क्या हम इसी जीवन में उन रहस्य को जान सकते हैं । जिसे मनुष्य मरने के बाद जान पाता है ?
( लेख - डर के पास रहने से डर खत्म हो जाता है । और - काफ़ी समय से मैं आपके लेख पढता आ रहा हूँ । )
- बङी हैरानी सी होती है । जब कोई ऐसी विरोधाभासी बात कहता है । सबसे बङी बात जिस लेख को पढने के बाद - डर के पास रहने से डर खत्म हो जाता है । आपने उसके जिक्र सहित मेल लिखा । और - काफ़ी समय से मैं आपके लेख पढता आ रहा हूँ । जैसी बात भी कही । तब यकायक तो मेरी समझ में नहीं आता कि किस तरह से और क्या उत्तर दूँ । जिससे प्रश्नकर्ता की जिज्ञासा समाधान होने के साथ साथ संतुष्टि भी हो । क्योंकि - डर के पास रहने से डर खत्म हो जाता है । ये पूरा लेख ही इस प्रश्न का उत्तर ही है । चलिये । वह बात भी छोङ दें । तो मेरे समस्त लेखन की एक समग्र ध्वनि ही " जीवन के पार " की ही बात करती है । ऐसी स्थिति में बङी अङचन सी लगती है कि - अब क्या उत्तर दूँ ? खैर..आपके प्रश्न का एक भाव अवश्य बनता है । साधारण स्थिति में । यानी विशेष कोई ज्ञानयुक्त हुये बिना ।
लेकिन यहाँ भी हैरानी फ़िर से होती है । आप खुद ही एक रहस्यमय सुगन्ध का अनुभव करते हैं । और एक बच्चे द्वारा ली गयी किसी प्रेतात्मा की तस्वीर भी भेजते हैं । इसके साथ ही आप खुद ही पूर्व जन्म की बहुत सी घटनाओं का संकलन करके भेजते हैं । तो मेरे ख्याल में 50% उत्तर तो स्वयँ आपने ही दे दिया ।
फ़िर भी आपका प्रश्न मुझे अतीत के उस खण्ड में ले गया । जब मौत और शमशानों के साथ ही मेरी उठक बैठक थी । मैं उस समय एक छोटे से क्षेत्र में था । और एक पोखर के पास बैठा था । यहाँ दूर दूर तक खेत बंजर जमीन और निर्जनता थी । पोखर के पास ही एक सीधी लाइन में पाँच पुराने आम के बङे वृक्ष थे । इस स्थान पर महीने में ( या शायद 15 दिन में ) एक बार पशु मेला का आयोजन होता था । जिसके लिये एक मध्यम आकार का मैदान था । इस मैदान से ही लगा हुआ दक्षिण दिशा में एक लम्बा दङा ( कच्चा रास्ता ) था । और इस दङे के बाद 400 वर्ग गज भूमि में एक हिन्दू शमशान था । इसके बाद 6 खेत थे । और उसके बाद मेरा लम्बा चौङा विधालय । उसके बाद स्थानीय पुलिस थाना ।
खैर..ये पूरा क्षेत्र ही मेरे जीवन में प्रभावी रहा । अतः इसके विषय में आगे लिखूँगा । मुख्य बात ये थी । जिस स्थान पर मैं बैठा या बैठता था । उसके प्रति मुझे एक खास आकर्षण था । वहाँ ये बात आम प्रचलित थी कि इसी
