मैं जब भी कभी अपने बृहद धार्मिक अध्ययन के मद्देनजर चार प्रमुख धर्मों हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई के विभिन्न पहलुओं और इन धर्मों से जुङे लोगों की मानसिकता और आचरण पर नजर डालता हूँ । तो उसके परिणाम मेरे लिये भारी हैरतअंगेज ही होते हैं । मुसलमान और ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों या फ़िर संस्कार वश इनमें जन्में लोगों के पास कुरआन और बाइबिल जैसे दो मुख्य गृन्थ ही हैं ।
और जब कभी मैंने इन गृन्थों को किसी जाति धर्म का होने के बजाय एक इंसान होकर उत्सुकतावश हिन्दू धर्म ग्रन्थों के तुलनात्मक स्तर पर पढा है । तो मुझे इनमें कोई खास रुचिकर ज्ञानवर्धक जीवन से जुङा आत्मा या स्रूष्टि के रहस्य बताने वाला । कोई खास मैटर नजर नहीं आया । इस बात का कोई अर्थ निकालते समय जल्दबाजी के बजाय - हिन्दू धर्म ग्रन्थों के तुलनात्मक स्तर पर..भाव पर ध्यान दें ।
बात को यहीं पर और भी स्पष्ट करने के लिये मैं न सिर्फ़ हिन्दूओं की एक विश्व लोकप्रिय श्रीमद भगवत गीता । जो उपलब्ध सन्तमत ज्ञान के तुलनात्मक मेरी नजर में बहुत अधिक खास नहीं है । और गोस्वामी तुलसीदास को माध्यम बनाकर । उनके द्वारा प्रकट हुआ आत्मज्ञान का आम बोली में सरल और सहज प्रस्तुति वाला श्री रामचरित मानस ही इन दो किताबों पर बहुत भारी पङता है । गीता बहुत छोटी पुस्तक हैं । जिसमें सिर्फ़ 18 अध्याय है । और इसको जीवन या आत्मा का सार ज्ञान कहा गया है । मतलब सिर्फ़ इसको ही भली प्रकार पढकर आप - मैं कौन हूँ ? जैसे महाप्रश्न का उत्तर - मैं एक शुद्ध चैतन्य शाश्वत अमर अजर अविनाशी आत्मा हूँ । बहुत सरलता से भली प्रकार जान जाते हैं । और फ़िर इसको प्रयोगात्मक तरीके से जानने और पाने के लिये तैयार हो जाते हैं । गीता इसके लिये आपको तरीका भी बताती है । और फ़िर कहती हैं - इसे भली प्रकार पाने के लिये तू किसी तत्वज्ञानी की शरण में जा । वही तुझ पर प्रसन्न होकर तुझे ये ज्ञान देंगे ।
तो मेरे कहने का मतलब है । बहुत छोटी सी और मूल्य के दृष्टिकोण से भी सस्ती गीता आपको कितना बङा रहस्य और मानव जीवन के परम लक्ष्य की और चेताती हुयी अग्रसर करती है ।
इसके बाद तुलसी के रामचरित मानस की बात करें । तो मैंने आपसे हमेशा ही कहा है । इसमें पहला बालकाण्ड और सबसे अन्तिम उत्तरकाण्ड में ही आत्मज्ञान का गूढ रहस्य छिपा हुआ है । तात्पर्य यह कि दशरथ पुत्र राम की लम्बी चौङी कथा आपको पढने की अधिक आवश्यकता नहीं । रामचरित मानस के ही अरण्य काण्ड में और किष्किन्धा काण्ड में राम का भीलनी शबरी से मिलाप और हनुमान सुग्रीव से भेंट आदि में कुछ प्रसंग अलौकिक ज्ञान से भरपूर और आत्मिक रस से ओतप्रोत हैं । रामचरित मानस के अन्य अध्यायों में भी ऐसे उदाहरण जगह जगह हैं । जो आपको अनोखी शान्ति मिठास और अलौकिक रस का आभास कराते हैं ।
