05 अगस्त 2020

जीव की ज्ञान, अज्ञान अवस्थायें

सामान्य अज्ञान स्थिति में (मनुष्य) जीव की स्वयं-प्रकाश स्थिति, धूसर बादलों में एक “काले कण” जैसी होती है। एक चमकीले सफ़ेद प्रकाश कण पर चढ़ा काला आवरण। गुरू द्वारा या कभी-कभी स्वयं की योग-भक्ति, ज्ञान के प्रयास से यह काला आवरण हट जाता है और वह स्वच्छ आकाश में चमकीला सूक्ष्म अणु हो जाता है। ऐसा और यहाँ तक होना सामान्य ही है। 

इसके बाद गुरू, ज्ञान और योग-भक्ति (करने) की सामर्थ्य और पहुँच के अनुसार यह चमकीला अणु एक बङे सफ़ेद बिन्दु (महिलाओं की बिन्दी जितना) में बदल जाता है। फ़िर क्रमशः एक सूर्य जितना बङा, फ़िर बारह सूर्य, फ़िर एक साथ सोलह सूर्य जितना प्रकाशित हो जाता है। यदि सत्य-गुरू की अधीनता में सत्य-भक्ति करते हैं तो इतना हो जाना अधिक कठिन नहीं है।

इसके बाद की भक्ति कुछ कठिन है, और (कैसे) गुरू की प्राप्ति? इस पर निर्भर है। लेकिन यह भक्ति सुलभ होने पर (आत्म-) प्रकाश का क्रमशः अधिकाधिक विस्तार होता हुआ भक्त “विराट” स्थिति को प्राप्त होता है, और सीस दान देने पर “हुं” से “है” में चला जाता है। इति..अनन्त! तत-सत!  

मन पंछी तबलगि उड़ै, विषय-वासना माहिं।
ज्ञान बाज के झपट में, जबलगि आवै नाहिं।।
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यथा पिंडे तथा ब्रह्माण्डे

अणु होता हुआ भी, आकाश की नाईं हजारों योजनों में व्याप्त, वह चलता हुआ भी नहीं चलता है। स्वप्न के समान कल्पना से हजारों योजन, उस अणु के अन्दर स्थित हैं।  

गया हुआ भी यह नहीं जाता, प्राप्त हुआ भी नहीं आया। क्योंकि देश और काल उसकी सत्ता से सत्ता वाले, आकाश कोश के अन्दर ही स्थित हैं।  

गमन द्वारा प्राप्त होने वाला देश, जिसके शरीर के अन्दर ही स्थित है, वह कहाँ जाय? क्या माता अपनी गोद में सोये हुए बच्चे को दूसरी जगह खोजती है?   

जैसे जिसका मुँह बँधा है, ऐसे घड़े को अन्य देश में ले जाने पर उसमें स्थित आकाश के गमन और आगमन नहीं हो सकते।   

21 जुलाई 2020

आंतरिक उर्जा

एक पूर्ण स्वस्थ आत्मिक जीवन के लिये मनुष्य को प्रचुर मात्रा में तीवृ वेगवान उर्जा की आवश्यकता तो है ही, योग क्रियायें एवं आत्मिक यात्रा के लिये भी यह अति आवश्यक है। लेकिन सुखद बात यह है कि अष्टांग योग एवं सहज योग में आवश्यकतानुसार उर्जा स्वयं उत्पादित होती रहती है। जबकि तन्त्र, मन्त्र आदि क्रियाओं में उर्जा बेहद क्षीण एवं उष्मा बेहद अधिक होती है।
(इसी कारण से तांत्रिक, मांत्रिकों के नेत्र लाल, शरीर गर्म एवं तनाव पूर्ण रहता है)

इस उर्जा का मध्य स्रोत मुख्यतः ब्रह्माण्ड, फ़िर आकाशीय शब्द एवं फ़िर उच्च स्रोत आत्मा ही है। अतः अनुकूल योग द्वारा प्रथम योगी ब्रह्माण्ड से सम्बन्ध जोङता है फ़िर आकाशीय शब्द से, तदुपरान्त आत्मा से। और इस तरह वह निरन्तर उर्जावान रहता है।

शरीर में उर्जा का मुख्य सम्बन्ध ह्रदय और उसकी पम्पिंग क्रिया से है क्योंकि यह कृतिम और व्यष्टि (जीव) भूमिका है। जबकि समष्टि (विराट) में उर्जा का कारण ब्रह्माण्ड में होने वाला धुनात्मक आकाशीय शब्द है।

सरल सी बात है उर्जा को विराट करना योगी के महत्वपूर्ण लक्ष्यों में से एक है।
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भूमिका अंतरण

एक गलती जो 99% लोग करते हैं, और इसका उनके जीवन एवं स्वास्थय पर बहुत दुष्प्रभाव पङता है।

मन द्वारा इच्छित आवश्यकता को शारीरिक गतिविधियों द्वारा क्रिया/कार्य रूप देना, शारीरिक अंगों द्वारा निभायी गयी भूमिका होती है। इसका कौशल पूर्ण एवं पूर्णता युक्त होना शारीरिक एवं मानसिक पुष्टता हेतु अति आवश्यक है। अतः यही कारण है कि वर्तमान समय में लगभग सभी अस्वस्थ एवं बेडौल हैं।

यदि किसी ने यौगिक क्रियाओं (योगासन आदि) द्वारा शरीर स्वस्थ बना रखा है तो वह मानसिक स्तर पर स्वस्थ नहीं है, और यही वह प्रमुख कारण है जिससे हम एक रुग्ण समाज, रुग्ण विश्व को देखते हैं। जबकि “भूमिका अंतरण” को समझ लेने पर यह समस्या बहुत सरलता से हल हो जाती है।

भूख, प्यास, चलना, दौङना, पढ़ना, सोना, प्रणय, झगङा आदि आदि शरीर द्वारा होने वाली अनेक भूमिकायें हैं जिनका संचालन मन/मस्तिष्क एवं तंत्रिका तंत्र आदि शरीरी अंगों से होता है। अतः जब मनुष्य किसी “एक कार्य” को करने को प्रेरित होता, विचारता है तब शरीर सम्बन्धित रस, धातुओं, रसायन का सही उत्पादन, सन्तुलन एवं कार्य नियन्त्रण आदि अनेक क्रियाओं को अंजाम दे रहा होता है। और कार्य पूर्ण होने पर वह फ़िर पूर्व और स्थिर भूमिका में आ जाता है।

गलती तब होती है जब मनुष्य एक साथ दो, तीन या चार तक कार्य करता है, या कर रहे कार्य को जल्दी-जल्दी निबटा कर दूसरे कार्य में प्रवत्त हो जाता है। उदाहरण - भोजन के साथ फ़ोन पर या सामान्य बातचीत करना, या टीवी देखना। पढ़ने के साथ चाय पीना या नाश्ता करते जाना, नहाते समय शरीर सम्बन्ध बनाना। चाय या कुछ खाने के तुरन्त बाद धूम्रपान करना आदि आदि।

अतः किसी भी एक कार्य को पूर्ण मनोयोग से, बिना हङबङी के, शान्त चित्त से करिये। इससे स्वस्थता को लेकर जीवन में चमत्कारिक बदलाव आयेगा। 

09 जुलाई 2020

योगी को सपने नहीं आते

स्वपन, मनुष्य की गहरी, अतृप्त, दबी हुयी वासनाओं के परिणाम स्वरूप हैं जो अर्धनिद्रा (सुषुप्ति) की अवस्था में मन की अवचेतन स्थिति में अनुभूत होते हैं। लेकिन ये क्रिया सामान्य मनुष्य के (भौहों से नीचे) पिंड से नीचे तक ही रहने की विवशता के कारण होती है। और कंठ स्थित चित्रणी नाङी में जमा “कारण” संस्कारों से होती है।

कारण में जाय, नाना संस्कार देखे।

जबकि एक सफ़ल योगी का (भौंहों के मध्य स्थित) ब्रह्माण्डी द्वार खुला होता है, और उसका (सुरति) ध्यान सदैव ब्रह्माण्ड में रहता है।

कर से कर्म करो विध नाना। राखो ध्यान “जहाँ” कृपानिधाना॥

उसकी चेतना का उर्जा स्तर भी सामान्य मनुष्य से सौ गुना या हजार गुना तक होता है। अत: उसकी तुरिया अवस्था में से एक “सुषुप्ति” हमेशा के लिये खत्म हो जाती है। दूसरे, योग समाधि द्वारा वह अचेतन में दबी ‘कारण’ रूपी वासनाओं को जलाता
रहता है।

तब उसका अगला कदम तुरिया की शेष दो अवस्थाओं “निद्रा” से जागना और “जाग्रत” स्वपन से बाहर आकर आनन्द स्वरूप अवस्था मोक्ष ही रह जाता है। अतः अपने ही इस रहस्य को जानने का गहन चिन्तन करें।
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कोड-डिकोड (आत्मा, परमात्मा एवं प्रकृति के रहस्य)

तत्वदर्शी, प्रकाशित आत्म, अनहद-नाद का श्रोता, शब्द का भेदी/मर्मी, आत्मदर्शी, अनन्त का यात्री..साधु-सन्त, गुरू-सदगुरू के आधीन हुये बिना किये गये ज्ञान, ध्यान, योग आदि अंतर-क्रियायें उस “कागज के फ़ूल” के समान हैं, जो देखने में तो सुन्दर है पर उसमें पुष्प के वास्तविक तत्व सुगन्ध, पराग, अर्क आदि नाम को नहीं है। अतः ऐसी कोई भी साधना, भक्ति, आराधना आदि भगवत उपक्रम क्षीण लाभ पहुँचा कर अन्ततः थोथे ही साबित होते हैं।

जस है तस जानत नाहीं। जस जानत हैं तस है नाहीं॥

अधिकतर मनुष्य, शारीरिक (ध्यान) क्रियाओं एवं उनके अवयवों पर ध्यान केन्द्रित कर आत्मा, परमात्मा एवं प्रकृति के रहस्य को जानना चाहते हैं जो कि सम्भव ही नहीं हैं। क्योंकि इससे, सिर्फ़ कुछ हद तक शरीर के रहस्यों का ज्ञान एवं शरीर की उर्जा, विद्युत, तरंगें और नाङी, प्राण आदि की कार्य-प्रणाली का ही पता चलता है। और वह भी बेहद न्यून स्तर पर।

वस्तु कहीं खोजे कहीं, वस्तु ना आवै हाथ।
वस्तु तभी पाईये, जब भेदी होवै साथ॥

वास्तव में ज्ञान, ध्यान, शक्ति एवं प्रकृति के सभी रहस्य “शब्द” से उत्पन्न “चेतन अणु” में कोड के रूप में छिपे हुये हैं, और किसी स्थान विशेष में नहीं हैं। क्योंकि परमात्मा असंख्य कला है इसलिये ये अणु भी असंख्य ही हैं। तब..

होय बुद्धि जो परम सयानी।

के द्वारा गुरू, ज्ञान (वस्तु) एवं ध्यान तीनों के संयोग से इस कोडेड अणु को विस्फ़ोट करके डिकोड किया जाता है। तब वह शक्ति, उपकरण, रहस्य उस साधक में लय होकर समाहित हो जाता है। और मनुष्य की सभी ध्यान चेष्टायें इन्हीं लक्ष्यों को लेकर प्रयासशील हैं। पर सही जानकारी न होने से वह इन्हें कभी प्राप्त नहीं कर पाता।

सत्य तो यह है कि मनुष्य “मोक्ष है क्या” यही नहीं जानता।

25 जून 2020

शक्ति का स्रोत क्या है?

सभी के लिये यह एक सहज प्रश्न होना चाहिये कि आखिर जीव को शरीर संचालन क्रियाओं के लिये जो शक्ति प्राप्त होती है उसका “मुख्य स्रोत” क्या है? मोटे तौर पर, क्या भोजन से मिलने वाली उर्जा या इससे और ऊपर की योग-व्यायाम या प्राणायाम जैसी क्रियायें, या कुछ-कुछ ऐसी ही मंत्र-तंत्र आदि की वैज्ञानिक सिद्धियां।

यदि इनमें से किसी एक या सभी को भी हम स्वीकार कर लें तो भी यह प्रश्न बना रहेगा कि भोजन, योग या तंत्र-मंत्र को भी प्राप्त होने वाली उर्जा का “मुख्य स्रोत” क्या है? और उस मुख्य-स्रोत से हम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कैसे जुङे हैं।

वैसे इसका उत्तर सरल ही है। ज्ञान-योग की स्थिति के बिना जीव “मन के आवरण” में ही घूमता खद्योत (जुगनू) है। जबकि ज्ञान-योग युक्त जीव सूर्य के समान खुले आकाश में प्रकाशित है। अतः जीव को प्राप्त होने वाली शक्ति का रहस्य उसकी “गहन निद्रा” में छुपा है।

कोई भी सफ़ल योगी इस निद्रा से जाग जाता है, और तब परिणाम स्वरूप उसके सुषुप्ति में आने वाले स्वपन सदैव के लिये खत्म हो जाते हैं। और गहन निद्रा से वह जाग ही चुका है अतः अब एकमात्र बचा उसका जीवन रूपी स्वपन भी अभ्यास से मिटने लगता है, और यकायक एक दिन उस योगी को अन्तिम अनुभूति होती है कि वह रात और दिन दोनों के स्वपन से निकल आया है। और यही मोक्ष होना है। 

ये जीवन क्या है?

यथार्थ बोध में औसत सौ वर्ष का जीवन सिर्फ़ एक दिवा-स्वपन (स्व-अवस्था) ही है। जो जीव की व्यष्टि वासनाओं से निर्मित होकर सिर्फ़ माया द्वारा आभासित हो रहा है किन्तु यह उस तरह सत्य नहीं है जिस तरह अनुभूत होता है। 

निद्रा की स्थिति में जीव जो लघु-स्वपन देखता है वह “अ-चेतन मन” द्वारा क्षीण वासनाओं और कभी-कभी दृढ़ वासना के परिणाम स्वरूप प्रकट हुआ अनुभव है। लेकिन जाग्रत अवस्था का दृश्य-ध्वनि एवं बलाबल रूपी जगत-अनुभव “चेतन मन” का परिणाम है। जो संस्कार बीजों द्वारा जन्मांतर प्रारब्ध वासनाओं का परिणाम है।

यहाँ जोर इस बिन्दु पर है कि अपने शरीर से लेकर इस पूर्ण स्रष्टि में जीव जो भी पदार्थ आदि तथा अन्यान्य दूसरे जीवों का अनुभव करते हैं, वह सिर्फ़ मायिक यानी एक जादूगरी मात्र है। स्वपन है। और इसी स्वपन से बाहर निकलना वास्तविक मोक्ष है।

31 मार्च 2020

चार उद्यमी पुरूषार्थ कर्म



अकाल पुरूष
2+2=4 ये मानक, कालक्रम के अंतर्गत स्रष्टि का हेतु है एवं 2+2=7 (य़ा कुछ भी अन्य) जैसा अमानक अकाल-प्रवाही सत्व है। काल, अकाल दोनों से ही परे अनिर्वचनीय आत्मा है। कालक्रम सिर्फ़ सही कर्म से नियन्त्रित होता है। अकाल प्रवाह, ज्ञानयुक्त कर्म एवं ज्ञानयुक्त स्थितियों, साधनों से साध्य और गम्य है।
फ़िर ज्ञान, अज्ञान से भी शून्य आत्मा है, जिससे यह सब कुछ है, हुआ है। लेकिन समष्टि लय या अनन्त लय हेतु इन तीनों को जानना/होना आवश्यक है।
यही परम-पद है।

गुनि अनगुनी अर्थ नहिं आया, बहुतक जने चीन्हि नहिं पाया।
जो चीन्हे ताको निर्मल अंगा, अनचीन्हे नर भये पतंगा।



चार उद्यमी पुरूषार्थ कर्म 
कीमत, त्याग, परिश्रम एवं परमार्थ, सत्यरूपेण इन चार उद्यमी पुरूषार्थ कर्मों के बिना, कोई भी लौकिक या मोक्ष पदार्थ, इहलोक अथवा परलोक में भी प्राप्त नहीं होता। लेकिन ये चारो पुरूषार्थ भी किसी ब्रह्म-योगी या शब्द-गुरू द्वारा धर्म-निवेश करने पर ही सार्थक रूप से फ़लीभूत होते हैं। अन्यथा ये भूत-भैरव (अनिश्चित परिणामदायी) में निवेश होता है।
स्थायी सुख, शान्ति अक्षय धन एवं मोक्ष पदार्थ उपरोक्त घटकों द्वारा ही पूर्ण होता है अतः सार्थक कर्म/ज्ञान ही अभीष्ट वस्तु है।

गुरू बिन माला फ़ेरता, गुरू बिन करता दान।
कहि कबीर निष्फ़ल गये, कहि गये वेद-पुरान॥ 


शब्दातीत
प्रकाण्ड विद्वान भी ज्ञानी के सामने शून्य है। पूर्ण ज्ञानी भी ब्रह्म-ज्ञानी के सामने शून्य है। पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी भी आत्मस्थ के सामने शून्य है। पूर्ण आत्मस्थ भी “है” की तुलना में अति क्षीण अंशी है। अतः समष्टि लयीन आत्मा ही सर्वोच्च है। एकोह्म द्वितीयोनास्ति, अनुभव के बाद बहुस्यामि या अनन्त-बोध समष्टि ही “है” में प्रवेश कराता है। यद्यपि यह दुर्लभ है फ़िर भी अन्तिम एवं शाश्वत सत्य है। अतः शब्द के पार के
शब्दातीत को जानना ही अभीष्ट है। 

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति।
जानाम्यधर्मम न च मे निवृत्ति।।

28 मार्च 2020

आधी शताब्दी तक बुरा हाल रहेगा



ब्रह्म-शूल
ब्रह्म संकल्पित (त्रय-) शूल, ब्रह्म-ज्ञान द्वारा ही निवारण किये जा सकते हैं। ब्रह्म-ज्ञान सिर्फ़ दो हैं - क्रिया योग एवं आयुर्वेद। आत्मबोध (सहज योग) इससे अलग और सर्वोच्च है, पर वह सभी को सुलभ नहीं होता। अतः क्रिया योग या आयुर्वेद अथवा दोनों के योग से कोई भी आपदा नाश की जा सकती है।
क्रिया योग के बिना, अकेला आयुर्वेद समर्थ नहीं होता लेकिन क्रिया योग को आयुर्वेद की तनिक भी आवश्यकता नहीं होती। जबकि आत्मबोध को क्रिया योग एवं आयुर्वेद की भी कोई आवश्यकता नहीं होती। एक समर्थ ज्ञानी यथास्थिति, जनमानस पर इनका उपयोग करता है।



“आधी शताब्दी तक बुरा हाल रहेगा।”

ये वो शब्द हैं जो कल अचानक फ़ैली वैश्विक महामारी, आपदा के ऊपर बार-बार विचार केन्द्रित होते रहने से संकेत रूप में आये। आधी शताब्दी यानी 2050 तक। यानी अभी 30 वर्ष और। लेकिन इसमें नया कुछ नहीं है। सूरदास आदि कई सन्तों के भविष्य कथन कि लगभग इसी काल-अवधि में अंश-प्रलय, काल का हाहाकार एवं प्रकृति द्वारा असन्तुलन को दूर कर नवनिर्माण द्वारा, अस्थायी एक हजार वर्ष के ‘सतयुग’ की
स्थापना होगी। आगामी 30 वर्षों के लिये कुछ विवरणात्मक तथ्य और भी आये, पर उनका खुलासा उचित नहीं। इस अवधि में “हरि-ध्यान” ही एकमात्र और सर्वोच्च उपाय है। शेष सामयिक और झूठी तसल्लीबख्श ही है। मैंने 2011-12 में ही लिखा था कि वर्तमान में साधारण पूजा-पाठ, तीर्थ-वृत, देवी-देव काम नहीं आयेंगे। क्योंकि एक तरह से ये अभी सत्ता च्युत ही हैं, और सर्वोच्च सत्ता अधिपति ही सत्ता विराजमान है।



