सारनाम या सारशब्द वह मूल-ध्वनि है,
जो आदि-सृष्टि के समय ‘आत्मा’ में उठने वाली पहली आवाज थी।
यही गुप्त है। इसी के प्रकंपन से सृष्टि की समस्त जङ, चेतन वस्तुयें
वृद्धि और हास को प्राप्त होती हैं।
वृद्धि और हास का यह क्रम हर क्षण और निरन्तर है।
सिर्फ़ अपनी ‘वास्तविक पहचान’ भूलने और स्व-स्थ के बजाय
मन-स्थ होने से ऐसा अहसास होता है। जैसे ही स्व-स्थ होंगे,
मनस्थ जो दरअसल कुछ है ही नहीं, खत्म हो जायेगा।
और यह नींद, स्वपन टूटने जैसा होगा।
स्व-पन (हमारी ही क्रियेट की अवस्था)
-----------------
दुनियां में फ़ंसकर वीरान हो रहा है।
खुद को भूलकर हैरान हो रहा है॥
॥परमात्मा॥ को
--------------
हिन्दू शास्त्रों (ब्रह्मसूत्र) में ब्रह्मसूर्य तथा रूप को ‘ब्रह्मज्योति’ कहा।
(जिसे ज्ञान-दृष्टि से अनुभव किया जाता है।)
गुरूग्रन्थ साहिब में ॐकार, तथा रूप को चांदना कहा।
(जो अंतर की आंख से दिखायी देता है।)
वेदों में उसके रूप को ‘भर्गो ज्योति’ कहा।
(जिसे ‘उपनयन’ अर्थात अन्तरदृष्टि से अनुभव किया जाता है।)
गीता में उसे परमात्म तत्व कहा है।
बाइबिल में ‘गाड’ कहा है तथा उसके रूप को डिवाइन लाइट।
(जो ‘थर्ड-आई’ अर्थात तीसरे नेत्र से अनुभव में आता है।)
कुर’आन में ‘अल्लाह’ तथा रूप को ‘नूर’ कहा है।
(जो चश्मे-वसीरत से नजर आता है।)
रवि पंचक जाके नहीं, ताहि चतुर्थी नाहिं।
तेहि सप्तक घेरे रहे, कबहुँ तृतीया नाहिं॥(रामचरित मानस)
-------------------
रवि पंचक..रवि से पाँचवाँ यानी गुरूवार (रवि, सोम, मंगल, बुद्ध, गुरू)
अर्थात जिनको गुरू नहीं है, तो उसको चतुर्थी नहीं होगी।
चतुर्थी यानी बुध (रवि, सोम, मंगल, बुध) अर्थात बुद्धि नहीं आयेगी।
बुद्धि न होने के कारण उसे ‘तेहि सप्तक घेरे रहे’
सप्तक..शनि (रवि, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि)
अर्थात उसको शनि घेरकर रखेगा।
और ‘कबहुँ तृतीया नाहिं।’
तृतीया..मंगल (रवि, सोम, मंगल)
(उसके जीवन में मंगल नहीं होगा।)
जिसके जीवन में गुरू नहीं।
उसका जीवन अभी शुरू नहीं॥
---------------------
पर्वत ऊपर हर बहै, घोड़ा चढ़ि बसै गाँव।
बिना फूल भौरा रस चाहें, कहु बिरवा को नाँव॥
(बीजक साखी-36)
पर्वत पर हल चलाना, घोड़े पर चढ़कर (उस पर) गांव बसाना,
और (मन) भौंरा बिना फ़ूल के ही रस चाहे,
तो उस वृक्ष का नाम क्या हो सकता है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें