डॉ. चतुर्भुज सहाय (Chaturbhuj Sahay) (1883 -1957)
भारत के महान सन्त पुरुष, समर्थ गुरु थे जिन्होंने अपने गुरु परमसंत रामचंद्र जी महाराज के नाम पर मथुरा में रामाश्रम सत्संग, मथुरा की स्थापना की ।
आपका कहना था - ईश्वर एक शक्ति है, न उसका कोई नाम है न रूप । जिसने जो नाम रख लिया वही ठीक है । उसको प्राप्त करने के लिए गृहस्थी त्याग कर जंगल में भटकने की आवश्यकता नहीं, वह घर में रहने पर भी प्राप्त हो सकता है ।
डा. चतुर्भुज सहाय जी का जन्म विक्रम संवत - 1840, वर्ष 1883, शरद ऋतु में कार्तिक शुल्क पक्ष की चतुर्थी के दिन कुलश्रेष्ठ (कायस्थ) वंश में चमकरी ग्राम में हुआ था जो एटा प्रांत से जलेसर की सड़क पर 2 मील पर स्थित है ।
आपके पिता श्रीयुत रामप्रसाद जी जाने-माने प्रतिष्ठित व्यक्ति थे । उनकी जमींदारी थी, घर सब प्रकार से संपन्न था । पिता धार्मिक विचार के थे तथा साधु महात्माओं का आदर करते थे । वे स्वयं सिद्ध पुरुष थे और अनेकों बातें सूर्य को देखकर बता दिया करते थे । घर पर आए दिन पूजा पाठ-कथा वार्ता हुआ करती और हर वर्ष किसी न किसी पुराण की कथा कहलाया करते थे । स्वयं भी विद्वान और संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे । ज्योतिष का बड़ा गहन अध्ययन किया था । कुछ पुस्तकें भी लिखीं जो हस्तलिखित रूप से आज भी मौजूद हैं ।
जब गुरुदेव गर्भ में थे तो माता ने संपूर्ण भागवत सुनी थी परन्तु वह इन्हें जन्म देने के 2-3 वर्ष बाद ही परलोक सिधार गईं । लालन-पालन का संपूर्ण भार पिताजी पर आया जिन्होंने सब प्रकार से उन्हें योग्य बनाने की पूरी चेष्टा की । घर के धार्मिक, सात्विक वातावरण तथा जन्म के संस्कारों की गहरी छाप गुरुदेव पर पड़ी । उन्हें बालकों के साथ खेलना, शोर मचाना अच्छा नहीं लगता था । बचपन में कथा, धार्मिक कहानी सुनने का बड़ा शौक था । जब कोई पंडित कथा कहते तो आप बैठकर ध्यान से सुनते । स्वभाव शांत और एकांतप्रिय था । सदैव बड़ों के पास बैठकर चुपचाप उनकी बातें सुनने में आनन्द लिया करते । इन सब बातों ने उनके भगवत प्रेम को उभारा और उन्हें चिंतनशील बना दिया ।
प्रारंभिक शिक्षा उर्दू, फारसी की हुई, साथ ही एक पंडित ने नागरी ज्ञान भी कराया । आगे चलकर अंगेजी का भी ज्ञान प्राप्त किया और थोड़े ही समय में विद्या उपार्जन कर ली । आपको घुड़सवारी का बड़ा शौक था । बड़े होने पर आयुर्वेदिक, इलैक्ट्रोपैथी तथा होम्योपैथी सीखी । 18 वर्ष की आयु में अपनी ननिहाल फतेहगढ़ चले आए और वहाँ कई वर्ष तक डाक्टरी की प्राइवेट प्रैक्टिस करते रहे ।
अध्यात्म विद्या का शौक प्रारंभ से ही था इसलिए फतेहगढ़ में गंगा किनारे रहने वाले साधु महात्माओं से प्रायः मिलते रहते । उनसे अनेक प्रकार के प्राणायाम, हठयोग आदि अनेक क्रियाओं को सीखा, अभ्यास किया परंतु संतुष्टि किसी से नहीं हुई, मन में अशांति, भविष्य की चिंता रहती थी वह इन उपायों से दूर नहीं हुई । मन किसी और ही वस्तु की खोज में था जो विद्वानों तथा साधु सन्यासियों से प्राप्त नहीं हुई ।
उस जमाने में आर्यसमाज एक अच्छी संस्था थी । मित्रों के आग्रह पर वे आर्यसमाज में दाखिल हो गए और देशसेवा के विचार से प्रचार कार्य बड़े उत्साह से किया । इसी समय आपने वेद, उपनिषदों, पुराणों आदि का अध्ययन किया और अपनी योग्यता तथा क्रियाशीलता के कारण फतेहगढ़ तथा आगरे में हाई सर्किल के मेम्बर भी रहे । परन्तु आगे चलकर वहां की अव्यवस्था को देखकर आपको ग्लानि हुई और वहां से विदा ली ।
आपको संगीत का बड़ा शौक था लेकिन आगे चलकर ब्रह्मविद्या का अमृतपान कर सारे रस फीके लगने लगे और संगीत अभ्यास से हाथ खींच लिया और मन की डोर किसी और के चरणों में अटका दी । संगीत को वे भगवान की प्राप्ति का सरल और शीघ्र फल देने वाला साधन मानते थे ।
आप कहा करते थे - संगीत जानने वालों को अपने भाव भगवान को संबोधन करके अत्यन्त विनम्र तथा मधुर भाव से एकांत में सुनाने चाहिए, इससे आशुतोष बड़ी जल्दी रीझते हैं । दुनियाँ वालों के लिए इस प्रतिभा को नष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है । इसीलिए सत्संगों तथा भंडारों में वे संगीतज्ञों और गायकों से रात के 12-1 बजे तक मधुर भक्ति-भजन सुना करते और प्रेम विह्वल हो जाते थे । आंसुओं की माला बिखरने लगती । जिन भाइयों ने उस दृश्य को देखा था वे जानते हैं कि यह प्रत्यक्ष भासता था कि प्रभु उन मोतियों को बीनने संगीत की लहरों से खिंचे चले आ रहे हैं ।
आप गृहस्थ संत थे, आपका विवाह श्रीमती इंद्रा देवी (परम संत पूज्य जिया माँ) से हुआ । जिन्होंने आपके बाद आपके द्वारा स्थापित ‘रामाश्रम सत्संग मथुरा’ का अपने पूरे जीवनकाल संचालन किया और अपने मौन उपदेशों से आध्यात्मिक जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन किया ।
आपकी दो पुत्रियां तीन पुत्र थे । बड़े पुत्र संत डॉक्टर बृजेन्द्र कुमार जी थे । आपने मेडिकल सुप्रीडेंटेंट के पद से अवकाश ग्रहण किया । दूसरे पुत्र संत हेमेंद्र कुमार जी थे तथा तृतीय पुत्र संत डॉक्टर नरेंद्र कुमार जी थे । तीनों ही पुत्रों ने आपको अपना गुरु मानकर अपना जीवन निर्वाह किया तथा सभी अध्यात्म विद्या के पूर्ण धनी थे और अपना सारा जीवन गुरुमिशन की निष्काम भाव से सेवा करते रहे । दोनों पुत्रियां संत श्रीमती श्रद्धा और संत श्रीमती सुधा कुलीन व आध्यात्मिक परिवार में विवाह के पश्चात भी मिशन की सेवा में जीवन पर्यन्त लगी रहीं ।
गुरुदर्शन
गुरुदेव को अपने गुरु (श्री मन्महात्मा रामचन्द्र जी महाराज, फतेहगढ़) के प्रथम दर्शन गुरुमाता के इलाज के सम्बन्ध में 1910-11 में हुए । उनके सरल स्वभाव और साधारण गृहस्थ वेश ने पहले तो उन्हें भ्रम में डाल दिया और कई महीने के मेलमिलाप से भी वे इस बात को न समझ पाए कि वह कोई अलौकिक महापुरुष हैं जिनकी आत्मा किसी ऊँचे स्थान की सैर करती हुई हर समय शांत और प्रसन्न रहती है । कुछ समय बाद फतेहगढ़ में प्लेग का प्रकोप हुआ और आप राजा तिर्वा की कोठी में आ गए ।
महात्माजी महाराज के अंदर ख्याल हुआ - यह अधिकारी व्यक्ति हैं, इन्हें ब्रह्मज्ञान देना चाहिए ।
एक दिन उनसे बोले - डाक्टर साहब ! प्लेग की वजह से बाल-बच्चे तो हम भी घर भेज रहे हैं, अगर आपके पास जगह हो तो हम भी वहीं आ जाएँ ।
आपने इसका स्वागत किया और दोनों एक साथ उस कोठी में रहने लगे । उनका कहना था कि अज्ञात रूप से उन्होंने मुझे अपनी ओर खींचा । महात्माजी महाराज को बड़ा सुरीला कंठ प्राप्त था और अच्छा गाते थे । एक दिन उन्होंने उन्हें गुनगुनाते हुए सुना ।
कहने लगे - आपको कंठ तो बड़ा सुरीला मिला है । किसी से इस विद्या (संगीत) को सीखा क्यों नहीं ।
महात्मा जी बोले - शौक तो हुआ पर बाद में ऐसी चीज़ मिल गई जिसने इस शौक को छुड़ा दिया और दूसरा ही चस्का लग गया ।
गुरुदेव के मन में कुरेद होने लगी - संगीत तो सब विद्याओं की विद्या है । जीवन में आनंद प्रदान करने वाला ज्ञान इससे बढ़कर कोई नहीं । हाँ, केवल ‘ब्रह्मविद्या’ ऐसी है जिसके आगे यह फीकी पङ जाती है ।
उधर से खिंचाव था ही इन्हें भी आकर्षण हुआ और वे पूछ बैठे - क्या आप अध्यात्म विद्या को जानते हैं ?
पर उस समय वे बात टाल गये ।
कुछ दिन बाद वे दोनों गंगा किनारे टहलने के लिए निकले ।
कहते हैं हर चीज़ का समय होता है, फकीरों की भी मौज होती है ।
महात्मा जी को मौज आ गई, अंदर का प्रेम तरंगें मार रहा था ।
आज उसका समय आ पहुँचा था, बोले - डाक्टर साहब मैं इस विद्या को जानता हूँ और आज मैं तुम्हें इसका सबक दूँगा ।
अप्रैल महीना था । बसंत वृक्ष, पल्लवों तथा लताओं के बहाने संगीत सुना रहा था । ऐसे आनंदमय प्राकृतिक दृश्यों के बीच गुरुदेव महात्मा जी के साथ नवखंडों के टीलों पर से गुजरते हुए बस्ती से लगभग दो मील बाहर निकल गए । आगे एक सुनसान जंगल पड़ा जहाँ मनुष्य देखने मात्र को नहीं था ।
दोनों आगे बढ़े देखा - किसी साधू की कुटिया है परन्तु साधू वहाँ नहीं है । ऐसा ज्ञात होता था कि वह उसे छोड़कर कहीं बाहर चला गया है । फूँस की उस झोंपड़ी के आगे कुछ जमीन लिपी हुई साफ पड़ी थी, चारों ओर के घने वृक्षों ने उसे सुरखित कर रखा था ।
वहीं महात्माजी ठहर गए और आप से बोले - आओ ! तुम्हें आनंददायिनी ब्रह्मविद्या का साधन बताएं ।
यह सन 1912 की बात है । कहा - आँखें बन्द करो और इस प्रकार ध्यान करो ।
ध्यान के दो-तीन मिनट बाद ही उन्हें शरीर का भान न रहा । ऐसा भान पड़ा कि वह फूल की तरह हल्के हो गए और ऊपर उठ रहे हैं । कोई अदभुत शक्ति ऊपर खींच रही है ।
कुछ देर बाद वह भी जाता रहा और उन्होंने अपने को उस स्थान पर पाया जिसे शास्त्रों में विज्ञानमय कोष की सम्प्रज्ञात समाधि का नाम दिया है ।
फिर बोले - बंद करो ।
उन्होंने आंख खोल दी । महात्मा जी कहने लगे - तुम्हारा आरम्भ हमने विज्ञानमय कोष से कराया है, नीचे के तीन स्थान, अन्नमय, प्राणमय व मनोमय में व्यर्थ ही समय नष्ट होता इसलिए उन्हें छुड़ा दिया और उनके ऊपर तुम्हें पहुँचा दिया है ।
उसी समय अनेक सिद्धियों और शक्तियों के उभारने की क्रियाएँ भी बतायीं । वायु में जड़ तक पहुँचने की सिद्धि को छोड़कर शेष सभी सिद्धियाँ बता डालीं । साथ ही उनसे काम न लेने का भी वचन लिया । इसी समय यह आशीर्वाद दिया कि इसी जन्म में तुम्हारी मुक्ति हो जायेगी ।
इसके पश्चात महात्मा जी ने कहा - इस साधन को रोजाना नियम से 15-20 मिनट करो । इससे तुम्हें वह हासिल होगा जो पचासों वर्षों के कठिन तप, परिश्रम से भी नसीब नहीं होता । दो दिन बाद ही तुम्हारे मन की दशा बदलने लगेगी, वह शांत, प्रसन्न रहने लगेगा, दुनियाँ की ओर से लगाव भी धीरे-धीरे कम होने लगेगा और फिर तुम्हारे अधिकार में आ जाएगा । यह सबसे ऊँचा और सरल योग है । शास्त्रों ने इसे ‘साम्ययोग’ और संतों ने ‘सहजयोग’ का नाम दिया है ।
विश्वास पूर्वक उस दिन से आपने साधन करना प्रारंभ कर दिया और सत्संग का लाभ उठाया ।
आप कहते थे - तीसरी साल जब मैं गुरुदेव के दर्शन को गया तो यह सोच रहा था कि मेरे साथी सब आगे निकल गये, मैं पीछे रह गया ।
महात्मा जी महाराज ने कहा - डाक्टर साहब, इस चारपाई पर लेट जाओ ।
मैं लेट गया । आप भोजन करने चले गये ।
उसी समय मुझे विराट स्वरूप का दर्शन हुआ, सम्पूर्ण विभूतियाँ तथा आत्मविद्या के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान हुआ जो मुझ जैसे आदमी के लिए अलौकिक ही नहीं असम्भव था ।
महात्मा जी हँसते हुए आए और कहने लगे - डाक्टर साहब इसको सम्भल कर रखियेगा ।
इस प्रकार आपको सारा ज्ञान अपने गुरुदेव से प्राप्त हुआ । परन्तु आपने कितना त्याग किया, कितनी-कितनी कठिनाइयाँ सहीं, किस प्रकार गुरु सेवा की उनके जीवन चरित्र में पा सकोगे स्थानाभाव से यहाँ संक्षेप में यह बताने का प्रयास किया गया है ।
गुरुदेव की आज्ञानुसार आपने इस ब्रह्मविद्या को फैलाने का संकल्प किया । आपकी हार्दिक इच्छा थी - इस अमूल्य ज्ञान को, जिसमें कुछ खर्च नहीं, अधिक परिश्रम नहीं, आज भी इस बाबू पार्टी में कैसे फैलाया जाय ।
सन 1923 ई. में आप एटा आए, यहाँ आपके पास कुछ जिज्ञासु आने लगे । महात्मा जी ने आपको आदेश दिया कि इस विद्या के प्रचार में जुट जाओ । जो चीज तुमको मिली उसका दूसरे भूले-भटकों में प्रचार करने से गुरु ऋण से मुक्ति मिल जायेगी ।
हृदय की महानता को गरीबी कुचल नहीं सकती, आर्थिक संकट उन्हे संकुचित नहीं बना सकता । उन दिव्यआत्माओं के अंदर तो विश्वप्रेम का अपार स्तोत्र होता ही है, हमारे गुरुदेव की भी वही दशा थी । वे जो कुछ करते ईश्वर परायण भाव से, ईश्वर की इच्छा से, ईश्वर के भरोसे पर ।
आप तन-मन-धन से इधर लग गये । प्रैक्टिस का काम ढीला पड़ गया । आमदनी भी कम हुई । इधर-उधर का आना-जाना हो गया, घर पर नित्य नये मेहमानों का आना आरम्भ हुआ, बड़ी कठिनाई का सामना पड़ा पर साहस नहीं छोड़ा, घर में काफी खर्च था किन्तु जिस प्रकार आप इधर लगे उसी प्रकार आपकी उदार हृदया-सहधर्मिर्णी (गुरु-माता) ने भी पूर्ण साथ दिया । आने वालों के सारे सत्कार का भार उन्हीं पर था । भोजन अपने हाथ से बना सबको खिलातीं, फिर घर का सारा कामकाज, बच्चों की देखभाल यानी सवेरे 4 बजे से रात्रि 12 बजे तक का सारा समय काम-धन्धा तथा सेवा में ही व्यतीत होता था इतना होने पर भी सदैव प्रसन्नचित्त रहती थीं । अपने गुरु कार्य संपादन में शारीरिक एवं आर्थिक कष्टों को झेलते हुए कभी मन मैला नहीं किया और नित्य नूतन साहस और उमंग के साथ उसको सर-अंजाम देते रहे । इसके अतिरिक्त सांसारिक कार्यक्षेत्र में भी चिकित्सा द्वारा अल्प आय जिसमे घर का खर्च चलाना भी मुमकिन नहीं था, उस पर भी गरीब और अनाथ रोगियों को मुफ्त दवा बांटते रहते थे ।
साधन मासिक पत्रिका का आरम्भ
महात्माजी की आज्ञा से प्रथम भण्डारा एटा में सन 31 में बसंत-पंचमी के अवसर पर किया जिसमें महात्माजी महाराज आये और इसके बाद महात्माजी का सन 31 में देहावसान हो गया, अन्तिम समय आप उनके पास ही थे,
उस समय आदेश हुआ - तुम हिम्मत बाँध कर प्रचार करो, भगवान मदद करेगा । जहाँ रोशनी होगी पतंगे अपने आप पहुँचेंगे ।
अतः आपने अगस्त सन 33 में जन्माष्टमी पर ‘साधन’ का प्रथम अंक प्रकाशित किया । सारा ज्ञान अध्ययन मात्र नहीं वरन आपके अनुभव में आ चुका था । आप उपनिषदें और शास्त्र देख ही चुके थे, योग वेदान्त के सारे ग्रन्थों का अवलोकन किया था अब यह सारा ज्ञान आपके अनुभव में ज्यों का त्यों आ गया ।
आप कहा करते थे - पुस्तकीय ज्ञान जब तक प्रत्यक्ष न कर लिया जाय अधूरा है । जो बिना पूर्ण गुरु के असम्भव है । इसके लिए आप दो साधन मुख्य बताते थे - एक सत्संग, दूसरा सेवा । सत्पुरुष का संग और उसकी सेवा की जाय तभी यह प्राप्त हो सकता है ।
