सुमिरन को अंग
सुमिरन सों मन जब लगै, ज्ञानांकुस दे सीस।
कहैं कबीर डोलै नहीं, निश्चै बिस्वा बीस॥
सुमिरन मन लागै नही, विषहि हलाहल खाय।
कबीर हटका ना रहै, करि करि थका उपाय॥
सुमिरन मांहि लगाय दे, सुरति आपनी सोय।
कहै कबीर संसार गुन, तुझै न व्यापै कोय॥
सुमिरन सुरति लगाय के, मुख ते कछू न बोल।
बाहर के पट देय के, अंतर के पट खोल॥
सुमिरन तूं घट में करै, घट ही में करतार।
घट ही भीतर पाइये, सुरति सब्द भंडार॥
राजा राना राव रंक, बङो जु सुमिरै नाम।
कहैं कबीर सबसों बङा, जो सुमिरै निहकाम॥
सहकामी सुमिरन करै, पावै उत्तम धाम।
निहकामी सुमिरन करै, पावै अविचल राम॥
जप तप संजम साधना, सब कछु सुमिरन मांहि।
कबीर जाने भक्तजन, सुमिरन सम कछु नांहि॥
थोङा सुमिरन बहुत सुख, जो करि जानै कोय।
हरदी लगै न फ़िटकरी, चोखा ही रंग होय॥
ज्ञान कथे बकि बकि मरै, काहे करै उपाय।
सतगुरू ने तो यों कहा, सुमिरन करो बनाय॥
कबीर सुमिरन सार है, और सकल जंजाल।
आदि अंत मधि सोधिया, दूजा देखा काल॥
कबीर हरि हरि सुमिरि ले, प्रान जाहिंगे छूट।
घर के प्यारे आदमी, चलते लेंगे लूट॥
कबीर चित चंचल भया, चहुँदिस लागी लाय।
गुरू सुमिरन हाथे घङा, लीजै बेगि बुझाय॥
कबीर मेरी सुमिरनी, रसना ऊपर राम।
आदि जुगादि भक्ति है, सबका निज बिसराम॥
कबीर राम रिझाय ले, जिभ्या के रस स्वाद।
और स्वाद रस त्याग दे, राम नाम के स्वाद॥
कबीर मुख से राम कहु, मनहि राम को ध्यान।
रामक सुमिरन ध्यान नित, यही भक्ति यहि ज्ञान॥
राम नाम गुन गावते, तोहि न आवै लाज।
जो कोइ लाजै राम से, ताका तन बेकाज॥
जीना थोङा ही भला, हरि का सुमिरन होय।
लाख बरस का जीवना, लेखै धरै न कोय॥
निज सुख आतमराम है, दूजा दुख अपार।
मनसा वाचा करमना, कबीर सुमिरन सार॥
जो बोलो तो राम कहु, अन्त कहूँ मति जाय।
कहै कबीर निसदिन कहै, सुमिरन सुरति लगाय॥
नर नारी सब नरक है, जब लगि देह सकाम।
कहै कबीर सो पीव को, जो सुमिरै निहकाम॥
दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करै, दुख काहे को होय॥
सुख में सुमिरन ना किया, दुख में कीया याद।
कहै कबीर ता दास की, कौन सुनै फ़रियाद॥
साई सुमिर मति ढील कर, जो सुमिर ते लाह।
इहाँ खलक खिदमत करै, उहाँ अमरपुर जाह॥
सांई यौं मति जानियो, प्रीति घटे मम चीत।
मरूं तो सुमीरत मरूं, जीयत सुमिरूं नीत॥
साईं को सुमिरन करै, ताको बंदे देव।
पहली आप उगावही, पाछे लारै सेव॥
चिंता तो सतनाम की, और न चितवै दास।
जो कछु चितवै नाम बिनु, सोई काल की फ़ांस॥
पांच संगि पिव पिव करै, छठा जो सुमिरै मन।
आई सुरति कबीर की, पाया राम रतन॥
मन जो सुमिरै राम को, राम बसै घट आहि।
अब मन रामहि ह्वै रहा, सीस नवाऊं काहि॥
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँय।
बारी तेरे नाम पर, जित देखूँ तित तूँय॥
तू तू करता तू भया, तुझमें रहा समाय।
तुझ मांही मन मिलि रहा, अब कहुँ अन्त न जाय॥
रग रग बोलां रामजी, रोम रोम रंकार।
सहजे ही धुन होत है, सोई सुमिरन सार॥
सहजे ही धुन होत है, पल पल घटही मांहि।
सुरति सब्द मेला भया, मुख की हाजत नांहि॥
अजपा सुमिरन घट विषे, दीन्हा सिरजन हार।
ताही सों मन लगि रहा, कहैं कबीर विचार॥
सांस सांस पर नाम ले, वृथा सांस मति खोय।
ना जानै इस सांस को, आवन होय न होय॥
सांस सुफ़ल सो जानिये, जो सुमिरन में जाय।
और सांस यौं ही गये, करि करि बहुत उपाय॥
कहा भरोसा देह का, बिनसि जाय छिन मांहि।
सांस सांस सुमिरन करो, और जतन कछु नांहि॥
जाकी पूंजी सांस है, छिन आवै छिन जाय।
ताको ऐसा चाहिये, रहे नाम लौ लाय॥
कहता हूं कहि जात हूँ, कहूँ बजाये ढोल।
स्वासा खाली जात है, तीन लोक का मोल॥
ऐसे महँगे मोल का, एक सांस जो जाय।
चौदह लोक न पटतरै, काहे धूर मिलाय॥
माला सांसउ सांस की, फ़ेरै कोइ निज दास।
चौरासी भरमै नहीं, कटै करम की फ़ांस॥
माला फ़ेरत मन खुशी, ताते कछू न होय।
मन माला के फ़ेरते, घट उजियारो होय॥
माला फ़ेरत जुग गया, मिटा न मन का फ़ेर।
कर का मनका डार देम मन का मनका फ़ेर॥
जे राते सतनाम सों, ते तन रक्त न होय।
रति इक रक्त न नीकसे, जो तन चीरै कोय॥
माला तो कर में फ़िरै, जीभ फ़िरै मुख मांहि।
मनवा तो दहु दिस फ़िरै, यह तो सुमिरन नांहि॥
माला फ़ेरूँ ना हरि भजूँ, मुख से कहूँ न राम।
मेरा हरि मोको भजे, तब पाऊँ बिसराम॥
माला मोसे लङि पङी, का फ़ेरत है मोहि।
मन की माला फ़ेरि ले, गुरू से मेला होय॥
माला फ़ेरै कह भयो, हिरदा गांठि न खोय।
गुरू चरनन चित राचिये, तो अमरापुर जोय॥
कबीर माला काठ की, बहुत जतन का फ़ेर।
माला सांस उसांस की, जामें गांठ न मेर॥
क्रिया करै अंगुरि गिनै, मन धावै चहुँ ओर।
जिहि फ़ेरै साईं मिलै, सो भय काठ कठोर॥150
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