हरि सों मिल रहा, काल रहा सिर धुन॥

गुन इन्द्री सहजे गये, सदगुरू करी सहाय।
घट में नाम प्रगट भया, बकि बकि मरै बलाय॥

जब लग पिय परिचय नहीं, कन्या क्वारी जान।
हथ लेवो हूं सालियो, मुस्किल पङि पहिचान॥

सेजै सूती रग रम्हा, मांगा मान गुमान।
हथ लेवो हरि सूं जुर्यो, अखै अमर वरदान॥

पूरे सों परिचय भया, दुख सुख मेला दूर।
निरमल कीन्ही आतमा, ताते सदा हजूर॥

मैं लागा उस एक सों, एक भया सब मांहि।
सब मेरा मैं सबन का, तहाँ दूसरा नांहि॥

भली भई जो भय पङी, गई दिसा सब भूल।
पाला गलि पानी भया, ढूलि मिला उस कूल॥

चितमनि पाई चौहटे, हाङी मारत हाथ।
मीरां मुझ पर मिहर करि, मिला न काहू साथ॥

बरसि अमृत निपज हिरा, घटा पङे टकसार।
तहाँ कबीरा पारखी, अनुभव उतरै पार॥

मकर तार सों नेहरा, झलकै अधर विदेह।
सुरति सोहंगम मिलि रहि, पल पल जुरै सनेह॥

ऐसा अविगति अलख है, अलख लखा नहि जाय।
जोति सरूपी राम है, सब में रह्यो समाय॥

मिलि गय नीर कबीर सों, अंतर रही न रेख।
तीनों मिलि एकै भया, नीर कबीर अलेख॥

नीर कबीर अलेख मिलि, सहज निरंतर जोय।
सत्त सब्द औ सुरति मिलि, हंस हिरंबर होय॥

कहना था सो कहि दिया, अब कछु कहना नाहिं।
एक रही दूजी गई, बैठा दरिया मांहि॥

आया एकहि देस ते, उतरा एक ही घाट।
बिच में दुविधा हो गई, हो गये बारह बाट॥

तेजपुंज का देहरा, तेजपुंज का देव।
तेजपुंज झिलमिल झरै, तहाँ कबीरा सेव॥

खाला नाला हीम जल, सो फ़िर पानी होय।
जो पानी मोती भया, सो फ़िर नीर न होय॥

देखो करम कबीर का, कछु पूरबला लेख।
जाका महल न मुनि लहै, किय सो दोस्त अलेख॥

मैं था तब हरि नही, अब हरि है मैं नाहिं।
सकल अंधेरा मिटि गया, दीपक देखा मांहि॥

सूरत में मूरत बसै, मूरत में इक तत्व।
ता तत तत्व विचारिया, तत्व तत्व सो तत॥

फ़ेर पङा नहि अंग में, नहि इन्द्रियन के मांहि।
फ़ेर पङा कछु बूझ में, सो निरुवारै नांहि॥

साहेब पारस रूप है, लोह रूप संसार।
पारस सो पारस भया, परखि भया टकसार।

मोती निपजै सुन्न में, बिन सायर बिन नीर।
खोज करंता पाइये, सतगुरू कहै कबीर॥

या मोती कछु और है, वा मोती कछु और।
या मोती है सब्द का, व्यापि रहा सब ठौर॥

दरिया मांही सीप है, मोती निपजै मांहिं।
वस्तु ठिकानै पाइये, नाले खाले नांहि॥

चौदा भुवन भाजि धरै, ताहि कियो बैराट।
कहै कबीर गुरू सब्द सो, मस्तक डारै काट॥

हमकूं स्वामी मति कहो, हम हैं गरीब अधार।
स्वामी कहिये तासु कूं, तीन लोक विस्तार॥

हमकूं बाबा मति कहो, बाबा है बलियार।
बाबा ह्वै करि बैठसी, घनी सहेगा मार॥

यह पद है जो अगम का, रन संग्रामे जूझ।
समुझे कूं दरसन दिया, खोजत मुये अबूझ॥

सीतल कोमल दीनता, संतन के आधीन।
बासों साहिब यौं मिले, ज्यौं जल भीतर मीन॥

कबीर आदू एक है, कहन सुनन कूं दोय।
जल से पारा होत है, पारा से जल होय॥

दिल लागा जु दयाल सों, तब कछु अंतर नांहि।
पारा गलि पानी भया, साहिब साधू मांहि॥

ऐसा अविगति रूप है, चीन्है बिरला कोय।
कहै सुनै देखै नहीं, ताते अचरज मोय॥

सत्तनाम तिरलोक में, सकल रहा भरपूर।
लाजै ज्ञान सरीर का, दिखवै साहिब दूर॥

कबीर सुख दुख सब गया, गय सो पिंड सरीर।
आतम परमातम मिलै, दूधै धोया नीर॥

गुरू हाजिर चहुदिसि खङे, दुनी न जानै भेद।
कवि पंडित कूं गम नही, ताके बपुरे वेद॥

जा कारन हम जाय थे, सनमुख मिलिया आय।
धन मैली पिव ऊजला, लाग सकी नहि पांय॥

भीतर मनुवा मानिया, बाहिर कहूं न जाय।
ज्वाला फ़ेरी जल भया, बूझी जलती लाय॥

तन भीतर मन मानिया, बाहिर कबहू न लाग।
ज्वाला ते फ़िरि जल भया, बुझी जलती आग॥

जिन जेता प्रभु पाइया, ताकूं तेता लाभ।
ओसे प्यास न भागई, जब लग धसै न आभ॥

अकास बेली अमृत फ़ल, पंखि मुवे सब झूर।
सारा जगहि झख मुआ, फ़ल मीठा पै दूर॥

तीखी सुरति कबीर की, फ़ोङ गई ब्रह्मंड।
पीव निराला देखिया, सात दीप नौ खंड॥

ना मैं छाई छापरी, ना मुझ घर नहि गांव।
जो कोई पूछै मुझसों, ना मुझ जाति न ठांव॥ 

09 अप्रैल 2018

सुमिरन को अंग 4



सुमिरन को अंग 

तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरति निरति थिर होय।
कहैं कबीर उस पलक को, कल्प न पावै कोय॥

जाप मरै अजपा मरै, अनहद भी मरि जाय।
सुरति समानी सब्द में, ताहि काल न खाय॥

बिना सांच सुमिरन नहीं, भेदी भक्ति न सोय।
पारस में परदा रहा, कस लोहा कंचन होय॥

हिरदे सुमिरनि नाम की, मेरा मन मसगूल।
छवि लागै निरखत रहूँ, मिटि गये संसै सूल॥

देखा देखी सब कहै, भोर भये हरि नाम।
अरध रात को जन कहै, खाना जाद गुलाम॥

नाम रटत अस्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन।
सुरति सब्द एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन॥

कहता हूँ कहि जात हूँ, सुनता है सब कोय।
सुमिरन सों भल होयगा, नातर भला न होय॥

कबीर माला काठ की, पहिरी मुगद डुलाय।
सुमिरन की सुधि है नहीं, डीगर बांधी गाय॥

नाम जपे अनुराग से, सब दुख डारै धोय।
विश्वासे तो गुरू मिले, लोहा कंचन होय॥

सब मंत्रन का बीज है, सत्तनाम ततसार।
जो कोई जन हिरदै धरे, सो जन उतरै पार॥

जब जागै तब नाम जप, सोवत नाम संभार।
ऊठत बैठत आतमा, चालत नाम चितार॥

सुमिरन ऐसो कीजिये, खरे निशाने चोट।
सुमिरन ऐसो कीजिये, हाले जीभ न होठ॥

ओठ कंठ हाले नहीं, जीभ न नाम उचार।
गुप्तहि सुमिरन जो लखे, सोई हंस हमार॥

अंतर हरि हरि होत है, मुख की हाजत नाहि।
सहजे धुनि लागी रहे, संतन के घट मांहि॥

अंतर जपिये रामजी, रोम रोम रकार।
सहजे धुन लागी रहे, येही सुमिरन सार॥

कबीर मन निश्चल करो, सत्तनाम गुन गाय।
निश्चल बिना न पाईये, कोटिक करो उपाय॥

निसदिन एकै पलक ही, जो कहु नाम कबीर।
ताके जनमो जनम के, जैहै पाप शरीर॥

सुरति फ़ंसी संसार में, ताते परिगो दूर।
सुरति बांधि अस्थिर करो, आठों पहर हजूर॥

नाम साँच गुरू साँच है, आप साँच जब होय।
तीन साँच जब परगटे, विष का अमृत होय॥

मनुवा तो गाफ़िल भया, सुमिरन लागै नांहि।
घनी सहेगा सासना, जम के दरगह मांहि॥

हाथों में माला फ़िरे, हिरदा डामाडूल।
पग तो पाला में पङा, भागन लागे सूल॥

वाद विवादा मत करो, करु नित एक विचार।
नाम सुमिर चित्त लाय के, सब करनी में सार॥

वाद करै सो जानिये, निगुरे का वह काम।
सन्तों को फ़ुरसत नहीं, सुमिरन करते नाम॥

भक्ति भजन हरि नाम है, दूजा दुःख अपार।
मनसा वाचा कर्मना, कबीर सुमिरन सार॥

जागन में सोवन करै, सोवन में लव लाय।
सुरति डोर लागी रहे, तार तूटि नहि जाय॥

जोइ गहै निज नाम को, सोई हंस हमार।
कहै कबीर धर्मदास सों, उतरे भवजल पार॥

कबीर सुमिरन अंग को, पाठ करे मन लाय।
विद्याहिन विद्या लहै, कहै कबीर समुझाय॥

जो कोय सुमिरन अंग को, पाठ करे मन लाय।
भक्ति ज्ञान मन ऊपजै, कहै कबीर समुझाय॥

जो कोय सुमिरन अंग को, निसि बासर करै पाठ।
कहै कबीर सो संतजन, संधै औघट घाट॥

08 अप्रैल 2018

सुमिरन को अंग 3




सुमिरन को अंग

सुमिरन सों मन जब लगै, ज्ञानांकुस दे सीस।
कहैं कबीर डोलै नहीं, निश्चै बिस्वा बीस॥

सुमिरन मन लागै नही, विषहि हलाहल खाय।
कबीर हटका ना रहै, करि करि थका उपाय॥

सुमिरन मांहि लगाय दे, सुरति आपनी सोय।
कहै कबीर संसार गुन, तुझै न व्यापै कोय॥

सुमिरन सुरति लगाय के, मुख ते कछू न बोल।
