प्रयत्न का त्याग करना ही मंजिल का पल्ला प्राप्त करना है । अर्थात लाभ (सुख आदि) की इच्छा ही बैचेन करती है । जब यह (मिलने की कामना) इच्छा दूर हो जाती है । तब ‘साक्षात्कार’ की प्राप्ति होती है । तू उस प्रयत्न से अपने मार्ग को उल्टा दूर क्यों करता है ।
दूरदर्शिता मनुष्य को अंधा बना देती है जैसे कि घर में सोया हुआ घर से अंधा होता है ।
the wordling seeks pleasures fattening himself
like a caged fowl.
but the real saints flies upto the sun like
the wild crane.
the fowl in the coop has food but will soon
be boiled in the pot.
no provisions are given to the wild crane, but
the heavens and earth are his,
संसारी (संसार में आसक्त) सांसारिक प्रमोद-आनन्द ढ़ूंढ़ता है । और पिंजरे में बन्द कुक्कुट (मुर्गे) की भांति अपने को मोटा ताजा करता है किन्तु सच्चा सन्त-महात्मा जंगली सारस या कुलंग की भांति सूर्य की ओर ऊँचा उङता है ।
उस पिंजरे के पक्षी (मनुष्य) को यद्यपि भोजन तो खूब मिलता रहता है किन्तु वह जल्द हांडी में उबाला जायेगा । जबकि सारस (आजाद पक्षी) को (उसकी तरह) भोजन आदि सरलता से तो नही मिलता । किन्तु आकाश और धरती दोनों का वह मालिक है । जहाँ चाहता है, स्वतन्त्रता से घूमता फ़िरता है ।
जो कुछ संसार में है, वह स्वतन्त्र मनुष्यों के लिये निषिद्ध है । आकाश के नीचे हमारा सामान ‘चित्त की शांति’ है ।
एक रंगीला (फ़क्कङ) महात्मा गंगा के किनारे बैठा था, साथ में पाँच मनुष्य और थे । अचानक गंगा की लहरों ने ठंडे जल से सबके कपङे तर-बतर कर दिये । पानी के थपेङो ने सबको वहाँ से उठा दिया । वह लोग कपङे भीगने और सर्दी लगने से बङबङाने लगे । आह-ओह करने लगे ।
पर महात्मा वैसा का वैसा अपने पत्थर पर डटा रहा ।
आनन्द से मुस्करा रहा और गा रहा - मेरी प्यारी गंगा, मेरी जान गंगा..आदि ।
जिनको तुम भयानक घटनायें और भयंकर चोटें अनुमान किये बैठे हो । वह वास्तव में ‘प्यारी गंगा, तुम्हारी जान गंगा’ की ही रस-भरी लहरें हैं । यदि हैं, तो तुम्हारे प्रियतम आत्मदेव की ही करतूते हैं । परमात्मा की ही द्योतक हैं ।
शिकायत कैसी ?
सबकी सब डरावनी बातें और प्राणनाशक घटनायें रूप और आकार तो विष का लिये हैं मगर बने मिसरी के हैं ।
मिसरी की तूंबी रची, रंग रूपता मांहि ।
खान लग्यो जब भर्म तज, सो तब कङवी नांहि ।
स्वपन अवस्था में यह पुरुष वस्तुतः ‘आप ही आप’ तो होता है किन्तु बात यह है कि - इधर अपने ‘व्यष्टि रूप’ से अपने आपको फ़कीर, अमीर, विद्यार्थी, मन्त्री, राजा आदि आदि देखता है ।
उधर अपने ही ‘समष्टि रूप’ से सिंह, बाघ, नगर, नदी, स्त्री, वन आदि उत्पन्न कर लेता है ।
जिनको उस समय के काल्पनिक ‘अपने-आप से’ प्रथक समझता है ।
जाग्रत दृष्टि से देखें तो स्वपन में जिसको ‘यह’ अपना स्वीकार करता है । वह भी इसका ख्याल है और जिनको अपने से प्रथक मानकर (उनसे) भय करता है भयभीत हो जाता है । वह भी उसी की सृष्टि है ।
आप ही भेङ है आप ही भेङिया है । आप ही पैर आप ही कांटा है । ठीक यही दशा जाग्रत अवस्था में है ।
मेरे ही अपना आप जिज्ञासु !
