11 जुलाई 2016

जिहाद - मुंशी प्रेमचन्द

बहुत पुरानी बात है । हिंदुओं का एक काफ़िला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत प्रदेश से भागा चला आ रहा था । मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ साथ रहते चले आये थे । धार्मिक द्वेष का नाम न था । पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे । उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था । बात बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे । 
शासन की कोई व्यवस्था न थी । हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी । आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था । जान का बदला जान था, खून का बदला खून । इस नियम में कोई अपवाद न था । यही उनका धर्म था, यही ईमान ।
मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिंदू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे । पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है । एक मुल्ला ने न जाने कहाँ से आकर अनपढ़ धर्म शून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है । उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री पुरुष खिंचे चले आते हैं ।
वह शेरों की तरह गरज कर कहता है - खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनियां को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो । दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो । एक काफिर के दिल को इस्लाम के उजाले से रोशनी कर देने का सवाब सारी उम्र के रोजे, नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है । जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएँ लेंगी और फरिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे । खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा । 
और सारी जनता यह आवाज सुनकर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है । उसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है । प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है । उन्हीं हिंदुओं पर जो सदियों से शांति के साथ रहते थे । हमले होने लगे हैं । कहीं उनके मंदिर ढाये जाते हैं । कहीं उनके देवताओं को गालियाँ दी जाती हैं । कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है ।
हिंदू संख्या में कम हैं । असंगठित हैं । बिखरे हुए हैं । इस नयी परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं । उनके हाथ पाँव फूले हुए हैं । कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़कर भाग खड़े हुए हैं । कुछ इस आँधी के शांत हो जाने का अवसर देख रहे हैं । 
यह काफिला भी उन्हीं भागने वालों में था । दोपहर का समय था । आसमान से आग बरस रही थी । पहाड़ों से ज्वाला सी निकल रही थी । वृक्ष का कहीं नाम न था । ये लोग राजपथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे । पग पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था । यहाँ तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अंत को लोग एक उभरी हुई शिला की छाँह में विश्राम करने लगे ।
सहसा कुछ दूर पर एक कुआँ नजर आया । वहीं डेरे डाल दिये । भय लगा हुआ था कि जिहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो । दो युवकों ने बंदूक भर कर कंधे पर रखीं और चारों तरफ गश्त करने लगे । बूढ़े कम्बल बिछा कर कमर सीधी करने लगे । स्त्रियाँ बालकों को गोद से उतार कर माथे का पसीना पोंछने और बिखरे हुए केशों को सँभालने लगीं । सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे ।
सभी चिंता और भय से त्रस्त हो रहे थे, यहाँ तक कि बच्चे जोर से न रोते थे ।
दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला रूपवान है । उसकी आँखों से अभिमान की रेखाएँ सी निकल रही हैं । मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता । मानो उसकी एक एक गत पर आकाश के देवता जयघोष कर रहे हैं ।
दूसरा कद का दुबला पतला, रूपहीन सा आदमी है । जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है । मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं । मानो वह दीपक की भाँति रो रोकर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है ।
उसका नाम धर्मदास है । इसका ख़ज़ाँचन्द ।
धर्मदास ने बंदूक को जमीन पर टिका कर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा - तुमने अपने लिए क्या सोचा ? कोई लाख, सवा लाख की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी ?
ख़ज़ाँचंद ने उदासीन भाव से उत्तर दिया - लाख, सवा लाख की तो नहीं, हाँ, पचास साठ हजार तो नकद ही थे ।
- तो अब क्या करोगे ?
- जो कुछ सिर पर आयेगा, झेलूँगा । रावलपिंडी में दो चार सम्बन्धी हैं । शायद कुछ मदद करें । तुमने क्या सोचा है ?
