सुमिरन को अंग
तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरति निरति थिर होय।
कहैं कबीर उस पलक को, कल्प न पावै कोय॥
जाप मरै अजपा मरै, अनहद भी मरि जाय।
सुरति समानी सब्द में, ताहि काल न खाय॥
बिना सांच सुमिरन नहीं, भेदी भक्ति न सोय।
पारस में परदा रहा, कस लोहा कंचन होय॥
हिरदे सुमिरनि नाम की, मेरा मन मसगूल।
छवि लागै निरखत रहूँ, मिटि गये संसै सूल॥
देखा देखी सब कहै, भोर भये हरि नाम।
अरध रात को जन कहै, खाना जाद गुलाम॥
नाम रटत अस्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन।
सुरति सब्द एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन॥
कहता हूँ कहि जात हूँ, सुनता है सब कोय।
सुमिरन सों भल होयगा, नातर भला न होय॥
कबीर माला काठ की, पहिरी मुगद डुलाय।
सुमिरन की सुधि है नहीं, डीगर बांधी गाय॥
नाम जपे अनुराग से, सब दुख डारै धोय।
विश्वासे तो गुरू मिले, लोहा कंचन होय॥
सब मंत्रन का बीज है, सत्तनाम ततसार।
जो कोई जन हिरदै धरे, सो जन उतरै पार॥
जब जागै तब नाम जप, सोवत नाम संभार।
ऊठत बैठत आतमा, चालत नाम चितार॥
सुमिरन ऐसो कीजिये, खरे निशाने चोट।
सुमिरन ऐसो कीजिये, हाले जीभ न होठ॥
ओठ कंठ हाले नहीं, जीभ न नाम उचार।
गुप्तहि सुमिरन जो लखे, सोई हंस हमार॥
अंतर हरि हरि होत है, मुख की हाजत नाहि।
सहजे धुनि लागी रहे, संतन के घट मांहि॥
अंतर जपिये रामजी, रोम रोम रकार।
सहजे धुन लागी रहे, येही सुमिरन सार॥
कबीर मन निश्चल करो, सत्तनाम गुन गाय।
निश्चल बिना न पाईये, कोटिक करो उपाय॥
निसदिन एकै पलक ही, जो कहु नाम कबीर।
ताके जनमो जनम के, जैहै पाप शरीर॥
सुरति फ़ंसी संसार में, ताते परिगो दूर।
सुरति बांधि अस्थिर करो, आठों पहर हजूर॥
नाम साँच गुरू साँच है, आप साँच जब होय।
तीन साँच जब परगटे, विष का अमृत होय॥
मनुवा तो गाफ़िल भया, सुमिरन लागै नांहि।
घनी सहेगा सासना, जम के दरगह मांहि॥
हाथों में माला फ़िरे, हिरदा डामाडूल।
पग तो पाला में पङा, भागन लागे सूल॥
वाद विवादा मत करो, करु नित एक विचार।
नाम सुमिर चित्त लाय के, सब करनी में सार॥
वाद करै सो जानिये, निगुरे का वह काम।
सन्तों को फ़ुरसत नहीं, सुमिरन करते नाम॥
भक्ति भजन हरि नाम है, दूजा दुःख अपार।
मनसा वाचा कर्मना, कबीर सुमिरन सार॥
जागन में सोवन करै, सोवन में लव लाय।
सुरति डोर लागी रहे, तार तूटि नहि जाय॥
जोइ गहै निज नाम को, सोई हंस हमार।
कहै कबीर धर्मदास सों, उतरे भवजल पार॥
कबीर सुमिरन अंग को, पाठ करे मन लाय।
विद्याहिन विद्या लहै, कहै कबीर समुझाय॥
जो कोय सुमिरन अंग को, पाठ करे मन लाय।
भक्ति ज्ञान मन ऊपजै, कहै कबीर समुझाय॥
जो कोय सुमिरन अंग को, निसि बासर करै पाठ।
कहै कबीर सो संतजन, संधै औघट घाट॥
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