जिसको तू जाग्रत अवस्था समझ बैठा है । है वास्तव में वह भी स्वपन ! यद्यपि अधिक समय (नाप) का है । वास्तविक दृष्टि से व्यक्तित्व (जीव) तेरी माया का व्यष्टि रूप है । और ‘सारा संसार’ तेरी ही माया का समष्टि रूप है ।
बागे जहाँ के गुल हैं, या खार हैं तो हम हैं ।
गर यार हैं तो हम हैं, अगयार हैं तो हम हैं ।
दरियाये-मार्फ़त के देखा, तो हम हैं साहिल ।
गर वार हैं तो हम हैं, वर पार हैं तो हम हैं ।
वाबस्ता है हमीं से, गर जब्र है वगर कद्र ।
मजबूर हैं तो हम हैं, मुख्तार हैं तो हम हैं ।
मेरा ही हुस्न जग में, हरचन्द मौजजन है ।
तिस पर भी तेरे तिश्नाएं-दीदार हैं तो हम हैं ।
और जब यह बात है कि जिससे सामना पङे, वह तेरे ही स्वरूप हैं तेरा ही प्रकाश हैं ।
फ़ैला के दामे-उल्फ़त, घिरते घिराते हम हैं ।
गर सैद हैं तो हम हैं, सैयाद हैं तो हम हैं ।
अपना ही देखते हैं, हम बन्दोबस्त यारो ।
गर दाद हैं तो हम हैं, फ़रियाद हैं तो हम हैं ।
फ़िर अप्रसन्नता और चिढ़चिढ़ेपन का क्या अर्थ ?
कुछ लाये न थे, कि खो गये हम ।
थे आप ही एक, सो गये हम ।
जूँ आइना जिसपे, याँ नजर की ।
साथ अपने, दो चार हो गये हम ।
एक चित्र में, एक शिकारी तीर कमान हाथ में लिये ताक लगाये खङा है । छायादार वृक्ष के नीचे हरे हरे लम्बे घास में हरी हरी पत्तियों और पीले रंग के नरम नरम जंगली फ़ूलों के बीच हिरन की चमकती हुयी आँख देखकर उसका निशाना कर रहा है ।
निर्दयी ! आन की आन में बेचारे हिरन को मार लेगा ।
ऐ अस्थिर (क्षणभंगुर) जीवन वाले मृग !
मत घबरा, मत डर, परवाह न कर, जाग तो सही ! तू है कौन ? क्या तू हिरन है ?
नहीं ! हिरन तो तुझे ‘हिरन कहने वाले’ की बुद्धि में होगा । तू तो कागज है कागज !
और अपने स्वरूप (कागज) की दृष्टि से तू ही शिकारी है । तू ही तीर है । तू ही प्राणनाशक सूफ़ार (तीर का मुँह) है ।
तुझे किसका भय, कैसी भीत ? कहाँ का खटका, काहे का शोक ?
बिगङे तब जब होय कुछ, बिगङन वाली शय ।
अकाल अछेद्य अभंग को, कौन शख्स का भय ।
कौन शख्स का भय, बुद्धि यह जिसने पाई ?