- मुझे क्या गम ! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं । वहाँ इन्हीं का सहारा था । आगे भी इन्हीं का सहारा है ।
- आज और कुशल से बीत जाये तो फिर कोई भय नहीं ।
- मैं तो मना रहा हूँ कि एकाध शिकार मिल जाय । एक दरजन भी आ जायँ तो भून कर रख दूँ ।
इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा-डोर लिये निकली और सामने कुएँ की ओर चली । प्रभात की सुनहरी, मधुर, अरुणिमा मूर्तिमान हो गयी थी ।
दोनों युवक उसकी ओर बढ़े । लेकिन ख़ज़ाँचंद तो दो चार कदम चल कर रुक गया । धर्मदास ने युवती के हाथ से लोटा-डोर ले लिया और ख़ज़ाँचंद की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुएँ की ओर चला । ख़ज़ाँचंद ने फिर बंदूक सँभाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा । इसी तरह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों पराजित हो चुका था । शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था । अब इसमें लेशमात्र भी संदेह न था कि श्यामा का प्रेमपात्र धर्मदास है । ख़ज़ाँचंद की सारी सम्पत्ति धर्मदास के रूप वैभव के आगे तुच्छ थी । परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष रूप से भी श्यामा कई बार ख़ज़ाँचंद को हताश कर चुकी थी । पर वह अभागा निराश होकर भी न जाने क्यों उस पर प्राण देता था । तीनों एक ही बस्ती के रहने वाले थे ।
श्यामा के माता पिता पहले ही मर चुके थे । उसकी बुआ ने उसका पालन पोषण किया था । अब भी वह बुआ ही के साथ रहती थी । उसकी अभिलाषा थी कि ख़ज़ाँचंद उसका दामाद हो, श्यामा सुख से रहे और उसे भी जीवन के अंतिम दिनों के लिए कुछ सहारा हो जाये । लेकिन श्यामा धर्मदास पर रीझी हुई थी । उसे क्या खबर थी कि जिस व्यक्ति को वह पैरों से ठुकरा रही है । वही उसका एकमात्र अवलम्ब है । 
ख़ज़ाँचंद ही वृद्धा का मुनीम, खजांची, कारिंदा सब कुछ था और यह जानते हुए भी कि श्यामा उसे जीवन में नहीं मिल सकती । उसके धन का यह उपयोग न होता, तो वह शायद अब तक उसे लुटा कर फकीर हो जाता ।
2
धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिये । जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पाँच आदमी हैं । उनकी बंदूक की नलियाँ धूप में साफ चमक रही थीं । धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें । लेकिन कंधे पर बंदूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज न दौड़ सकता था । फासला दो सौ गज से कम न था । रास्ते में पत्थरों के ढेर टूटे फूटे पड़े हुए थे । भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय । कहीं पैर न फिसल जायँ । इधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जाते थे । अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या । उस पर मंजिलों का धावा हुआ । मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुँचे । और तुरंत उसे घेर लिया ।
धर्मदास बड़ा साहसी था । पर मृत्यु को सामने खड़ी देख कर उसकी आँखों में अँधेरा छा गया । उसके हाथ से बंदूक छूट कर गिर पड़ी । पाँचों उसी के गाँव के महसूदी पठान थे । 
एक पठान ने कहा - उड़ा दो सिर मरदूद का । दग़ाबाज़ काफिर ।
दूसरा - नहीं नहीं, ठहरो, अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले । तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं । क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दग़ा की क्या सजा दी जाय ? हमने तुम्हें रात भर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था । मगर तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुँचा दिये जाओ । लेकिन हम तुम्हें फिर मौका देते हैं । यह आखिरी मौका है । अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया । तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी ।
धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा - जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे ...
पहले सवार ने आवेश में आकर कहा - मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं ।
तीसरा - कुफ्र है ! कुफ्र है !
पहला - उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआँ इस पार ।
दूसरा - ठहरो..ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है । तुम्हारे और साथी कहाँ हैं धर्मदास ?
धर्मदास - सब मेरे साथ ही हैं ।
दूसरा - कलामे शरीफ़ की कसम । अगर तुम सब खुदा और उनके रसूल पर ईमान लाओ । तो कोई तुम्हें तेज निगाहों से देख भी न सकेगा ।
धर्मदास - आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे ।
इस पर चारों सवार चिल्ला उठे - नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे । यह आखिरी मौका है ।
इतना कहते ही पहले सवार ने बंदूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला -बस बोलो, क्या मंजूर है ?
धर्मदास सिर से पैर तक काँप कर बोला - अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूँ । तो मेरे साथियों को तो कोई तकलीफ न दी जायेगी ?
दूसरा - हाँ, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे ।
पहला - हम इस शर्त को नहीं मानते । तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे । तुम अपनी कहो । क्या चाहते हो ? हाँ या नहीं ?
धर्मदास ने जहर का घूँट पीकर कहा - मैं खुदा पर ईमान लाता हूँ ।
पाँचों ने एक स्वर से कहा - अलहमद व लिल्लाह ! और बारी बारी से धर्मदास को गले लगाया ।
3
श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी । वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा ? अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगा । तो मैं प्यासों मर जाती । पर इन्हें न जाने देती । श्यामा से कुछ दूर ख़ज़ाँचंद भी खड़ा था । श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा - अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती ।
ख़ज़ाँचंद - बंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है ।
श्यामा - न जाने क्या बातें हो रही हैं । अरे गजब ! दुष्ट ने उनकी ओर बंदूक तानी है ।
ख़ज़ाँ.- जरा और समीप आ जायँ, तो मैं बंदूक चलाऊँ । इतनी दूर की मार इसमें नहीं है ।
श्यामा - अरे ! देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं । यह माजरा क्या है ?
ख़ज़ाँ.- कुछ समझ में नहीं आता ।
श्यामा - कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया ?
ख़ज़ाँ.-नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है ।
श्यामा - मैं समझ गयी । ठीक यही बात है । बंदूक चलाओ ।
ख़ज़ाँ.- धर्मदास बीच में हैं । कहीं उन्हें न लग जाय ।
श्यामा - कोई हर्ज नहीं । मैं चाहती हूँ, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े । कायर ! निर्लज्ज ! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया । ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है । क्या सोचते हो । क्या तुम्हारे भी हाथ पाँव फूल गये । लाओ, बंदूक मुझे दे दो । मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूँगी ।
ख़ज़ाँ.- मुझे तो विश्वास नहीं होता कि धर्मदास ...
श्यामा - तुम्हें कभी विश्वास न आयेगा । लाओ, बंदूक मुझे दो । खडे़ क्या ताकते हो ? क्या जब वे सिर पर आ जायँगे, तब बंदूक चलाओगे ? क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान होकर जान बचाओ ? अच्छी बात है, जाओ । श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है । मगर उसे अब मुँह न दिखाना ।
ख़ज़ाँचंद ने बंदूक चलायी । एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी ।
जिहादियों ने ‘अल्लाहो अकबर’ की हाँक लगायी । दूसरी गोली चली और घोड़े की छाती पर बैठी ।
घोड़ा वहीं गिर पड़ा । जिहादियों ने फिर ‘अल्लाहो अकबर’ की सदा लगायी और आगे बढ़े । तीसरी गोली आयी । एक पठान लोट गया ।
पर इसके पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान ख़ज़ाँचंद के सिर पर पहुँच गये । और बंदूक उसके हाथ से छीन ली ।
एक सवार ने ख़ज़ाँचंद की ओर बंदूक तान कर कहा - उड़ा दूँ सिर मरदूद का, इससे खून का बदला लेना है ।
दूसरे सवार ने जो इनका सरदार मालूम होता था, कहा - नहीं नहीं, यह दिलेर आदमी है । ख़ज़ाँचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, खून और कुफ्र, ये तीन इल्ज़ाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है । लेकिन हम तुम्हें एक मौका और देते हैं । अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ । तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं । इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा ( प्रायश्चित्त ) नहीं है । यह हमारा आखिरी फैसला है । बोलो, क्या मंजूर है ?
चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं । और उन्हें ख़ज़ाँचंद के सिर पर तान दिया मानो ‘नहीं’ का शब्द मुँह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर चल जायँगी ।
ख़ज़ाँचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा । उसकी दोनों आँखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगीं । दृढ़ता से बोला - तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो ? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा ? हिंदू को अपने ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरत नहीं । 
चारों पठानों ने कहा - काफिर ! काफिर ।
ख़ज़ाँ.- अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो । मैं अपने को तुमसे ज्यादा खुदापरस्त समझता हूँ । मैं उस धर्म को मानता हूँ, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है । आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर ( प्रकाश ) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल ...
