22 नवंबर 2019

एकलौ बीर


क्षण भर में ही क्रमश​: एक देश से दूसरे अत्यन्त दूर देश तक प्राप्त संवित (ज्ञान) का दोनों देशों के बीच में जो निर्मल, निर्विषयक रूप है वही पर-ब्रह्म परमात्मा का वह सर्वोत्कृष्ट अक्षुब्ध रूप है।

देशाद्देशान्तरं दूरं प्राप्ताया: संविद: क्षणात।
यद्रूपममलं मध्ये परं तद्रूपमात्मन:॥

एकलौ बीर दुसरौ धीर, तीसरौ खटपट चोथौ उपाध।
दस-पंच तहाँ, बाद-बिबाद॥

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ज्ञानी लोग पर्वत के समान अकम्पनीय, वायुरहित स्थान में स्थित दीपक की नाई सदा सम-प्रकाश युक्त तथा आचार शून्य होते हुए भी आचार युक्त स्वस्थ ही बने रहते हैं।

अचला इव निर्वाता दीपा इव समत्विष:।
साचारा वा निराचारास्तिष्ठन्ति स्वस्थमेव ते॥

गगन मंडल मैं गाय बियाई, कागद दही जमाया। 
छांछि छांणि पंडिता पीवीं, सिद्धा माखण खाया।। 

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शरीरधारियों के लिए महा भयंकर दो व्याधियाँ हैं - एक तो यह लोक, और दूसरा परलोक​। क्योंकि इन्हीं दोनों के कारण पीड़ित होकर मनुष्य आध्यात्मिक आदि भावों से अनेक दु:ख भोगता है।

द्वौ व्याधी देहिनो घोरावयं लोकस्तथा पर:।
याभ्यां घोराणि दु:खानि भुङ्क्ते सर्वैर्हि पीङित:॥

नेह निबाहे ही बने, सोचे बने न आन।
तन दे मन दे सीस दे, नेह न दीजे जान।।

15 नवंबर 2019

बिदेही ब्रह्म निरंजन


सृष्टि का सबसे ऊपरी आवरण (खोल, अंडा) ‘विराट’ कहलाता है। इसी विराट के अन्दर का खोल ‘हिरण्यगर्भ’ कहलाता है। हिरण्यगर्भ के भी अन्दर का खोल (जिसमें सभी जीव आदि स्थूल सृष्टि है) ‘ईश्वर’ कहलाता है। मुख्यतः हिरण्यगर्भ का अर्थ ‘सूक्ष्म प्रकृति’ या कारण-शरीरों से है। यह गुह्य ज्ञान ग्रन्थों में रूपक अन्दाज में लिखा है, और कुछ शास्त्रकारों के अपने शब्दों के कारण भिन्नता सी प्रतीत होती है।

हंसा-बगुला एक सा, मान-सरोवर माही।
हंसा ताकूं जानिये, जो मोती चुग ले आही।

बिना भजन तू बैल बनेगा, सर पर बाजे लाठी।
भगती कर भगवान की, क्यों व्यर्थ खोओ या माटी।

नेह निबाहे हि बने, सोचे बने न आन।
तन दे मन दे सीस दे, नेह न दीजे जान।



न तो कोई चिति के सिवा दूसरा बीज है, न अंकुर है, न पुरूष है, न कर्म है, और न दैव आदि ही कुछ है, केवल चिति का ही यह सब कुछ विलास है।

न बीजमादावस्त्यन्यन्नाङ्कुरो न च वा नर:।
न कर्म न च दैवादि केवलं चिदुदेति हि॥

प्रथम पुरूष अनाम-अकाया, जास हिलोर भई सत माया।
माया नाम भया इक ठौरा, सत मत नाम बंधा इक डोरा।। 




संसार के जीवों का आत्मज्ञान, अनादि-अविद्या से ढक गया है। इसी कारण वे संसार के अनेकानेक क्लेशों के भार से पीड़ित हो रहे हैं। यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मों से बँधा हुआ है। वह सुख की इच्छा से दुःखप्रद कर्मों का अनुष्ठान करता है। जैसे कोई अंधा अंधे को ही अपना पथ प्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी जीव अज्ञानी को ही अपना गुरू बनाते हैं।