बाहर के पट देय के, अंतर के पट खोल॥

सुमिरन तूं घट में करै, घट ही में करतार।
घट ही भीतर पाइये, सुरति सब्द भंडार॥

राजा राना राव रंक, बङो जु सुमिरै नाम।
कहैं कबीर सबसों बङा, जो सुमिरै निहकाम॥

सहकामी सुमिरन करै, पावै उत्तम धाम।
निहकामी सुमिरन करै, पावै अविचल राम॥

जप तप संजम साधना, सब कछु सुमिरन मांहि।
कबीर जाने भक्तजन, सुमिरन सम कछु नांहि॥

थोङा सुमिरन बहुत सुख, जो करि जानै कोय।
हरदी लगै न फ़िटकरी, चोखा ही रंग होय॥

ज्ञान कथे बकि बकि मरै, काहे करै उपाय।
सतगुरू ने तो यों कहा, सुमिरन करो बनाय॥

कबीर सुमिरन सार है, और सकल जंजाल।
आदि अंत मधि सोधिया, दूजा देखा काल॥

कबीर हरि हरि सुमिरि ले, प्रान जाहिंगे छूट।
घर के प्यारे आदमी, चलते लेंगे लूट॥

कबीर चित चंचल भया, चहुँदिस लागी लाय।
गुरू सुमिरन हाथे घङा, लीजै बेगि बुझाय॥

कबीर मेरी सुमिरनी, रसना ऊपर राम।
आदि जुगादि भक्ति है, सबका निज बिसराम॥

कबीर राम रिझाय ले, जिभ्या के रस स्वाद।
और स्वाद रस त्याग दे, राम नाम के स्वाद॥

कबीर मुख से राम कहु, मनहि राम को ध्यान।
रामक सुमिरन ध्यान नित, यही भक्ति यहि ज्ञान॥

राम नाम गुन गावते, तोहि न आवै लाज।
जो कोइ लाजै राम से, ताका तन बेकाज॥

जीना थोङा ही भला, हरि का सुमिरन होय।
लाख बरस का जीवना, लेखै धरै न कोय॥

निज सुख आतमराम है, दूजा दुख अपार।
मनसा वाचा करमना, कबीर सुमिरन सार॥

जो बोलो तो राम कहु, अन्त कहूँ मति जाय।
कहै कबीर निसदिन कहै, सुमिरन सुरति लगाय॥

नर नारी सब नरक है, जब लगि देह सकाम।
कहै कबीर सो पीव को, जो सुमिरै निहकाम॥

दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करै, दुख काहे को होय॥

सुख में सुमिरन ना किया, दुख में कीया याद।
कहै कबीर ता दास की, कौन सुनै फ़रियाद॥

साई सुमिर मति ढील कर, जो सुमिर ते लाह।
इहाँ खलक खिदमत करै, उहाँ अमरपुर जाह॥

सांई यौं मति जानियो, प्रीति घटे मम चीत।
मरूं तो सुमीरत मरूं, जीयत सुमिरूं नीत॥

साईं को सुमिरन करै, ताको बंदे देव।
पहली आप उगावही, पाछे लारै सेव॥

चिंता तो सतनाम की, और न चितवै दास।
जो कछु चितवै नाम बिनु, सोई काल की फ़ांस॥

पांच संगि पिव पिव करै, छठा जो सुमिरै मन।
आई सुरति कबीर की, पाया राम रतन॥

मन जो सुमिरै राम को, राम बसै घट आहि।
अब मन रामहि ह्वै रहा, सीस नवाऊं काहि॥

तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँय।
बारी तेरे नाम पर, जित देखूँ तित तूँय॥

