अल्बर्ट आइंस्टीन ने खोज की । और निश्चित ही यह सही होगी । क्योंकि अंतरिक्ष के बारे में इस व्यक्ति ने बहुत कठोर परिश्रम किया था । उसकी खोज बहुत गजब की है । उसने स्वयं ने कई महीनों तक इस खोज को अपने मन में रखी । और विज्ञान जगत को इसकी सूचना नहीं दी । क्योंकि उसे भय था कि कोई उस पर विश्वास नहीं करेगा ।
जवान रहना है । तो मौन हो जाओ ? ओशो । जवान रहना है । तो मौन हो जाओ ? आइंस्टीन की क्रांतिकारी खोज । खोज ऐसी थी कि लोग सोचेंगे कि वह पागल हो गया है । परंतु खोज इतनी महत्वपूर्ण थी कि उसने अपनी बदनामी की कीमत पर जग जाहिर करने का तय किया । खोज यह थी कि - गुरुत्वाकर्षण के बाहर तुम्हारी उम्र बढ़नी रूक जाती है । यदि आदमी दूर के किसी ग्रह पर जाए । और उसे वहां तक पहुंचने में 30 साल लगे । और फिर 30 साल में नीचे आये । और जब उसने पृथ्वी को छोड़ा था । उसकी उम्र 30 साल थी । तब यदि तुम सोचो कि जब वह पुन: आए । तब वह 90 साल का होगा । तो तुम गलत हो । वह अब भी 30 साल का ही होगा । उसके सभी दोस्त और संगी साथी कब्र में जा चुके होंगे । शायद 1 या 2 अब भी जिंदा हो । परंतु उनका 1 पैर कब्र में होगा । परंतु वह उतना ही जवान होगा । जितना तब था । जब उसने जमीन को छोड़ा था । जिस क्षण तुम गुरुत्वाकर्षण के बाहर जाते हो । उम्र की प्रक्रिया रूक जाती है । उम्र बढ़ रही है । तुम्हारे शरीर पर 1 निश्चित दबाव के कारण । जमीन लगातार तुम्हें खींच रही है । और तुम इस खिंचाव से लड़ रहे हो । तुम्हारी ऊर्जा इस खींच रही है । और तुम इस खिंचाव से लड़ रहे हो । तुम्हारी ऊर्जा इस खिंचाव से बाधित होती है । व्यय होती है । परंतु 1 बार जब तुम इस जमीन के गुरुत्वाकर्षण से बाहर हो जाते हो । तुम वैसे ही बने रहते हो - जैसे हो । तुम अपने सम सामयिक लोगों को नहीं पाओगे । तुम वह फैशन नहीं पाओगे । जो तुमने छोड़ी थी । तुम पाओगे कि 60 साल बीत गये । परंतु गुरुत्वाकर्षण के बाहर होने की अनुभूति ध्यान में भी पाई जा सकती है - ऐसा होता है । और यह कई लोगों को भटका देती है । अपनी बंद आँखो के साथ जब तुम पूरी तरह से मौन हो । तुम गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो । परंतु मात्र तुम्हारा मौन गुरुत्वाकर्षण के बाहर है । तुम्हारा शरीर नहीं । परंतु उस क्षण में जब तुम अपने मौन से एकाकार होते हो । तुम महसूस करते हो कि - तुम ऊपर उठ रहे हो । इसे योग में " हवा में उड़ना " कहते हैं । और बिना आंखे खोले तुम्हें लगेगा कि यह मात्र लगता ही नहीं । बल्कि तुम्हारा शरीर मौन गुरुत्वाकर्षण के बाहर है - यह सच्चा अनुभव है । परंतु अभी भी तुम शरीर के साथ एकाकार हो । तुम महसूस करते हो कि तुम्हारा शरीर उठ रहा है । यदि तुम आँख खोलोगे । तो पाओगे कि तुम उसी आसन में जमीन पर बैठे हो । ओशो
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भीतर के प्रकाश को जानो - सत्य के संबंध में विवाद सुनता हूं । तो आश्चर्य होता है । निश्चय ही जो विवाद में हैं । वे अज्ञान में होंगे । क्योंकि ज्ञान तो निर्विवाद है । ज्ञान का कोई पक्ष नहीं है । सभी पक्ष अज्ञान के हैं । ज्ञान तो निष्पक्ष है । फिर जो विवाद ग्रस्त विचारधाराओं और पक्षपातों में पड़ जाते हैं । वे स्वयं अपने ही हाथों सत्य के और स्वयं के बीच दीवारें खड़ी कर लेते हैं । मेरी सलाह है - विचारों को छोड़ो । निर्विचार हो रहो । पक्षों को छोड़ो । और निष्पक्ष हो जाओ । क्योंकि इसी भांति वह प्रकाश उपलब्ध होता है । जो कि सत्य को उदघाटित करता है । 1 अंधकार पूर्ण गृह में 1 बिलकुल नए और अपरिचित जानवर को लाया गया । उसे देखने को बहुत से लोग उस अंधेरे में जा रहे थे । चूंकि घने अंधकार के कारण आंखों से देखना संभव न था । इसलिए प्रत्येक उसे हाथों से स्पर्श करके ही देख रहा था । 1 व्यक्ति ने कहा - राजमहल के खंभों की भांति है - यह जानवर । दूसरे ने कहा - नहीं । 1 बड़े पंखे की भांति हैं । तीसरे ने कुछ कहा और । चौथे ने कुछ और । वहां जितने व्यक्ति थे । उतने ही मत भी हो गये । उनमें तीव्र विवाद और विरोध हो गया । सत्य तो 1 था । लेकिन मत अनेक थे । उस अंधकार में 1 हाथी बंधा हुआ था । प्रत्येक ने उसके जिस अंग को स्पर्श किया । उसे ही वह सत्य मान रहा था । काश ! उनमें से प्रत्येक के हाथ में 1-1 दिया रहा होता । तो न कोई विवाद पैदा होता । न कोई विरोध ही । उनकी कठिनाई क्या थी ? प्रकाश का अभाव ही उनकी कठिनाई थी । वही कठिनाई हम सबकी भी है । जीवन सत्य को समाधि के प्रकाश में ही जाना जा सकता है । जो विचार से उसका स्पर्श करते हें । वे निर्विवाद सत्य को नहीं । मात्र विवादग्रस्त मतों को ही उपलब्ध हो पाते है । सत्य को जानना है । तो सिद्धांतों को नहीं । प्रकाश को खोजना आवश्यक है । प्रश्न विचारों का नहीं । प्रकाश का ही है । और प्रकाश प्रत्येक के भीतर है । जो व्यक्ति विचारों की आंधियों से स्वयं को मुक्त कर लेता है । वह उस चिन्मय ज्योति को पा लेता है । जो कि सदा सदा से उसके भीतर ही जल रही है ।
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ईश्वरत्व है । ईश्वर नहीं है । भगवत्ता है । भगवान नहीं । ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है । ईश्वर शब्द से व्यक्ति की भ्रांति पैदा होती है । ईश्वरत्व है । ईश्वर नहीं । भगवत्ता है । भगवान नहीं । यह सारा जगत दिव्यता से परिपूरित है । इसका कण कण रोआं रोआं 1 अपूर्व ऊर्जा से आपूरित है । लेकिन कोई व्यक्ति नहीं है । जो संसार को चला रहा हो । हमारी ईश्वर की धारणा बहुत बचकानी है । हम ईश्वर को व्यक्ति की भांति देख पाते हैं । और तभी अड़चनें शुरू हो जाती हैं । जैसे ही ईश्वर को व्यक्ति माना कि धर्म पूजा पाठ बन जाता है । ध्यान नहीं । पूजा पाठ । क्रिया कांड । यज्ञ हवन । और ऐसा होते ही धर्म थोथा हो जाता है । किसकी पूजा ? किसका पाठ ? आकाश की तरफ जब तुम हाथ उठाते हो । आंखें उठाते हो । तो वहां कोई भी नहीं है । तुम्हारी प्रार्थनाओं का कोई उत्तर नहीं आएगा । तुम ही हो भगवान । और तुम ही हो भक्त । तुम ही हो पूजा । पुजारी । पूज्य । और जब तक तुम्हें यह बात स्मरण न आ जाए । तब तक तुम भटकते ही रहोगे । इसलिए बुद्ध न तो परमात्मा की बात करते हैं । न प्रार्थना की बात करते हैं । बुद्ध केवल ध्यान की बात करते हैं ।
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मन के विचरने का नाम अविद्या है । जब मन का आत्मा की ओर विचरना होता है । तब अविद्या नष्ट हो जाती है । जैसे राजा के आगे मन्त्री और सिपाही कार्य करते हैं । वैसे ही मन के आगे इन्द्रियाँ कार्य करती हैं । ! बाह्य के विषय पदार्थों की भावना छोड़कर तुम भीतर आत्मा की भावना करो । तब आत्मपद को प्राप्त होगे । जिन पुरुषों ने अन्तःकरण में आत्मा की भावना का यत्न किया है । वे शान्ति को प्राप्त हुए हैं । जो पदार्थ आदि में नहीं होता । वह अन्त में भी नहीं रहता । इससे जो कुछ लगता हैं । वह सब ब्रह्म सत्ता है । उससे कुछ भिन्न नही है । वह कल्पना मात्र है । हमारा निर्विकार आदि अन्त से रहित ब्रह्म तत्त्व है । हम क्यों शोक करते हैं ? अपना पुरुषार्थ करके संसार की भोग वासना को मूल से उखाड़ो । और आत्म पद का अभ्यास करो । तो दृश्य भ्रम मिट जावे ।
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