नैन में मिलाकर नैन, देख बिदेही ब्रह्म निरंजन। 
जो नैन का पावे भेद, वो ही कला होवै अभेद।।

04 नवंबर 2019

मैं जिस पर कृपा करता हूँ



मैं जिस पर कृपा करता हूँ, उसका धन छीन लेता हूँ। क्योंकि जब मनुष्य धन के मद से मतवाला हो जाता है, तब मेरा और लोगों का तिरस्कार करने लगता है। यह जीव अपने कर्मों के कारण विवश होकर अनेक योनियों में भटकता रहता है, जब कभी मेरी बड़ी कृपा से मनुष्य का शरीर प्राप्त करता है।

मनुष्य योनि में जन्म लेकर यदि कुलीनता, कर्म, अवस्था, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन आदि के कारण घमंड न हो जाये तो समझना चाहिये कि मेरी बड़ी ही कृपा है।

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भारत! कुआँ दूसरे का, घङा दूसरे का, और रस्सी दूसरे की है। एक पानी पिलाता है, और एक पीता है। वे सब फल के भागी होते हैं।

कृपोस्य्स्य घटोस्य्स्य रज्जुरंयस्य भारत।
पायवत्येक पिबत्वेकः सर्वे ते संभागिनः॥

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महाभारत, विष्णु-पुराण के अनुसार जय-विजय में से एक हिरण्यकशिपु, फ़िर रावण, फ़िर (श्रीकृष्ण के फ़ूफ़ा, चेदि देश के दमघोषका पुत्र होकर) शिशुपाल हुआ। विदर्भराज भीष्मक की पुत्री रुक्मणी थी।
और श्रीकृष्ण कमली (कमरिया) वाले के नाम से प्रसिद्ध थे। रुक्मणी का भाई रुक्मी, उसका विवाह शिशुपाल से करना चाहता था। परन्तु विवाह श्रीकृष्ण के साथ हुआ। इसलिये घोष हारे, और कमली वाला जीता।  

हम लख हमहिं हमार लख, हम-हमार के बीच।
तुलसी अलखहिं का लखै, राम-नाम लखु नीच॥

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जो मनुष्य अपने धन को पाँच भागों में बाँट देता है - कुछ धर्म के लिये, कुछ यश के लिये, कुछ धन की अभिवृद्धि के लिये, कुछ भोगों के लिये, और कुछ अपने स्वजनों के लिये, वही इस लोक और परलोक दोनों में ही सुख पाता है। (श्रीमद भागवत महापुराण)

चलै बटावा थाकी बाट, सोवै डूकरिया ठोरे खाट।
ढूकिले कूकर भूकिले चोर, काढै धणी पुकारे ढोर॥


31 अक्टूबर 2019

घोसी-कमरिया वाद। कमरिया उच्च क्यों?



महाभारत
घोसी-कमरिया वाद। कमरिया उच्च क्यों? विवाह आधारित तीन तथ्य।
अहीर (आभीर)

महाभारत, विष्णु-पुराण के अनुसार जय-विजय में से एक हिरण्यकशिपु, फ़िर रावण, फ़िर (श्रीकृष्ण के फ़ूफ़ा, चेदि देश के ‘दमघोष’ का पुत्र होकर) शिशुपाल हुआ। इसके तीन आँखें, चार हाथ थे, और जनमते ही गधे की तरह रेंकने लगा था।

(म. प्र. के जिला अशोकनगर (बुंदेलखंड) में है चेदि (चंदेरी)। किंवदंती है कि यहां द्वापर-युग में ढाई प्रहर सोने की बारिश हुई थी) 

विदर्भराज भीष्मक के रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेस तथा रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र, और एक पुत्री रुक्मणी थी।

(अवंतिका देवी मंदिर उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में अनूपशहर तहसील के जहांगीराबाद से करीब 15 किमी. दूर गंगा तट पर है। महाभारत काल यह मंदिर अहार नाम से जाना जाता था)

और श्रीकृष्ण कमली (कमरिया) वाले के नाम से प्रसिद्ध थे। रुक्मणी का भाई रुक्मी, उसका विवाह शिशुपाल से करना चाहता था। परन्तु विवाह श्रीकृष्ण के साथ हुआ। 