मन का द्वय विभाजन बुद्धि रूप है। फ़िर बुद्धि प्रारब्ध के अनुसार गुण, कर्म के संयोग से तीन प्रकार सुबुद्धि, कुबुद्धि, दुर्बुद्धि के रूप में परिणित होकर कार्य करती है। यह ब्रह्म से सृष्टि उन्मुख चेतना प्रवाह है। मन से फ़ुरित बुद्धि को वापिस ब्रह्म में लगाये रखने या जोङे रखने से यह प्रज्ञा बुद्धि हो जाती है, और तब कर्म-समूह अप्रभावी होकर योगनिष्ठ हो जाता है, और उस जीव का सत्यभक्ति और मोक्ष का मार्ग सुलभ हो जाता है।
इसके लिये सत्व-गुण, आत्म-बोध एवं सक्षम गुरू (या ब्रह्मनिष्ठ योगी) परम आवश्यक है।

टूटी डोरी रस कस बहै, उनमनि लागा अस्थिर रहै।
उनमनि लागा हो‍ई अनंद, टूटी डोरीं बिनसै कंद॥ 

20 मार्च 2020

कोरोना विषाणु



सत्व-गुण की पूर्णता, या वृद्धि, क्षीण दोषों से उत्पन्न सभी घातक विषाणुओं का स्वतः सिद्ध काल है। यह उर्जा की मुख्यधारा से विकेन्द्रित होने के कारण होता है। कुण्डलिनी योग द्वारा “मुख्यधारा” से जुङाव अथवा सहज समाधि का आत्मबोध भाव किसी भी प्रकार के विनाशी रक्तबीजों (विषाणु आदि) का तुरन्त और स्वतः नाश कर देता है।

अर्थात योगी इनसे ऐसे ही अप्रभावित रहता है, जैसे कीचङ में कमल।
हे अविनाशी! सहज योग से पक्के तत्वों को जानो।

इंगला-पिंगला त्रिकुटी, सुखमन सबको धाम।
कहै कबीर निस्वांस रहे, ताको भिन्न मुकाम॥



कर्म-दोष भी जब अधर्म से संक्रमित हो जाये तब असाध्य कष्टों, परेशानियों, रोगों एवं त्रय आपदाओं को बढाने वाला होता है। इहलोक में हताशा, निराशा, दुःखपूर्ण जीवन के बाद परलोक में नर्क आदि विषम भीषण दुःखों का कारक होता है। योग द्वारा सत्वगुण की वृद्धि या समर्थ ब्रह्मयोगी ही कर्म-दोष को मेटने, उपचार करने में सक्षम है। अच्छा या बुरा कर्म क्षीण होने पर ही वास्तविक ज्ञान, भक्ति का उदय होता है, उससे पूर्व नहीं।
कर्म-दोष दूर होते ही इहलोक-परलोक संवरने लगता है।

काल पाये जग उपजो, काल पाये सब जाये।
काल पाये सब बिनसि है, काल काल कंह खाये।।



प्रत्येक जीव, जन्म-जन्मान्तरों से, अज्ञानवश लाखों “कर्म-दोष” से पीङित हुआ, इस भव-चक्र में अत्यन्त कष्टपूर्ण दुःखी जीवन व्यतीत करने को विवश है। और बिना सही मार्गदर्शन के निरन्तर पतन की ओर जा रहा है। सत्यगुरू, सत्यज्ञान, सहज समाधि योग, निर्वासना और अकर्ता, अकर्म योग इस दुःखरूप भवचक्र से निकलने का एकमात्र उपाय  है। जो किसी समर्थ योगी के सहयोग द्वारा ही संभव है।

इसलिये जीते जी इस कर्म-दोष व्यूह को तोङना सीखो।

साधु सगा गुरू सगा, अन्त सगा सत-नाम।
कहैं कबीर इस जीव को, तीन ठाम विश्राम॥

25 फ़रवरी 2020

इन्द्रियों का लय





अपने श्रोत्रेन्द्रिय का दिशाओं में, त्वगिन्द्रिय का विद्युत में लय कर दे। चक्षुरिन्द्रिय का सूर्य में तथा रसनेन्द्रिय का जल के देवता वरूण में लय कर दे। प्राण का वायु में, वाणी का अग्नि में, और हस्तेन्द्रिय का इन्द्र में लय कर दे। अपने पादेन्द्रिय का विष्णु में तथा गुदा-इन्द्रिय का मित्र में लय कर दे। उपस्थेन्द्रिय का कश्यप में लय करके, उसके बाद मन का चन्द्रमा में लय कर दे। इसी तरह बुद्धि का चतुर्मुख ब्रह्मा में लय कर दे।

