राजीव जी नमस्ते ! आपसे एक बात पूछनी थी । मैंने कबीर दास जी का एक दोहा सुना था । जिसका अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ । वो दोहा इस तरह से है ।
माया छाया एक सी बिरला जाने कोई । ढायात के पीछे पडे सनमुख भागे सोई ।
इस दोहे मे माया भागने वाले के पीछे पड़ती है । सनमुख होते भाग जाती है । यहाँ माया के सनमुख होने का क्या मतलब है । मार्गदर्शन करें । आपका bhupendra
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आपके द्वारा प्रेषित दोहे में प्रयुक्त शब्द मैंने पहली बार देखे । कवीर वाणी में यह दोहा निम्नलिखित है ।
माया छाया एक सी । बिरला जाने कोय । भगता के पीछे लगे । सम्मुख भागे सोय । दोहा चाहे आपका हो । या ये । शायद बात एक ही है । और इसका अर्थ अति सरल है । माया को जन साधारण में धन सम्पत्ति आदि के रूप में कहा जाता है । लेकिन इसके विस्त्रत अर्थ में तुलसी आदि आत्मज्ञानी सन्तों ने स्त्री पुत्र माता पिता घर परिवार अन्ततः संसार को भी माया कहा है । शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है । ये भासित ( ध्यान दें - प्रतीत होने वाला । मगर है नहीं । ) जगत रज्जु ( रस्सी ) में कल्पित सर्प के समान है । यानी अँधेरे ( अज्ञान ) में जिस प्रकार रस्सी को देखकर सर्प का विचार हो जाता है । लेकिन प्रकाश ( ज्ञान ) होते ही रस्सी की असलियत पता चल जाती है । उसी प्रकार ये समस्त जगत बृह्माण्ड निकाय ( नगर ) माया से निर्मित हैं । देखिये प्रमाण - सुन रावन बृह्माण्ड निकाया । पाय जासु बल विरचित माया । और भी देखिये - बृह्माण्ड निकाया निर्मित माया ।
रोम रोम प्रति वेद कहे ।
लेकिन माया का एकदम सटीक अर्थ है - जहाँ मन फ़ँस जाय । वही माया है । चलिये मायावती के बारे में आपको बता दिया । अब छाया देवी के बारे में तो लगभग सभी जानते ही हैं । प्रतिबिम्ब या परछाईं को छाया कहा जाता है । बिरला - लाखों करोंङों में कोई एक । भगता का सीधा सा अर्थ है - प्रभु का भक्त । सम्मुख का अर्थ है - सामने होना ।
अब आईये दोहे को हल करते हैं । माया छाया का एक सा व्यवहार होता है । ये भगवान की ओर ही देखने वाले भक्त के पीछे पीछे अपनी सेवाये देने को भागती है । लेकिन इसके विपरीत भगवान के बजाय जो माया की चाहना करता है । ये उससे सदा दूर ( भागती ) रहती है । इसको समझाने के लिये सन्त मत में सूर्य का ( भगवान के रूप में ) उदाहरण दिया जाता है ।
यदि कोई सूर्य की तरफ़ मुँह करके चले । तो उसकी माया रूपी छाया सदा उसके पीछे पीछे चलेगी । लेकिन इसके विपरीत कोई ( सूर्य ) भगवान से मुँह फ़ेरकर अपनी ही इस माया रूपी छाया के पीछे चले । और उसको लाख पकङना चाहे । तो भी ये एक निश्चित दूरी पर ही रहेगी ।
ऐसा भी नहीं है कि सन्तों ने माया को एकदम महत्वहीन कहा हो । ज्ञान रहित स्थिति में माया से ही कार्य होता है । ये जीव माया के गर्भ में तो है ही । माया से छूटने में माया का ही सर्वप्रथम उपयोग होता है । कहा गया है - जो माया को झूठा कहें । उनका झूठा ज्ञान । माया से ही होत हैं । तीर्थ पुण्य और दान ।
माया छाया एक सी बिरला जाने कोई । ढायात के पीछे पडे सनमुख भागे सोई ।
इस दोहे मे माया भागने वाले के पीछे पड़ती है । सनमुख होते भाग जाती है । यहाँ माया के सनमुख होने का क्या मतलब है । मार्गदर्शन करें । आपका bhupendra
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आपके द्वारा प्रेषित दोहे में प्रयुक्त शब्द मैंने पहली बार देखे । कवीर वाणी में यह दोहा निम्नलिखित है ।
माया छाया एक सी । बिरला जाने कोय । भगता के पीछे लगे । सम्मुख भागे सोय । दोहा चाहे आपका हो । या ये । शायद बात एक ही है । और इसका अर्थ अति सरल है । माया को जन साधारण में धन सम्पत्ति आदि के रूप में कहा जाता है । लेकिन इसके विस्त्रत अर्थ में तुलसी आदि आत्मज्ञानी सन्तों ने स्त्री पुत्र माता पिता घर परिवार अन्ततः संसार को भी माया कहा है । शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है । ये भासित ( ध्यान दें - प्रतीत होने वाला । मगर है नहीं । ) जगत रज्जु ( रस्सी ) में कल्पित सर्प के समान है । यानी अँधेरे ( अज्ञान ) में जिस प्रकार रस्सी को देखकर सर्प का विचार हो जाता है । लेकिन प्रकाश ( ज्ञान ) होते ही रस्सी की असलियत पता चल जाती है । उसी प्रकार ये समस्त जगत बृह्माण्ड निकाय ( नगर ) माया से निर्मित हैं । देखिये प्रमाण - सुन रावन बृह्माण्ड निकाया । पाय जासु बल विरचित माया । और भी देखिये - बृह्माण्ड निकाया निर्मित माया ।
रोम रोम प्रति वेद कहे ।
लेकिन माया का एकदम सटीक अर्थ है - जहाँ मन फ़ँस जाय । वही माया है । चलिये मायावती के बारे में आपको बता दिया । अब छाया देवी के बारे में तो लगभग सभी जानते ही हैं । प्रतिबिम्ब या परछाईं को छाया कहा जाता है । बिरला - लाखों करोंङों में कोई एक । भगता का सीधा सा अर्थ है - प्रभु का भक्त । सम्मुख का अर्थ है - सामने होना ।
अब आईये दोहे को हल करते हैं । माया छाया का एक सा व्यवहार होता है । ये भगवान की ओर ही देखने वाले भक्त के पीछे पीछे अपनी सेवाये देने को भागती है । लेकिन इसके विपरीत भगवान के बजाय जो माया की चाहना करता है । ये उससे सदा दूर ( भागती ) रहती है । इसको समझाने के लिये सन्त मत में सूर्य का ( भगवान के रूप में ) उदाहरण दिया जाता है ।
यदि कोई सूर्य की तरफ़ मुँह करके चले । तो उसकी माया रूपी छाया सदा उसके पीछे पीछे चलेगी । लेकिन इसके विपरीत कोई ( सूर्य ) भगवान से मुँह फ़ेरकर अपनी ही इस माया रूपी छाया के पीछे चले । और उसको लाख पकङना चाहे । तो भी ये एक निश्चित दूरी पर ही रहेगी ।
ऐसा भी नहीं है कि सन्तों ने माया को एकदम महत्वहीन कहा हो । ज्ञान रहित स्थिति में माया से ही कार्य होता है । ये जीव माया के गर्भ में तो है ही । माया से छूटने में माया का ही सर्वप्रथम उपयोग होता है । कहा गया है - जो माया को झूठा कहें । उनका झूठा ज्ञान । माया से ही होत हैं । तीर्थ पुण्य और दान ।
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