07 सितंबर 2011

भाव के लिये ह्रदय चाहिये

भगवान ! मैं 1964 से आपका प्रेमी हूँ । आश्रम में चार बार आ चुका हूं । और आपकी साठ पुस्तकें पढ़ चुका हूं । आप मुझे पूर्णतः सही लगते हैं । परंतु आज तक संन्यास के लिये ह्रदय में भाव नहीं उठा । मेरी श्रद्धा और निष्ठा पर संदेह न करें । और बताएं कि मेरे लिये इस जीवन में कोई संभावना है ?
ओशो - जरुर संभावना है । मुझे भी तो पंडितों की जरुरत पड़ेगी न । जल्दी ही तुम पंडित विलास कुमार शास्त्री हो जाओगे । अब और क्या कमी रह गयी ? साठ पुस्तकें पढ़ चुके । कंठस्थ ही हो चुकी होंगी । 1964 से प्रेम कर रहे हो । अब तक तो प्रेम भी पक चुका होगा । फसल कटने का वक्त आ गया होगा । और कहते हो कि आप मुझे पूर्णतः सही लगते हैं । मगर पूर्णतः सही लगना । सिर्फ खोपड़ी में ही लग रहा होगा । क्योंकि तुम कहते हो - संन्यास का भाव नहीं उठता । ह्रदय है भी । टटोल कर देखो । धकधक होती है कि नहीं ? कहीं खोपड़ी में ही तो नहीं जी रहे हो ? नहीं तो भाव उठे कहां ? भाव के लिये ह्रदय चाहिये ।
और कैसे प्रेमी हो कि भाव नहीं उठता ? और 1964 से....गजब की साधना कर रहे हो । प्रेम की साधना चल रही है 1964 से । भाव कब उठेगा ? भाव का क्या अर्थ होता है । प्रेम ही तो भाव है । संन्यास का क्या अर्थ है ? संन्यास का इतना ही अर्थ है कि तुम मेरे प्रेम में पड़े हो । और तुम मेरे रंग में रंग गए हो । संन्यास का इतना ही तो अर्थ है कि तुम मेरे साथ चल पड़े हो अनंत की यात्रा पर, कि तुम मेरे साथ खतरे उठाने को राज़ी हो, कि तुम मेरी नाव में बैठ गये हो श्रद्धापूर्वक, कि डुबाऊंगा भी तो ठीक । डुबाऊंगा भी, तो भी उबरना होगा । डूबने में भी उबरना दिखाई पड़ने लगे । तो ही प्रेम है । प्रेम तो पागलपन है । और अगर तुममें इतना पागलपन भी नहीं है कि तुम सन्यासी हो सको । तो फिर एक ही उपाय बचता है कि तुम पंडित हो जाना । शास्त्री हो जाना । और उसी तैयारी में तुम लगे हो । जरुरत पड़ेगी । मेरे जाने के बाद कई पंडित और कई शास्त्री इकठ्ठे होने वाले हैं । वह सदा से काम रहा है उनका । उसमें तुम्हारा भी नंबर रहेगा । तुम अपने कार्य में लगे रहो । घबड़ाओ मत । इतनी ही संभावना है तुम्हारे लिये । इससे ज्यादा नहीं । और तुम मुझसे कह रहे हो - मेरी श्रद्धा और निष्ठा पर संदेह न करें । मैं नहीं करता संदेह । लेकिन तुम्हें अपनी निष्ठा और अपनी श्रद्धा पर भरोसा है ? तुम्हें अपने प्रेम पर भरोसा है ? तो फिर छलांग ले लो । मैं क्यों संदेह करूं ? मैं तो साफ़ बात कह देता हूं । दो टूक बात कह देता हूं, कि अभी तुम्हारा मुझसे संबंध खोपड़ी का है । और खोपड़ी का कोई संबंध संबंध नहीं होता । बहुत से लोग हैं इस देश में । जो किताबें पढ़ते हैं । जो विचारों से सहमत हैं । लेकिन यह मामला विचार से सहमत होने का नहीं है । यह मामला तो ह्रदय से ह्रदय के मिलाने का है । ह्रदय से ह्रदय के जुड़ने का है । यह तो दीवानेपन का रास्ता है । यह तो पागलों का रास्ता है । यह तो मतवालों का रास्ता है । यहां तो शमा जल रही है । परवानों को पुकारा जा रहा है । पंडितों को नहीं । तुम्हारी संभावना पंडित होने की है । और मेरी द्रष्टि में पंडित होना अर्थात सबसे बड़ी दुर्गति । वह महापाप है । उससे बड़ा कोई पाप नहीं है ।
