सन्त गोस्वामी तुलसीदास के कुल में जन्में स्वामी रामतीर्थ जी महाराज (22 अक्टूबर1873-27 अक्टूबर1906) आत्मज्ञानियों में एक विशाल तेज पुंज की भांति ही है ।
इनका जन्म कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा संवत 1930 (सन 1873) को दीपावली के दिन ग्राम मुरारीवाला जिला गुजरांवाला में एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण पण्डित हीरानन्द गोस्वामी (पिता) के परिवार में हुआ था । इनके बचपन का नाम तीर्थराम था । परिवार की आर्थिक स्थिति खराब ही थी ।
बाल्यावस्था में ही इनका विवाह कर दिया गया था । इनके दो पुत्र और एक पुत्री थी ।
आर्थिक तंगी के उन्हीं हालातों में उन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर पंजाब यूनिवर्सिटी से M.A की पढ़ाई पूरी की और ‘फ़ोरमैन कालेज’ में दो वर्ष तक गणित के अध्यक्ष रहे । उनका पांडित्य अंग्रेजी में भी बेहद प्रसिद्ध था ।
‘उपनिषदों के महावाक्यों का साक्षात्कार कैसे हो सकता है और वेदांत शास्त्र केवल पुस्तकों और वाणी का विषय नही है । किन्तु हर घङी अनुभव का विषय है ।’
इसी भावना के बलवती होने पर नौकरी, घरबार, स्त्री, पुत्र, पिता आदि सबको छोङकर सन्यास ले लिया और पूर्णता प्राप्त करके ही रुके ।
दिसम्बर 1901 में स्वामी रामतीर्थ मथुरा आये और फ़िर आगरा, लखनऊ, फ़ैजाबाद आदि स्थानों में ‘मोहनिद्रा’ में सोते जीवों को जगाया ।
मोहनिशा सब सोबनहारा ।
देखिअ सपन अनेक प्रकारा ।
कार्तिक 1962 में स्वामी रामतीर्थ हरिद्वार से वशिष्ठ आश्रम को गये ।
उन्होंने कहा - मनुष्य इसलिये नही बनाया गया कि इसी चिन्ता फ़िक्र में ‘मेरा जीवन कैसे चलेगा, मेरा क्या होगा’ मर जाये । उसको इतना सन्तोष तो चाहिये । जितना मछलियों, पक्षियों और वृक्षों को होता है । वे धूप अथवा वृष्टि की शिकायत नही करते । किन्तु प्रकृति के साथ एक होकर रहते हैं । कहो - मैं ही यह मेघ हूँ जो बरस रहा है । मैं ही बिजली होकर तङकता हूँ । मैं ही गर्जता हूँ, मैं कैसा सुन्दर बलवान भयंकर हूँ ।
इस प्रकार ‘शिवोऽहं’ स्वतः ह्रदय से निकले ।
न पश्योमृत्युपश्यति न रोगंनो,
तदुःखतां सर्वमाप्नो तिसर्वशः ।
ब्रह्मवेत्ता मृत्यु, रोग, दुःख को नही देखता । वह सर्व को सर्व प्रकार से व्याप्त करता है ।
प्यारे ब्रह्म ! दृश्य में विश्वास मृत्यु है । तेरा सत्य स्वरूप अमृत आनन्द है । तेरा आत्मा-रसास्वाद अनुभव से आ सकता है ।
जिसे अधिष्ठान रूपी रस्सी का साक्षात्कार है उसे भासने वाले सर्प से बाधा नही । जिसने अधिष्ठान रूपी शक्ति को जान लिया । उसे दृश्यमान रजत नही खींचता । जिसे ‘केवल सत’ का अनुभव हो गया । उसे मुँह देखी दुनियां का भय, स्तुति चलायमान नही कर सकती ।
इस दुनियां में जो कुछ दिखाई देता है वह तमाशा ही है ।