इसलिये घोष हारे, और कमली वाला जीता।  

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी के पुत्र - प्रद्युम्न, चारूदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारू, चरूगुप्त, भद्रचारू, चारुचंद्र, विचारू और चारू थे। और एक पुत्री चारूमति थी।
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यदुवंशी, घोक (स) और कमलनयन दो भाई थे। घोक, भाई से अनबन के कारण वन में जाकर भीलनी के साथ रहने लगे। कमलनयन ने वन जाकर देखा, घोक ने भीलनी से संतान उत्पन्न कर जाति को वर्णसंकर कर दिया। इससे दोनों भाईयों में अलगाव हुआ, और घोक से घोसी तथा कमलनयन से कमरिया वर्ग बना।
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एक यादव कन्या का अनजाने में दो जगह विवाह तय हो गया। दोनों बारातें एक ही समय में, एक ही कन्या हेतु पहुँचने पर वर चुनाव हेतु बुद्धि-परीक्षण तय हुआ। इसमें कम्बल को तालाब में डालकर मृत भैंस जैसा बनाकर दोनों वर पक्षों से निकालने को कहा।

एक वर-पक्ष घुस-फ़ुस (घोसी) करता रहा। दूसरे पक्ष ने कम्बल (कमरिया) निकाल दिया, और विजयी हुआ।


17 अगस्त 2019

बाणासुर राक्षस बना महाकाल




=धर्म-चिन्तन= महाकाल बाणासुर

ब्रह्मा के पुत्र मरीचि के पुत्र कश्यप की बङी पत्नी दिति से दो पुत्र हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष पैदा हुये। हिरण्यकशिपु के चार पुत्रों में सबसे छोटे प्रह्लाद थे। प्रह्लाद के विरोचन के बलि के बाण नाम का पुत्र हुआ। बाण ने शोणितपुर को राजधानी बनाया। बाणासुर की कन्या उषा ने शंकर के कामवश होने पर गिरिजा का रूप धर कर भोग करना चाहा पर गिरिजा के आ जाने से सफ़ल न हुयी।

अनेक छल-प्रपंचों के बाद उषा का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के पुत्र अनिरूद्ध के साथ, (विष्णु के अवतार) श्रीकृष्ण-बलराम के शंकर जी एवं उनके गणों के साथ घोर युद्ध के बाद हुआ। इसी युद्ध में श्रीकृष्ण ने शीत-ज्वर एवं शंकर ने पित्त-ज्वर से एक-दूसरे पर आक्रमण किया। फ़िर शंकर ने इन ज्वरों को अपना गण बना लिया।

खास बात यह हुयी कि युद्ध के बाद शंकर ने बाणासुर को अपने सभी गणों का स्वामी घोषित करते हुये “महाकाल” की उपाधि दी।

इस तरह बाणासुर राक्षस “महाकाल’’ हुआ। (शिव पुराण)
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ब्रह्मा के भाई/बराबर के देव, शंकर के प्रति छह-सात पीढ़ी बाद हुयी, उषा का कामातुर होना अजीब नहीं? सतयुग से अभी के द्वापर तक ब्रह्मा की सातवीं पीढ़ी ही हुयी?

गौर करें तो अन्य सब कुछ भी आपसी खानदानी झगङे सा है।  



जब शब्द अर्थहीन, भाव रसहीन, रस स्वादहीन हो जाते हैं तब कर्मरत योगी, कर्मशील रहते हुये भी निःकर्म ही रहता है। कर्म एवं कर्मफ़ल उसके लिये प्रभाव रहित हो जाते हैं। उस जीवन-मुक्त योगी के लिये जीवन मात्र स्फ़ुरणा जनक प्रकृति-प्रपंच ही है।

कर्मनाश होने से गर्भवास एवं मरण नाश हो जाता है।
तब वह अमर, शाश्वत, अविनाशी हुआ सदा रहता है।

पूरब दिसि ब्याधि का रोग, पछिम दिसि मिर्तु का सोग।
दक्षिण दिसि माया का भोग, उत्तर दिसि सिध का जोग॥  

अमरा निरमल पाप न पुंनि, सत-रज बिबरजित सुंनि।
सोहं-हंसा सुमिरै सबद, तिहिं परमारथ अनंत सिध॥  