तू तू करता तू भया, तुझमें रहा समाय।
तुझ मांही मन मिलि रहा, अब कहुँ अन्त न जाय॥

रग रग बोलां रामजी, रोम रोम रंकार।
सहजे ही धुन होत है, सोई सुमिरन सार॥

सहजे ही धुन होत है, पल पल घटही मांहि।
सुरति सब्द मेला भया, मुख की हाजत नांहि॥

अजपा सुमिरन घट विषे, दीन्हा सिरजन हार।
ताही सों मन लगि रहा, कहैं कबीर विचार॥

सांस सांस पर नाम ले, वृथा सांस मति खोय।
ना जानै इस सांस को, आवन होय न होय॥

सांस सुफ़ल सो जानिये, जो सुमिरन में जाय।
और सांस यौं ही गये, करि करि बहुत उपाय॥

कहा भरोसा देह का, बिनसि जाय छिन मांहि।
सांस सांस सुमिरन करो, और जतन कछु नांहि॥

जाकी पूंजी सांस है, छिन आवै छिन जाय।
ताको ऐसा चाहिये, रहे नाम लौ लाय॥

कहता हूं कहि जात हूँ, कहूँ बजाये ढोल।
स्वासा खाली जात है, तीन लोक का मोल॥

ऐसे महँगे मोल का, एक सांस जो जाय।
चौदह लोक न पटतरै, काहे धूर मिलाय॥

माला सांसउ सांस की, फ़ेरै कोइ निज दास।
चौरासी भरमै नहीं, कटै करम की फ़ांस॥

माला फ़ेरत मन खुशी, ताते कछू न होय।
मन माला के फ़ेरते, घट उजियारो होय॥

माला फ़ेरत जुग गया, मिटा न मन का फ़ेर।
कर का मनका डार देम मन का मनका फ़ेर॥

जे राते सतनाम सों, ते तन रक्त न होय।
रति इक रक्त न नीकसे, जो तन चीरै कोय॥

माला तो कर में फ़िरै, जीभ फ़िरै मुख मांहि।
मनवा तो दहु दिस फ़िरै, यह तो सुमिरन नांहि॥

माला फ़ेरूँ ना हरि भजूँ, मुख से कहूँ न राम।
मेरा हरि मोको भजे, तब पाऊँ बिसराम॥

माला मोसे लङि पङी, का फ़ेरत है मोहि।
मन की माला फ़ेरि ले, गुरू से मेला होय॥

माला फ़ेरै कह भयो, हिरदा गांठि न खोय।
गुरू चरनन चित राचिये, तो अमरापुर जोय॥

कबीर माला काठ की, बहुत जतन का फ़ेर।
माला सांस उसांस की, जामें गांठ न मेर॥

क्रिया करै अंगुरि गिनै, मन धावै चहुँ ओर।
जिहि फ़ेरै साईं मिलै, सो भय काठ कठोर॥150