तिसके ढिंग दिलगीरी, नही कदाचित आई ।
हे महराज मनुष्य ! व्याकुल होना तेरे गौरव के विपरीत है । तू अपने शरीर और नाम के तल पर तो दृष्टि डाल । अपने सच्चे अपने-आपको तो जान ! जिससे तू डरता है वह तू ही है । जिससे भयभीत होता है वह तू ही है ।
यदि बाह्य दृष्टि से तू अत्याचार किये जाने योग्य और तुच्छ है, तो अंतर्दृष्टि से तेजोमय, प्रतापवान, महाराजाधिराज भी तू ही है । अग्नि अपने ताप से स्वतः नही घबराया करती । सब तेरे ही प्रकाश हैं । उनसे मत डर, निधङक हो जा ।
दूरदर्शिता मनुष्य को अंधा बना देती है जैसे कि घर में सोया हुआ घर से अंधा होता है ।
the wordling seeks pleasures fattening himself
like a caged fowl.
but the real saints flies upto the sun like
the wild crane.
the fowl in the coop has food but will soon
be boiled in the pot.
no provisions are given to the wild crane, but
the heavens and earth are his,
संसारी (संसार में आसक्त) सांसारिक प्रमोद-आनन्द ढ़ूंढ़ता है । और पिंजरे में बन्द कुक्कुट (मुर्गे) की भांति अपने को मोटा ताजा करता है किन्तु सच्चा सन्त-महात्मा जंगली सारस या कुलंग की भांति सूर्य की ओर ऊँचा उङता है ।
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उस पिंजरे के पक्षी (मनुष्य) को यद्यपि भोजन तो खूब मिलता रहता है किन्तु वह जल्द हांडी में उबाला जायेगा । जबकि सारस (आजाद पक्षी) को (उसकी तरह) भोजन आदि सरलता से तो नही मिलता । किन्तु आकाश और धरती दोनों का वह मालिक है । जहाँ चाहता है, स्वतन्त्रता से घूमता फ़िरता है ।
जो कुछ संसार में है, वह स्वतन्त्र मनुष्यों के लिये निषिद्ध है । आकाश के नीचे हमारा सामान ‘चित्त की शांति’ है ।
एक रंगीला (फ़क्कङ) महात्मा गंगा के किनारे बैठा था, साथ में पाँच मनुष्य और थे । अचानक गंगा की लहरों ने ठंडे जल से सबके कपङे तर-बतर कर दिये । पानी के थपेङो ने सबको वहाँ से उठा दिया । वह लोग कपङे भीगने और सर्दी लगने से बङबङाने लगे । आह-ओह करने लगे ।
पर महात्मा वैसा का वैसा अपने पत्थर पर डटा रहा ।
आनन्द से मुस्करा रहा और गा रहा - मेरी प्यारी गंगा, मेरी जान गंगा..आदि ।
जिनको तुम भयानक घटनायें और भयंकर चोटें अनुमान किये बैठे हो । वह वास्तव में ‘प्यारी गंगा, तुम्हारी जान गंगा’ की ही रस-भरी लहरें हैं । यदि हैं, तो तुम्हारे प्रियतम आत्मदेव की ही करतूते हैं । परमात्मा की ही द्योतक हैं ।
शिकायत कैसी ?
सबकी सब डरावनी बातें और प्राणनाशक घटनायें रूप और आकार तो विष का लिये हैं मगर बने मिसरी के हैं ।
मिसरी की तूंबी रची, रंग रूपता मांहि ।
खान लग्यो जब भर्म तज, सो तब कङवी नांहि ।
स्वपन अवस्था में यह पुरुष वस्तुतः ‘आप ही आप’ तो होता है किन्तु बात यह है कि - इधर अपने ‘व्यष्टि रूप’ से अपने आपको फ़कीर, अमीर, विद्यार्थी, मन्त्री, राजा आदि आदि देखता है ।
उधर अपने ही ‘समष्टि रूप’ से सिंह, बाघ, नगर, नदी, स्त्री, वन आदि उत्पन्न कर लेता है ।
जिनको उस समय के काल्पनिक ‘अपने-आप से’ प्रथक समझता है ।
जाग्रत दृष्टि से देखें तो स्वपन में जिसको ‘यह’ अपना स्वीकार करता है । वह भी इसका ख्याल है और जिनको अपने से प्रथक मानकर (उनसे) भय करता है भयभीत हो जाता है । वह भी उसी की सृष्टि है ।
आप ही भेङ है आप ही भेङिया है । आप ही पैर आप ही कांटा है । ठीक यही दशा जाग्रत अवस्था में है ।
मेरे ही अपना आप जिज्ञासु !