इन्द्रियों के बहाने ही सब देवता स्थित हैं, इन्द्रियों के नाम से कोई दूसरी वस्तुएँ स्थित नहीं हैं, इनका मैं तुम्हें तत्व उपदेश द्वारा लय करने का आदेश अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशत (वाणी बनकर अग्नि मुख में प्रविष्ट हो गयी) इस श्रुति वाक्य को प्रमाण मानकर ही दे रहा हूँ। स्वत: अपने मन से किसी तरह की कोई कल्पना करके मैंने इन अर्थों को तुझसे प्रकट नहीं किया है।

सुख का सागर शील है, कोई न पावे थाह।
शब्द बिना साधु नहीं, द्रव्य बिना नहीं शाह।।


इन्द्रियों को ही भगवान के बाणों के रूप में कहा है। क्रिया-शक्ति युक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथ के बाहरी भाग हैं, और वर-अभय आदि की मुद्राओं से उनकी वरदान, अभयदान आदि के रूप में
क्रियाशीलता प्रकट होती है।

सूर्यमण्डल अथवा अग्निमण्डल ही भगवान की पूजा का स्थान है, अन्तःकरण की शुद्धि ही मन्त्र दीक्षा है, और अपने समस्त पापों को नष्ट कर देना ही भगवान की पूजा है।


ऋषियों ने संसार में अनेकों मार्ग प्रकट किये हैं किंतु वे सभी कष्ट-साध्य हैं, और परिणाम में प्रायः स्वर्ग की ही प्राप्ति कराने वाले हैं। अभी तक भगवान की प्राप्ति कराने वाला मार्ग तो गुप्त ही रहा है। उसका उपदेश करने वाला पुरूष प्रायः भाग्य से ही मिलता है।
(श्रीमद भागवत, माहात्म्य अध्याय 02)  

नारी पुरूष की स्त्री, पुरूष नारी का पूत।
यहि ज्ञान विचारि के, छारि चला अवधूत।।

23 फ़रवरी 2020

अन्तःकरण की शुद्धि ही मन्त्र दीक्षा



बेहद ध्यान से पढ़िये
(श्रीमद भागवत स्कन्ध 12, अध्याय 11)

शौनक ने कहा - सूत जी! हम क्रिया-योग का यथावत ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं क्योंकि उसका कुशलता पूर्वक ठीक-ठीक आचरण करने से मरणधर्मा पुरूष अमरत्व प्राप्त कर लेता है। अतः हमें बतलाइये कि पांचरात्र आदि तन्त्रों की विधि जानने वाले भगवान की आराधना करते समय किन-किन तत्वों से उनके चरण आदि अंग, गरूड़ आदि उपांग, सुदर्शन आदि आयुध और कौस्तुभ आदि आभूषणों की कल्पना करते हैं?  

सूत जी ने कहा - शौनक! ब्रह्मा आदि आचार्यों ने, वेदों ने, और पांचरात्र आदि तन्त्र-ग्रन्थों ने विष्णु की जिन विभूतियों का वर्णन किया है, मैं आपको वही सुनाता हूँ।

भगवान के जिस चेतन अधिष्ठित विराट रूप में यह त्रिलोकी दिखायी देती है, वह प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्व, अहंकार और पंच-तन्मात्रा, इन नौ तत्वों के सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पंचभूत, इन सोलह विकारों से बना हुआ है। यह भगवान का ही पुरूष रूप है।  

पृथ्वी इसके चरण हैं, वायु नासिका है, और दिशाएँ कान हैं। प्रजापति लिंग है, मृत्यु गुदा है, लोकपाल गण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन है, और यमराज भौंहें हैं। लज्जा ऊपर का होठ है, लोभ नीचे का होठ है, चन्द्रमा की चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुस्कान है, वृक्ष रोम हैं, और बादल ही विराट पुरूष के सिर पर उगे हुए बाल हैं।  

जिस प्रकार यह व्यष्टि-पुरूष अपने परिमाण से सात बित्ते का है उसी प्रकार वह समष्टि-पुरूष भी इस लोक संस्थिति के साथ अपने सात बित्ते का है।  

स्वयं भगवान अजन्मा हैं। वे कौस्तुभ मणि के बहाने जीव-चैतन्य रूप आत्म ज्योति को ही धारण करते हैं, और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभा को ही वक्षःस्थल पर श्रीवत्स रूप से। वे अपनी सत्व, रज आदि गुणों वाली माया को वनमाला के रूप से, छन्द को पीताम्बर के रूप से तथा अ+उ+म इन तीन मात्रा वाले प्रणव को यज्ञोपवीत के रूप में धारण करते हैं।

भगवान सांख्य और योग रूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकों को अभय करने वाले ब्रह्म-लोक को ही मुकुट के रूप में धारण करते हैं। मूल-प्रकृति ही उनकी शेषशय्या है, जिस पर वे विराजमान रहते हैं, और धर्म-ज्ञान आदि युक्त सत्वगुण ही उनके नाभि-कमल के रूप में वर्णित हुआ है।

वे मन, इन्द्रिय और शरीर सम्बन्धी शक्तियों से युक्त प्राण-तत्व रूप कौमोद की गदा, जल तत्व रूप पांचजन्य शंख, और तेजस तत्व रूप सुदर्शन चक्र को धारण करते हैं। आकाश के समान निर्मल आकाश रूप खड्ग, तमोमय अज्ञान रूप ढाल, काल-रूप शारंग धनुष और कर्म का ही तरकस धारण किये हुए हैं।

इन्द्रियों को ही भगवान के बाणों के रूप में कहा है। क्रिया-शक्ति युक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथ के बाहरी भाग हैं, और वर-अभय आदि की मुद्राओं से उनकी वरदान, अभयदान आदि के रूप में क्रियाशीलता प्रकट होती है।

सूर्यमण्डल अथवा अग्निमण्डल ही भगवान की पूजा का स्थान है, अन्तःकरण की शुद्धि ही मन्त्र दीक्षा है, और अपने समस्त पापों को नष्ट कर देना ही भगवान की पूजा है।

समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, इन छह पदार्थों का नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान अपने कर-कमल में धारण करते हैं। धर्म और यश को क्रमशः चँवर एवं व्यजन (पंखें) के रूप से तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठ को छत्र रूप से धारण किये हुए हैं।

तीनों वेदों का ही नाम गरूड़ है। वे ही अन्तर्यामी परमात्मा का वहन करते हैं। आत्म-स्वरूप भगवान की उनसे कभी न बिछुड़ने वाली आत्मशक्ति का ही नाम लक्ष्मी है। भगवान के पार्षदों के नायक विश्वविश्रुत विष्वक्सेन पांचरात्र आदि आगम रूप हैं। भगवान के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्ट सिद्धियों को ही नन्द-सुनन्द आदि आठ द्वारपाल कहते हैं।

स्वयं भगवान ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध, इन चार मूर्तियों के रूप में अवस्थित हैं इसलिये उन्हीं को चतुर्व्यूह के रूप में कहा जाता है।

वे ही जाग्रत-अवस्था के अभिमानी विश्व बनकर शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयों को ग्रहण करते, और वे ही स्वप्नावस्था के अभिमानी तैजस बनकर बाह्य विषयों के बिना ही मन ही मन अनेक विषयों को देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति-अवस्था के अभिमानी प्राज्ञ बनकर विषय और मन के संस्कारों से युक्त अज्ञान से ढक जाते हैं, और वही सबके साक्षी तुरीय रहकर समस्त ज्ञानों के अधिष्ठान रहते हैं।

इस प्रकार अंग, उपांग, आयुध और आभूषणों से युक्त तथा वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरूद्ध, इन चार मूर्तियों के रूप में प्रकट सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि ही क्रमशः विश्व, तैजस, प्राज्ञ एवं तुरीय रूप से प्रकशित होते हैं।

वही सर्व-स्वरूप भगवान वेदों के मूल कारण हैं, वे स्वयं-प्रकाश एवं अपनी महिमा से परिपूर्ण हैं। वे अपनी माया से ब्रह्मा आदि रूपों एवं नामों से इस विश्व की सृष्टि, स्थिति और संहार सम्पन्न करते हैं। इन सब कर्मों और नामों से उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता। यद्यपि शास्त्रों में भिन्न के समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तों को आत्म-स्वरूप से ही प्राप्त होते हैं।  

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326