सुमिरन को अंग 2





सुमिरन को अंग

जैसे फ़निपति मंत्र सुनि, राखै फ़नहि सिकोर।
तैसे वीरा नाम ते, काल रहै मुख मोर॥

सबको नाम सुनावहु, जो आयेगो पास।
सब्द हमारो सत्त है, दृढ़ राखो विस्वास॥

होय विवेकी सब्द का, जाय मिले परिवार।
नाम गहै सो पहुँचई, मानो कहा हमार॥

सुरति समावे नाम में, जग से रहे उदास।
कहै कबीर गुरू चरन में, दृढ़ राखो विस्वास॥

अस औसर नहि पाइहौ, धरो नाम कङिहार।
भौसागर तरि जाव जब, पलक न लागे वार॥

आसा तो इक नाम की, दूजी आस निवार।
दूजी आसा मारसी, ज्यौं चौपर की सार॥

कोटि करम कटि पलक में, रंचक आवै नाम।
जुग अनेक जो पुन्य करु, नही नाम बिनु ठाम॥

सपने में बरराई के, धोखे निकरै नाम।
वाके पग की पानही, मेरे तन को चाम॥

जाकी गांठी नाम है, ताके है सब सिद्धि।
कर जोरै ठाढ़ी सबै, अष्ट सिद्धि नव निद्धि॥

हयवर गयवर सघन घन, छत्र धुजा फ़हराय।
ता सुख ते भिक्षुक भला, नाम भजत दिन जाय॥

पारस रूपी नाम है, लोहा रूपी जीव।
जब सो पारस भेंटिहै, तब जिव होसी सीव॥

पारस रूपी नाम है, लोह रूप संसार।
पारस पाया पुरुष का, परखि परखि टकसार॥

सुख के माथे सिल परै, नाम ह्रदे से जाय।
बलिहारी वा दुख की, पल पल नाम रटाय॥

लेने को सतनाम है, देने को अंनदान।
तरने को आधीनता, बूङन को अभिमान॥

लूटि सकै तो लूटि ले, रामनाम की लूट।
नाम जु निरगुन को गहौ, नातर जैहो खूट॥

कहैं कबीर तूं लूटि ले, रामनाम भंडार।
काल कंठ को जब गहे, रोकै दसहूं द्वार॥

कबीर निर्भय नाम जपु, जब लग दीवे बाति।
तेल घटे बाती बुझै, सोवोगे दिन राति॥

कबीर सूता क्या करै, जागी जपो मुरार।
एक दिना है सोवना, लंबे पांव पसार॥

कबीर सूता क्या करै, उठिन भजो भगवान।
जम घर जब ले जायेंगे, पङा रहेगा म्यान॥

कबीर सूता क्या करै, गुन सतगुरू का गाय।
तेरे सिर पर जम खङा, खरच कदे का खाय॥

कबीर सूता क्या करै, सूते होय अकाज।
ब्रह्मा को आसन डिग्यो, सुनी काल की गाज॥

कबीर सूता क्या करै, ऊठि न रोवो दूख।
जाका वासा गोर में, सो क्यों सोये सूख॥

कबीर सूता क्या करै, जागन की कर चौंप।
ये दम हीरा लाल है, गिन गिन गुरू को सौंप॥

कबीर सूता क्या करै, काहे न देखै जागि।
जाके संग ते बीछुरा, ताहि के संग लागि॥ 

अपने पहरै जागिये, ना परि रहिये सोय।
ना जानौ छिन एक में, किसका पहरा होय॥

नींद निसानी मीच की, उठु कबीरा जाग।
और रसायन छांङि के, नाम रसायन लाग॥

सोया सो निस्फ़ल गया, जागा सो फ़ल लेहि।
साहिब हक्क न राखसी, जब मांगे तब देहि॥

केसव कहि कहि कूकिये, ना सोइये असरार।
रात दिवस के कूकते, कबहुँक लगै पुकार॥

कबीर क्षुधा है कूकरी, करत भजन में भंग।
याकूं टुकङा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग॥

गिरही का टुकङा बुरा, दो दो आंगुल दांत।
भजन करैं तो ऊबरे, नातर काढ़ै आंत॥

बाहिर क्या दिखलाइये, अन्तर जपिये नाम।
कहा महोला खलक सों, पर्यो धनी सो काम॥

गोविंद के गुन गावता, कबहु न कीजै लाज।
यह पद्धति आगे मुकति, एक पंथ दो काज॥

गुन गाये गुन ना कटै, रटै न नाम वियोग।
अहिनिस गुरू ध्यायो नहीं, पावै दुरलभ जोग॥

सतगुरू का उपदेस, सतनाम निज सार है।
यह निज मुक्ति संदेस, सुनो संत सत भाव से॥

क्यौं छूटै जम जाल, बहु बंधन जिव बांधिया।
काटै दीनदयाल, करम फ़ंद इक नाम से॥

काटहु जम के फ़ंद, जेहि फ़ंदे जग फ़ंदिया।
कटै तो होय निसंक, नाम खङग सदगुरू दिया॥

तजै काग को देह, हंस दसा की सुरति पर।
मुक्ति संदेसा येह, सत्तनाम परमान अस॥

सुमिरन मारग सहज का, सदगुरू दिया बताय।
सांस सांस सुमिरन करूं, इक दिन मिलसी आय॥

सुमिरन से सुख होत है, सुमिरन से दुख जाय।
कहैं कबीर सुमिरन किये, साईं मांहि समाय॥

सुमिरन की सुधि यौं करो, जैसे कामी काम
कहैं कबीर पुकारि के, तब प्रगटै निज नाम॥

सुमिरन की सुधि यौं करो, ज्यौं गागर पनिहार।
हालै डोलै सुरति में, कहैं कबीर विचार॥

सुमिरन की सुधि यौं करो, ज्यौं सुरभी सुत मांहि।
कहै कबीरा चारा चरत, बिसरत कबहूं नांहि॥

सुमिरन की सुधि यौं करो, जैसे दाम कंगाल।
कहैं कबीर बिसरै नहीं, पल पल लेत संभाल॥

सुमिरन की सुधि यौं करो, जैसे नाद कुरंग।
कहैं कबीर बिसरै नहीं, प्रान तजै तिहि संग॥

