सुमिरन को अंग
जैसे फ़निपति मंत्र सुनि, राखै फ़नहि सिकोर।
तैसे वीरा नाम ते, काल रहै मुख मोर॥
सबको नाम सुनावहु, जो आयेगो पास।
सब्द हमारो सत्त है, दृढ़ राखो विस्वास॥
होय विवेकी सब्द का, जाय मिले परिवार।
नाम गहै सो पहुँचई, मानो कहा हमार॥
सुरति समावे नाम में, जग से रहे उदास।
कहै कबीर गुरू चरन में, दृढ़ राखो विस्वास॥
अस औसर नहि पाइहौ, धरो नाम कङिहार।
भौसागर तरि जाव जब, पलक न लागे वार॥
आसा तो इक नाम की, दूजी आस निवार।
दूजी आसा मारसी, ज्यौं चौपर की सार॥
कोटि करम कटि पलक में, रंचक आवै नाम।
जुग अनेक जो पुन्य करु, नही नाम बिनु ठाम॥
सपने में बरराई के, धोखे निकरै नाम।
वाके पग की पानही, मेरे तन को चाम॥
जाकी गांठी नाम है, ताके है सब सिद्धि।
कर जोरै ठाढ़ी सबै, अष्ट सिद्धि नव निद्धि॥
हयवर गयवर सघन घन, छत्र धुजा फ़हराय।
ता सुख ते भिक्षुक भला, नाम भजत दिन जाय॥
पारस रूपी नाम है, लोहा रूपी जीव।
जब सो पारस भेंटिहै, तब जिव होसी सीव॥
पारस रूपी नाम है, लोह रूप संसार।
पारस पाया पुरुष का, परखि परखि टकसार॥
सुख के माथे सिल परै, नाम ह्रदे से जाय।
बलिहारी वा दुख की, पल पल नाम रटाय॥
लेने को सतनाम है, देने को अंनदान।
तरने को आधीनता, बूङन को अभिमान॥
लूटि सकै तो लूटि ले, रामनाम की लूट।
नाम जु निरगुन को गहौ, नातर जैहो खूट॥
कहैं कबीर तूं लूटि ले, रामनाम भंडार।
काल कंठ को जब गहे, रोकै दसहूं द्वार॥
कबीर निर्भय नाम जपु, जब लग दीवे बाति।
तेल घटे बाती बुझै, सोवोगे दिन राति॥
कबीर सूता क्या करै, जागी जपो मुरार।
एक दिना है सोवना, लंबे पांव पसार॥
कबीर सूता क्या करै, उठिन भजो भगवान।
जम घर जब ले जायेंगे, पङा रहेगा म्यान॥
कबीर सूता क्या करै, गुन सतगुरू का गाय।
तेरे सिर पर जम खङा, खरच कदे का खाय॥
कबीर सूता क्या करै, सूते होय अकाज।
ब्रह्मा को आसन डिग्यो, सुनी काल की गाज॥
कबीर सूता क्या करै, ऊठि न रोवो दूख।
जाका वासा गोर में, सो क्यों सोये सूख॥
कबीर सूता क्या करै, जागन की कर चौंप।
ये दम हीरा लाल है, गिन गिन गुरू को सौंप॥
कबीर सूता क्या करै, काहे न देखै जागि।
जाके संग ते बीछुरा, ताहि के संग लागि॥
अपने पहरै जागिये, ना परि रहिये सोय।
ना जानौ छिन एक में, किसका पहरा होय॥
नींद निसानी मीच की, उठु कबीरा जाग।
और रसायन छांङि के, नाम रसायन लाग॥
सोया सो निस्फ़ल गया, जागा सो फ़ल लेहि।
साहिब हक्क न राखसी, जब मांगे तब देहि॥
केसव कहि कहि कूकिये, ना सोइये असरार।
रात दिवस के कूकते, कबहुँक लगै पुकार॥
कबीर क्षुधा है कूकरी, करत भजन में भंग।
याकूं टुकङा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग॥
गिरही का टुकङा बुरा, दो दो आंगुल दांत।
भजन करैं तो ऊबरे, नातर काढ़ै आंत॥
बाहिर क्या दिखलाइये, अन्तर जपिये नाम।
कहा महोला खलक सों, पर्यो धनी सो काम॥
गोविंद के गुन गावता, कबहु न कीजै लाज।
यह पद्धति आगे मुकति, एक पंथ दो काज॥
गुन गाये गुन ना कटै, रटै न नाम वियोग।
अहिनिस गुरू ध्यायो नहीं, पावै दुरलभ जोग॥
सतगुरू का उपदेस, सतनाम निज सार है।
यह निज मुक्ति संदेस, सुनो संत सत भाव से॥
क्यौं छूटै जम जाल, बहु बंधन जिव बांधिया।
काटै दीनदयाल, करम फ़ंद इक नाम से॥
काटहु जम के फ़ंद, जेहि फ़ंदे जग फ़ंदिया।
कटै तो होय निसंक, नाम खङग सदगुरू दिया॥
तजै काग को देह, हंस दसा की सुरति पर।
मुक्ति संदेसा येह, सत्तनाम परमान अस॥
सुमिरन मारग सहज का, सदगुरू दिया बताय।
सांस सांस सुमिरन करूं, इक दिन मिलसी आय॥
सुमिरन से सुख होत है, सुमिरन से दुख जाय।
कहैं कबीर सुमिरन किये, साईं मांहि समाय॥
सुमिरन की सुधि यौं करो, जैसे कामी काम।
कहैं कबीर पुकारि के, तब प्रगटै निज नाम॥
सुमिरन की सुधि यौं करो, ज्यौं गागर पनिहार।
हालै डोलै सुरति में, कहैं कबीर विचार॥
सुमिरन की सुधि यौं करो, ज्यौं सुरभी सुत मांहि।
कहै कबीरा चारा चरत, बिसरत कबहूं नांहि॥
सुमिरन की सुधि यौं करो, जैसे दाम कंगाल।
कहैं कबीर बिसरै नहीं, पल पल लेत संभाल॥
सुमिरन की सुधि यौं करो, जैसे नाद कुरंग।
कहैं कबीर बिसरै नहीं, प्रान तजै तिहि संग॥
सुमिरन की सुधि यों करो, ज्यौं सुई में डोर।
कहैं कबीर छूटै नही, चलै ओर की ओर॥
सुमिरन सों मन लाइये, जैसे कीट भिरंग।
कबीर बिसारे आपको, होय जाय तिहि रंग॥
सुमिरन सों मन लाइये, जैसे दीप पतंग॥
प्रान तजै छिन एक में, जरत न मोरै अंग॥
सुमिरन सों मन लाइये, जैसे पानी मीन।
प्रान तजै पल बीछुरे, दास कबीर कहि दीन॥१००
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