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अब दो बाते हैं - 24 घन्टे में 360 अंश वाली प्रथ्वी भी 1 चक्र (वृत) पूरा करती है और जीवन के 1 चक्कर (24 घन्टे) में 21600 स्वांस ही होती है ।
अब जो आपने 60 कला = मिनट बताया (वैसे घङी, पल, काष्ठा, निमेष आदि का मान मेरे पास है) यानी सेकेण्ड की सुई 60 बार ठिठक गति द्वारा 1 चक्र पूरा करे । तो 60 कला या 1 मिनट हुआ । मेरा शोध शरीर की मिनट सेकेण्ड की सुई को प्रथ्वी या अन्य पिंडों से क्या तारतम्य ये जोङना है ।
क्योंकि ये 4 कला (स्वांस) वृत रूपी बुलबुले एक पूर्ण वृत का सृजन विघटन निरन्तर करते हैं ।
अधिक विस्तार से नहीं लिखा । क्योंकि आप मूल बात समझ जायेंगे ।
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मेरी इस टिप्पणी पर सुनील सिंहा की प्रतिक्रिया -
सर, आपने जो शोध की बात की है पृथ्वी के पिण्ड और शरीर के समय चक्र के बीच, वह मैं विस्तार से आपसे जानने और समझने की विनती है । सुनील सिंहा
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और उसका यथासंभव उत्तर -
जी, यदि इस विषय के बारे में थोङी बहुत मौलिक जानकारी न हो । वहाँ इसका बेहद विस्तार से समझाना अपेक्षित हो जाता है । जो लेखन के रूप में कुछ असंभव सा है । क्योंकि ना जानकार के लिये ज्यादातर बिन्दुओं पर नये प्रश्न उत्पन्न हो जाते हैं ।
फ़िर भी सार संक्षेप में बात यह है कि - निराधार अखिल सृष्टि (पंचभूत और समस्त तारा पिंड, जीव जन्तु आदि) एक ‘सार शब्द’ की सत्ता से संचालित हैं । इस शब्द से अखण्ड (भीषण) कंपन हो रहा है । इस कंपन से अकल्पनीय माप वाला गुरुत्व, चुम्बकत्व (उत्पन्न होता है) तथा एक चुम्बकीय तरंगो का जाल भी बना हुआ है । इसी तरंग जाल द्वारा समस्त चल अचल देहधारी जीव और तारा पिंडों जैसे अन्य पद परस्पर एक सूत्र में बंधे हुये हैं । यानी किसी एक की छोटी सी गतिविधि भी समस्त (सृष्टि) को प्रभावित करती है ।
अब बात यह है कि ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे’ के आधार पर यह अखिल सृष्टि (मूल) ब्रह्मांडी मन द्वारा संचालित है । जो सदैव अविकारी और एक नियम है और शुद्ध पिंडी (जीव आदि) मन (यदि हो) भी इसी अविकारी और एक नियम पर कार्य करता है ।
सरलता से कहें तो ‘रमता के साथ समता’ होती है । तब वह सृष्टि, प्रकृति आदि हलचल का ज्ञाता होता है । रहस्य जानता है । साक्षी होता है आदि ।
लेकिन जीव का मन या अन्य गतिविधियां जब ब्रह्मांडी मन से विषम या अस्थिर हो उठती हैं । तब तरह तरह के विकार, रोग, अज्ञान, जङता आदि शारीरिक मानसिक बाधायें व्याधियां उत्पन्न होने लगती हैं । उनमें क्षोभ उत्पन्न हो जाता है ।
अगर इसी अनहद शब्द के साथ जोङने वाला समर्थ गुरु हो । तो ये ‘रमता के साथ समता’ स्वतः हो जाती है । क्योंकि तब जीव मन अपनी मनमानी के बजाय ब्रह्मांडी मन से नियन्त्रित होता है ।
2 सेकेण्ड की सांस का एक वृत ( या अणु ), मध्य में रिक्तता, पुनः 2 सेकेण्ड की सांस का एक वृत..ये स(रिक्त)ह और ह(रिक्त)स ऐसे अणु परमाणु बनाते हैं । ये सामान्य मनुष्य के होते हैं । बाकी योगी आदि आगे या पीछे स्थिति अनुसार ह(रिक्त)ठ या ठ के स्थान पर अन्य बीज भी हो सकता है, होते हैं ।
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मूलतः समाधि एक ही होती है । उसकी ही अलग अलग स्थितियों के भिन्न भिन्न नाम हैं । गहराता हुआ ध्यान समाधि ही है । जो कृमशः विकार, संस्कार, कारण और फ़िर कारण बीज समाप्त करके जीव का जीव भाव समाप्त कर देता है । और परमात्मा प्रकट हो जाता है ।
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