सुमिरन की सुधि यों करो, ज्यौं सुई में डोर।
कहैं कबीर छूटै नही, चलै ओर की ओर॥

सुमिरन सों मन लाइये, जैसे कीट भिरंग।
कबीर बिसारे आपको, होय जाय तिहि रंग॥

सुमिरन सों मन लाइये, जैसे दीप पतंग॥
प्रान तजै छिन एक में, जरत न मोरै अंग॥

सुमिरन सों मन लाइये, जैसे पानी मीन।
प्रान तजै पल बीछुरे, दास कबीर कहि दीन॥१००

कबीर से कहना

राजीव जी नमस्कार,
मैंने आपके blog पर कुछ सवाल पूछे हैं, उनका उत्तर देने की  कृपा करें।
09/28/2017 6:16AM
सर आपने कोई answer नहीं दिया।
09/28/2017 2:44PM
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उत्तर - wait करो।
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Ok
09/28/2017 9:39PM
लेकिन कब तक?
09/29/2017 6:24AM
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उत्तर - प्रश्न पूछने के बाद 1 week तक लग जाता है, भले ही ans दूसरे दिन मिल जायें, पर इतना इंतजार जरूरी है।
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Ok
10/02/2017 8:37PM
राजीव जी अगर वहाँ blogspot पर आप मेरे सवालों का जबाब नही दे सकते, तो कृपया यहाँ दीजिये।
आप शादीशुदा हैं क्या?
देखिये जब तक आप मेरे सारे सवालों का जबाब पूरी तरह से नही देंगे, मैं आपका पीछा नही छोङूंगा..हा हा हा
मुझे आपसे बहुत कुछ पूछना है।
क्योंकि सोऽहंग नाम को प्रचलन में आपने लाया है।
मुझे गहराई से बतायें।
सोऽहंग को मैंने net पर बहुत search किया, लेकिन पढ़ा केवल आपके blog पर
आपके blog पर पढ़ने के बाद तो net पर ऐसे आग सी लग गयी।
यही नाम कई सन्तों द्वारा show करने लगा। इससे पहले केवल सोऽहम के बारे में ही सुना था।
अब काफ़ी सुनने को मिल रहा है।
मैंने शुरूआत ॐ से की थी। फ़िर सोऽहम मिला।
उस पर search किया, अब सोऽहंग मिला आपके द्वारा, यानी पता लगा।
आगे चलेंगे, तो शायद होऽहंग मिलेगा। यानी ये काल मेरे साथ पूरा खिलवाङ कर रहा है।
actually मैं सच्चे सदगुरू की तलाश में हूँ, जो मुझे शुरू से अन्त तक पूरा ज्ञान दे
आगे शायद होऽहंग के बारे में सुनने को मिले।
ये काल मुझे पूरा तरह उलझा रहा है।
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8/4/2018 9:48 am

