कुलश्रेष्ठ जी ! सत श्री अकाल ! मैं मोहिन्दर रंधावा निर्मल बंसल भिलाई का मित्र जानना चाहता हूँ - क्या सत्य को खोजा जा सकता है ? जैसे कि आपके ब्लाग में हेडलाइन है - सत्यकीखोज । क्या ये प्रश्न ही गलत नहीं है ? मेरे हिसाब से सत्य को जाना जा सकता है । please clarify . मोहिन्दर रंधावा । भिलाई । ई मेल से ।
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ऐसे मेल भी अक्सर मुझे प्राप्त होते हैं । जिनसे मुझे लगता है कि - आप लोगों को भी मुझे छेङने में मजा आता है । देखिये कुछ मेल्स के उदाहरण । बकौल रूप जी की मौसी सुखदीप जी - राजीव जी ! आपसे प्रश्न पूछकर मजा आता है । बकौल कामिनी जी - पाठकों के जानदार सवाल । आपके शानदार जबाब ।
बकौल मेरी प्रेमिका - तुम्हें ज्ञान व्यान कुछ नहीं है । तुम्हारी स्पेशलिटी बस प्रेत कहानियों की है । सो उसी को लिखा करो । और प्लीज । थोङी हाट यानी सेक्स मिक्स लिखा करो ।..21 सेंचुरी के माडर्न बाबा तुम्हारी तपस्या
भंग करके ही मानूँगी । आय लव यू ! लल्लू बाबा ।
बकौल मेरे यार दोस्त - आजकल बाबा लोगों पर छापे बहुत पङ रहे हैं । रोज किसी न किसी बाबा की पोल खुल रही है । ( इनका मतलब था । मेरी भी खुलने वाली है । खुलकर रहेगी । और ऐसा मौका आने पर वे पोल खोलने वालों का पूरा पूरा सहयोग करेंगे ) सो ध्यान रखना । हम तुम्हारे शुभचिंतक हैं ।
बकौल मेरे घर के छोटे छोटे बच्चे - अरे ( संवोधन अनुसार ) क्या बेकार की बातें लिखते रहते हो आप । कोई गेम या मूवी प्ले करो ।
तो देखा आपने । अपने ऐसे शुभचिंतकों के होते कौन बेहिसाब तरक्की नहीं करेगा ।
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खैर..अब आईये रंधावा जी के प्रश्न की बात करते हैं । पहली बात तो यही है । सत्यकीखोज - आत्मज्ञान .. यानी मेरा आशय यहाँ ये है । ( शाश्वत ) सत्य जिसकी तलाश इंसान आदिकाल से ही करता चला आ रहा है । वह सिर्फ़ -
आत्मज्ञान ही है । आत्मा का ज्ञान होते ही सभी प्रश्न स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं । सारे ज्ञात अज्ञात रहस्य शीशे की तरफ़ साफ़ हो जाते हैं । इसलिये ब्लाग का हेडलाइन सिर्फ़ - सत्यकीखोज नहीं है । बल्कि सत्यकीखोज - आत्मज्ञान है । ऐसे में इसका अर्थ मेरे दृष्टिकोण से एकदम बदल जाता है ।
अब चलिये । फ़िर भी आपके ही शब्दों में बात कर लेते हैं - क्या सत्य को खोजा जा सकता है ?
देखिये ये मैं अपनी बात नहीं कह रहा । बल्कि आत्मज्ञानी सन्तों की वाणी है -
कहूँ वस्तु धरी । कहूँ खोजो । वस्तु न आवे हाथ । वस्तु तभी पाईये । जब भेदी लियो साथ ।
अब गौर फ़रमाईये । सन्त मामूली बात तो कहते नहीं । जाहिर है । इसमें आत्मा या परमात्मा के ज्ञान की ही बात कही गयी है । अगर ये सांसारिक वस्तु की बात होती । तो फ़िर सन्त इतनी तुच्छ निम्न कवियों जैसी तुकबन्दी करते क्या ? इसलिये देखें । खोजो शब्द स्पष्ट कहा है ।
अब कायदा में रंधावा जी ! आपकी बात का उत्तर तो यहीं मिल जाता है । क्योंकि अभी मुझे पक्का कन्फ़र्म तो
नहीं हो पा रहा । पर शायद यह कबीर साहब की ही वाणी है । लेकिन ये अवश्य पक्का है । ये आत्मज्ञानी सन्तों की वाणी है । और वैसा होने पर वे स्पष्ट खोज शब्द का प्रयोग कर रहे हैं ।
अब दूसरा उदाहरण भी मैं अपना नहीं दूँगा । आपने बहुत प्रसिद्ध पुस्तक - डिस्कवरी आफ़ इण्डिया .. का नाम अवश्य सुना होगा । इसका हिन्दी रूपान्तरण है - भारत - एक खोज । क्या अब आप मुझे बतायेंगे । इसका मतलब क्या है । युगों से प्रसिद्ध भारत में क्या खोजा जा रहा था ।
तीसरा उदाहरण भी मैं अपना नहीं दूँगा । बचपन में पढा था । कोलम्बस भैया ने अमेरिका की खोज की । क्या आप मुझे भी अपने भाव में ( शब्द पर ध्यान दें ) इसका मतलब बतायेंगे । अमेरिका पहुँचकर वो जान गया था । या उसने अमेरिका खोजा था ।
चौथा उदाहरण भी मैं अपना नहीं दूँगा । आपने शायद ये दोहा सुना हो -
कस्तूरी कुण्डल बसे । मृग ढूँढे वन माँहि । ऐसे घट घट राम है । दुनिया देखे नाहिं ।
अब बताईये । सन्तों ने मृग की अपनी ही नाभि में बसी खुशबूदार कस्तूरी के लिये ढूँढे यानी खोज शब्द का प्रयोग क्यों किया ?
पाँचवा उदाहरण भी मैं अपना नहीं दूँगा । बल्कि आपके ही मित्र और मेरे मण्डल के शिष्य श्री निर्मल बंसल का दूँगा । बंसल जी से पूछिये । कितने समय से वे इस ज्ञान को खोज रहे थे । और इसके लिये कितना भटके । कई मण्डलों में घूमते फ़िरे । दीक्षायें भी ली । आठ साल स्त्री बृह्मचर्य का पालन किया । लम्बे समय तक ध्यान का अभ्यास किया । और मेरे पास आने से पहले वे राधास्वामी की पंचनामा दीक्षा प्राप्त थे । उनको डायबिटीज । ब्लड प्रेसर । नींद न आना ( अनिद्रा ) घबराहट आदि तमाम गम्भीर परेशानियाँ थी । और ध्यान से परेशानियों का अनुभव अलग था । ये सब मुझसे मिलने से पहले ।
तब एक दिन उन्होंने गूगल में अनुराग सागर सर्च ( शब्द पर ध्यान दें ) किया । तो अनुराग सागर के साथ 1 के साथ 1 फ़्री .. स्कीम में " राजीव बाबा " मिल गये । ब्लाग पढा । सवाल जबाब किये । बहुत बार फ़ोन भी किये । करते हैं । आगरा आये । दीक्षा ली ।
अब आगे सुनिये - बिगङा ध्यान सही हुआ । जीवन का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त होने से संतुष्ट । बीमारियों से लगभग
निजात । बङिया नींद आने लगी । जिसके लिये पहले तरसते थे । सही दीक्षा यानी पंचनामा और हँसदीक्षा का अन्तर जाना । लगभग 6 महीने अभ्यास के बाद । यदि उन्होंने सफ़लता से हँस पास कर लिया । तो परमहँस दीक्षा होगी ।
अब आप बताईये । इस सबको खोज नहीं । तो फ़िर क्या कहेंगे । उदाहरणों की लम्बी लाइन लगी है । पर मेरे ख्याल से इतने काफ़ी हैं ।
तो सत्य क्या है ? शाश्वत सत्य क्या है ? इस मनुष्य जीवन का वास्तविक सत्य क्या है ? ये प्रश्न अंतर में पैदा होते ही फ़िर इसको जानने की तलाश ( शब्द पर ध्यान दें ) शुरू हो जाती है । और पहली स्टेज में यह प्रश्न उत्पन्न होने पर फ़िर जन्म जन्म की यात्रा शुरू हो जाती है । और फ़िर हजारों लाखों ( स्थिति के अनुसार ) जन्मों के दान पुण्य कर्मों से तब जीव आत्मज्ञान की तरफ़ आ पाता है । इसलिये मेरे ख्याल में खोज शब्द उचित ही है । पहले खोज ही होती है । जाना बाद में जाता है ।
- आप सबके अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।
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ऐसे मेल भी अक्सर मुझे प्राप्त होते हैं । जिनसे मुझे लगता है कि - आप लोगों को भी मुझे छेङने में मजा आता है । देखिये कुछ मेल्स के उदाहरण । बकौल रूप जी की मौसी सुखदीप जी - राजीव जी ! आपसे प्रश्न पूछकर मजा आता है । बकौल कामिनी जी - पाठकों के जानदार सवाल । आपके शानदार जबाब ।
बकौल मेरी प्रेमिका - तुम्हें ज्ञान व्यान कुछ नहीं है । तुम्हारी स्पेशलिटी बस प्रेत कहानियों की है । सो उसी को लिखा करो । और प्लीज । थोङी हाट यानी सेक्स मिक्स लिखा करो ।..21 सेंचुरी के माडर्न बाबा तुम्हारी तपस्या
भंग करके ही मानूँगी । आय लव यू ! लल्लू बाबा ।
बकौल मेरे यार दोस्त - आजकल बाबा लोगों पर छापे बहुत पङ रहे हैं । रोज किसी न किसी बाबा की पोल खुल रही है । ( इनका मतलब था । मेरी भी खुलने वाली है । खुलकर रहेगी । और ऐसा मौका आने पर वे पोल खोलने वालों का पूरा पूरा सहयोग करेंगे ) सो ध्यान रखना । हम तुम्हारे शुभचिंतक हैं ।
बकौल मेरे घर के छोटे छोटे बच्चे - अरे ( संवोधन अनुसार ) क्या बेकार की बातें लिखते रहते हो आप । कोई गेम या मूवी प्ले करो ।
तो देखा आपने । अपने ऐसे शुभचिंतकों के होते कौन बेहिसाब तरक्की नहीं करेगा ।
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खैर..अब आईये रंधावा जी के प्रश्न की बात करते हैं । पहली बात तो यही है । सत्यकीखोज - आत्मज्ञान .. यानी मेरा आशय यहाँ ये है । ( शाश्वत ) सत्य जिसकी तलाश इंसान आदिकाल से ही करता चला आ रहा है । वह सिर्फ़ -
आत्मज्ञान ही है । आत्मा का ज्ञान होते ही सभी प्रश्न स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं । सारे ज्ञात अज्ञात रहस्य शीशे की तरफ़ साफ़ हो जाते हैं । इसलिये ब्लाग का हेडलाइन सिर्फ़ - सत्यकीखोज नहीं है । बल्कि सत्यकीखोज - आत्मज्ञान है । ऐसे में इसका अर्थ मेरे दृष्टिकोण से एकदम बदल जाता है ।
अब चलिये । फ़िर भी आपके ही शब्दों में बात कर लेते हैं - क्या सत्य को खोजा जा सकता है ?
देखिये ये मैं अपनी बात नहीं कह रहा । बल्कि आत्मज्ञानी सन्तों की वाणी है -
कहूँ वस्तु धरी । कहूँ खोजो । वस्तु न आवे हाथ । वस्तु तभी पाईये । जब भेदी लियो साथ ।
अब गौर फ़रमाईये । सन्त मामूली बात तो कहते नहीं । जाहिर है । इसमें आत्मा या परमात्मा के ज्ञान की ही बात कही गयी है । अगर ये सांसारिक वस्तु की बात होती । तो फ़िर सन्त इतनी तुच्छ निम्न कवियों जैसी तुकबन्दी करते क्या ? इसलिये देखें । खोजो शब्द स्पष्ट कहा है ।
अब कायदा में रंधावा जी ! आपकी बात का उत्तर तो यहीं मिल जाता है । क्योंकि अभी मुझे पक्का कन्फ़र्म तो
नहीं हो पा रहा । पर शायद यह कबीर साहब की ही वाणी है । लेकिन ये अवश्य पक्का है । ये आत्मज्ञानी सन्तों की वाणी है । और वैसा होने पर वे स्पष्ट खोज शब्द का प्रयोग कर रहे हैं ।
अब दूसरा उदाहरण भी मैं अपना नहीं दूँगा । आपने बहुत प्रसिद्ध पुस्तक - डिस्कवरी आफ़ इण्डिया .. का नाम अवश्य सुना होगा । इसका हिन्दी रूपान्तरण है - भारत - एक खोज । क्या अब आप मुझे बतायेंगे । इसका मतलब क्या है । युगों से प्रसिद्ध भारत में क्या खोजा जा रहा था ।
तीसरा उदाहरण भी मैं अपना नहीं दूँगा । बचपन में पढा था । कोलम्बस भैया ने अमेरिका की खोज की । क्या आप मुझे भी अपने भाव में ( शब्द पर ध्यान दें ) इसका मतलब बतायेंगे । अमेरिका पहुँचकर वो जान गया था । या उसने अमेरिका खोजा था ।
चौथा उदाहरण भी मैं अपना नहीं दूँगा । आपने शायद ये दोहा सुना हो -
कस्तूरी कुण्डल बसे । मृग ढूँढे वन माँहि । ऐसे घट घट राम है । दुनिया देखे नाहिं ।
अब बताईये । सन्तों ने मृग की अपनी ही नाभि में बसी खुशबूदार कस्तूरी के लिये ढूँढे यानी खोज शब्द का प्रयोग क्यों किया ?
पाँचवा उदाहरण भी मैं अपना नहीं दूँगा । बल्कि आपके ही मित्र और मेरे मण्डल के शिष्य श्री निर्मल बंसल का दूँगा । बंसल जी से पूछिये । कितने समय से वे इस ज्ञान को खोज रहे थे । और इसके लिये कितना भटके । कई मण्डलों में घूमते फ़िरे । दीक्षायें भी ली । आठ साल स्त्री बृह्मचर्य का पालन किया । लम्बे समय तक ध्यान का अभ्यास किया । और मेरे पास आने से पहले वे राधास्वामी की पंचनामा दीक्षा प्राप्त थे । उनको डायबिटीज । ब्लड प्रेसर । नींद न आना ( अनिद्रा ) घबराहट आदि तमाम गम्भीर परेशानियाँ थी । और ध्यान से परेशानियों का अनुभव अलग था । ये सब मुझसे मिलने से पहले ।
तब एक दिन उन्होंने गूगल में अनुराग सागर सर्च ( शब्द पर ध्यान दें ) किया । तो अनुराग सागर के साथ 1 के साथ 1 फ़्री .. स्कीम में " राजीव बाबा " मिल गये । ब्लाग पढा । सवाल जबाब किये । बहुत बार फ़ोन भी किये । करते हैं । आगरा आये । दीक्षा ली ।
अब आगे सुनिये - बिगङा ध्यान सही हुआ । जीवन का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त होने से संतुष्ट । बीमारियों से लगभग
निजात । बङिया नींद आने लगी । जिसके लिये पहले तरसते थे । सही दीक्षा यानी पंचनामा और हँसदीक्षा का अन्तर जाना । लगभग 6 महीने अभ्यास के बाद । यदि उन्होंने सफ़लता से हँस पास कर लिया । तो परमहँस दीक्षा होगी ।
अब आप बताईये । इस सबको खोज नहीं । तो फ़िर क्या कहेंगे । उदाहरणों की लम्बी लाइन लगी है । पर मेरे ख्याल से इतने काफ़ी हैं ।
तो सत्य क्या है ? शाश्वत सत्य क्या है ? इस मनुष्य जीवन का वास्तविक सत्य क्या है ? ये प्रश्न अंतर में पैदा होते ही फ़िर इसको जानने की तलाश ( शब्द पर ध्यान दें ) शुरू हो जाती है । और पहली स्टेज में यह प्रश्न उत्पन्न होने पर फ़िर जन्म जन्म की यात्रा शुरू हो जाती है । और फ़िर हजारों लाखों ( स्थिति के अनुसार ) जन्मों के दान पुण्य कर्मों से तब जीव आत्मज्ञान की तरफ़ आ पाता है । इसलिये मेरे ख्याल में खोज शब्द उचित ही है । पहले खोज ही होती है । जाना बाद में जाता है ।
- आप सबके अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।