12 अगस्त 2019

सर्वव्यापी सत्ता शब्द-वीर



एक सोऽहं वीर सौ के, हंऽसो हजार एवं परमहंस लाख वीरों के समान है। शब्द-वीर सर्वव्यापी सत्ता है। महामन्त्र, अजपा सोऽहं (बीज) निर्वाणी सिद्ध होने पर क्रमशः हंऽसो, परमहंस एवं शब्दवीर तक भेदता है।
सोऽहं-सार से शब्द-सत्ता तक शक्ति है।
शब्द के पार विलक्षण आपही आप है।

कासी मुक्ति हेतु उपदेसू।
महामंत्र जोइ जपत महेसू।

उल्टा-नाम जपा जग जाना।
वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।



=धर्म-चिंतन=

याज्ञवल्क्य - जो समझता है कि मैं अन्य एवं देवता अन्य हैं। इस प्रकार अन्य की उपासना करता है वह अज्ञानी, देवताओं का पशु है। जैसे बहुत से पशु एक-एक मनुष्य का पालन करते हैं। उनमें एक भी पशु हाथ से निकल जाये तो मनुष्य को बहुत बुरा लगता है।

वैसे ही बहुत से मनुष्य मिलकर एक-एक देवता का पालन करते हैं। अतः यदि एक भी मनुष्य देवताओं को छोङकर अलग हो जाये, और अपनी आत्मा की उपासना करने लगे, तो देवों को यह कैसे पसन्द होगा?

इसलिये देवता नहीं चाहते कि मनुष्य यह समझ ले कि “मैं ही ब्रह्म हूँ” मैं तुच्छ नहीं महान हूँ, मैं आत्मा ही हूँ। देवता यही चाहते हैं कि मनुष्य अपने निज आत्म-स्वरूप को न पहचाने, और देवताओं का पशु बनकर उनकी सेवा करता रहे।

योऽन्यां देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहम।
स्मीत न स वेद यथा पशुरेवं स देवानाम॥
यथा ह वै बहवः पशुवो मनुष्यं भञ्जुरेवमेकैकः
पुरूषो देवान भुनक्त्येकस्मिन्नेव पशावादीयमानेऽप्रियं।
भवति किमु बहुषु तस्मादेषां तन्न प्रियं यदेतन्मनुष्या विदुः॥
(बृहदारण्यक उपनिषद 1-4-10) 


काम, कर्म एवं वासना, अंतःकरण के विकार ये तीनों मल, द्वैतरूपी माया के अज्ञान/अबोध से ही स्थित हैं। गुरू के सैन-बैन से उत्पन्न जाग्रति/बोध/समाधि से ये विकारी आवरण क्षीण होकर नष्टप्रायः हो जाते हैं।

भ्रंगी शब्द-गुरू द्वारा हुयी जाग्रति ही असली मोक्ष है।
भ्रंगी, अंतर-बाहर, देह-विदेह समान रूप अंग-संग है। 

जब लग मन स्थिर नहीं, तब लग आतमज्ञान।
कहन-सुनन अस जान, जस हाथी को असनान॥

इंगला बिनसै पिंगला बिनसै, बिनसै सुखमन नाङी।
कहै कबीर सुनो रे गोरख, कहाँ लगावै तारी॥


1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (14-08-2019) को "पढ़े-लिखे मजबूर" (चर्चा अंक- 3427) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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