दङे के अंतिम छोर पर 7 किमी पीछे स्थिति छोटे से गाँव से कुछ ही आगे बीच में कहीं से । और आगे जाकर लगभग 8 किमी दूरी पर । ये 15 किमी का दङा जहाँ समाप्त होता था । अक्सर भूत प्रेतों की सवारी निकलती थी । जिसे लोग बारात । जुलूस । यात्रा आदि बहुत से नाम देते थे । ये यात्रा अक्सर सुनसान दोपहर या फ़िर अँधेरे में गुजरती थी । प्रेतों की हँसती खिलखिलाती टोली गाती बजाती हुयी निकलती थी । अब मजे की बात यही थी कि यह शार्टकट ही मेरे स्कूल का रास्ता था । और मेरे लिये चप्पा चप्पा परिचित । आगे हुआ ये कि एक दिन एक आदमी ने मुझ बिना मूँछ वाले छोटे से आदमी को देखकर कहा - बेटा ! इस स्थान पर तुम अक्सर आते तो हो । पर ऐसा कभी दिखे । तो कोई टोका टाकी मत करना । कहीं छिपकर बिलकुल सांस रोके देखते रहना । और जब यात्रा गुजर जाये । तब शान्ति से निकलकर अपने गंतव्य पर जाना । और यथासंभव इस रास्ते का उपयोग मत किया करो ।
अनजाने में बङी गलती हुयी उससे । भूली हुयी नानी को ननिहाल की न सिर्फ़ याद दिला दी । बल्कि ठीक ठीक
पता भी बता दिया । घोस्ट माय दोस्त । अब वह जगह भी मेरे बैठने का स्थान बन गयी । कभी कभी चितायें भी जलती । और मैं उनको जलते हुये देखता ।
पर इस स्थान पर बैठने का एक अलग अनुभव भी था । अक्सर गर्दन या सिर के किसी हिस्से में ठण्डी फ़ुरफ़ुराहट । ( प्रेत के समीप होने का यह अहसास भी होता है । इसमें ठीक ऐसा लगता है कि कोई गर्दन के पास नाक लगाये स्वांस छोङ रहा है । अन्तर इतना होता है । जीवित व्यक्ति की स्वांस में हल्की गर्माहट होती है । और ये सामान्य हवा । बाकी अहसास लगभग समान होता है । खास पहचान यही है कि ये गर्दन से नीचे महसूस नहीं होगा । )
मुश्किल ये थी कि उस समय मैं प्रेत वायु के इस रूप से परिचित नहीं था । बाकी शरीर के रोंगटे आदि खङे होना आदि पहचान से भी उस समय मैं अनभिज्ञ था । और भासित छाया मुझे दिखे भी । तो होगा कुछ । जैसी बात थी । उस वक्त भूत प्रेत की छवि मेरे लिये नर कंकाल वाली थी । और वास्तविक भूत मुझे बस छाया शरीर ही लगते । भाव ये कि मुझे समझ ही नही थी कि ये भूत हैं । इससे भी बङी मुश्किल ये थी कि किसी को बताऊँ । तो वो एक ही बात कहता था - चल झूठा । जीवन की अज्ञात भूमि में वैराग का बीजारोपण ।
और अलौकिकता की शायद शुरूआत हो चुकी थी ।
तब कुछ साल बाद । ऐसे ही एक स्थान पर वृक्ष के नीचे बैठा था । सिर्फ़ दस फ़ुट दूर चिता जलने से बने 4 काले स्थान थे । एक आदमी मेरे पास आया । किसी अन्तिम संस्कार से आया था । उसी का प्रभाव था । गमछे से पसीना पोंछता हुआ बोला - क्या जीवन है । इंसान का भी । कोई कह सकता है । मरने के बाद इंसान का क्या होता है । और वह कहाँ जाता है ?