हिन्दुओं की इन लोकप्रिय महज दो पुस्तकों के उदाहरण देने के पीछे मेरी मंशा यही है कि - जब जब मैंने कुरआन और बाइबिल को पढकर उनमें ऐसी ही कोई मिठास तलाश करने की कोशिश की । तो मुझे सिर्फ़ एक ही चीज मिली - सिरदर्द । अजीब सी उलझाऊ स्टायल शैली । बात को घुमाकर कहने की कोशिश । और सिर्फ़ एक ही बात साबित करना कि - यही किताब श्रेष्ठ है । इससे जुङा व्यक्तित्व ही श्रेष्ठ है । और केवल यही एकमात्र परम सत्य है । मुझे हैरानी है कि मैंने तमाम हिन्दू ग्रन्थों में यह तीनों चीजें कहीं नहीं देखी । हालांकि अल्प अध्ययन से आपको हिन्दू धर्म ग्रन्थों में भी ऐसा ही भृम हो सकता है । जब आप विष्णु । शंकर या अन्य शक्तियों से सम्बन्धित पुराण etc का अध्ययन करेंगे । तो आपको भी ऐसा लगेगा कि ये गृन्थ आपस में ही मतभेद रखते हैं । पर बाद में विशद अध्ययन आपकी ये धारणा दूर कर देगा । क्योंकि वहाँ उनको सर्वोपरि या प्रमुख उस स्थिति के अनुसार
बताया गया है । जबकि आगे के पन्ने पलटते ही वह शक्ति भी आपको उच्च शक्तियों से नतमस्तक नजर आयेगी ।
अब मुझे ईसाई या मुस्लिमों को लेकर ताज्जुब इस बात का होता है कि वे अपने धार्मिक ज्ञान को मेरी तरह जाति धर्म से अलग हटकर समझने की कोशिश करते हैं । या चाशनी में बैठी हुयी मक्खी की तरह उसमें मजूबूरी । संस्कार वश । या पुरातन रूढियों वश लिपटे हुये हैं । क्या उन्होंने अन्य धार्मिक पुस्तकों का बिना किसी पूर्वाग्रह के खुले दिमाग से अध्ययन किया है । शायद नहीं । और ये ही सबसे बङा दुर्भाग्य है कि प्रथ्वी पर इंसान कम हिन्दू मुसलमान सिख ईसाई आदि प्रोग्राम किये रोबोट अधिक हैं ।
चलिये । ईसाईओं और मुसलमानों को लेकर जो भावना मेरे मन में थी । मैंने बता दी ।
अब बात सिखों की हो जाय । मुझे सबसे ज्यादा रोना इसी जाति को लेकर आता है । जैसा कि मैंने पूर्व में कहा भी है । श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के रूप में विश्व में अल्पसंख्यक सिखों के पास सभी ज्ञानों का न सिर्फ़ निचोङ बल्कि
सर्वोच्च ज्ञान मौजूद है । हालांकि मैं ग्रन्थ साहिब की वाणी को जाति विशेष यानी सिखों की ही न मानकर आत्मज्ञानी सन्तों की अधिक मानता हूँ । मतलब मेरे हिसाब से नानक साहब अर्जुन देव जी आदि गुरु सिख धर्म में जन्में अवश्य थे । पर वे सच्चे अर्थों में इंसान थे । रब्ब के असली और सच्चे बन्दे थे । वे अपनी या विरानी जाति को नहीं । बल्कि इंसान को देखते थे । इंसान को मानते थे । उनका धर्म सनातन धर्म था । न कि हिन्दू । मुस्लिम । सिख । ईसाई । यहूदी वगैरह ।
फ़िर भी रोना इस बात का है कि तमाम बङी बङी पोथियों को हटाकर । परीक्षा के गैस पेपर या माडल पेपर की तरह तैयार । या किसी फ़ल को धोना छीलना काटना आदि जैसी तमाम जहमत को हटाकर । सीधा एकदम सिखों के हाथ में मौजूद । जूस के ताजे गिलास की तरह तुरन्त ताकत देने को तैयार । शायद हर सिख के घर में मौजूद । श्री गुरु ग्रन्थ साहब भी आज महत्वहीन सी हो गयी है । शायद अर्जुन देव जी जैसी पवित्र आत्मा को रोना ही आता होगा । जो इस अमूल्य ज्ञान के बाद भी सिख भटके हुये हैं । जिससे ऊपर कहीं कोई
ज्ञान है ही नहीं । सिखों में यह ज्ञान परम्परा कब से लुप्त सी हुयी । और उन्होंने भी हिन्दुओं की तरह मन्दिर जाकर मत्था टेकना । ईसाई मुस्लिम की तरह मस्जिद या गुरुद्वारा जाना ही सब कुछ मान लिया । इस पर फ़िर से विचार करना होगा । आप अर्जुन देव जी को पढिये । जब सिखों के समूह के समूह न सिर्फ़ सुबह के चार बजे से ही सतसंग का आनन्द उठाते थे । शाम को भी सतसंग होता था । ज्यादातर लोगों के पास सतनाम दीक्षा थी । और वे आनन्द से सुमरन करते हुये मोक्ष और परलोक को भी सुधारते थे । और आज के समय के बजाय खुद को सुरक्षित और सतलोक का वासी मानते जानते थे ।
ये सिखों के प्रति मेरे मन की भङास थी ।
अब सबसे बाद में बात हिन्दुओं की करते हैं । मैं इस धर्म के लोगों का अधिक दोष नहीं मानता । तमाम धार्मिक ग्रन्थों । प्रचलित विभिन्न पूजा पाठों । 33 करोङ देवी देवताओं । तीन प्रमुख देवताओं । 9 प्रमुख देवियों । 2 प्रमुख अवतारों । अन्य अनेक अवतारों । हनुमान आदि जैसे भक्तों की पूजा । शनि राहु केतु जैसे ग्रहों की भी पूजा आदि की भारी धार्मिक भूल भुलैया में हिन्दू मानस संस्कार और परम्परा वश भटक गया है । मतिभृम का शिकार है । तो उसका कोई खास दोष नहीं है । अच्छे अच्छे इस स्थिति में भटक सकते हैं । और कोई भी लक्ष्य चुनने में कठिनाई महसूस कर सकते हैं ।
यहाँ ध्यान रहे । ये चारों धर्मों के प्रति मेरा नजरिया सामान्य लोगों को लेकर ही हैं । आम जनता को लेकर ही है । बाकी असाधारण । विशेष । और अति विशेष लोग हर जाति धर्म में सदा होते रहे हैं । और होते रहेंगे । क्योंकि सनातन धर्म या खास ज्ञान कभी किसी की बपौती नहीं होता । आज बस इतना ही ।
आप सबके अन्तर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम । सतनाम वाहिगुरु ।
और जब कभी मैंने इन गृन्थों को किसी जाति धर्म का होने के बजाय एक इंसान होकर उत्सुकतावश हिन्दू धर्म ग्रन्थों के तुलनात्मक स्तर पर पढा है । तो मुझे इनमें कोई खास रुचिकर ज्ञानवर्धक जीवन से जुङा आत्मा या स्रूष्टि के रहस्य बताने वाला । कोई खास मैटर नजर नहीं आया । इस बात का कोई अर्थ निकालते समय जल्दबाजी के बजाय - हिन्दू धर्म ग्रन्थों के तुलनात्मक स्तर पर..भाव पर ध्यान दें ।
बात को यहीं पर और भी स्पष्ट करने के लिये मैं न सिर्फ़ हिन्दूओं की एक विश्व लोकप्रिय श्रीमद भगवत गीता । जो उपलब्ध सन्तमत ज्ञान के तुलनात्मक मेरी नजर में बहुत अधिक खास नहीं है । और गोस्वामी तुलसीदास को माध्यम बनाकर । उनके द्वारा प्रकट हुआ आत्मज्ञान का आम बोली में सरल और सहज प्रस्तुति वाला श्री रामचरित मानस ही इन दो किताबों पर बहुत भारी पङता है । गीता बहुत छोटी पुस्तक हैं । जिसमें सिर्फ़ 18 अध्याय है । और इसको जीवन या आत्मा का सार ज्ञान कहा गया है । मतलब सिर्फ़ इसको ही भली प्रकार पढकर आप - मैं कौन हूँ ? जैसे महाप्रश्न का उत्तर - मैं एक शुद्ध चैतन्य शाश्वत अमर अजर अविनाशी आत्मा हूँ । बहुत सरलता से भली प्रकार जान जाते हैं । और फ़िर इसको प्रयोगात्मक तरीके से जानने और पाने के लिये तैयार हो जाते हैं । गीता इसके लिये आपको तरीका भी बताती है । और फ़िर कहती हैं - इसे भली प्रकार पाने के लिये तू किसी तत्वज्ञानी की शरण में जा । वही तुझ पर प्रसन्न होकर तुझे ये ज्ञान देंगे ।
तो मेरे कहने का मतलब है । बहुत छोटी सी और मूल्य के दृष्टिकोण से भी सस्ती गीता आपको कितना बङा रहस्य और मानव जीवन के परम लक्ष्य की और चेताती हुयी अग्रसर करती है ।
इसके बाद तुलसी के रामचरित मानस की बात करें । तो मैंने आपसे हमेशा ही कहा है । इसमें पहला बालकाण्ड और सबसे अन्तिम उत्तरकाण्ड में ही आत्मज्ञान का गूढ रहस्य छिपा हुआ है । तात्पर्य यह कि दशरथ पुत्र राम की लम्बी चौङी कथा आपको पढने की अधिक आवश्यकता नहीं । रामचरित मानस के ही अरण्य काण्ड में और किष्किन्धा काण्ड में राम का भीलनी शबरी से मिलाप और हनुमान सुग्रीव से भेंट आदि में कुछ प्रसंग अलौकिक ज्ञान से भरपूर और आत्मिक रस से ओतप्रोत हैं । रामचरित मानस के अन्य अध्यायों में भी ऐसे उदाहरण जगह जगह हैं । जो आपको अनोखी शान्ति मिठास और अलौकिक रस का आभास कराते हैं ।
हिन्दुओं की इन लोकप्रिय महज दो पुस्तकों के उदाहरण देने के पीछे मेरी मंशा यही है कि - जब जब मैंने कुरआन और बाइबिल को पढकर उनमें ऐसी ही कोई मिठास तलाश करने की कोशिश की । तो मुझे सिर्फ़ एक ही चीज मिली - सिरदर्द । अजीब सी उलझाऊ स्टायल शैली । बात को घुमाकर कहने की कोशिश । और सिर्फ़ एक ही बात साबित करना कि - यही किताब श्रेष्ठ है । इससे जुङा व्यक्तित्व ही श्रेष्ठ है । और केवल यही एकमात्र परम सत्य है । मुझे हैरानी है कि मैंने तमाम हिन्दू ग्रन्थों में यह तीनों चीजें कहीं नहीं देखी । हालांकि अल्प अध्ययन से आपको हिन्दू धर्म ग्रन्थों में भी ऐसा ही भृम हो सकता है । जब आप विष्णु । शंकर या अन्य शक्तियों से सम्बन्धित पुराण etc का अध्ययन करेंगे । तो आपको भी ऐसा लगेगा कि ये गृन्थ आपस में ही मतभेद रखते हैं । पर बाद में विशद अध्ययन आपकी ये धारणा दूर कर देगा । क्योंकि वहाँ उनको सर्वोपरि या प्रमुख उस स्थिति के अनुसार
बताया गया है । जबकि आगे के पन्ने पलटते ही वह शक्ति भी आपको उच्च शक्तियों से नतमस्तक नजर आयेगी ।
अब मुझे ईसाई या मुस्लिमों को लेकर ताज्जुब इस बात का होता है कि वे अपने धार्मिक ज्ञान को मेरी तरह जाति धर्म से अलग हटकर समझने की कोशिश करते हैं । या चाशनी में बैठी हुयी मक्खी की तरह उसमें मजूबूरी । संस्कार वश । या पुरातन रूढियों वश लिपटे हुये हैं । क्या उन्होंने अन्य धार्मिक पुस्तकों का बिना किसी पूर्वाग्रह के खुले दिमाग से अध्ययन किया है । शायद नहीं । और ये ही सबसे बङा दुर्भाग्य है कि प्रथ्वी पर इंसान कम हिन्दू मुसलमान सिख ईसाई आदि प्रोग्राम किये रोबोट अधिक हैं ।
चलिये । ईसाईओं और मुसलमानों को लेकर जो भावना मेरे मन में थी । मैंने बता दी ।
अब बात सिखों की हो जाय । मुझे सबसे ज्यादा रोना इसी जाति को लेकर आता है । जैसा कि मैंने पूर्व में कहा भी है । श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के रूप में विश्व में अल्पसंख्यक सिखों के पास सभी ज्ञानों का न सिर्फ़ निचोङ बल्कि