=धर्म-चिन्तन= गजेन्द्र मोक्ष
मलय पर्वत पर आराधना करते, विष्णु के घोर उपासक राजा इंद्रद्युम्न, अगस्त्य ऋषि के शाप से ‘गजेन्द्र’ हाथी हुये। एवं महर्षि देवल के शाप से ‘हूंहूं’ गंधर्व ग्राह हुआ। एक दिन गजेन्द्र त्रिकूट पर्वत की तराई में वरूण के ‘ऋतुमान’ नामक क्रीङा-कानन के सरोवर में हथिनियों के साथ विहार कर रहा था। तभी हूंहूं ग्राह ने उसका पैर पकङ लिया।

फ़िर दोनों में एक सहस्र वर्ष संघर्ष हुआ, और गजेन्द्र शिथिल पङने लगा। ग्राह अभी भी शक्ति से भरा था। प्राण-अन्त जैसी स्थिति होने पर गजेन्द्र को पूर्वजन्म की आराधना फ़ल से भगवद स्मृति हुयी, और उसने विष्णु को पुकारा। विष्णु ने सुदर्शन चक्र से ग्राह का वध किया।

हूंहूं गंधर्व ग्राह योनि से मुक्त होकर अपने लोक गया, और गजेन्द्र को विष्णु ने अपना पार्षद बना लिया।
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वास्तव में यह एक ‘योग-रूपक’ है। शब्दों के गहन अर्थ को न समझ कर लोग कथाओं में उलझ जाते हैं। अब चित्र देखिये।

15 अगस्त 2019

साधू होय तो पक्का ह्वै के खेल


जिस प्रकार अनर्गल खाद्यों से अधिक भरा उदर, शारीर-व्याधि का हेतु तथा अनर्गल विचारों से भरा मन/अंतःकरण, जीव-विकार का हेतु है। उसी प्रकार पंच-विकारों से ग्रसित, आवरित हुआ आत्मा भव-विकारों का हेतु है।

क्रमशः आहार शोधन ही विकार निदान का हेतु है।
शब्द-आत्म से ही पूर्ण विकारों का निदान संभव है।

अति आहार इंद्री बल करै, नासै ग्यांन मैथुन चित धरै।
व्यापै न्यंद्रा झंपै काल, ताके हिरदै सदा जंजाल॥  

थोड़ा बोलै थोड़ खा‍इ, तिस घटि पवनां रहै समा‍इ।
गगनमंडल से अनहद बाजै, प्यंड पड़ै तो सतगुरू लाजै॥



प्रथम दीक्षा में, शब्द-नाम जाग्रति, ब्रह्मांडी रंध्र खोलना, जङ-चेतन ग्रन्थि अलग करना एवं अंतर-बोध, अंतर-प्रविष्टि ये चार क्रियायें सिर्फ़ समर्थ सदगुरू द्वारा सम्पन्न होती हैं। तदुपरांत साधक के ध्यान-समाधि अभ्यास से अंतर-यात्रा आरम्भ होती है।

यह यात्रा जीव की तुरीया/कारण का नाश करती है।
तुरीयातीत आत्मा, ही चौथी मुक्त अवस्था को जानता है।

अंधों का हाथी सही, हाथ टटोल-टटोल।
आंखों से नहीं देखिया, ताते भिन-भिन बोल॥

अशुभ वेशभूषा धरे, भच्छ-अभच्छ जे खाय।
ते जोगी ते सिद्ध नर, पुजते कलयुग माय॥



जो तुम हो, वही (सोऽहं वीर) मैं हूँ। लेकिन स्वयं को भूला हुआ। अबोध जीव के जङ-शरीर में, स्पंदन रूपी स्वांस से, चेतन काया-वीर, मन की जङ-ग्रन्थि द्वारा जन्म-जन्मांतरों से बंधा हुआ इस असार जगत में स्वयं सहित परमात्मा को खोज रहा है।

खोज सिर्फ़ सच्चे-सदगुरू द्वारा समाप्त होगी।
और, उसके लिये तुम्हें सच्चा शिष्य बनना होगा।

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई अक्षर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय॥

