सुरति उङानी गगन को, चरन बिलंबी जाय।
सुख पाया साहेब मिला, आनंद उर न समाय॥
जा वन सिंघ न संचरै, पंछी उङि नहि जाय।
रैन दिवस की गमि नही, रहा कबीर समाय॥
सीप नही सायर नही, स्वाति बूंद भी नांहि।
कबीर मोती नीपजै, सुन्न सरवर घट मांहि॥
काया सिप संसार में, पानी बूंद सरीर।
बिना सीप के मोतिया, प्रगटे दास कबीर॥
घट में औघट पाइया, औघट माहीं घाट।
कहैं कबीर परिचय भया, गुरू दिखाई बाट॥
जा कारन मैं जाय था, सो तो मिलिया आय।
साईं ते सनमुख भया, लगा कबीरा पाय।
जा कारन मैं जाय था, सो तो पाया ठौर।
सो ही फ़िर आपन भया, को कहता और॥
जा दिन किरतम ना हता, नहीं हाट नहि बाट।
हता कबीरा संतजन, देखा औघट घाट॥
नहीं हाट नहि बाट था, नही धरति नहि नीर।
असंख जुग परलै गया, तबकी कहैं कबीर॥
चाँद नहीं सूरज नहीं, हता नही ओंकार।
तहाँ कबीरा संतजन, को जानै संसार॥
धरति गगन पवनै नही, नहि होते तिथि वार।
तब हरि के हरिजन हुते, कहैं कबीर विचार॥
धरति हती नहि पग धरूं, नीर हता नहि न्हाऊं।
माता ते जनम्या नहीं, क्षीर कहाँ ते खाऊं॥
अगन नहीं जहँ तप करूं, नीर नहि तहँ न्हाऊं।
धरती नहीं जहँ पग धरूं, गगन नहिं तहँ जाऊं॥
पांच तत्व गुन तीन के, आगे मुक्ति मुकाम।
तहाँ कबीरा घर किया, गोरख दत्त न राम॥
सुर नर मुनिजन औलिया, ये सब उरली तीर।
अलह राम की गम नहीं, तहँ घर किया कबीर॥
सुर नर मुनिजन देवता, ब्रह्मा विस्नु महेस।
ऊंचा महल कबीर का, पार न पावै सेस॥
जब दिल मिला दयाल सों, तब कछु अंतर नांहि।
पाला गलि पानी भया, यौं हरिजन हरि मांहि॥
ममता मेरा क्या करै, प्रेम उघारी पोल।
दरसन भया दयाल का, सूल भई सुख सोल॥
सुन्न सरोवर मीन मन, नीर निरंजन देव।
सदा समूह सुख बिलसिया, बिरला जानै भेव॥
सुन्न सरोवर मीन मन, नीर तीर सब देव।
सुधा सिंधु सुख बिलसहीं, बिरला जाने भेव॥
लौन गला पानी मिला, बहुरि न भरिहै गून।
हरिजन हरि सों मिल रहा, काल रहा सिर धुन॥
गुन इन्द्री सहजे गये, सदगुरू करी सहाय।
घट में नाम प्रगट भया, बकि बकि मरै बलाय॥
जब लग पिय परिचय नहीं, कन्या क्वारी जान।
हथ लेवो हूं सालियो, मुस्किल पङि पहिचान॥
सेजै सूती रग रम्हा, मांगा मान गुमान।
हथ लेवो हरि सूं जुर्यो, अखै अमर वरदान॥
पूरे सों परिचय भया, दुख सुख मेला दूर।
निरमल कीन्ही आतमा, ताते सदा हजूर॥
मैं लागा उस एक सों, एक भया सब मांहि।
सब मेरा मैं सबन का, तहाँ दूसरा नांहि॥
भली भई जो भय पङी, गई दिसा सब भूल।
पाला गलि पानी भया, ढूलि मिला उस कूल॥
चितमनि पाई चौहटे, हाङी मारत हाथ।
मीरां मुझ पर मिहर करि, मिला न काहू साथ॥
बरसि अमृत निपज हिरा, घटा पङे टकसार।
तहाँ कबीरा पारखी, अनुभव उतरै पार॥
मकर तार सों नेहरा, झलकै अधर विदेह।
सुरति सोहंगम मिलि रहि, पल पल जुरै सनेह॥
ऐसा अविगति अलख है, अलख लखा नहि जाय।
जोति सरूपी राम है, सब में रह्यो समाय॥
मिलि गय नीर कबीर सों, अंतर रही न रेख।
