पिव परिचय तब जानिये, पिव सों हिलमिल होय।
पिव की लाली मुख परै, परगट दीसै सोय॥
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल।
लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गई लाल॥
जिन पांवन भुईं बहु फ़िरै, घूमें देस विदेस।
पिया मिलन जब होईया, आंगन भया विदेस॥
उलटि समानी आप में, प्रगटी जोति अनंत।
साहिब सेवक एक संग, खेलें सदा बसंत॥
जोगी हुआ झक लगी, मिटि गइ ऐंचातान।
उलटि समाना आप में, हुआ ब्रह्म समान॥
हम वासी वा देस के, जहाँ पुरुष की आन।
दुख सुख कोइ व्यापै नहीं, सब दिन एक समान॥
हम वासी वा देस के, बारह मास बसंत।
नीझर झरै महा अमी, भीजत हैं सब संत॥
हम वासी वा देस के, गगन धरन दुइ नांहि।
भौंरा बैठा पंख बिन, देखौ पलकों मांहि॥
हम वासी वा देस के, जहाँ ब्रह्म का कूप।
अविनासी बिनसै नहीं, आवै जाय सरूप॥
हम वासी वा देस के, आदि पुरुष का खेल।
दीपक देखा गैब का, बिन बाती बिन तेल॥
हम वासी वा देस के, बारह मास विलास।
प्रेम झरै बिगसै कमल, तेजपुंज परकास॥
हम वासी वा देस के, जाति वरन कुल नांहि।
सब्द मिलावा ह्वै रहा, देह मिलावा नांहि॥
हम वासी वा देस के, रूप वरन कछु नांहि।
सैन मिलावा ह्वै रहा, शब्द मिलावा नांहि॥
हम वासी वा देस के, पिंड ब्रह्मंड कछु नांहि।
आपा पर दोइ बिसरा, सैन मिलावा नांहि॥
हम वासी वा देस के, गाजि रहा ब्रह्मंड।
अनहद बाजा बाजिया, अविचल जोत अखंड॥
संसै करौं न मैं डरौं, सब दुख दिये निवार।
सहज सुन्न में घर किया, पाया नाम अधार॥
बिन पांवन का पंथ है, बिन बस्ती का देस।
बिना देह का पुरुष है, कहैं कबीर संदेस॥
नौन गला पानी मिला, बहुरि न भरिहै गौन।
सुरति सब्द मेला भया, काल रहा गहि मौन॥
हिल मिल खेले सब्द सों, अन्तर रही न रेख।
समझै का मत एक है, क्या पंडित क्या सेख॥
अलख लखा लालच लगा, कहत न आवै बैन।
निज मन धसा सरूप में, सदगुरू दीन्ही सैन॥
कहना था सो कहि दिया, अब कछु कहा न जाय।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय॥
जो कोइ समझै सैन में, तासों कहिये धाय।
सैन बैन समझे नहीं, तासों कहै बलाय॥
पिंजर प्रेम प्रकासिया, जागी जोति अनंत।
संसै छूटा भय मिटा, मिला पियारा कंत॥
उनमुनि लागी सुन्न में, निसदिन रहि गलतान।
तन मन की कछु सुधि नहीं, पाया पद निरबान॥
उनमुनि चढ़ी अकास को, गई धरनि सें छूट।
हंस चला घर आपने, काल रहा सिर कूट॥
उनमुनि सों मन लागिया, गगनहि पहुँचा जाय।
चांद बिहूना चांदना, अलख निरंजन राय॥
उनमुनि सों मन लागिया, उनमुनि नहीं बिलंगि।
लौन बिलंग्या पानिया, पानी नौन बिलगि॥
पानी ही ते हिम भया, हिम ही गया बिलाय।
जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाय॥
मेरी मिटि मुक्ता भया, पाया अगम निवास।
अब मेरे दूजा नही, एक तुम्हारी आस॥
सुरति समानी निरति में, अजपा माही जाप।
लेख समाना अलेख में, आपा माही आप॥
सुरति समानी निरति में, निरति रही निरधार।
सुरति निरति परिचय भया, खुल गया सिंधु दुवार॥
गुरू मिले सीतल भया, मिटी मोह तन ताप।
निस बासर सुख निधि लहूं, अन्तर प्रगटे आप॥
सुचि पाया सुख ऊपजा, दिल दरिया भरपूर।
सकल पाप सहजै गया, साहिब मिले हजूर॥
तत पाया तन बीसरा, मन धाया धरि ध्यान।
तपन मिटी सीतल भया, सुन्न किया अस्थान॥
कौतुक देखा देह बिना, रवि ससि बिना उजास।