साधू होय तो पक्का ह्वै के खेल।

कच्ची सरसों पेर के, खली बने न तेल॥    

12 अगस्त 2019

सर्वव्यापी सत्ता शब्द-वीर



एक सोऽहं वीर सौ के, हंऽसो हजार एवं परमहंस लाख वीरों के समान है। शब्द-वीर सर्वव्यापी सत्ता है। महामन्त्र, अजपा सोऽहं (बीज) निर्वाणी सिद्ध होने पर क्रमशः हंऽसो, परमहंस एवं शब्दवीर तक भेदता है।
सोऽहं-सार से शब्द-सत्ता तक शक्ति है।
शब्द के पार विलक्षण आपही आप है।

कासी मुक्ति हेतु उपदेसू।
महामंत्र जोइ जपत महेसू।

उल्टा-नाम जपा जग जाना।
वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।



=धर्म-चिंतन=

याज्ञवल्क्य - जो समझता है कि मैं अन्य एवं देवता अन्य हैं। इस प्रकार अन्य की उपासना करता है वह अज्ञानी, देवताओं का पशु है। जैसे बहुत से पशु एक-एक मनुष्य का पालन करते हैं। उनमें एक भी पशु हाथ से निकल जाये तो मनुष्य को बहुत बुरा लगता है।

वैसे ही बहुत से मनुष्य मिलकर एक-एक देवता का पालन करते हैं। अतः यदि एक भी मनुष्य देवताओं को छोङकर अलग हो जाये, और अपनी आत्मा की उपासना करने लगे, तो देवों को यह कैसे पसन्द होगा?

इसलिये देवता नहीं चाहते कि मनुष्य यह समझ ले कि “मैं ही ब्रह्म हूँ” मैं तुच्छ नहीं महान हूँ, मैं आत्मा ही हूँ। देवता यही चाहते हैं कि मनुष्य अपने निज आत्म-स्वरूप को न पहचाने, और देवताओं का पशु बनकर उनकी सेवा करता रहे।

योऽन्यां देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहम।
स्मीत न स वेद यथा पशुरेवं स देवानाम॥
यथा ह वै बहवः पशुवो मनुष्यं भञ्जुरेवमेकैकः
पुरूषो देवान भुनक्त्येकस्मिन्नेव पशावादीयमानेऽप्रियं।
भवति किमु बहुषु तस्मादेषां तन्न प्रियं यदेतन्मनुष्या विदुः॥
(बृहदारण्यक उपनिषद 1-4-10) 


काम, कर्म एवं वासना, अंतःकरण के विकार ये तीनों मल, द्वैतरूपी माया के अज्ञान/अबोध से ही स्थित हैं। गुरू के सैन-बैन से उत्पन्न जाग्रति/बोध/समाधि से ये विकारी आवरण क्षीण होकर नष्टप्रायः हो जाते हैं।

भ्रंगी शब्द-गुरू द्वारा हुयी जाग्रति ही असली मोक्ष है।
भ्रंगी, अंतर-बाहर, देह-विदेह समान रूप अंग-संग है। 

जब लग मन स्थिर नहीं, तब लग आतमज्ञान।
कहन-सुनन अस जान, जस हाथी को असनान॥

इंगला बिनसै पिंगला बिनसै, बिनसै सुखमन नाङी।
कहै कबीर सुनो रे गोरख, कहाँ लगावै तारी॥


10 अगस्त 2019

अचल आत्मा, सचल प्रकृति



भूत एवं भविष्य तथा उनके समय एवं स्थान को खत्म कर सकने वाला, निरंतर प्रकृति-प्रवाह से जुङा, वर्तमान क्षण में सक्रिय/सचेत/जाग्रत योगी, इच्छामात्र से समस्त प्रारब्ध/शरीरी/स्रष्टिक गतिविधियों का कुशल नियंता होता है।
यह “है” में “होना” का योग है।
अतः अचल आत्मा, सचल प्रकृति को यथावत जानो।

तासो ही कछु पाइये, कीजै जाकी आस।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास॥

आपा छिपा है आप में, आपही ढूंढे आप।
और कौन को देखिये, है सो आपही आप॥



भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे। देवों को प्रसन्न करने के लिए भजन करे। नाना शुभ-कर्म करे। तथापि जब तक ब्रह्म, आत्मा की एकता का बोध नहीं होता तब तक सौ ब्रह्माओं (सौ कल्प) के बीत जाने पर भी मुक्ति नहीं हो सकती।

वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवता।
आत्मैक्यबोधेन बिनापि मुक्तिर्न सिद्धयाति ब्रह्मशतान्तरेअपि॥
(विवेक चूङामणि)

