04 सितंबर 2011

सागर बूंद में खो गया

यह सच है । ध्यान के बाद तो लौटना संभव है । समाधि के बाद लौटना संभव नहीं है । ध्यानी तो वापस लौट सकता है । गिर सकता है । ध्यानी चढ़ता है शिखर पर । किसी क्षण में ध्यान की प्रगाढ़ता होती है । फिर सो जाता है । फिर वापस उतर आता है । फिर अंधेरी गलियों में भटकने लगता है । फिर घाटियों का अंधेरा आ जाता है । पहाड़ का सूरज खो जाता है । शिखर की चमक खो जाती है । फिर चढ़ता है । फिर खोता है । ध्यानी तो बहुत बार लौटता है । इसलिए सतोरी समाधि नहीं है ।
समाधि तो ऐसी अवस्था है । जिससे लौटना नहीं होता । बुद्ध ने दो शब्द उपयोग किए हैं । ध्यान को वे कहते हैं - स्रोतापन्न । जो नदी की धारा में उतरा । लेकिन चाहे । तो वापस लौट सकता है । किनारा अभी मौजूद है । स्रोतापन्न - स्रोत में उतरा । बस, उतरा ही है अभी । चाहे तो छलांग लगा कर वापस किनारे पर आ जाए ।
समाधिस्थ को बुद्ध कहते हैं - अनुगामी । जो फिर नहीं लौट सकता । जैसे नदी सागर में गिर जाए । फिर किनारा बचता ही नहीं है । कबीर का पहला सूत्र तो स्रोतापन्न का है । और दूसरा सूत्र अनुगामी का । फिर कोई उपाय नहीं । फिर वह समाधि में ही भोजन करता, समाधि में ही सोता, समाधि में ही चलता, समाधि में ही बोलता । उसका होना समाधिस्थ होगा । सागर बूंद में खो गया - ओशो ।
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मनुष्य अक्सर दूसरों में वही देख लेता है । जो भीतर छुपाए होता है । मैंने किसे गांजा, चरस और भांग पीने को कहा है ? जरूर डुबाता हूं किसी नशे में । मगर वह नशा इस दुनिया का नशा तो नहीं । मस्ती भी चाहता हूं कि छाए लोगों में । गीत भी उगें । आनंद भी हो । उत्सव भी । मगर वह सब तो आकाश से उतरने वाली मधु वर्षा है । उसके लिए लोगों को तैयार करता हूं । निश्चित ही, यह मधुशाला है । लेकिन मधुशाला उसी अर्थों में, जिस अर्थ में बुद्ध का संघ मधुशाला थी । कृष्ण का सत्संग मधुशाला थी । यहां रिंद ही इकट्ठे हैं ! मगर यह शराब बेहोश नहीं करती । होश में लाती है ।
आए हैं समझाने लोग । हैं कितने दीवाने लोग ।
दैरो हरम में चैन जो मिलता । क्यों जाते मैखाने लोग ।
जान के सब कुछ भी न जाने । हैं कितने अनजाने लोग ।
वक्त पे काम नहीं आते हैं । ये जाने पहचाने लोग ।
अब जब मुझको होश नहीं है । आए हैं समझाने लोग ।
एक ऐसी भी बेहोशी है । जो बेहोशी भी नहीं । एक ऐसी भी मस्ती है । जो अंगूर की शराब से नहीं मिलती । आत्मा की शराब से मिलती है - ओशो ।
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जीवन दर्शन शास्त्र की पाठशाला नहीं है । तुम्हारी समस्याओं को हल करने का अर्थ है - तुम्हें एक उत्तर देना । जो तुम्हें बौद्धिक स्तर पर संतुष्ट करता हो । और तुम्हारी समस्याओं को समाप्त करने के लिए तुम्हें एक विधि देना । जो तुम्हें स्वयं अवगत करा दे कि समस्या जैसा कुछ है ही नहीं । समस्याएं हमारी स्वयं की कृतियां हैं । और उसके लिए किसी उत्तर की आवश्यकता नहीं है । प्रबुद्ध चेतना के पास कोई उत्तर नहीं है । इसका सौंदर्य यही है कि इसके पास कोई प्रश्न नहीं है ।
इसके सभी प्रश्न समाप्त हो चुके हैं । तिरोहित हो चुके हैं । लोग दूसरी तरह से सोचते हैं । वे सोचते हैं कि प्रबुद्ध व्यक्ति के पास हर बात का उत्तर होना चाहिए । और वास्तविकता यह है कि उसके पास कोई भी उत्तर नहीं है । उसके पास कोई प्रश्न ही नहीं है । बिना प्रश्नों के उसके पास कोई उत्तर कैसे हो ?
एक महान कवयित्री, गरट्रूड स्टीन, अपने मित्रों से घिरी हुई मर रही थी कि अचानक उसने अपनी आंखें खोलीं । और कहा - क्या है उत्तर ?
किसी ने कहा - लेकिन हमें प्रश्न ही पता नहीं है । तो हम उत्तर कैसे जान सकते हैं ?
आखिरी बार उसने अपनी आंखें खोलीं । और कहा - ठीक है । तो प्रश्न क्या है ? और वह मर गई । एक अनोखा आखिरी वक्तव्य ।
कवियों, चित्रकारों, नर्तकों और गायकों के अंतिम वचन हासिल कर पाना अति सौंदर्यपूर्ण होता है । उन वचनों में कुछ अत्यंत सार्थक समाहित होता है ।
पहले उसने पूछा - क्या है उत्तर ? जैसे कि विभिन्न मनुष्यों के लिए प्रश्न भिन्न नहीं हो सकते । प्रश्न वही होने चाहिए । इसे कहने की कोई आवश्यकता नहीं है । और वह जल्दी में थी । इसलिए उचित रास्ते से जाने के बजाय । प्रश्न पूछना और फिर उसके उत्तर सुनना । उसने इतना ही पूछा - क्या है उत्तर ?
लेकिन लोग नहीं समझते कि हर व्यक्ति उसी स्थिति में है । वही प्रश्न सभी का प्रश्न है । इसलिए कोई मूर्ख व्यक्ति पूछ सकता है कि लेकिन यदि हम प्रश्न ही नहीं जानते । तो हम उत्तर कैसे दे सकते हैं ?
यह तर्क पूर्ण लगता है । लेकिन ऐसा है नहीं । यह मात्र मूर्खता पूर्ण है । और वह भी एक मरते हुए व्यक्ति से । लेकिन उस वेचारी महिला ने एक बार फिर अपनी आंखें खोलीं । उसने कहा - ठीक है । क्या है प्रश्न ? और फिर वहां सन्नाटा हो गया ।
कोई प्रश्न नहीं जानता । कोई 'उत्तर' नहीं जानता । वास्तव में न तो कोई प्रश्न है । और न हीं कोई उत्तर है । विचारों में जीना । भ्रांतियों में जीने का का एक ढंग है । तब लाखों प्रश्न हैं । और लाखों उत्तर । और प्रत्येक प्रश्न फिर और सैकड़ों प्रश्न ले आता है । और इसका कोई अंत नहीं है ।
लेकिन जीने का एक दूसरा ढंग भी है - होश पूर्वक जीना । और तब न उत्तर है । न प्रश्न है ।
जब गरट्रूड स्टीन मर रही थी । यदि मैं वहां मौजूद होता । मैं उससे कहता - यह क्षण प्रश्न और उत्तर के लिए परेशान होने का नहीं है । याद रखो । न कोई प्रश्न है । और न कोई उत्तर । अस्तित्व प्रश्न और उत्तर के विषय में पूर्णतया मौन है । यह कोई दर्शन शास्त्र की कक्षा नहीं है । बिना किसी प्रश्न के, और बिना किसी उत्तर के मृत्यु में उतर जाओ । बस चुपचाप, होशपूर्वक, शांतिपूर्वक मृत्यु में उतर जाओ - ओशो ।
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पहला है - आरंभ । आरंभ का अर्थ है । अभी तुम बाहर ही दौड़ते रहे हो । तुमने अंतर्यात्रा का आरंभ भी नहीं किया । तुमने आंखें पीछे नहीं फेरी हैं । तुमने लौटकर नहीं देखा । जिसको महावीर ने प्रतिक्रमण कहा है । दूसरा - घट । घट का अर्थ होता है - घड़ा । यह जो शरीर है । यह घड़ा है । घट, मंदिर है । इसके भीतर मालिक छिपा है । इस घट के भीतर आकाश छिपा है । घट में ही मत उलझ जाना । क्योंकि जब तुम भीतर की तरफ मुडोगे । तब तुम्हें पता चलेगा कि शरीर इतनी छोटी चीज नहीं है । जितनी तुमने समझी है । शरीर बड़ा रहस्यपूर्ण है । शरीर अपने आप में एक संसार है । 
फिर तीसरी घटना घटती है - परिचय की । जब तुम्हारी देह सुंदर होगी । संगीत पूर्ण होगी । लयबद्ध होगी । जब तुम्हारी देह में एक छंद होगा । मस्ती होगी । तब तुम्हारा परिचय होगा - चेतना से । तब तुम्हें पहली झलक मिलेगी उसकी । जो इस मंदिर में छिपा है । तुम मंदिर में प्रवेश कर गए । उदास, रोते, भूखे, तुम इसमें प्रवेश न कर सकोगे । स्वास्थ्य की तरंग पर ही सवार होना होगा ।
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ईर्ष्या से इतनी पीड़ा क्यों होती है ? ईर्ष्या तुलना है । और हमें तुलना करना सिखाया गया है । हमनें तुलना करना सीख लिया है । हमेशा तुलना करते हैं । किसी और के पास ज्यादा अच्छा मकान है । किसी और के पास ज्यादा सुंदर शरीर है । किसी और के पास अधिक पैसा है । किसी और के पास करिश्माई व्यक्तित्व है । जो भी तुम्हारे आसपास से गुजरता है । उससे अपनी तुलना करते रहो । जिसका परिणाम होगा । बहुत अधिक ईर्ष्या की उत्पत्ति । यह ईर्ष्या तुलनात्मक जीवन जीने का बाइ प्रोडक्ट है । अन्यथा यदि तुम तुलना करना छोड़ देते हो । तो ईर्ष्या गायब हो जाती है । तब बस तुम जानते हो कि तुम तुम हो । तुम कुछ और नहीं हो । और कोई जरूरत भी नहीं है । अच्छा है तुम अपनी तुलना पेड़ों के साथ नहीं करते हो । अन्यथा तुम ईर्ष्या करना शुरू कर दोगे कि तुम हरे क्यों नहीं हो ? और अस्तित्व तुम्हारे लिए इतना कठोर क्यों है ? तुम्हारे फूल क्यों नहीं हैं ? यह अच्छा है कि तुम अपनी तुलना पक्षियों, नदियों, पहाड़ों से नहीं करते हो । अन्यथा तुम्हें दुख भोगना होगा । तुम सिर्फ इंसानों के साथ तुलना करते हो । क्योंकि तुमने इंसानों के साथ तुलना करना सीखा है । तुम मोरों और तोतों के साथ तुलना नहीं करते हो । अन्यथा तुम्हारी ईर्ष्या और भी ज्यादा होगी । तुम ईर्ष्या से इतना दबे होओगे कि तुम थोड़ा भी नहीं जी पाओगे । तुलना बहुत ही मूर्खतापूर्ण वृत्ति है । क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अनुपम और अतुलनीय है । एक बार यह समझ तुम में आ जाए । ईर्ष्या गायब हो जाएगी । प्रत्येक अनुपम और अतुलनीय है । तुम सिर्फ तुम हो । कोई भी कभी भी तुम्हारे जैसा नहीं हुआ । और कोई भी कभी भी तुम्हारे जैसा नहीं होगा । और न ही तुम्हें भी किसी और के जैसा होने की जरुरत है । अस्तित्व केवल मौलिक सृजन करता है । यह नकलों में,कार्बन कापी में भरोसा नहीं करता ।