आध्यात्मिक साहित्य और कृतियाँ
महात्माजी महाराज की आज्ञा थी कि इस विद्या को शास्त्र सम्मत बनाकर ऐसे साहित्य का भी सृजन किया जाये जिससे आजकल के जिज्ञासुओं को लाभ पहुंचे । इसी को ध्यान में रखते हुए आपने इस विद्या के सारे अनुभव जो आपको अपने गुरुदेव से प्राप्त हुए थे तथा उन अनुभवों का उपनिषदों, वेदों, गीता, रामायण और श्रीमद भगवद महापुराण से मिलान करके एक वृहद वांग्मय, परमार्थ के जिज्ञासुओं के लिए तैयार किया जो साधन प्रकाशन, मथुरा (भारत) द्वारा प्रकाशित है ।
ये रचनाएँ अत्यन्त सरल भाषा में लिखीं गई है जिससे सामान्य पढ़ा लिखा भी बड़ी आसानी से समझ सकता है । आपका मानना था, अब जमाना बदल रहा है, अतः सामान्य जिज्ञासुओं के लिए ऐसा साहित्य हो जो आसानी से ग्राह्य हो । अतः प्रचार के लिए आपने ‘साधन-पत्र’ के साथ-साथ और भी पुस्तकों का लिखना आरम्भ कर दिया । भक्तों के चरित्र आपको पहले से ही पसन्द थे । आदेशानुसार आप गुरु संदेश घर-घर पहुँचाने में तन मन धन से जुट गये । आपने ग्रन्थों की रचना भी शुरू कर दी । सन्त तुकाराम, श्री आमन देवी (दोनों भाग) श्री सहजोबाई की पुस्तकें आपने महात्मा जी महाराज के जीवनकाल में लिखकर प्रकाशित करायीं ।
जब भक्त शिरोमणि मीराबाई का चरित्र लिखने का संकल्प किया तो उनके जीवन के सम्बन्ध में लिखी हुई पुस्तकें पढ़ी किन्तु यह एकमत नहीं थीं । सोचा कि इनमें सही कौन सी है, इसकी खोज करनी चाहिए । इसके लिए आप मेड़ता गये वहाँ उनके मन्दिर में भगवान गिरधरलाल जी तथा मीरा के दर्शन किये । परन्तु कुछ ठीक पता नहीं लगा । फिर चित्तौड़ पहुँचे वहां महाराज के पुस्तकालय में हस्तलिखित राज्य-विभाग में मीरा का चरित्र पढ़ने को मिला ।
उसमें सब देखकर आप वापिस आए और एक रात बैठकर प्रार्थना की - माँ ! मैं तेरा सुन्दर चरित्र लिखने का संकल्प कर चुका हूँ परन्तु इन अलग-अलग विचारधाराओं को देख कुछ हिम्मत नहीं पड़ती । यदि आप कृपा करके मुझे अपना परिचय दें तो मैं लिख सकूँ । मैं आपका चरित्र लिखने योग्य तो नहीं हूँ परन्तु इससे बहुतों का कल्याण होगा इसीलिए आप कृपा करें और मुझे यह बतलायें कि कौन विचार सही है ।
रात्रि बीत गई सवेरे का समय हुआ, आप ध्यान में बैठे ही थे देखा कि माता मीरा सामने खड़ी हैं और लिखने के लिए आशीर्वाद दे रही हैं ।
आप कहते थे - यह लेखमाला ‘मीराबाई’ मैंने ठीक उसी प्रकार लिखी हैं, जैसे कोई बताता गया हो और मैं लिखता गया हूँ ।
यह पुस्तकें साधकों के लिए बड़ी अमूल्य हैं । साधन और पुस्तकों ने बड़ा काम किया । साधक दूर-दूर से आने लगे । लिखने की शैली डॉक्टर साहब की बड़ी सरल और सुगम थी । दर्शन शास्त्रों में भी उनकी गति अच्छी थी । कठिन से कठिन और गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों को सरलता से सम्मुख रख देना आपकी शैली थी । आप बड़े परिश्रम से जिज्ञासुओं के लाभार्थ यह साहित्य तैयार किया उनकी कुछ मुख्य पुस्तकों की सूची निम्नलिखित है -
1 साधना के अनुभव (सात खण्डों में प्रकाशित एवं सजिल्द)
2 आध्यात्मिक और शारीरिक ब्रह्मचर्य
3 योग फिलासफी और नवीन साधना
4 अलौकिक भक्तियोग
5 आध्यात्मिक विषय मीमांसा (भाग - 1 और 2)
6 श्री रामचंद्र जी महाराज (जीवनी तथा उपदेश)
भंडारों एवं सत्संग का प्रारम्भ
जब साधन दूर-दूर जाने लगा तो अनेक लोग पढ़कर महाराज जी के पास आने लगे । सन 34 में जब कि महात्मा गाँधी का सत्याग्रह युद्ध चल रहा था आप भी बैठे नहीं थे आप कहते थे कि यह काम भी महात्मा जी के सत्याग्रह के लिए बड़ा सहायक है । भारत के जितने भी सन्त महात्मा हैं सब किसी न किसी रूप में उनको सहायता दे रहे हैं । बिहार में सत्संग का कार्य दिन प्रतिदिन बढ़ता गया ।
सन 35 में बाबू राजेश्वरी प्रसाद सिंह जो एक अच्छे जागीरदार थे इसी ‘साधन-पत्र’ को पढ़कर बिहार से पधारे । आप गया प्रान्त के अन्तर्गत पणडुई के रहने वाले थे । एटा आकर महाराज जी का दर्शन किया, भजन क्रिया सीखी । इनका हृदय बड़ा शुद्ध था, संस्कारी-पुरुष थे और तीन ही वर्ष में पूर्ण-ज्ञान प्राप्त कर लिया । फिर उन्होंने गुरुदेव की आज्ञा से बिहार में प्रचार किया । आज सारा बिहार इस आत्म-विद्या से ओत-प्रोत हो रहा है । गुरुदेव की कुछ ऐसी कृपा हुई कि आज यह सत्संग सारे बिहार, बंगाल में अच्छे पैमाने पर फैल गया और सैकड़ों स्त्री पुरूष आज अध्यात्म का लाभ उठा रहे हैं ।
उत्तर प्रदेश में पहले से ही प्रायः सभी शहरों में केन्द्र खुल गये थे । जयपुर के एक एडवोकेट बाबू साधोनरायन जी, वकील इलाहाबाद से लौट रहे थे, रेल में ही कोई महाशय ‘साधन’ पढ़ रहे थे आपने उनसे लिया और पढ़ा ।
यह इसके बहुत दिनों से जिज्ञासु थे, अध्यात्म विद्या के बड़े खोजी थे । पढ़ते ही तबियत फड़क गई, सोचा - ऐसे सन्त का दर्शन करना चाहिए और राजस्थान जैसी मरू-भूमि को इस गंगा से हरा-भरा बनाना चाहिए । घर आए, पत्र लिखा और जयपुर पधारने की प्रार्थना की ।
उत्तर में आपने लिखा - मैं साधू नहीं हूँ ग्रहस्थ हूँ, आप पहले हमारे यहाँ आइये फिर में आपके यहाँ आ सकूँगा ।
बस फिर क्या था वह एटा पहुँचे और कुछ समय उपरान्त आप भी जयपुर पधारे । इस प्रकार वकील साहब ने आनन्दरूपी गंगा को लाने का प्रयास भागीरथ बनकर किया जिससे आज सारा राजस्थान इस ज्ञानगंगा से आनन्द उठा रहा है । इसके बाद हर साल आप जयपुर आने लगे, भंडारा प्रारम्भ हुआ । राजस्थान में सैंकड़ों छोटे बड़े लोग सत्संग का लाभ उठाने लगे । भण्डारे में भी सारे भारतवर्ष से सहस्रों की संख्या में लोग आने लगे । दूसरी साल का भण्डारा बसन्त पंचमी के बजाय बड़े दिन की छुट्टी में कर दिया जो 1950 तक एटा में होता रहा ।
एटा से मथुरा प्रस्थान
जब सत्संग अधिक बढ़ा - दूर-दूर के जिज्ञासु एटा आने लगे तो तो एटा में रेल के न होने से आने जाने वाले सत्संगियों को कठिनाई होती थी । प्राइवेट लारियां थीं, उस समय सरकारी बसें भी नहीं थीं । लोगों को अनेक कष्ट होने लगे, रातों-रात पड़ा रहना पड़ता था । कई बार ऐसा हुआ कि बिहार के बहुत से सत्संगी शिकोहाबाद से सवारी न मिलने के कारण अपने बिस्तर सर पर लादे हुए एटा पहुँचे आपका हृदय पिघल आया और इरादा किया कि यहाँ से दूसरी जगह चलना चाहिए जहाँ लोगों के आने जाने और ठहरने आदि की ठीक व्यवस्था हो ।