अपने किये हुये शुभ-अशुभ कर्म अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। बिना भोग के कर्म नहीं मिटते। चाहे करोड़ों कल्प बीत जायें।

अश्वयमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि॥ 



शब्द व्युत्पत्ति से अर्थ प्रसार एवं शब्दार्थ से स्थिति, स्थित है। भाव से स्वर में सन्निहित मूल अक्षर क्रमशः संस्कृत, देवनागरी लिपि है। जिससे विराट फ़िर आर्य पुरूष स्थित है। तदुपरान्त अन्य कृति विकृति हैं।
ट ठ ड ढ ण ङ, वर्ण शेष से भिन्न हैं।
क्षर से अक्षर का मूल निःअक्षर है।

केवल बुद्धि-विलास से, मुक्त हुआ न कोय।
जब अपनी प्रज्ञा जगे, सहज मुक्त है सोय॥

वचन वेद अनुभव युगति, आनन्द की परछाहीं।
बोधरूप पुरूष अखंडित, कहबै मैं कुछ नाहीं॥

07 अगस्त 2019

सुदामा से शंखचूङ दैत्य तक



साइकिल टयूब में वायु भरने की भांति “हूँ” को कंठ से नाभि तक छोङना, ब्रह्म-मंत्र। एवं तदैव निर्वाणी (“हूँ” रहित) क्रिया में एक चमत्कारी गूढ़-रहस्य है, जो साधक को (भव)सागर का कुशल तैराक बना देता है।
यह “होना” एवं “है” दोनों में प्रविष्टि है।
हंसा अब लख आप अपारा।

जो “सतनाम” साधु नहिं जाना।
सो साधु भये जिवत मसाना॥

कलियुग साधु कहैं, हम जाना।
झूठ-शब्द मुख करहिं बखाना॥




वहाँ-यहाँ, ऊर्ध्व-मध्य, भगवान-शैतान, पुरूष-प्रकृति, ब्रह्म-माया के मध्य “जीव” प्रतिनिधि के रूप में रजोगुण से क्रियाशील, सत्व-तम इन दो गुणों में अहं-भाव होकर बरतता है। उपरोक्त दोनों को यथावत “जानने वाला” ही ज्ञानी है।
हे साधो, मच्छ वृति से कच्छ वृति धारो। 

जब जन्में नहीं रामचन्द्र राजा, तब क्या रटती बाजी।
वेद-कुरान कतेब नहीं थे, तब क्या पढ़ते पंडित-काजी॥

चीन्हि-चीन्हि का गावहु बौरे, वाणी परी न चीन्ह।
आदि-अन्त उत्पति-प्रलय, आपु आपु कहि दीन्ह॥



=धर्म-चिंतन=

दो मुठ्ठी चने से निर्धन एवं तीन मुठ्ठी चावल से अपार सम्पदा, प्रतिष्ठा को प्राप्त हुआ, श्रीकृष्ण का परमभक्त सुदामा मर कर गोलोक वासी हुआ। एक दिन कृष्ण ने राधा को छल से भेज कर विरजा गोपी के साथ भोग किया। राधा पता चलते ही तुरन्त विरजा के घर आयीं परन्तु सुदामा जो एक लाख गोपों के साथ द्वार पर पहरेदार था, उसने राधा को अंदर जाने नहीं दिया। अधिक हल्ला होने पर भयभीत कृष्ण अंतर्ध्यान और विरजा नदी हो गयी।

बाद में राधा ने कृष्ण को शाप दिया कि विरजा और तुम नदी-नद होकर भोग-विलास करो तथा कृष्ण का मनुष्य रूप में जन्म हो। फ़िर राधा ने सुदामा को (शंखचूङ) दैत्य होने का शाप दिया। बदले
में सुदामा ने भी उन्हें मनुष्य होने एवं अविवाहित रहने का शाप दिया।

सुदामा, शंखचूङ दानव होकर शिव एवं देवों का शत्रु हुआ। तब शिव ने (अवतार में कृष्ण) विष्णु द्वारा छल से उसका कवच मांगकर, तथा उसकी पत्नी तुलसी (वृंदा) का सतीत्व भंग कर उसे मारा।
(शिव पुराण)

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