सर्वोच्च ज्ञान मौजूद है । हालांकि मैं ग्रन्थ साहिब की वाणी को जाति विशेष यानी सिखों की ही न मानकर आत्मज्ञानी सन्तों की अधिक मानता हूँ । मतलब मेरे हिसाब से नानक साहब अर्जुन देव जी आदि गुरु सिख धर्म में जन्में अवश्य थे । पर वे सच्चे अर्थों में इंसान थे । रब्ब के असली और सच्चे बन्दे थे । वे अपनी या विरानी जाति को नहीं । बल्कि इंसान को देखते थे । इंसान को मानते थे । उनका धर्म सनातन धर्म था । न कि हिन्दू । मुस्लिम । सिख । ईसाई । यहूदी वगैरह ।
फ़िर भी रोना इस बात का है कि तमाम बङी बङी पोथियों को हटाकर । परीक्षा के गैस पेपर या माडल पेपर की तरह तैयार । या किसी फ़ल को धोना छीलना काटना आदि जैसी तमाम जहमत को हटाकर । सीधा एकदम सिखों के हाथ में मौजूद । जूस के ताजे गिलास की तरह तुरन्त ताकत देने को तैयार । शायद हर सिख के घर में मौजूद । श्री गुरु ग्रन्थ साहब भी आज महत्वहीन सी हो गयी है । शायद अर्जुन देव जी जैसी पवित्र आत्मा को रोना ही आता होगा । जो इस अमूल्य ज्ञान के बाद भी सिख भटके हुये हैं । जिससे ऊपर कहीं कोई
ज्ञान है ही नहीं । सिखों में यह ज्ञान परम्परा कब से लुप्त सी हुयी । और उन्होंने भी हिन्दुओं की तरह मन्दिर जाकर मत्था टेकना । ईसाई मुस्लिम की तरह मस्जिद या गुरुद्वारा जाना ही सब कुछ मान लिया । इस पर फ़िर से विचार करना होगा । आप अर्जुन देव जी को पढिये । जब सिखों के समूह के समूह न सिर्फ़ सुबह के चार बजे से ही सतसंग का आनन्द उठाते थे । शाम को भी सतसंग होता था । ज्यादातर लोगों के पास सतनाम दीक्षा थी । और वे आनन्द से सुमरन करते हुये मोक्ष और परलोक को भी सुधारते थे । और आज के समय के बजाय खुद को सुरक्षित और सतलोक का वासी मानते जानते थे ।
ये सिखों के प्रति मेरे मन की भङास थी ।
अब सबसे बाद में बात हिन्दुओं की करते हैं । मैं इस धर्म के लोगों का अधिक दोष नहीं मानता । तमाम धार्मिक ग्रन्थों । प्रचलित विभिन्न पूजा पाठों । 33 करोङ देवी देवताओं । तीन प्रमुख देवताओं । 9 प्रमुख देवियों । 2 प्रमुख अवतारों । अन्य अनेक अवतारों । हनुमान आदि जैसे भक्तों की पूजा । शनि राहु केतु जैसे ग्रहों की भी पूजा आदि की भारी धार्मिक भूल भुलैया में हिन्दू मानस संस्कार और परम्परा वश भटक गया है । मतिभृम का शिकार है । तो उसका कोई खास दोष नहीं है । अच्छे अच्छे इस स्थिति में भटक सकते हैं । और कोई भी लक्ष्य चुनने में कठिनाई महसूस कर सकते हैं ।
यहाँ ध्यान रहे । ये चारों धर्मों के प्रति मेरा नजरिया सामान्य लोगों को लेकर ही हैं । आम जनता को लेकर ही है । बाकी असाधारण । विशेष । और अति विशेष लोग हर जाति धर्म में सदा होते रहे हैं । और होते रहेंगे । क्योंकि सनातन धर्म या खास ज्ञान कभी किसी की बपौती नहीं होता । आज बस इतना ही ।
आप सबके अन्तर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम । सतनाम वाहिगुरु ।
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