प्रथम जयपुर का इरादा किया लेकिन इधर के जिज्ञासुओं ने प्रार्थना की - महाराज जयपुर दूर है हम गरीब आदमी कैसे दर्शन को पहुँच सकेंगे ।
आप फिर सोचने लगे और विचार में मथुरा उपयुक्त जान पड़ा । बस मथुरा आना निश्चय हो गया और सन 1951 के अक्टूबर में आप मथुरा आ गए । यहां पर तो बात ही और हुई और चार-पाँच ही वर्ष में अनगिनत प्रेमीजन मथुरा आने लगे । जिज्ञासुओं को ऐसा प्रतीत होने लगा भगवान कृष्ण फिर अपने जन्म स्थान में गीता उपदेश देने के लिए पधारे हैं । यहाँ भण्डारा बड़े दिन से हटाकर शिवरात्रि पर रखा गया । यह भंडारा तो केन्द्र का होता ही था अब कई जगह भण्डारे होने लगे; प्रचार का काम वायु वेग की भाँति बढ़ने लगा यहाँ तक कि सन 1956 में कलकत्ते का बुलावा आया और हावड़ा भण्डारा करके आठ दिन परमहंस देव जी के आश्रम दक्षिणेश्वर ठहरे ।
वहाँ उन्होंने कहा - मुझे यहाँ बड़ी शान्ति मिली है, परमहंस जी का दर्शन हुआ है और एक दिन तो करीब दस घण्टे की समाधि में रहे ।
उस समय जितने प्रेमी साथ थे सबकी अजीब दशा थी एक अदभुत खिंचाव था जो वर्णन नहीं किया जा सकता ।
व्यक्तित्व
सहनशक्ति, गम्भीरता के आप अवतार थे, सदैव हँसते हुए शान्त रहते थे । उनके अन्दर का भेद कोई पूरा नहीं जान पाया । विद्या के तो भण्डार थे । किसी ने जो कुछ पूछा वही सरलता से समझाकर बतलाया । उनका सारा काम अभ्यासी का अभिमान दूर करना, जब कभी देखते कि इसे अभिमान आया तत्काल ही उसे चेता दिया । जहाँ देखा कोई गलती किसी से हुई कभी हँस कर, कभी डाँटकर बता देते । अभिमान को वह तुरन्त पहचान लेते ।
वह कहते भी थे - गुरु का कार्य और कुछ नहीं केवल शिष्य को अभिमान से बचाये रखना है । आप अभिमान की बात कभी सीधी, कभी दूसरों पर उतार के कह देते थे ।
आप कहते थे - शिष्य को चाहिए कि वह हमेशा गुरु को साथ लेकर बोले, कभी गुरु को मत भूलो । गुरु ही वह शक्ति है जो तुम्हारे द्वारा अपना ज्ञान दूसरों को देती है । यदि तुमको इस पर अपना अभिमान है तो वह गलत है । दूसरों पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा । सत्संग तो कोई और ही कराता है । मैंने आज तक कभी भूलकर भी नहीं विचारा कि सत्संग मैं कराता हूँ ।
आपका ज्ञान अपार था, आप जब किसी जटिल विषय को समझाते तो इतनी सरलता से समझाते कि गंभीर होते हुए भी समझ में आ जाता था । किसी भी विषय पर घण्टों बोल सकते थे । कभी कोई शंका उठ खड़ी होती तो बिना कहे निवारण कर देते । प्रायः सभी को जब कुछ पूछना हुआ मगर पूछ न सके तो स्वयं ही ऐसी बातें छेड़ देते कि वह बात हल हो जाती । जिसने एक दफा भी सोहबत उठाई हमेशा के लिए आपका मौतक़िद हो गया ।
शक्ति होने पर भी शक्ति का प्रयोग न करने का, बड़े महात्माओं के अनुरूप लक्षण, हमने डॉक्टर चतुर्भुज सहाय जी में देखा । उनकी उपस्थिति में मैं एक विचित्र शांति का अनुभव करता था और मेरी शंकाएं केवल उनके समुख बैठने मात्र से तत्काल दूर हो जाती थीं । प्रेमियों से घिरे रहना उन्हें सदैव अच्छा लगता था, चाहे फिर विश्राम न कर सकने के कारण बीमार ही क्यों न पड़ जाएँ । उनके हृदय में अपने पराये का भाव उत्पन्न न होता । वे उच्च गृहस्थ धर्म के महान आदर्श थे । अर्थाभाव की चिंता उन्हे छू तक न गई थी - मैंने उन्हे कभी चिंतित देखा ही नहीं ।
अध्यात्म तत्व के अति गूढ़ विषय पर तभी बोलते थे जब समाज समझदार हो और श्रोता विद्वान तथा अनुभवी हों । मैंने एक बार प्रयाग में समाधियों के ऊपर अपना प्रवचन सुना उसमें आपने पंच कोषों की सभी समाधियाँ बड़े अच्छे प्रकार से कहीं और खूब समझ में आ गईं । लेकिन कुछ समय बाद फिर भूल गया ।
एक बार बड़ी प्रसन्न मुद्रा में थे, आप बोले - पंडित लोग समाधियों को बड़ा कठिन समझते हैं । उनमें कोई ऐसी बात नहीं है । हमारे सत्संग में तो यह रोज आया करती हैं । आओ आज तुम्हें समाधियों के भेद समझायें ।
मैं बड़ा प्रसन्न हुआ समझ गया कि मेरी प्रार्थना स्वीकार हो गई ।
फिर बोले - कागज पेंसिल लेकर लिख लो जिससे फिर भूल न जाओ ।
वह हमने लिखीं । अन्नमय कोष की समाधि से लेकर आनन्दमय कोष की सहज समाधि तक जिसे गीता में धर्म मेघ समाधि बतलाया गया है बड़े सुन्दर ढंग से समझाईं और सविकल्प तथा सविचार बड़े अच्छे ढंग से बतलाया । यह वर्णन योग-शास्त्र और कहीं-कहीं उपनिषदों में भी आया है परन्तु बिना अनुभवशील गुरु के समझाए ठीक समझ में आता नहीं । वह तो उसके साथ-साथ अनुभव भी कराते जाते थे । कई बार सत्संग में आई हुई अवस्था की बता देते कि आप लोग इस समय इस अवस्था में हैं ।
उनका ज्ञान अपार था । सब जानते हुये भी कभी किसी से कुछ कहते नहीं थे । सामने बैठने में डर लगता था कि अपने मन के बुरे भाव इनके सामने आऐंगे तो क्या कहेंगे । परन्तु इतनी गम्भीरता था कि अभी यह नहीं कहा कि तुम में यह दोष है । खाने पीने वाले पास आते, पढ़े-लिखे सदाचारी भी पास आते किन्तु कभी किसी के चरित्र पर कुछ कहना नहीं । बस यही कहते, भगवान का ध्यान करो और हमारे बताए हुए साधन को इसी तरह करो जैसे बताया जाय, यह सारे दोष तो स्वतः ही दूर हो जाऐंगे । वह जादू क्या जो सर चढ़कर न बोले ।
इस प्रकार के अनेक साधन जो जिसके लिये उचित होता बता के साधन में लगा देते थे । इसीलिए हम धर्म वाला मनुष्य उनको अपना ही समझ साधना में जुट जाता था, उनकी साधना किसी सम्प्रदाय के लिए नहीं थी मानव समाज के लिए थी ।
क्योंकि जब सब मनुष्य एक ही हैं तो उनके धर्म भी दो नहीं हो सकते । इसीलिए हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, जैन आदि सभी सम्प्रदाय वालों ने उनकी शिक्षा को अपनाया । इस अंधेरे युग में वह पढ़े-लिखे लोग जो ईश्वर को मानते ही नहीं थे, धर्म के नाम की खिल्ली उड़ाते थे, सदमार्ग में लग गए और एक नवीन प्रकाश पा कृतकृत्य हो गये ।
ramashram.com
भारत के महान सन्त पुरुष, समर्थ गुरु थे जिन्होंने अपने गुरु परमसंत रामचंद्र जी महाराज के नाम पर मथुरा में रामाश्रम सत्संग, मथुरा की स्थापना की ।
आपका कहना था - ईश्वर एक शक्ति है, न उसका कोई नाम है न रूप । जिसने जो नाम रख लिया वही ठीक है । उसको प्राप्त करने के लिए गृहस्थी त्याग कर जंगल में भटकने की आवश्यकता नहीं, वह घर में रहने पर भी प्राप्त हो सकता है ।
डा. चतुर्भुज सहाय जी का जन्म विक्रम संवत - 1840, वर्ष 1883, शरद ऋतु में कार्तिक शुल्क पक्ष की चतुर्थी के दिन कुलश्रेष्ठ (कायस्थ) वंश में चमकरी ग्राम में हुआ था जो एटा प्रांत से जलेसर की सड़क पर 2 मील पर स्थित है ।