जिसको तू जाग्रत अवस्था समझ बैठा है । है वास्तव में वह भी स्वपन ! यद्यपि अधिक समय (नाप) का है । वास्तविक दृष्टि से व्यक्तित्व (जीव) तेरी माया का व्यष्टि रूप है । और ‘सारा संसार’ तेरी ही माया का समष्टि रूप है ।
बागे जहाँ के गुल हैं, या खार हैं तो हम हैं ।
गर यार हैं तो हम हैं, अगयार हैं तो हम हैं ।
दरियाये-मार्फ़त के देखा, तो हम हैं साहिल ।
गर वार हैं तो हम हैं, वर पार हैं तो हम हैं ।
वाबस्ता है हमीं से, गर जब्र है वगर कद्र ।
मजबूर हैं तो हम हैं, मुख्तार हैं तो हम हैं ।
मेरा ही हुस्न जग में, हरचन्द मौजजन है ।
तिस पर भी तेरे तिश्नाएं-दीदार हैं तो हम हैं ।
और जब यह बात है कि जिससे सामना पङे, वह तेरे ही स्वरूप हैं तेरा ही प्रकाश हैं ।
फ़ैला के दामे-उल्फ़त, घिरते घिराते हम हैं ।
गर सैद हैं तो हम हैं, सैयाद हैं तो हम हैं ।
अपना ही देखते हैं, हम बन्दोबस्त यारो ।
गर दाद हैं तो हम हैं, फ़रियाद हैं तो हम हैं ।
फ़िर अप्रसन्नता और चिढ़चिढ़ेपन का क्या अर्थ ?
कुछ लाये न थे, कि खो गये हम ।
थे आप ही एक, सो गये हम ।
जूँ आइना जिसपे, याँ नजर की ।
साथ अपने, दो चार हो गये हम ।
एक चित्र में, एक शिकारी तीर कमान हाथ में लिये ताक लगाये खङा है । छायादार वृक्ष के नीचे हरे हरे लम्बे घास में हरी हरी पत्तियों और पीले रंग के नरम नरम जंगली फ़ूलों के बीच हिरन की चमकती हुयी आँख देखकर उसका निशाना कर रहा है ।
निर्दयी ! आन की आन में बेचारे हिरन को मार लेगा ।
ऐ अस्थिर (क्षणभंगुर) जीवन वाले मृग !
मत घबरा, मत डर, परवाह न कर, जाग तो सही ! तू है कौन ? क्या तू हिरन है ?
नहीं ! हिरन तो तुझे ‘हिरन कहने वाले’ की बुद्धि में होगा । तू तो कागज है कागज !
और अपने स्वरूप (कागज) की दृष्टि से तू ही शिकारी है । तू ही तीर है । तू ही प्राणनाशक सूफ़ार (तीर का मुँह) है ।
तुझे किसका भय, कैसी भीत ? कहाँ का खटका, काहे का शोक ?
बिगङे तब जब होय कुछ, बिगङन वाली शय ।
अकाल अछेद्य अभंग को, कौन शख्स का भय ।
कौन शख्स का भय, बुद्धि यह जिसने पाई ?
तिसके ढिंग दिलगीरी, नही कदाचित आई ।
हे महराज मनुष्य ! व्याकुल होना तेरे गौरव के विपरीत है । तू अपने शरीर और नाम के तल पर तो दृष्टि डाल । अपने सच्चे अपने-आपको तो जान ! जिससे तू डरता है वह तू ही है । जिससे भयभीत होता है वह तू ही है ।
यदि बाह्य दृष्टि से तू अत्याचार किये जाने योग्य और तुच्छ है, तो अंतर्दृष्टि से तेजोमय, प्रतापवान, महाराजाधिराज भी तू ही है । अग्नि अपने ताप से स्वतः नही घबराया करती । सब तेरे ही प्रकाश हैं । उनसे मत डर, निधङक हो जा ।
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