- बिलकुल । मैंने साधारण भाव से कहा - इन सब बातों के उत्तर हैं । और बहुत पास हैं । यहीं हैं । जानना भी बहुत आसान है ।
वह हक्का बक्का रह गया । उसने मेरी तरफ़ ऐसे देखा । जैसे मैं पूरा पागल होऊँ ।
- और । जीवन के पार देखने का दरबाजा वह है । मैंने चिता स्थान की तरफ़ इशारा किया - बस ठीक उस स्थान पर बैठो । और मौज आने पर लेटो भी । सच बङी शान्ति महसूस होगी । बिना प्रयास वैराग फ़लीभूत होगा । बहुत से उत्तर भी मिलेंगे । सच कहता हूँ । इससे सुन्दर जगह दूसरी नहीं । इंसान के पूरे जीवन का अन्तिम निचोङ । अटल सत्य । 2 गज जमीन ।
उसने गौर से मुझे देखा । और बोला - तुम बैठ सकते हो । जो ऐसा कहते हो ।
मैं बैठ क्या सकता था । बैठता ही था । लेटता भी था । अतः मौखिक उत्तर देना निरी मूर्खता ही थी ।
- सच । मैंने वहीं से कहा - आओ । तुम्हें एक नयी दृष्टि जागृत होगी । जीते जी मरने का अनुभव । जा मरिवे में जग डरे । मेरे मन आनन्द । मरने से ही पाईये पूरा परमानन्द ।
जाहिर है । वह मेरे समान पागल नहीं था । बिना एक भी पल गंवाये । वह तुरन्त वहाँ से रफ़ूचक्कर हो गया ।
शायद मेरी बातों और हरकत से उसे मेरे इंसान होने पर संदेह हो गया था ।
तो ये थी वो सब बात । जो आपके इस प्रश्न से मुझे अतीत में ले गयी । सच कहूँ । यादों में जाना बङा सुखद लगा । अब आपके प्रश्न पर बात करते हैं । दरअसल मैं इस प्रश्न की भावना को ही नहीं समझ पाया कि आपका आशय क्या है ?.. जिसे मनुष्य मरने के बाद जान पाता है ?
- मनुष्य मरने के बाद क्या जानता है ? मूलतः मरने का समय आते ही उसके कुछ लक्षण 1 महीना या 15 दिन पूर्व प्रकट होने लगते हैं । आँखों में पीलापन छाना । गंदलापन और भूरे से डोरे बनना । माथे पर मूल रेखाओं के अतिरिक्त महीन रेखाओं का एक जाल सा नजर आना । आँखों में ही मुर्दनी छाना । जीवन की गतिविधियों से अजीव सी उलझन महसूस करना । अजीव से स्वपन देखना । प्रत्यक्ष या स्वपन में काली छाया देखना । कोई नग्न स्त्री देखना । जो आलिंगन हेतु बाँहे फ़ैलाकर बुलाये ।
ये कुछ पूर्व लक्षण हुये । अब आ जाईये । द एण्ड पर । सामान्यतः तीन दिन पूर्व मृतक को अहसास होने लगना कि - अब कूच का वक्त आ गया । अक्सर घर वालों से उदासीनता होकर । शान्त और अनमनस्यकता आ जाना । अधिकतर को इसी समय में आंतरिक जगत के भी कूछ विभिन्न अनुभव होते हैं । पर एक अजीव सा ताला उसकी जबान पर लग जाता है । वह चाहे भी तो नहीं बता सकता । इसके बाद । मृत्यु का समय बिलकुल करीब
आ गया । अब 4 चक्रों का टूटना लय होना शुरू हुआ । जिसके बारे में विस्तार से मैं अपने लेख - साधारण स्थिति का मृत्यु ज्ञान..में लिख ही चुका हूँ ।
इन चक्रों के टूटने में आदमी को बेहद पीङा का अनुभव होता है । क्योंकि वह मोहवश इनसे बुरी तरह जकङा हुआ होता है । इस स्थिति में मृतक को हजारों जहरीले बिच्छुओं के एक साथ ही डंक मारने के समान भयानक पीङा होती है । ध्यान रहे । वह न रो पायेगा । न बता पायेगा । पर इस पीङा की अभिव्यक्ति उसके चेहरे से होती है । कोई कोई इस स्थिति में कुछ शान्त नजर आता है । पर अन्दर ऐसा ही होता है । ये अदभुत विधि अपनाने का कारण ही यह है कि - आसपास के लोग फ़ालतू हंगामा न करें । अधिक भयभीत न हों । ये बात शास्त्र और अनुभव दोनों से कह रहा हूँ । इस तरह चार चक्र टूटने के बीच ही सबसे खतरनाक समय आता है । चक्र भी टूट रहे हैं । और काल अपनी भूख शान्त करने के लिये जीव का आहार करने हेतु जबङे में दबा लेता है । और चबाता है । ये ठीक वो समय है । जब मरने वाले को बेहोशी या मूर्छा आ जाती है । जगत चबैना काल का कछू मुख में कछू गोद । झूठे सुख से सुखी है मानत है मन मोद । यही वो लगभग स्थिति है । जब संसारी लोगों के लिये इंसान मर जाता है । और व्यवहारिक रूप से सच भी है । ह्रदय की धङकन । प्राण का चलना बन्द हो जाता है । पर इंसान मरता नहीं है । लगभग आधा घन्टे काल उसका आहार करने के बाद जीव को छोङ देता है । और तब वो गति अनुसार स्थितियाँ बनती हैं । जो मेरे लेख - साधारण स्थिति का मृत्यु ज्ञान.. में पूर्व ही वर्णित हो चुकी हैं ।
तो मेरे अनुसार तो आदमी मृत्यु के समय या बाद इतना ही जान पाता है । हाँ ये हो सकता है कि आपका आशय उन अनुभवों से हो । जो मैंने मृत्यु के आसपास होने वाले आंतरिक अनुभव बताये हैं । इसमें तब वाकई कुछ अलग स्थितियाँ बनती हैं । जब आदमी को किसी विशेष प्रयोजन से मृत्यु सम स्थिति से गुजरना होता है । या यमदूतों की गलती से उसे मृत्यु का बुलावा आ जाता है । और तब कुछ लोग विचित्र अलौकिक अनुभवों के साथ वापिस आकर बताते हैं । क्या होता है । इनका सच । अगले लेख में ।
वास्तव में ये भाव मैं पहले ही समझ गया था । और इन्हीं के विवरण हेतु ये लेख भी लिखा था । पर संयोगवश प्रवाह दूसरी तरफ़ हो गया । और मूल बात शुरू भी नहीं हुयी । अतः यों मानिये । समस्त चर्चा ही अगली बार ।
आप सबके अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।
( लेख - डर के पास रहने से डर खत्म हो जाता है । और - काफ़ी समय से मैं आपके लेख पढता आ रहा हूँ । )
- बङी हैरानी सी होती है । जब कोई ऐसी विरोधाभासी बात कहता है । सबसे बङी बात जिस लेख को पढने के बाद - डर के पास रहने से डर खत्म हो जाता है । आपने उसके जिक्र सहित मेल लिखा । और - काफ़ी समय से मैं आपके लेख पढता आ रहा हूँ । जैसी बात भी कही । तब यकायक तो मेरी समझ में नहीं आता कि किस तरह से और क्या उत्तर दूँ । जिससे प्रश्नकर्ता की जिज्ञासा समाधान होने के साथ साथ संतुष्टि भी हो । क्योंकि - डर के पास रहने से डर खत्म हो जाता है । ये पूरा लेख ही इस प्रश्न का उत्तर ही है । चलिये । वह बात भी छोङ दें । तो मेरे समस्त लेखन की एक समग्र ध्वनि ही " जीवन के पार " की ही बात करती है । ऐसी स्थिति में बङी अङचन सी लगती है कि - अब क्या उत्तर दूँ ? खैर..आपके प्रश्न का एक भाव अवश्य बनता है । साधारण स्थिति में । यानी विशेष कोई ज्ञानयुक्त हुये बिना ।
लेकिन यहाँ भी हैरानी फ़िर से होती है । आप खुद ही एक रहस्यमय सुगन्ध का अनुभव करते हैं । और एक बच्चे द्वारा ली गयी किसी प्रेतात्मा की तस्वीर भी भेजते हैं । इसके साथ ही आप खुद ही पूर्व जन्म की बहुत सी घटनाओं का संकलन करके भेजते हैं । तो मेरे ख्याल में 50% उत्तर तो स्वयँ आपने ही दे दिया ।
फ़िर भी आपका प्रश्न मुझे अतीत के उस खण्ड में ले गया । जब मौत और शमशानों के साथ ही मेरी उठक बैठक थी । मैं उस समय एक छोटे से क्षेत्र में था । और एक पोखर के पास बैठा था । यहाँ दूर दूर तक खेत बंजर जमीन और निर्जनता थी । पोखर के पास ही एक सीधी लाइन में पाँच पुराने आम के बङे वृक्ष थे । इस स्थान पर महीने में ( या शायद 15 दिन में ) एक बार पशु मेला का आयोजन होता था । जिसके लिये एक मध्यम आकार का मैदान था । इस मैदान से ही लगा हुआ दक्षिण दिशा में एक लम्बा दङा ( कच्चा रास्ता ) था । और इस दङे के बाद 400 वर्ग गज भूमि में एक हिन्दू शमशान था । इसके बाद 6 खेत थे । और उसके बाद मेरा लम्बा चौङा विधालय । उसके बाद स्थानीय पुलिस थाना ।