आपके पिता श्रीयुत रामप्रसाद जी जाने-माने प्रतिष्ठित व्यक्ति थे । उनकी जमींदारी थी, घर सब प्रकार से संपन्न था । पिता धार्मिक विचार के थे तथा साधु महात्माओं का आदर करते थे । वे स्वयं सिद्ध पुरुष थे और अनेकों बातें सूर्य को देखकर बता दिया करते थे । घर पर आए दिन पूजा पाठ-कथा वार्ता हुआ करती और हर वर्ष किसी न किसी पुराण की कथा कहलाया करते थे । स्वयं भी विद्वान और संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे । ज्योतिष का बड़ा गहन अध्ययन किया था । कुछ पुस्तकें भी लिखीं जो हस्तलिखित रूप से आज भी मौजूद हैं ।
जब गुरुदेव गर्भ में थे तो माता ने संपूर्ण भागवत सुनी थी परन्तु वह इन्हें जन्म देने के 2-3 वर्ष बाद ही परलोक सिधार गईं । लालन-पालन का संपूर्ण भार पिताजी पर आया जिन्होंने सब प्रकार से उन्हें योग्य बनाने की पूरी चेष्टा की । घर के धार्मिक, सात्विक वातावरण तथा जन्म के संस्कारों की गहरी छाप गुरुदेव पर पड़ी । उन्हें बालकों के साथ खेलना, शोर मचाना अच्छा नहीं लगता था । बचपन में कथा, धार्मिक कहानी सुनने का बड़ा शौक था । जब कोई पंडित कथा कहते तो आप बैठकर ध्यान से सुनते । स्वभाव शांत और एकांतप्रिय था । सदैव बड़ों के पास बैठकर चुपचाप उनकी बातें सुनने में आनन्द लिया करते । इन सब बातों ने उनके भगवत प्रेम को उभारा और उन्हें चिंतनशील बना दिया ।
प्रारंभिक शिक्षा उर्दू, फारसी की हुई, साथ ही एक पंडित ने नागरी ज्ञान भी कराया । आगे चलकर अंगेजी का भी ज्ञान प्राप्त किया और थोड़े ही समय में विद्या उपार्जन कर ली । आपको घुड़सवारी का बड़ा शौक था । बड़े होने पर आयुर्वेदिक, इलैक्ट्रोपैथी तथा होम्योपैथी सीखी । 18 वर्ष की आयु में अपनी ननिहाल फतेहगढ़ चले आए और वहाँ कई वर्ष तक डाक्टरी की प्राइवेट प्रैक्टिस करते रहे ।
अध्यात्म विद्या का शौक प्रारंभ से ही था इसलिए फतेहगढ़ में गंगा किनारे रहने वाले साधु महात्माओं से प्रायः मिलते रहते । उनसे अनेक प्रकार के प्राणायाम, हठयोग आदि अनेक क्रियाओं को सीखा, अभ्यास किया परंतु संतुष्टि किसी से नहीं हुई, मन में अशांति, भविष्य की चिंता रहती थी वह इन उपायों से दूर नहीं हुई । मन किसी और ही वस्तु की खोज में था जो विद्वानों तथा साधु सन्यासियों से प्राप्त नहीं हुई ।
उस जमाने में आर्यसमाज एक अच्छी संस्था थी । मित्रों के आग्रह पर वे आर्यसमाज में दाखिल हो गए और देशसेवा के विचार से प्रचार कार्य बड़े उत्साह से किया । इसी समय आपने वेद, उपनिषदों, पुराणों आदि का अध्ययन किया और अपनी योग्यता तथा क्रियाशीलता के कारण फतेहगढ़ तथा आगरे में हाई सर्किल के मेम्बर भी रहे । परन्तु आगे चलकर वहां की अव्यवस्था को देखकर आपको ग्लानि हुई और वहां से विदा ली ।
आपको संगीत का बड़ा शौक था लेकिन आगे चलकर ब्रह्मविद्या का अमृतपान कर सारे रस फीके लगने लगे और संगीत अभ्यास से हाथ खींच लिया और मन की डोर किसी और के चरणों में अटका दी । संगीत को वे भगवान की प्राप्ति का सरल और शीघ्र फल देने वाला साधन मानते थे ।
आप कहा करते थे - संगीत जानने वालों को अपने भाव भगवान को संबोधन करके अत्यन्त विनम्र तथा मधुर भाव से एकांत में सुनाने चाहिए, इससे आशुतोष बड़ी जल्दी रीझते हैं । दुनियाँ वालों के लिए इस प्रतिभा को नष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है । इसीलिए सत्संगों तथा भंडारों में वे संगीतज्ञों और गायकों से रात के 12-1 बजे तक मधुर भक्ति-भजन सुना करते और प्रेम विह्वल हो जाते थे । आंसुओं की माला बिखरने लगती । जिन भाइयों ने उस दृश्य को देखा था वे जानते हैं कि यह प्रत्यक्ष भासता था कि प्रभु उन मोतियों को बीनने संगीत की लहरों से खिंचे चले आ रहे हैं ।
आप गृहस्थ संत थे, आपका विवाह श्रीमती इंद्रा देवी (परम संत पूज्य जिया माँ) से हुआ । जिन्होंने आपके बाद आपके द्वारा स्थापित ‘रामाश्रम सत्संग मथुरा’ का अपने पूरे जीवनकाल संचालन किया और अपने मौन उपदेशों से आध्यात्मिक जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन किया ।
आपकी दो पुत्रियां तीन पुत्र थे । बड़े पुत्र संत डॉक्टर बृजेन्द्र कुमार जी थे । आपने मेडिकल सुप्रीडेंटेंट के पद से अवकाश ग्रहण किया । दूसरे पुत्र संत हेमेंद्र कुमार जी थे तथा तृतीय पुत्र संत डॉक्टर नरेंद्र कुमार जी थे । तीनों ही पुत्रों ने आपको अपना गुरु मानकर अपना जीवन निर्वाह किया तथा सभी अध्यात्म विद्या के पूर्ण धनी थे और अपना सारा जीवन गुरुमिशन की निष्काम भाव से सेवा करते रहे । दोनों पुत्रियां संत श्रीमती श्रद्धा और संत श्रीमती सुधा कुलीन व आध्यात्मिक परिवार में विवाह के पश्चात भी मिशन की सेवा में जीवन पर्यन्त लगी रहीं ।
गुरुदर्शन
गुरुदेव को अपने गुरु (श्री मन्महात्मा रामचन्द्र जी महाराज, फतेहगढ़) के प्रथम दर्शन गुरुमाता के इलाज के सम्बन्ध में 1910-11 में हुए । उनके सरल स्वभाव और साधारण गृहस्थ वेश ने पहले तो उन्हें भ्रम में डाल दिया और कई महीने के मेलमिलाप से भी वे इस बात को न समझ पाए कि वह कोई अलौकिक महापुरुष हैं जिनकी आत्मा किसी ऊँचे स्थान की सैर करती हुई हर समय शांत और प्रसन्न रहती है । कुछ समय बाद फतेहगढ़ में प्लेग का प्रकोप हुआ और आप राजा तिर्वा की कोठी में आ गए ।
महात्माजी महाराज के अंदर ख्याल हुआ - यह अधिकारी व्यक्ति हैं, इन्हें ब्रह्मज्ञान देना चाहिए ।
एक दिन उनसे बोले - डाक्टर साहब ! प्लेग की वजह से बाल-बच्चे तो हम भी घर भेज रहे हैं, अगर आपके पास जगह हो तो हम भी वहीं आ जाएँ ।
आपने इसका स्वागत किया और दोनों एक साथ उस कोठी में रहने लगे । उनका कहना था कि अज्ञात रूप से उन्होंने मुझे अपनी ओर खींचा । महात्माजी महाराज को बड़ा सुरीला कंठ प्राप्त था और अच्छा गाते थे । एक दिन उन्होंने उन्हें गुनगुनाते हुए सुना ।
कहने लगे - आपको कंठ तो बड़ा सुरीला मिला है । किसी से इस विद्या (संगीत) को सीखा क्यों नहीं ।
महात्मा जी बोले - शौक तो हुआ पर बाद में ऐसी चीज़ मिल गई जिसने इस शौक को छुड़ा दिया और दूसरा ही चस्का लग गया ।
गुरुदेव के मन में कुरेद होने लगी - संगीत तो सब विद्याओं की विद्या है । जीवन में आनंद प्रदान करने वाला ज्ञान इससे बढ़कर कोई नहीं । हाँ, केवल ‘ब्रह्मविद्या’ ऐसी है जिसके आगे यह फीकी पङ जाती है ।
उधर से खिंचाव था ही इन्हें भी आकर्षण हुआ और वे पूछ बैठे - क्या आप अध्यात्म विद्या को जानते हैं ?