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जब आचार्य श्री को मुस्लिम इण्टर कालेज में सूफ़ी दर्शन पर बोलने के लिये आमंत्रित किया गया । तो उस निमंत्रण को प्रसन्नता से स्वीकार करते हुए वह मेज़वान के साथ समय से 15 मिनट पहले वहाँ पहुँचे । और उनके स्वागत में प्रिंसिपल साहब स्वयं उठकर बाहर आये । वह आचार्य रजनीश को देखते हुए आश्चर्यचकित होकर बोले - अरे ! यह तो तुम हो । मैं अब तक चमत्कारों के बारे में सिर्फ सुनता आया था । पर आज तो सामने ही चमत्कार देख रहा हूँ । 
इण्टर में पढ़ते हुए तुम तो नास्तिक थे । और आज सूफ़ी फिलासफी पर लेक्चर देने आये हो ।
प्रिंसिपल साहब, रजनीश के पुराने टीचर थे ।
आचार्य श्री मुस्करा कर बोले - आप मेरे पुराने अध्यापक हैं । मैं वही हूँ । जो पहले था । मेरे विचार भी वही है । लेकिन अब मैंने उन्हीं विचारों में प्रेम, शान्ति, सूफ़ी, इश्क कुछ लफ्ज़ शामिल कर लिये है ।
प्रिंसिपल साहब को जैसे एक आघात लगा । वह बोले - या अल्लाह ! आज तू ही मेरी इज्जत बचा ।
आचार्य श्री मुस्कराकर बोले - आप जरा भी फिक्र न करें । अल्लाह तआला आपकी इज्जत में फर्क नहीं पड़ने देगा ।
आचार्य श्री लगभग एक घंटे तक बोलते रहे । उन्होंने उमर खैय्याम, सरमद, राबिया, बायजीद आदि सूफी फकीरों की मस्ती और उनका उल्लेख करते हुए कहा कि असली चीज़ है - इश्क । यार के प्रति बेपनाह मुहब्बत । इश्क में मदहोश एक ऐसी मस्ती । जिसमें शरीर का बोध खो जाये । केवल एक अल्लाह रह जाये । केवल " हू " रह जाये । हू जो नाभि चक्र को सक्रिय करता है । ( जो सब कुछ फ़ना करता है । यह महामंत्र अल्लाह हू, अल्लाह हू का ही अंतिम रूप है । अल्लाह हू ही जपते जपते लाहू और फिर हू रह जाता है । ) उन्होंने सूफी दरवेशों के नृत्यों की चर्चा करते हुये कहा - यह जमीन सूरज के चारों ओर घूम रही है । चाँद जमीन के चारो ओर घूम रहा है । ग्रह नक्षत्र तारे सभी घूम रहे हैं । सूफी भी नाचते हुये इसी " महारास " में लीन हो जाता है । " मैं " मिट जाता है । सब ओर सिर्फ अल्लाह ही रह जाता है । जिसका कोई रूप नहीं । आकार नहीं । जो सर्व व्यापक है । सब जगह है । सिर्फ एक शून्य रह जाता है । यही सच्ची इबादत है । जिसमें " मैं " मिट जाये । और " हू " रह जाये । खुदी मिट जाये । और खुदा रह जाए । 
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हम इस संसार में अकेले ही आते हैं । और अकेले ही विदा हो जाते हैं ।
यह कथन एक भ्रम मात्र है । मैं तुम्हें वह मार्ग बताऊंगा । जहां न आना पड़ता है । और न जाना पड़ता है - ओशो ।

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