‘अरे तमाशा देखने वाले ! तमाशा हो नही जाना ।’
है मौत दुनियां में बस गनीमत,
खरीदो राहत को मौत के भाव ।
न करना चूं तक यही है मजहब,
खङे हैं रोम और गला रुके है ।
जिसे हो समझे कि जाग्रत है,
यह ख्वाबे गफ़लत है सखत ए जां ।
क्लोरोफ़ार्म हैं सब मतालिब, (मतालिब-अर्थ, वासनायें)
खङे हैं रोम और गला रुके है ।
ठगों को कपङे उतार दे दो,
लुटा दो असबावो-मालो जर सब ।
खुशी से गरदन पर तेरा धर तब,
खङे हैं रोम और गला रुके है ।
न बाकी छोङेंगे इल्म कोई,
थे इस इरादे से जम के बैठे ।
है पिछला लिखा पढ़ा भी गायब,
खङे हैं रोम और गला रुके है ।
सन 1906 ई. में स्वामी रामतीर्थ वशिष्ठ आश्रम से टिहरी आये और वही गंगा तट पर रहने लगे ।
वहाँ उन्होंने कार्तिक बदी 13 संवत 1963 (सन 1906) को दीपावली के दिन ही मृत्यु के नाम एक सन्देश ‘खुद मस्ती’ पर लिखा और उसको समाप्त कर गंगास्नान को गये और फ़िर कभी न लौटे ।
(वे गंगा में बढ़ते गये और गहरे पानी में खुद को लहरों के हवाले कर जीवित ही ‘जल समाधि’ ले ली)
उनके अन्तिम कथन थे -
अच्छा जी कुछ भी कहो, राम तो हर रंग में रमता राम है । हर जिस्म में प्राण हर प्राण की जान है । सब में सब कुछ है परन्तु इस वक्त कलम बनकर लिख रहा है । सूरज बनकर चमक रहा है । गोलीगंगी (जिसको लोग श्री गंगाजी कहते हैं) बनकर गा रहा है । पर्वत बनकर सब्ज दुशाले ओढ़े कुम्भकरण की तरह पैर पसारे सुषुप्ति में लिपट रहा है ।
पर अपनी एक सूरत बहुत ही ज्यादा भारी है । मैं हवा हूँ बेहिस्सों-हरकत बेजान ।
मेरी सत्ता पाये बिना पत्ता नही हिल सकता, मुझ बिन सब दीमक की तरह सो जाता है । जली हुयी रस्सी की तरह रह जाता है ।
काम बिगङने लगा, मैं किसको इल्जाम दूँ ? मेरे बिना और कुछ हो भी ।
ओ मौत ! बेशक उङा दे इस एक जिस्म को, मेरे और अजसाम ही मुझे कुछ कम नही । सिर्फ़ चांद की किरणें चांदी की तारें पहन कर चैन से काट सकता हूँ ।
पहाङी नदी नालों के भेस में गीत गाता फ़िरूंगा । वहरे अमवाज (समुद्री लहरें) के लिबास में लहराता फ़िरूंगा । मैं ही वादे-खुशखराम (प्रातःकालीन शीतल सुगन्धित वायु) नसीमे-मस्ताना गाम हूँ । मेरी यह सूरते-सैलानी हर वक्त रवानी में रहती है ।
इस रूप में पहाङों से उतरा, मुर्झाते पौधों को ताजा किया, गुलों को हँसाया, बुलबुल को रुलाया, दरवाजों को खङखङाया, सोतों को जगाया, किसी का आँसू पौंछा किसी का घूंघट उङाया । इसको छेढ़ उसको छेढ़ तुझको छेढ़..वह गया..वह गया । न कुछ साथ रखा न किसी के हाथ आया ।
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न केनचद्विक्रीता विक्रीता इव संस्थिताः ।
वत मूढ़ा वयं सर्वे जानाना अपिशांवरम । योगवाशिष्ठ
- यद्यपि किसी ने हमें बेचा नही तथापि बिके हुये के समान स्थिति
है । खेद की बात है कि जानकर भी यह माया है, हम मूढ़ हो गये हैं ।
इनका जन्म कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा संवत 1930 (सन 1873) को दीपावली के दिन ग्राम मुरारीवाला जिला गुजरांवाला में एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण पण्डित हीरानन्द गोस्वामी (पिता) के परिवार में हुआ था । इनके बचपन का नाम तीर्थराम था । परिवार की आर्थिक स्थिति खराब ही थी ।
बाल्यावस्था में ही इनका विवाह कर दिया गया था । इनके दो पुत्र और एक पुत्री थी ।
आर्थिक तंगी के उन्हीं हालातों में उन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर पंजाब यूनिवर्सिटी से M.A की पढ़ाई पूरी की और ‘फ़ोरमैन कालेज’ में दो वर्ष तक गणित के अध्यक्ष रहे । उनका पांडित्य अंग्रेजी में भी बेहद प्रसिद्ध था ।
‘उपनिषदों के महावाक्यों का साक्षात्कार कैसे हो सकता है और वेदांत शास्त्र केवल पुस्तकों और वाणी का विषय नही है । किन्तु हर घङी अनुभव का विषय है ।’
इसी भावना के बलवती होने पर नौकरी, घरबार, स्त्री, पुत्र, पिता आदि सबको छोङकर सन्यास ले लिया और पूर्णता प्राप्त करके ही रुके ।
दिसम्बर 1901 में स्वामी रामतीर्थ मथुरा आये और फ़िर आगरा, लखनऊ, फ़ैजाबाद आदि स्थानों में ‘मोहनिद्रा’ में सोते जीवों को जगाया ।
मोहनिशा सब सोबनहारा ।
देखिअ सपन अनेक प्रकारा ।
कार्तिक 1962 में स्वामी रामतीर्थ हरिद्वार से वशिष्ठ आश्रम को गये ।
उन्होंने कहा - मनुष्य इसलिये नही बनाया गया कि इसी चिन्ता फ़िक्र में ‘मेरा जीवन कैसे चलेगा, मेरा क्या होगा’ मर जाये । उसको इतना सन्तोष तो चाहिये । जितना मछलियों, पक्षियों और वृक्षों को होता है । वे धूप अथवा वृष्टि की शिकायत नही करते । किन्तु प्रकृति के साथ एक होकर रहते हैं । कहो - मैं ही यह मेघ हूँ जो बरस रहा है । मैं ही बिजली होकर तङकता हूँ । मैं ही गर्जता हूँ, मैं कैसा सुन्दर बलवान भयंकर हूँ ।
इस प्रकार ‘शिवोऽहं’ स्वतः ह्रदय से निकले ।
न पश्योमृत्युपश्यति न रोगंनो,
तदुःखतां सर्वमाप्नो तिसर्वशः ।
ब्रह्मवेत्ता मृत्यु, रोग, दुःख को नही देखता । वह सर्व को सर्व प्रकार से व्याप्त करता है ।
प्यारे ब्रह्म ! दृश्य में विश्वास मृत्यु है । तेरा सत्य स्वरूप अमृत आनन्द है । तेरा आत्मा-रसास्वाद अनुभव से आ सकता है ।
जिसे अधिष्ठान रूपी रस्सी का साक्षात्कार है उसे भासने वाले सर्प से बाधा नही । जिसने अधिष्ठान रूपी शक्ति को जान लिया । उसे दृश्यमान रजत नही खींचता । जिसे ‘केवल सत’ का अनुभव हो गया । उसे मुँह देखी दुनियां का भय, स्तुति चलायमान नही कर सकती ।
इस दुनियां में जो कुछ दिखाई देता है वह तमाशा ही है ।
‘अरे तमाशा देखने वाले ! तमाशा हो नही जाना ।’
है मौत दुनियां में बस गनीमत,
खरीदो राहत को मौत के भाव ।
न करना चूं तक यही है मजहब,
खङे हैं रोम और गला रुके है ।
जिसे हो समझे कि जाग्रत है,
यह ख्वाबे गफ़लत है सखत ए जां ।
क्लोरोफ़ार्म हैं सब मतालिब, (मतालिब-अर्थ, वासनायें)
खङे हैं रोम और गला रुके है ।
ठगों को कपङे उतार दे दो,
लुटा दो असबावो-मालो जर सब ।
खुशी से गरदन पर तेरा धर तब,
खङे हैं रोम और गला रुके है ।
न बाकी छोङेंगे इल्म कोई,
थे इस इरादे से जम के बैठे ।
है पिछला लिखा पढ़ा भी गायब,
खङे हैं रोम और गला रुके है ।
सन 1906 ई. में स्वामी रामतीर्थ वशिष्ठ आश्रम से टिहरी आये और वही गंगा तट पर रहने लगे ।
वहाँ उन्होंने कार्तिक बदी 13 संवत 1963 (सन 1906) को दीपावली के दिन ही मृत्यु के नाम एक सन्देश ‘खुद मस्ती’ पर लिखा और उसको समाप्त कर गंगास्नान को गये और फ़िर कभी न लौटे ।
(वे गंगा में बढ़ते गये और गहरे पानी में खुद को लहरों के हवाले कर जीवित ही ‘जल समाधि’ ले ली)
उनके अन्तिम कथन थे -
अच्छा जी कुछ भी कहो, राम तो हर रंग में रमता राम है । हर जिस्म में प्राण हर प्राण की जान है । सब में सब कुछ है परन्तु इस वक्त कलम बनकर लिख रहा है । सूरज बनकर चमक रहा है । गोलीगंगी (जिसको लोग श्री गंगाजी कहते हैं) बनकर गा रहा है । पर्वत बनकर सब्ज दुशाले ओढ़े कुम्भकरण की तरह पैर पसारे सुषुप्ति में लिपट रहा है ।
पर अपनी एक सूरत बहुत ही ज्यादा भारी है । मैं हवा हूँ बेहिस्सों-हरकत बेजान ।
मेरी सत्ता पाये बिना पत्ता नही हिल सकता, मुझ बिन सब दीमक की तरह सो जाता है । जली हुयी रस्सी की तरह रह जाता है ।
काम बिगङने लगा, मैं किसको इल्जाम दूँ ? मेरे बिना और कुछ हो भी ।
ओ मौत ! बेशक उङा दे इस एक जिस्म को, मेरे और अजसाम ही मुझे कुछ कम नही । सिर्फ़ चांद की किरणें चांदी की तारें पहन कर चैन से काट सकता हूँ ।
पहाङी नदी नालों के भेस में गीत गाता फ़िरूंगा । वहरे अमवाज (समुद्री लहरें) के लिबास में लहराता फ़िरूंगा । मैं ही वादे-खुशखराम (प्रातःकालीन शीतल सुगन्धित वायु) नसीमे-मस्ताना गाम हूँ । मेरी यह सूरते-सैलानी हर वक्त रवानी में रहती है ।
इस रूप में पहाङों से उतरा, मुर्झाते पौधों को ताजा किया, गुलों को हँसाया, बुलबुल को रुलाया, दरवाजों को खङखङाया, सोतों को जगाया, किसी का आँसू पौंछा किसी का घूंघट उङाया । इसको छेढ़ उसको छेढ़ तुझको छेढ़..वह गया..वह गया । न कुछ साथ रखा न किसी के हाथ आया ।
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न केनचद्विक्रीता विक्रीता इव संस्थिताः ।
वत मूढ़ा वयं सर्वे जानाना अपिशांवरम । योगवाशिष्ठ
- यद्यपि किसी ने हमें बेचा नही तथापि बिके हुये के समान स्थिति
है । खेद की बात है कि जानकर भी यह माया है, हम मूढ़ हो गये हैं ।
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