पर उस समय वे बात टाल गये ।
कुछ दिन बाद वे दोनों गंगा किनारे टहलने के लिए निकले ।
कहते हैं हर चीज़ का समय होता है, फकीरों की भी मौज होती है ।
महात्मा जी को मौज आ गई, अंदर का प्रेम तरंगें मार रहा था ।
आज उसका समय आ पहुँचा था, बोले - डाक्टर साहब मैं इस विद्या को जानता हूँ और आज मैं तुम्हें इसका सबक दूँगा ।
अप्रैल महीना था । बसंत वृक्ष, पल्लवों तथा लताओं के बहाने संगीत सुना रहा था । ऐसे आनंदमय प्राकृतिक दृश्यों के बीच गुरुदेव महात्मा जी के साथ नवखंडों के टीलों पर से गुजरते हुए बस्ती से लगभग दो मील बाहर निकल गए । आगे एक सुनसान जंगल पड़ा जहाँ मनुष्य देखने मात्र को नहीं था ।
दोनों आगे बढ़े देखा - किसी साधू की कुटिया है परन्तु साधू वहाँ नहीं है । ऐसा ज्ञात होता था कि वह उसे छोड़कर कहीं बाहर चला गया है । फूँस की उस झोंपड़ी के आगे कुछ जमीन लिपी हुई साफ पड़ी थी, चारों ओर के घने वृक्षों ने उसे सुरखित कर रखा था ।
वहीं महात्माजी ठहर गए और आप से बोले - आओ ! तुम्हें आनंददायिनी ब्रह्मविद्या का साधन बताएं ।
यह सन 1912 की बात है । कहा - आँखें बन्द करो और इस प्रकार ध्यान करो ।
ध्यान के दो-तीन मिनट बाद ही उन्हें शरीर का भान न रहा । ऐसा भान पड़ा कि वह फूल की तरह हल्के हो गए और ऊपर उठ रहे हैं । कोई अदभुत शक्ति ऊपर खींच रही है ।
कुछ देर बाद वह भी जाता रहा और उन्होंने अपने को उस स्थान पर पाया जिसे शास्त्रों में विज्ञानमय कोष की सम्प्रज्ञात समाधि का नाम दिया है ।
फिर बोले - बंद करो ।
उन्होंने आंख खोल दी । महात्मा जी कहने लगे - तुम्हारा आरम्भ हमने विज्ञानमय कोष से कराया है, नीचे के तीन स्थान, अन्नमय, प्राणमय व मनोमय में व्यर्थ ही समय नष्ट होता इसलिए उन्हें छुड़ा दिया और उनके ऊपर तुम्हें पहुँचा दिया है ।
उसी समय अनेक सिद्धियों और शक्तियों के उभारने की क्रियाएँ भी बतायीं । वायु में जड़ तक पहुँचने की सिद्धि को छोड़कर शेष सभी सिद्धियाँ बता डालीं । साथ ही उनसे काम न लेने का भी वचन लिया । इसी समय यह आशीर्वाद दिया कि इसी जन्म में तुम्हारी मुक्ति हो जायेगी ।
इसके पश्चात महात्मा जी ने कहा - इस साधन को रोजाना नियम से 15-20 मिनट करो । इससे तुम्हें वह हासिल होगा जो पचासों वर्षों के कठिन तप, परिश्रम से भी नसीब नहीं होता । दो दिन बाद ही तुम्हारे मन की दशा बदलने लगेगी, वह शांत, प्रसन्न रहने लगेगा, दुनियाँ की ओर से लगाव भी धीरे-धीरे कम होने लगेगा और फिर तुम्हारे अधिकार में आ जाएगा । यह सबसे ऊँचा और सरल योग है । शास्त्रों ने इसे ‘साम्ययोग’ और संतों ने ‘सहजयोग’ का नाम दिया है ।
विश्वास पूर्वक उस दिन से आपने साधन करना प्रारंभ कर दिया और सत्संग का लाभ उठाया ।
आप कहते थे - तीसरी साल जब मैं गुरुदेव के दर्शन को गया तो यह सोच रहा था कि मेरे साथी सब आगे निकल गये, मैं पीछे रह गया ।
महात्मा जी महाराज ने कहा - डाक्टर साहब, इस चारपाई पर लेट जाओ ।
मैं लेट गया । आप भोजन करने चले गये ।
उसी समय मुझे विराट स्वरूप का दर्शन हुआ, सम्पूर्ण विभूतियाँ तथा आत्मविद्या के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान हुआ जो मुझ जैसे आदमी के लिए अलौकिक ही नहीं असम्भव था ।
महात्मा जी हँसते हुए आए और कहने लगे - डाक्टर साहब इसको सम्भल कर रखियेगा ।
इस प्रकार आपको सारा ज्ञान अपने गुरुदेव से प्राप्त हुआ । परन्तु आपने कितना त्याग किया, कितनी-कितनी कठिनाइयाँ सहीं, किस प्रकार गुरु सेवा की उनके जीवन चरित्र में पा सकोगे स्थानाभाव से यहाँ संक्षेप में यह बताने का प्रयास किया गया है ।
गुरुदेव की आज्ञानुसार आपने इस ब्रह्मविद्या को फैलाने का संकल्प किया । आपकी हार्दिक इच्छा थी - इस अमूल्य ज्ञान को, जिसमें कुछ खर्च नहीं, अधिक परिश्रम नहीं, आज भी इस बाबू पार्टी में कैसे फैलाया जाय ।
सन 1923 ई. में आप एटा आए, यहाँ आपके पास कुछ जिज्ञासु आने लगे । महात्मा जी ने आपको आदेश दिया कि इस विद्या के प्रचार में जुट जाओ । जो चीज तुमको मिली उसका दूसरे भूले-भटकों में प्रचार करने से गुरु ऋण से मुक्ति मिल जायेगी ।
हृदय की महानता को गरीबी कुचल नहीं सकती, आर्थिक संकट उन्हे संकुचित नहीं बना सकता । उन दिव्यआत्माओं के अंदर तो विश्वप्रेम का अपार स्तोत्र होता ही है, हमारे गुरुदेव की भी वही दशा थी । वे जो कुछ करते ईश्वर परायण भाव से, ईश्वर की इच्छा से, ईश्वर के भरोसे पर ।
आप तन-मन-धन से इधर लग गये । प्रैक्टिस का काम ढीला पड़ गया । आमदनी भी कम हुई । इधर-उधर का आना-जाना हो गया, घर पर नित्य नये मेहमानों का आना आरम्भ हुआ, बड़ी कठिनाई का सामना पड़ा पर साहस नहीं छोड़ा, घर में काफी खर्च था किन्तु जिस प्रकार आप इधर लगे उसी प्रकार आपकी उदार हृदया-सहधर्मिर्णी (गुरु-माता) ने भी पूर्ण साथ दिया । आने वालों के सारे सत्कार का भार उन्हीं पर था । भोजन अपने हाथ से बना सबको खिलातीं, फिर घर का सारा कामकाज, बच्चों की देखभाल यानी सवेरे 4 बजे से रात्रि 12 बजे तक का सारा समय काम-धन्धा तथा सेवा में ही व्यतीत होता था इतना होने पर भी सदैव प्रसन्नचित्त रहती थीं । अपने गुरु कार्य संपादन में शारीरिक एवं आर्थिक कष्टों को झेलते हुए कभी मन मैला नहीं किया और नित्य नूतन साहस और उमंग के साथ उसको सर-अंजाम देते रहे । इसके अतिरिक्त सांसारिक कार्यक्षेत्र में भी चिकित्सा द्वारा अल्प आय जिसमे घर का खर्च चलाना भी मुमकिन नहीं था, उस पर भी गरीब और अनाथ रोगियों को मुफ्त दवा बांटते रहते थे ।
साधन मासिक पत्रिका का आरम्भ
महात्माजी की आज्ञा से प्रथम भण्डारा एटा में सन 31 में बसंत-पंचमी के अवसर पर किया जिसमें महात्माजी महाराज आये और इसके बाद महात्माजी का सन 31 में देहावसान हो गया, अन्तिम समय आप उनके पास ही थे,
उस समय आदेश हुआ - तुम हिम्मत बाँध कर प्रचार करो, भगवान मदद करेगा । जहाँ रोशनी होगी पतंगे अपने आप पहुँचेंगे ।
अतः आपने अगस्त सन 33 में जन्माष्टमी पर ‘साधन’ का प्रथम अंक प्रकाशित किया । सारा ज्ञान अध्ययन मात्र नहीं वरन आपके अनुभव में आ चुका था । आप उपनिषदें और शास्त्र देख ही चुके थे, योग वेदान्त के सारे ग्रन्थों का अवलोकन किया था अब यह सारा ज्ञान आपके अनुभव में ज्यों का त्यों आ गया ।