Hello
कैसे हो राजीव जी?
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उत्तर - ठीक।
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कहाँ तक पहुँचे sir भक्ति मार्ग में?
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उत्तर - घर तक।
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यानी अनामी लोक तक या उससे भी आगे?
क्या आप रामपाल के बारे में जानते हैं?
आजकल youtube पर उनके बहुत video देखने को मिलते हैं।
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उत्तर - खास नहीं।
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लेकिन उसका ज्ञान कुछ अजीब सा है।
आप उनके शिष्यों के video youtube पर देखेंगे, तो उनके कुछ शिष्य सतलोक जाने का दावा करते हैं।
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उत्तर - जीवन अल्प है।
कार्य महत्वपूर्ण है।
और अपने ही गम बहुत हैं।
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हा हा great thing
अच्छा मुझे ये बतायें, सोऽहंग क्या सारशब्द है, या ये शुरूआत है?
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उत्तर - सोऽहंग - जीव मन वायु  
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समझा नही, जरा खोल के बतायें, आपका fan हूँ।
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उत्तर - मन से उत्पन्न वासना वायु, जो ब्रह्म को जीव में बदल देती है।
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पता नहीं, सतपुरूष ने क्या सोचा है मेरे बारे में।
Ok मान लीजिये मैं शिवानन्द से दीक्षा ले लूँ, तो शुरूआत कैसे होगी? 
क्योंकि मैं अनुभव नहीं, सतपुरूष को साकार रूप में देखना और उनसे बात करना चाहता हूँ। 
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उत्तर - हा हा, दिवा-स्वपन।
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दिवा स्वपन क्या है?
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उत्तर - बेसिर-पैर की कल्पना।
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Ok यानी ऐसा कल्पना में ही हो सकता है।
आपके गुरू का ज्ञान read किया था मैंने, उन्होंने तो काफ़ी कुछ बताया है।
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उत्तर - अच्छा! ऐसा..
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हाँ, ऐसा ही,
उन्होंने तो सतलोक, अलख लोक, अगम लोक और अनामी लोक के बारे में कबीर की वाणी में समझाया है।
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उत्तर - सोच अपनी अपनी ।
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आप गुरूजी से अलग क्यों हो गये?
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उत्तर - जुङे कब थे?
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आप अपने blog पर तो उनका खूब जोर-शोर से प्रचार करते हैं।
वैसे आपकी सोऽहंग वाली बात काफ़ी अच्छी लगी।
काल को जीव में बदल देती है ये वायु।
वासना भर देती है, जीव के अन्दर।
राधास्वामी पंथ में भी सोऽहंग का जाप दिया जाता है, लेकिन वो लोग भटक रहे हैं
सोऽहंग सीधे शब्दों में आपके according चलें तो सोऽहंग को हंऽसो कर दो, यही सत्य है ना।
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उत्तर - 100%
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सोऽहंग first name हो गया, second और third क्या है?
यानी मैं आपके संकेतों को समझ रहा हूँ।
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उत्तर - all - self presound
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क्या मुझे ये direct स्वांस पर ध्यान देना चाहिये, या गुरू के आशीर्वाद के बाद?
--------------
उत्तर - as u like
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English नही आती हिन्दी में बतायें गुरूजी।
All self presound क्या?
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उत्तर - सभी - स्वस्फ़ूर्ति ध्वनि (शब्द)
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लेकिन डरता हूँ, बिना गुरू स्वासो हंऽसो पर ध्यान दूँ, तो आपके वाली position ना आ जाये।
जैसे आप हो गये थे six month में,
भटकाइये मत, सही सही बतायें, मैं आपसे काफ़ी सन्तुष्ट हूँ।
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उत्तर - मृत्यु, या किसी गम्भीर परिणाम से भयभीत को, इससे दूर ही रहना चाहिये।
-------------------
लेकिन ज्ञान तो चाहिये गुरूजी, कैसे लूँ?
डर भी तो काल ने ही पैदा कर रखा है।
---------------
उत्तर -
ज्ञान का पंथ कृपाण की धारा।
तनिक डिगे तो आरमपारा।
जो है, उसको स्वीकारना, भोगना ही नियति है।
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गुरू बिना कैसा ज्ञान? और मैं तो आपको गुरू मानने लगा हूँ कहीं न कहीं।
अबकी बार कबीर से मिलें तो कहना, राजेश नाम का युवक है, उस पर भी जरा सा ध्यान दे लो। भटक रहा है।
कभी शिवानन्द पर ध्यान देता है, कभी रामपाल पर ध्यान देता है, तो कभी प्रकाशमुनि पर, कभी गरीबदास पर, तो कभी गुरूनानक पर, कभी धर्मदास पर, कभी राजीव कुलश्रेष्ठ पर..
कभी मधु परमहंस पर, कभी ओशो पर।
अब एक गुरू से और बात करना चाहता है, छोटे गुरू, पर उसे सही मार्ग दिखाये।

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