साहेब सेवा माहीं है, बेपरवाही दास॥
नेव बिहूंना देहरा, देह बिहूना देव।
कबीर तहाँ बिलंबिया, करै अलख की सेव॥
देवल मांहि देहुरी, तिल जैसा विस्तार।
माहीं पाती फ़ूल जल, माहीं पूजनहार॥
पवन नहीं पानी नहीं, नहि धरनी आकास।
तहाँ कबीरा संतजन, साहिब पास खवास॥
अगुवानी तो आइया, ज्ञान विचार विवेक।
पीछै हरि भी आयेंगे, सारे सौंज समेत॥
पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान।
कहिबे की सोभा नही, देखै ही परमान॥
सुरज समाना चांद में, दोउ किया घर एक।
मन का चेता तब भया, पुरब जनम का लेख॥
पिंजर प्रेम प्रकासिया, अंतर भया उजास।
सुख करि सूती महल में, बानी फ़ूटी वास॥
आया था संसार में, देखन को बहुरूप।
कहै कबीरा संत हो, परि गया नजर अनूप॥
पाया था सो गहि रहा, रसना लागी स्वाद।
रतन निराला पाइया, जगत ठठोला बाद॥
हिम से पानी ह्वै गया, पानी हुआ आप।
जो पहिले था सो भया, प्रगटा आपहि आप॥
कुछ करनी कुछ करम गति, कुछ पुरबले लेख।
देखो भाग कबीर का, लेख से भया अलेख॥
जब मैं था तब गुरू नहीं, अब गुरू हैं मैं नाहिं।
कबीर नगरी एक में, दो राजा न समांहि॥
मैं जाना मैं और था, मैं तजि ह्वै गय सोय।
मैं तैं दोऊ मिटि गये, रहे कहन को दोय॥
अगम अगोचर गम नहीं, जहाँ झिलमिली जोत।
तहाँ कबीरा रमि रहा, पाप पुन्न नहि छोत॥
कबीर तेज अनंत का, मानो सूरज सैन।
पति संग जागी सुन्दरी, कौतुक देखा नैन॥
कबीर देखा एक अंग, महिमा कही न जाय।
तेजपुंज परसा धनी, नैनों रहा समाय॥
कबीर कमल प्रकासिया, ऊगा निरमल सूर।
रैन अंधेरी मिटि गई, बाजै अनहद तूर॥
कबीर मन मधुकर भया, करै निरन्तर बास।
कमल खिला है नीर बिन, निरखै कोइ निज दास॥
कबीर मोतिन की लङी, हीरों का परकास।
चांद सूर की गम नही, दरसन पाया दास॥
कबीर दिल दरिया मिला, पाया फ़ल समरत्थ।
सायर मांहि ढिंढोरता, हीरा चढ़ि गया हत्थ॥
कबीर जब हम गावते, तब जाना गुरू नांहि।
अब गुरू दिल में देखिया, गावन को कछु नांहि॥
कबीर दिल दरिया मिला, बैठा दरगह आय।
जीव ब्रह्म मेला भया, अब कछु कहा न जाय॥
कबीर कंचन भासिया, ब्रह्म वास जहाँ होय।
मन भौंरा तहाँ लुब्धिया, जानेगा जन कोय॥
गगन गरजि बरसै अमी, बादल गहिर गम्भीर।
चहुँदिस दमके दामिनी, भीजै दास कबीर॥
गगन मंडल के बीच में, झलकै सत का नूर।
निगुरा गम पावै नहीं, पहुँचै गुरूमुख सूर॥
गगन मंडल के बीच में, महल पङा इक चीन्हि।
कहै कबीर सो पावई, जिहि गुरू परचै दीन्हि॥
गगन मंडल के बीच में, बिना कलम की छाप।
पुरुष तहाँ एक रमि रहा, नहीं मन्त्र नहि जाप॥
गगन मंडल के बीच में, तुरी तत्त इक गांव।
लच्छ निसाना रूप का, परखि दिखाया ठांव॥
गगन मंडल के बीच में, जहाँ सोहंगम डोर।
सब्द अनाहद होत है, सुरति लगी तहँ मोर॥
गरजै गगन अमी चुवै, कदली कमल प्रकास।
तहाँ कबीरा संतजन, सत्तपुरुष के पास॥
गरजै गगन अमी चुवै, कदली कमल प्रकास।
तहाँ कबीरा बंदगी, कर कोई निजदास॥
दीपक जोया ज्ञान का, देखा अपरम देव।
चार वेद की गम नहीं, तहाँ कबीरा सेव॥
मान सरोवर सुगम जल, हंसा केलि कराय।
मुक्ताहल मोती चुगै, अब उङि अंत न जाय॥
सुन्न महल में घर किया, बाजै सब्द रसाल।
रोम रोम दीपक भया, प्रगटै दीन दयाल॥
पूरे से परिचय भया, दुख सुख मेला दूर।
जम सों बाकी कटि गई, साईं मिला हजूर॥70