खैर..ये पूरा क्षेत्र ही मेरे जीवन में प्रभावी रहा । अतः इसके विषय में आगे लिखूँगा । मुख्य बात ये थी । जिस स्थान पर मैं बैठा या बैठता था । उसके प्रति मुझे एक खास आकर्षण था । वहाँ ये बात आम प्रचलित थी कि इसी
दङे के अंतिम छोर पर 7 किमी पीछे स्थिति छोटे से गाँव से कुछ ही आगे बीच में कहीं से । और आगे जाकर लगभग 8 किमी दूरी पर । ये 15 किमी का दङा जहाँ समाप्त होता था । अक्सर भूत प्रेतों की सवारी निकलती थी । जिसे लोग बारात । जुलूस । यात्रा आदि बहुत से नाम देते थे । ये यात्रा अक्सर सुनसान दोपहर या फ़िर अँधेरे में गुजरती थी । प्रेतों की हँसती खिलखिलाती टोली गाती बजाती हुयी निकलती थी । अब मजे की बात यही थी कि यह शार्टकट ही मेरे स्कूल का रास्ता था । और मेरे लिये चप्पा चप्पा परिचित । आगे हुआ ये कि एक दिन एक आदमी ने मुझ बिना मूँछ वाले छोटे से आदमी को देखकर कहा - बेटा ! इस स्थान पर तुम अक्सर आते तो हो । पर ऐसा कभी दिखे । तो कोई टोका टाकी मत करना । कहीं छिपकर बिलकुल सांस रोके देखते रहना । और जब यात्रा गुजर जाये । तब शान्ति से निकलकर अपने गंतव्य पर जाना । और यथासंभव इस रास्ते का उपयोग मत किया करो ।
अनजाने में बङी गलती हुयी उससे । भूली हुयी नानी को ननिहाल की न सिर्फ़ याद दिला दी । बल्कि ठीक ठीक
पता भी बता दिया । घोस्ट माय दोस्त । अब वह जगह भी मेरे बैठने का स्थान बन गयी । कभी कभी चितायें भी जलती । और मैं उनको जलते हुये देखता ।
पर इस स्थान पर बैठने का एक अलग अनुभव भी था । अक्सर गर्दन या सिर के किसी हिस्से में ठण्डी फ़ुरफ़ुराहट । ( प्रेत के समीप होने का यह अहसास भी होता है । इसमें ठीक ऐसा लगता है कि कोई गर्दन के पास नाक लगाये स्वांस छोङ रहा है । अन्तर इतना होता है । जीवित व्यक्ति की स्वांस में हल्की गर्माहट होती है । और ये सामान्य हवा । बाकी अहसास लगभग समान होता है । खास पहचान यही है कि ये गर्दन से नीचे महसूस नहीं होगा । )
मुश्किल ये थी कि उस समय मैं प्रेत वायु के इस रूप से परिचित नहीं था । बाकी शरीर के रोंगटे आदि खङे होना आदि पहचान से भी उस समय मैं अनभिज्ञ था । और भासित छाया मुझे दिखे भी । तो होगा कुछ । जैसी बात थी । उस वक्त भूत प्रेत की छवि मेरे लिये नर कंकाल वाली थी । और वास्तविक भूत मुझे बस छाया शरीर ही लगते । भाव ये कि मुझे समझ ही नही थी कि ये भूत हैं । इससे भी बङी मुश्किल ये थी कि किसी को बताऊँ । तो वो एक ही बात कहता था - चल झूठा । जीवन की अज्ञात भूमि में वैराग का बीजारोपण ।
और अलौकिकता की शायद शुरूआत हो चुकी थी ।
तब कुछ साल बाद । ऐसे ही एक स्थान पर वृक्ष के नीचे बैठा था । सिर्फ़ दस फ़ुट दूर चिता जलने से बने 4 काले स्थान थे । एक आदमी मेरे पास आया । किसी अन्तिम संस्कार से आया था । उसी का प्रभाव था । गमछे से पसीना पोंछता हुआ बोला - क्या जीवन है । इंसान का भी । कोई कह सकता है । मरने के बाद इंसान का क्या होता है । और वह कहाँ जाता है ?
- बिलकुल । मैंने साधारण भाव से कहा - इन सब बातों के उत्तर हैं । और बहुत पास हैं । यहीं हैं । जानना भी बहुत आसान है ।
वह हक्का बक्का रह गया । उसने मेरी तरफ़ ऐसे देखा । जैसे मैं पूरा पागल होऊँ ।
- और । जीवन के पार देखने का दरबाजा वह है । मैंने चिता स्थान की तरफ़ इशारा किया - बस ठीक उस स्थान पर बैठो । और मौज आने पर लेटो भी । सच बङी शान्ति महसूस होगी । बिना प्रयास वैराग फ़लीभूत होगा । बहुत से उत्तर भी मिलेंगे । सच कहता हूँ । इससे सुन्दर जगह दूसरी नहीं । इंसान के पूरे जीवन का अन्तिम निचोङ । अटल सत्य । 2 गज जमीन ।
उसने गौर से मुझे देखा । और बोला - तुम बैठ सकते हो । जो ऐसा कहते हो ।
मैं बैठ क्या सकता था । बैठता ही था । लेटता भी था । अतः मौखिक उत्तर देना निरी मूर्खता ही थी ।
- सच । मैंने वहीं से कहा - आओ । तुम्हें एक नयी दृष्टि जागृत होगी । जीते जी मरने का अनुभव । जा मरिवे में जग डरे । मेरे मन आनन्द । मरने से ही पाईये पूरा परमानन्द ।
जाहिर है । वह मेरे समान पागल नहीं था । बिना एक भी पल गंवाये । वह तुरन्त वहाँ से रफ़ूचक्कर हो गया ।
शायद मेरी बातों और हरकत से उसे मेरे इंसान होने पर संदेह हो गया था ।
तो ये थी वो सब बात । जो आपके इस प्रश्न से मुझे अतीत में ले गयी । सच कहूँ । यादों में जाना बङा सुखद लगा । अब आपके प्रश्न पर बात करते हैं । दरअसल मैं इस प्रश्न की भावना को ही नहीं समझ पाया कि आपका आशय क्या है ?.. जिसे मनुष्य मरने के बाद जान पाता है ?