तीनों मिलि एकै भया, नीर कबीर अलेख॥
नीर कबीर अलेख मिलि, सहज निरंतर जोय।
सत्त सब्द औ सुरति मिलि, हंस हिरंबर होय॥
कहना था सो कहि दिया, अब कछु कहना नाहिं।
एक रही दूजी गई, बैठा दरिया मांहि॥
आया एकहि देस ते, उतरा एक ही घाट।
बिच में दुविधा हो गई, हो गये बारह बाट॥
तेजपुंज का देहरा, तेजपुंज का देव।
तेजपुंज झिलमिल झरै, तहाँ कबीरा सेव॥
खाला नाला हीम जल, सो फ़िर पानी होय।
जो पानी मोती भया, सो फ़िर नीर न होय॥
देखो करम कबीर का, कछु पूरबला लेख।
जाका महल न मुनि लहै, किय सो दोस्त अलेख॥
मैं था तब हरि नही, अब हरि है मैं नाहिं।
सकल अंधेरा मिटि गया, दीपक देखा मांहि॥
सूरत में मूरत बसै, मूरत में इक तत्व।
ता तत तत्व विचारिया, तत्व तत्व सो तत॥
फ़ेर पङा नहि अंग में, नहि इन्द्रियन के मांहि।
फ़ेर पङा कछु बूझ में, सो निरुवारै नांहि॥
साहेब पारस रूप है, लोह रूप संसार।
पारस सो पारस भया, परखि भया टकसार।
मोती निपजै सुन्न में, बिन सायर बिन नीर।
खोज करंता पाइये, सतगुरू कहै कबीर॥
या मोती कछु और है, वा मोती कछु और।
या मोती है सब्द का, व्यापि रहा सब ठौर॥
दरिया मांही सीप है, मोती निपजै मांहिं।
वस्तु ठिकानै पाइये, नाले खाले नांहि॥
चौदा भुवन भाजि धरै, ताहि कियो बैराट।
कहै कबीर गुरू सब्द सो, मस्तक डारै काट॥
हमकूं स्वामी मति कहो, हम हैं गरीब अधार।
स्वामी कहिये तासु कूं, तीन लोक विस्तार॥
हमकूं बाबा मति कहो, बाबा है बलियार।
बाबा ह्वै करि बैठसी, घनी सहेगा मार॥
यह पद है जो अगम का, रन संग्रामे जूझ।
समुझे कूं दरसन दिया, खोजत मुये अबूझ॥
सीतल कोमल दीनता, संतन के आधीन।
बासों साहिब यौं मिले, ज्यौं जल भीतर मीन॥
कबीर आदू एक है, कहन सुनन कूं दोय।
जल से पारा होत है, पारा से जल होय॥
दिल लागा जु दयाल सों, तब कछु अंतर नांहि।
पारा गलि पानी भया, साहिब साधू मांहि॥
ऐसा अविगति रूप है, चीन्है बिरला कोय।
कहै सुनै देखै नहीं, ताते अचरज मोय॥
सत्तनाम तिरलोक में, सकल रहा भरपूर।
लाजै ज्ञान सरीर का, दिखवै साहिब दूर॥
कबीर सुख दुख सब गया, गय सो पिंड सरीर।
आतम परमातम मिलै, दूधै धोया नीर॥
गुरू हाजिर चहुदिसि खङे, दुनी न जानै भेद।
कवि पंडित कूं गम नही, ताके बपुरे वेद॥
जा कारन हम जाय थे, सनमुख मिलिया आय।
धन मैली पिव ऊजला, लाग सकी नहि पांय॥
भीतर मनुवा मानिया, बाहिर कहूं न जाय।
ज्वाला फ़ेरी जल भया, बूझी जलती लाय॥
तन भीतर मन मानिया, बाहिर कबहू न लाग।
ज्वाला ते फ़िरि जल भया, बुझी जलती आग॥
जिन जेता प्रभु पाइया, ताकूं तेता लाभ।
ओसे प्यास न भागई, जब लग धसै न आभ॥
अकास बेली अमृत फ़ल, पंखि मुवे सब झूर।
सारा जगहि झख मुआ, फ़ल मीठा पै दूर॥
तीखी सुरति कबीर की, फ़ोङ गई ब्रह्मंड।
पीव निराला देखिया, सात दीप नौ खंड॥
ना मैं छाई छापरी, ना मुझ घर नहि गांव।
जो कोई पूछै मुझसों, ना मुझ जाति न ठांव॥
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