चारों पठानों के मुँह से निकला ‘काफिर ! काफिर’ और चारों तलवारें एक साथ ख़ज़ाँचंद की गर्दन पर गिर पड़ीं । 

लाश जमीन पर फड़कने लगी । धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा । वह दिल में खुश था कि अब ख़ज़ाँचंद की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी । और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा ।
पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था । श्यामा अब तक मर्माहत सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी । ज्यों ही ख़ज़ाँचंद की लाश जमीन पर गिरी । वह झपट कर लाश के पास आयी । और उसे गोद में लेकर आँचल से रक्त प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी । उसके सारे कपड़े खून से तर हो गये ।
उसने बड़ी सुंदर बेलबूटों वाली साड़ियाँ पहनी होंगी । पर इस रक्तरंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी । बेलबूटों वाली साड़ियाँ रूप की शोभा बढ़ाती थीं । यह रक्तरंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी ।
ऐसा जान पड़ा मानो ख़ज़ाँचंद की बुझती आँखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गयी हैं । उन नेत्रों में कितना संतोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कंठा भरी हुई थी । जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पायी । वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था ।
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धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़ कर कहा - श्यामा, होश में आओ । तुम्हारे सारे कपड़े खून से तर हो गये हैं । अब रोने से क्या हासिल होगा ? ये लोग हमारे मित्र हैं । हमें कोई कष्ट न देंगे । हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे ?
श्यामा ने तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देख कर कहा - तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है, तो जाओ । मेरी चिंता मत करो । मैं अब न जाऊँगी । हाँ, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो । तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरा भी अंत करा दो ।
धर्मदास करुणा कातर स्वर से बोला - श्यामा, यह तुम क्या कहती हो । तुम भूल गयीं कि हमसे तुमसे क्या बातें हुई थीं ? मुझे खुद ख़ज़ाँचंद के मारे जाने का शोक है । पर भावी को कौन टाल सकता है ?
श्यामा - अगर यह भावी थी । तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधम जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूँ । जिसका मैंने सदैव निरादर किया ।
यह कहते कहते श्यामा का शोकोदगार, जो अब तक क्रोध और घृणा के नीचे दबा हुआ था । उबल पड़ा और वह ख़ज़ाँचंद के निस्पंद हाथों को अपने गले में डाल कर रोने लगी ।
चारों पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म समर्पण देखकर करुणार्द्र हो गये ।
सरदार ने धर्मदास से कहा - तुम इस पाकीजा खातून से कहो । हमारे साथ चले । हमारी जाति से इसे कोई तकलीफ न होगी । हम इसकी दिल से इज्जत करेंगे ।
धर्मदास के हृदय में ईर्ष्या की आग धधक रही थी । वह रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था । इस वक्त उसका मुँह भी नहीं देखना चाहती थी । 
बोला - श्यामा, तुम चाहो इस लाश पर आँसुओं की नदी बहा दो । पर यह जिंदा न होगी । यहाँ से चलने की तैयारी करो । मैं साथ के और लोगों को भी जाकर समझाता हूँ । खान लोग हमारी रक्षा करने का जिम्मा ले रहे हैं । हमारी जायदाद, जमीन, दौलत सब हमको मिल जायगी ।
ख़ज़ाँचंद की दौलत के भी हमीं मालिक होंगे । अब देर न करो । रोने धोने से अब कुछ हासिल नहीं ।
श्यामा ने धर्मदास को आग्नेय नेत्रों से देख कर कहा - और इस वापसी की कीमत क्या देनी होगी ? वही जो तुमने दी है ?
धर्मदास यह व्यंग्य न समझ सका । बोला - मैंने तो कोई कीमत नहीं दी । मेरे पास था ही क्या ?
श्यामा - ऐसा न कहो । तुम्हारे पास वह खजाना था । जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था । जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शंकर, शिवाजी और गोविंद सिंह ने की थी । उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया । इन पाँवों पर लोटना तुम्हें मुबारक हो ! तुम शौक से जाओ ।
जिन तलवारों ने वीर ख़ज़ाँचंद के जीवन का अंत किया । उन्होंने मेरे प्रेम का भी फैसला कर दिया ।
जीवन में इस वीरात्मा का मैंने जो निरादर और अपमान किया । इसके साथ जो उदासीनता दिखायी । उसका अब मरने के बाद प्रायश्चित्त करूँगी । यह धर्म पर मरने वाला वीर था । धर्म को बेचने वाला कायर नहीं । अगर तुममें अब भी कुछ शर्म और हया है । तो इसका क्रियाकर्म करने में मेरी मदद करो । और यदि तुम्हारे स्वामियों को यह भी पसंद न हो । तो रहने दो, मैं सब कुछ कर लूँगी ।
पठानों के हृदय दर्द से तड़प उठे । धर्मान्धता का प्रकोप शांत हो गया । देखते देखते वहाँ लकड़ियों का ढेर लग गया ।
धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकड़ियाँ काट रहे थे । चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने ख़ज़ाँचंद की जान ली थी । उन्हीं ने उसके शव को चिता पर रखा ।
ज्वाला प्रचंड हुई । अग्निदेव अपने अग्निमुख से उस धर्मवीर का यश गा रहे थे ।
पठानों ने ख़ज़ाँचंद की सारी जंगम सम्पत्ति लाकर श्यामा को दे दी । श्यामा ने वहीं पर एक छोटा सा मकान बनवाया और वीर ख़ज़ाँचंद की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी । उसकी वृद्धा बुआ तो उसके साथ रह गयी, और सब लोग पठानों के साथ लौट गये । क्योंकि अब मुसलमान होने की शर्त न थी । ख़ज़ाँचंद के बलिदान ने धर्म के भूत को परास्त कर दिया ।
मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया । एक दिन नियत किया गया । मसजिद में मुल्लाओं का मेला लगा और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आये । पर उसका वहाँ पता न था । चारों तरफ तलाश हुई । कहीं निशान न मिला ।
साल भर गुजर गया । संध्या का समय था । श्यामा अपने झोंपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी ।
अतीत उसके लिए दुःख से भरा हुआ था । वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था । सारी अभिलाषाएँ भविष्य पर अवलम्बित थीं । और भविष्य भी वह, जिसका इस जीवन से कोई सम्बन्ध न था । आकाश पर लालिमा छायी हुई थी । सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शांति के आवरण से ढकी हुई थी । वृक्षों की काँपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी । मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियाँ भर रही हो ।
उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोंपड़ी के सामने खड़ा हो गया । कुत्ता जोर से भूँक उठा । श्यामा ने चौंक कर देखा और चिल्ला उठी - धर्मदास !
धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा - हाँ श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूँ । साल भर से मारा मारा फिर रहा हूँ । मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है । सारा प्रांत मेरे पीछे पड़ा हुआ है । इस जीवन से अब ऊब उठा हूँ । पर मौत भी नहीं आती ।
धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया । फिर बोला - क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ । तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया ।
श्यामा ने उदासीन भाव से कहा - मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी ।
- मैं अब भी हिंदू हूँ । मैंने इस्लाम नहीं कबूल किया है ।
- जानती हूँ ।
- यह जानकर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती ।
श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली - तुम्हें अपने मुँह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती । मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूँ, जिसने हिंदू जाति का मुख उज्ज्वल किया है । तुम समझते हो कि वह मर गया ? यह तुम्हारा भ्रम है । वह अमर है । मैं इस समय भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूँ । तुमने हिंदू जाति को कलंकित किया है । मेरे सामने से दूर हो जाओ ।
धर्मदास ने कुछ जवाब न दिया । चुपके से उठा । एक लम्बी साँस ली और एक तरफ चल दिया ।
प्रातःकाल श्यामा पानी भरने जा रही थी, तब उसने रास्ते में एक लाश पड़ी हुई देखी । दो चार गिद्ध उस पर मँडरा रहे थे । उसका हृदय धड़कने लगा । समीप जाकर देखा और पहचान गयी ।
यह धर्मदास की लाश थी । 

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