- मनुष्य मरने के बाद क्या जानता है ? मूलतः मरने का समय आते ही उसके कुछ लक्षण 1 महीना या 15 दिन पूर्व प्रकट होने लगते हैं । आँखों में पीलापन छाना । गंदलापन और भूरे से डोरे बनना । माथे पर मूल रेखाओं के अतिरिक्त महीन रेखाओं का एक जाल सा नजर आना । आँखों में ही मुर्दनी छाना । जीवन की गतिविधियों से अजीव सी उलझन महसूस करना । अजीव से स्वपन देखना । प्रत्यक्ष या स्वपन में काली छाया देखना । कोई नग्न स्त्री देखना । जो आलिंगन हेतु बाँहे फ़ैलाकर बुलाये ।
ये कुछ पूर्व लक्षण हुये । अब आ जाईये । द एण्ड पर । सामान्यतः तीन दिन पूर्व मृतक को अहसास होने लगना कि - अब कूच का वक्त आ गया । अक्सर घर वालों से उदासीनता होकर । शान्त और अनमनस्यकता आ जाना । अधिकतर को इसी समय में आंतरिक जगत के भी कूछ विभिन्न अनुभव होते हैं । पर एक अजीव सा ताला उसकी जबान पर लग जाता है । वह चाहे भी तो नहीं बता सकता । इसके बाद । मृत्यु का समय बिलकुल करीब
आ गया । अब 4 चक्रों का टूटना लय होना शुरू हुआ । जिसके बारे में विस्तार से मैं अपने लेख - साधारण स्थिति का मृत्यु ज्ञान..में लिख ही चुका हूँ ।
इन चक्रों के टूटने में आदमी को बेहद पीङा का अनुभव होता है । क्योंकि वह मोहवश इनसे बुरी तरह जकङा हुआ होता है । इस स्थिति में मृतक को हजारों जहरीले बिच्छुओं के एक साथ ही डंक मारने के समान भयानक पीङा होती है । ध्यान रहे । वह न रो पायेगा । न बता पायेगा । पर इस पीङा की अभिव्यक्ति उसके चेहरे से होती है । कोई कोई इस स्थिति में कुछ शान्त नजर आता है । पर अन्दर ऐसा ही होता है । ये अदभुत विधि अपनाने का कारण ही यह है कि - आसपास के लोग फ़ालतू हंगामा न करें । अधिक भयभीत न हों । ये बात शास्त्र और अनुभव दोनों से कह रहा हूँ । इस तरह चार चक्र टूटने के बीच ही सबसे खतरनाक समय आता है । चक्र भी टूट रहे हैं । और काल अपनी भूख शान्त करने के लिये जीव का आहार करने हेतु जबङे में दबा लेता है । और चबाता है । ये ठीक वो समय है । जब मरने वाले को बेहोशी या मूर्छा आ जाती है । जगत चबैना काल का कछू मुख में कछू गोद । झूठे सुख से सुखी है मानत है मन मोद । यही वो लगभग स्थिति है । जब संसारी लोगों के लिये इंसान मर जाता है । और व्यवहारिक रूप से सच भी है । ह्रदय की धङकन । प्राण का चलना बन्द हो जाता है । पर इंसान मरता नहीं है । लगभग आधा घन्टे काल उसका आहार करने के बाद जीव को छोङ देता है । और तब वो गति अनुसार स्थितियाँ बनती हैं । जो मेरे लेख - साधारण स्थिति का मृत्यु ज्ञान.. में पूर्व ही वर्णित हो चुकी हैं ।
तो मेरे अनुसार तो आदमी मृत्यु के समय या बाद इतना ही जान पाता है । हाँ ये हो सकता है कि आपका आशय उन अनुभवों से हो । जो मैंने मृत्यु के आसपास होने वाले आंतरिक अनुभव बताये हैं । इसमें तब वाकई कुछ अलग स्थितियाँ बनती हैं । जब आदमी को किसी विशेष प्रयोजन से मृत्यु सम स्थिति से गुजरना होता है । या यमदूतों की गलती से उसे मृत्यु का बुलावा आ जाता है । और तब कुछ लोग विचित्र अलौकिक अनुभवों के साथ वापिस आकर बताते हैं । क्या होता है । इनका सच । अगले लेख में ।
वास्तव में ये भाव मैं पहले ही समझ गया था । और इन्हीं के विवरण हेतु ये लेख भी लिखा था । पर संयोगवश प्रवाह दूसरी तरफ़ हो गया । और मूल बात शुरू भी नहीं हुयी । अतः यों मानिये । समस्त चर्चा ही अगली बार ।
आप सबके अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।
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