आप कहा करते थे - पुस्तकीय ज्ञान जब तक प्रत्यक्ष न कर लिया जाय अधूरा है । जो बिना पूर्ण गुरु के असम्भव है । इसके लिए आप दो साधन मुख्य बताते थे - एक सत्संग, दूसरा सेवा । सत्पुरुष का संग और उसकी सेवा की जाय तभी यह प्राप्त हो सकता है ।
आध्यात्मिक साहित्य और कृतियाँ
महात्माजी महाराज की आज्ञा थी कि इस विद्या को शास्त्र सम्मत बनाकर ऐसे साहित्य का भी सृजन किया जाये जिससे आजकल के जिज्ञासुओं को लाभ पहुंचे । इसी को ध्यान में रखते हुए आपने इस विद्या के सारे अनुभव जो आपको अपने गुरुदेव से प्राप्त हुए थे तथा उन अनुभवों का उपनिषदों, वेदों, गीता, रामायण और श्रीमद भगवद महापुराण से मिलान करके एक वृहद वांग्मय, परमार्थ के जिज्ञासुओं के लिए तैयार किया जो साधन प्रकाशन, मथुरा (भारत) द्वारा प्रकाशित है ।
ये रचनाएँ अत्यन्त सरल भाषा में लिखीं गई है जिससे सामान्य पढ़ा लिखा भी बड़ी आसानी से समझ सकता है । आपका मानना था, अब जमाना बदल रहा है, अतः सामान्य जिज्ञासुओं के लिए ऐसा साहित्य हो जो आसानी से ग्राह्य हो । अतः प्रचार के लिए आपने ‘साधन-पत्र’ के साथ-साथ और भी पुस्तकों का लिखना आरम्भ कर दिया । भक्तों के चरित्र आपको पहले से ही पसन्द थे । आदेशानुसार आप गुरु संदेश घर-घर पहुँचाने में तन मन धन से जुट गये । आपने ग्रन्थों की रचना भी शुरू कर दी । सन्त तुकाराम, श्री आमन देवी (दोनों भाग) श्री सहजोबाई की पुस्तकें आपने महात्मा जी महाराज के जीवनकाल में लिखकर प्रकाशित करायीं ।
जब भक्त शिरोमणि मीराबाई का चरित्र लिखने का संकल्प किया तो उनके जीवन के सम्बन्ध में लिखी हुई पुस्तकें पढ़ी किन्तु यह एकमत नहीं थीं । सोचा कि इनमें सही कौन सी है, इसकी खोज करनी चाहिए । इसके लिए आप मेड़ता गये वहाँ उनके मन्दिर में भगवान गिरधरलाल जी तथा मीरा के दर्शन किये । परन्तु कुछ ठीक पता नहीं लगा । फिर चित्तौड़ पहुँचे वहां महाराज के पुस्तकालय में हस्तलिखित राज्य-विभाग में मीरा का चरित्र पढ़ने को मिला ।
उसमें सब देखकर आप वापिस आए और एक रात बैठकर प्रार्थना की - माँ ! मैं तेरा सुन्दर चरित्र लिखने का संकल्प कर चुका हूँ परन्तु इन अलग-अलग विचारधाराओं को देख कुछ हिम्मत नहीं पड़ती । यदि आप कृपा करके मुझे अपना परिचय दें तो मैं लिख सकूँ । मैं आपका चरित्र लिखने योग्य तो नहीं हूँ परन्तु इससे बहुतों का कल्याण होगा इसीलिए आप कृपा करें और मुझे यह बतलायें कि कौन विचार सही है ।
रात्रि बीत गई सवेरे का समय हुआ, आप ध्यान में बैठे ही थे देखा कि माता मीरा सामने खड़ी हैं और लिखने के लिए आशीर्वाद दे रही हैं ।
आप कहते थे - यह लेखमाला ‘मीराबाई’ मैंने ठीक उसी प्रकार लिखी हैं, जैसे कोई बताता गया हो और मैं लिखता गया हूँ ।
यह पुस्तकें साधकों के लिए बड़ी अमूल्य हैं । साधन और पुस्तकों ने बड़ा काम किया । साधक दूर-दूर से आने लगे । लिखने की शैली डॉक्टर साहब की बड़ी सरल और सुगम थी । दर्शन शास्त्रों में भी उनकी गति अच्छी थी । कठिन से कठिन और गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों को सरलता से सम्मुख रख देना आपकी शैली थी । आप बड़े परिश्रम से जिज्ञासुओं के लाभार्थ यह साहित्य तैयार किया उनकी कुछ मुख्य पुस्तकों की सूची निम्नलिखित है -
1 साधना के अनुभव (सात खण्डों में प्रकाशित एवं सजिल्द)
2 आध्यात्मिक और शारीरिक ब्रह्मचर्य
3 योग फिलासफी और नवीन साधना
4 अलौकिक भक्तियोग
5 आध्यात्मिक विषय मीमांसा (भाग - 1 और 2)
6 श्री रामचंद्र जी महाराज (जीवनी तथा उपदेश)
भंडारों एवं सत्संग का प्रारम्भ
जब साधन दूर-दूर जाने लगा तो अनेक लोग पढ़कर महाराज जी के पास आने लगे । सन 34 में जब कि महात्मा गाँधी का सत्याग्रह युद्ध चल रहा था आप भी बैठे नहीं थे आप कहते थे कि यह काम भी महात्मा जी के सत्याग्रह के लिए बड़ा सहायक है । भारत के जितने भी सन्त महात्मा हैं सब किसी न किसी रूप में उनको सहायता दे रहे हैं । बिहार में सत्संग का कार्य दिन प्रतिदिन बढ़ता गया ।
सन 35 में बाबू राजेश्वरी प्रसाद सिंह जो एक अच्छे जागीरदार थे इसी ‘साधन-पत्र’ को पढ़कर बिहार से पधारे । आप गया प्रान्त के अन्तर्गत पणडुई के रहने वाले थे । एटा आकर महाराज जी का दर्शन किया, भजन क्रिया सीखी । इनका हृदय बड़ा शुद्ध था, संस्कारी-पुरुष थे और तीन ही वर्ष में पूर्ण-ज्ञान प्राप्त कर लिया । फिर उन्होंने गुरुदेव की आज्ञा से बिहार में प्रचार किया । आज सारा बिहार इस आत्म-विद्या से ओत-प्रोत हो रहा है । गुरुदेव की कुछ ऐसी कृपा हुई कि आज यह सत्संग सारे बिहार, बंगाल में अच्छे पैमाने पर फैल गया और सैकड़ों स्त्री पुरूष आज अध्यात्म का लाभ उठा रहे हैं ।
उत्तर प्रदेश में पहले से ही प्रायः सभी शहरों में केन्द्र खुल गये थे । जयपुर के एक एडवोकेट बाबू साधोनरायन जी, वकील इलाहाबाद से लौट रहे थे, रेल में ही कोई महाशय ‘साधन’ पढ़ रहे थे आपने उनसे लिया और पढ़ा ।
यह इसके बहुत दिनों से जिज्ञासु थे, अध्यात्म विद्या के बड़े खोजी थे । पढ़ते ही तबियत फड़क गई, सोचा - ऐसे सन्त का दर्शन करना चाहिए और राजस्थान जैसी मरू-भूमि को इस गंगा से हरा-भरा बनाना चाहिए । घर आए, पत्र लिखा और जयपुर पधारने की प्रार्थना की ।
उत्तर में आपने लिखा - मैं साधू नहीं हूँ ग्रहस्थ हूँ, आप पहले हमारे यहाँ आइये फिर में आपके यहाँ आ सकूँगा ।
बस फिर क्या था वह एटा पहुँचे और कुछ समय उपरान्त आप भी जयपुर पधारे । इस प्रकार वकील साहब ने आनन्दरूपी गंगा को लाने का प्रयास भागीरथ बनकर किया जिससे आज सारा राजस्थान इस ज्ञानगंगा से आनन्द उठा रहा है । इसके बाद हर साल आप जयपुर आने लगे, भंडारा प्रारम्भ हुआ । राजस्थान में सैंकड़ों छोटे बड़े लोग सत्संग का लाभ उठाने लगे । भण्डारे में भी सारे भारतवर्ष से सहस्रों की संख्या में लोग आने लगे । दूसरी साल का भण्डारा बसन्त पंचमी के बजाय बड़े दिन की छुट्टी में कर दिया जो 1950 तक एटा में होता रहा ।
एटा से मथुरा प्रस्थान