मैदान में चूजों के एक झुंड के बीच में तारों के ऊपर से एक गेंद आकर गिरी । एक मुर्गा डगमग डगमग चलता हुआ आया । उसका निरीक्षण किया । तब वह बोला - लड़कियों मैं शिकायत नहीं कर रहा हूं । लेकिन देखो पड़ोस में वे कैसी पैदाइश कर रहे हैं । अगले दरवाजे पर महान घटनाएं घट रही हैं । घास ज्यादा हरी है । गुलाब ज्यादा खिले हैं । तुम्हारे अलावा सब लोग इतना खुश दिखाई देते हैं । तुम हमेशा तुलना कर रहे हो । और यही दूसरों के साथ भी हो रहा है । वे भी तुलना कर रहे हैं । हो सकता है । वे भी सोच रहे हों कि तुम्हारे मैदान की घास ज्यादा हरी है । दूर से यह हमेशा हरी दिखाई देती है कि तुम्हारी पत्नी ज्यादा सुंदर है । तुम थके हो । तुम्हें विश्वास नहीं कि तुम इस स्त्री के साथ क्यों फंस गए । तुम नहीं जानते कि इससे कैसे छुटकारा पाया जाए । और पड़ोसी तुमसे ईर्ष्या कर रहे हो सकते हैं कि तुम्हारी पत्नी इतनी सुंदर है । और तुम उनसे ईर्ष्या कर रहे हो । हर कोई दूसरे से ईर्ष्या कर रहा है । और इसी ईर्ष्या से हम ऐसा नरक बना रहे हैं । और ईर्ष्या से ही हम इतने ओछे हो गए हैं ।
एक बूढा किसान बाढ़ के प्रकोपों के बारे में बड़े दुख से बता रहा था । हीरम ! पड़ोसी चिल्लाया - तुम्हारे सारे सूअर नदी में बह गए । किसान ने पूछा - थामसन के सुअरों का क्या हुआ ? वे भी बह गए । और लारसन के ? हां । अच्छा ! किसान खुश होते हुए बोल उठा - यह इतना भी बुरा नहीं था । जितना मैं सोचता था । यदि हम सब दुखी हैं । तो अच्छा लगता है । यदि सभी हार रहे हों । तो भी अच्छा लगता है । यदि सब खुश और सफल हो रहे हों । तो उसका स्वाद बड़ा कड़वा है । पर तुम्हारे मन में दूसरे का विचार आता ही क्यों है ? मैं तुम्हें फिर याद दिला दूं । तुमने अपने रस को प्रवाहित होने का मौका नहीं दिया है । तुमने अपने आनंद को फलने का मौका नहीं दिया है । तुमने खुद के होने को भी नहीं खिलने दिया । इसीलिए तुम अंदर से खालीपन महसूस करते हो । और तुम सभी के बाहरीपन को देखते हो । क्योंकि केवल बाहर ही देखा जा सकता है । तुम्हें अपने भीतर का पता है । और तुम दूसरों को बाहरी रूप से जानते हो । वे तुम्हारी बाहरीपन को जानते हैं । और वे अपने को भीतर से जानते हैं । यही ईर्ष्या पैदा करता है । कोई भी तुम्हें भीतर से नहीं जानता । तुम जानते हो कि तुम कुछ भी नहीं हो । दो कौड़ी के । और दूसरे बाहर से इतने मुस्कुराते हुए दिखते हैं । उनकी मुस्कुराहट नकली हो सकती है । पर तुम कैसे जान सकते हो कि वे नकली हैं । हो सकता है । उनके दिल भी मुस्कुरा रहे हों । तुम जानते हो तुम्हारी मुस्कुराहट नकली है । क्योंकि तुम्हारा दिल थोड़ा भी नहीं मुस्कुरा रहा है । यह चीख रहा और रो रहा हो सकता है । तुम अपने भीतर को जानते हो । और यह केवल तुम ही जानते हो । कोई और नहीं । और तुम सबको बाहर से जानते हो । और बाहर से लोगों ने अपने को सुंदर बनाया हुआ है । बाहरी आवरण दिखावा है । और वह बहुत धोखेबाज हैं ।
राम नाम सोही जानिये । जो रमता सकल जहान । 
घट-घट में जो रम रहा । उसको राम पहचान ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326