जब सत्संग अधिक बढ़ा - दूर-दूर के जिज्ञासु एटा आने लगे तो तो एटा में रेल के न होने से आने जाने वाले सत्संगियों को कठिनाई होती थी । प्राइवेट लारियां थीं, उस समय सरकारी बसें भी नहीं थीं । लोगों को अनेक कष्ट होने लगे, रातों-रात पड़ा रहना पड़ता था । कई बार ऐसा हुआ कि बिहार के बहुत से सत्संगी शिकोहाबाद से सवारी न मिलने के कारण अपने बिस्तर सर पर लादे हुए एटा पहुँचे आपका हृदय पिघल आया और इरादा किया कि यहाँ से दूसरी जगह चलना चाहिए जहाँ लोगों के आने जाने और ठहरने आदि की ठीक व्यवस्था हो ।
प्रथम जयपुर का इरादा किया लेकिन इधर के जिज्ञासुओं ने प्रार्थना की - महाराज जयपुर दूर है हम गरीब आदमी कैसे दर्शन को पहुँच सकेंगे ।
आप फिर सोचने लगे और विचार में मथुरा उपयुक्त जान पड़ा । बस मथुरा आना निश्चय हो गया और सन 1951 के अक्टूबर में आप मथुरा आ गए । यहां पर तो बात ही और हुई और चार-पाँच ही वर्ष में अनगिनत प्रेमीजन मथुरा आने लगे । जिज्ञासुओं को ऐसा प्रतीत होने लगा भगवान कृष्ण फिर अपने जन्म स्थान में गीता उपदेश देने के लिए पधारे हैं । यहाँ भण्डारा बड़े दिन से हटाकर शिवरात्रि पर रखा गया । यह भंडारा तो केन्द्र का होता ही था अब कई जगह भण्डारे होने लगे; प्रचार का काम वायु वेग की भाँति बढ़ने लगा यहाँ तक कि सन 1956 में कलकत्ते का बुलावा आया और हावड़ा भण्डारा करके आठ दिन परमहंस देव जी के आश्रम दक्षिणेश्वर ठहरे ।
वहाँ उन्होंने कहा - मुझे यहाँ बड़ी शान्ति मिली है, परमहंस जी का दर्शन हुआ है और एक दिन तो करीब दस घण्टे की समाधि में रहे ।
उस समय जितने प्रेमी साथ थे सबकी अजीब दशा थी एक अदभुत खिंचाव था जो वर्णन नहीं किया जा सकता ।
व्यक्तित्व
सहनशक्ति, गम्भीरता के आप अवतार थे, सदैव हँसते हुए शान्त रहते थे । उनके अन्दर का भेद कोई पूरा नहीं जान पाया । विद्या के तो भण्डार थे । किसी ने जो कुछ पूछा वही सरलता से समझाकर बतलाया । उनका सारा काम अभ्यासी का अभिमान दूर करना, जब कभी देखते कि इसे अभिमान आया तत्काल ही उसे चेता दिया । जहाँ देखा कोई गलती किसी से हुई कभी हँस कर, कभी डाँटकर बता देते । अभिमान को वह तुरन्त पहचान लेते ।
वह कहते भी थे - गुरु का कार्य और कुछ नहीं केवल शिष्य को अभिमान से बचाये रखना है । आप अभिमान की बात कभी सीधी, कभी दूसरों पर उतार के कह देते थे ।
आप कहते थे - शिष्य को चाहिए कि वह हमेशा गुरु को साथ लेकर बोले, कभी गुरु को मत भूलो । गुरु ही वह शक्ति है जो तुम्हारे द्वारा अपना ज्ञान दूसरों को देती है । यदि तुमको इस पर अपना अभिमान है तो वह गलत है । दूसरों पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा । सत्संग तो कोई और ही कराता है । मैंने आज तक कभी भूलकर भी नहीं विचारा कि सत्संग मैं कराता हूँ ।
आपका ज्ञान अपार था, आप जब किसी जटिल विषय को समझाते तो इतनी सरलता से समझाते कि गंभीर होते हुए भी समझ में आ जाता था । किसी भी विषय पर घण्टों बोल सकते थे । कभी कोई शंका उठ खड़ी होती तो बिना कहे निवारण कर देते । प्रायः सभी को जब कुछ पूछना हुआ मगर पूछ न सके तो स्वयं ही ऐसी बातें छेड़ देते कि वह बात हल हो जाती । जिसने एक दफा भी सोहबत उठाई हमेशा के लिए आपका मौतक़िद हो गया ।
शक्ति होने पर भी शक्ति का प्रयोग न करने का, बड़े महात्माओं के अनुरूप लक्षण, हमने डॉक्टर चतुर्भुज सहाय जी में देखा । उनकी उपस्थिति में मैं एक विचित्र शांति का अनुभव करता था और मेरी शंकाएं केवल उनके समुख बैठने मात्र से तत्काल दूर हो जाती थीं । प्रेमियों से घिरे रहना उन्हें सदैव अच्छा लगता था, चाहे फिर विश्राम न कर सकने के कारण बीमार ही क्यों न पड़ जाएँ । उनके हृदय में अपने पराये का भाव उत्पन्न न होता । वे उच्च गृहस्थ धर्म के महान आदर्श थे । अर्थाभाव की चिंता उन्हे छू तक न गई थी - मैंने उन्हे कभी चिंतित देखा ही नहीं ।
अध्यात्म तत्व के अति गूढ़ विषय पर तभी बोलते थे जब समाज समझदार हो और श्रोता विद्वान तथा अनुभवी हों । मैंने एक बार प्रयाग में समाधियों के ऊपर अपना प्रवचन सुना उसमें आपने पंच कोषों की सभी समाधियाँ बड़े अच्छे प्रकार से कहीं और खूब समझ में आ गईं । लेकिन कुछ समय बाद फिर भूल गया ।
एक बार बड़ी प्रसन्न मुद्रा में थे, आप बोले - पंडित लोग समाधियों को बड़ा कठिन समझते हैं । उनमें कोई ऐसी बात नहीं है । हमारे सत्संग में तो यह रोज आया करती हैं । आओ आज तुम्हें समाधियों के भेद समझायें ।
मैं बड़ा प्रसन्न हुआ समझ गया कि मेरी प्रार्थना स्वीकार हो गई ।
फिर बोले - कागज पेंसिल लेकर लिख लो जिससे फिर भूल न जाओ ।
वह हमने लिखीं । अन्नमय कोष की समाधि से लेकर आनन्दमय कोष की सहज समाधि तक जिसे गीता में धर्म मेघ समाधि बतलाया गया है बड़े सुन्दर ढंग से समझाईं और सविकल्प तथा सविचार बड़े अच्छे ढंग से बतलाया । यह वर्णन योग-शास्त्र और कहीं-कहीं उपनिषदों में भी आया है परन्तु बिना अनुभवशील गुरु के समझाए ठीक समझ में आता नहीं । वह तो उसके साथ-साथ अनुभव भी कराते जाते थे । कई बार सत्संग में आई हुई अवस्था की बता देते कि आप लोग इस समय इस अवस्था में हैं ।
उनका ज्ञान अपार था । सब जानते हुये भी कभी किसी से कुछ कहते नहीं थे । सामने बैठने में डर लगता था कि अपने मन के बुरे भाव इनके सामने आऐंगे तो क्या कहेंगे । परन्तु इतनी गम्भीरता था कि अभी यह नहीं कहा कि तुम में यह दोष है । खाने पीने वाले पास आते, पढ़े-लिखे सदाचारी भी पास आते किन्तु कभी किसी के चरित्र पर कुछ कहना नहीं । बस यही कहते, भगवान का ध्यान करो और हमारे बताए हुए साधन को इसी तरह करो जैसे बताया जाय, यह सारे दोष तो स्वतः ही दूर हो जाऐंगे । वह जादू क्या जो सर चढ़कर न बोले ।
इस प्रकार के अनेक साधन जो जिसके लिये उचित होता बता के साधन में लगा देते थे । इसीलिए हम धर्म वाला मनुष्य उनको अपना ही समझ साधना में जुट जाता था, उनकी साधना किसी सम्प्रदाय के लिए नहीं थी मानव समाज के लिए थी ।
क्योंकि जब सब मनुष्य एक ही हैं तो उनके धर्म भी दो नहीं हो सकते । इसीलिए हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, जैन आदि सभी सम्प्रदाय वालों ने उनकी शिक्षा को अपनाया । इस अंधेरे युग में वह पढ़े-लिखे लोग जो ईश्वर को मानते ही नहीं थे, धर्म के नाम की खिल्ली उड़ाते थे, सदमार्ग में लग गए और एक नवीन प्रकाश पा कृतकृत्य हो गये ।
ramashram.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें