ओशो - होगी गंध तुम्हारे भीतर । तुम्हारी व्याख्याओं में होगी । तुम्हारे मन की धारणाओं में होगी । तो तुम वही सुन लोगे जो तुम्हारे भीतर छिपा है और ऐसा तो बहुत कठिन है आदमी पाना, जिसके भीतर किसी न किसी तरह की राजनीति न पड़ी हो । तो अगर मैं कभी राजनीति शब्द का भी उपयोग कर दूँ तो तुम्हारे भीतर जल्दी से तहलका मच जाता है ।
धर्म शब्द सुनकर तुम्हारे भीतर कुछ नहीं होता । परमात्मा शब्द सुनकर तुम्हारे भीतर कोई लहर
पैदा नहीं होती । राजनीति शब्द सुनकर ही तुम्हारे भीतर तरंगें आ जाती हैं,
उसमें तुम्हारा रस है । राजनीति शब्द सुनकर ही तुम तालियां पीटने लगते हो । उसमें तुम्हारा रस है तुम उसे समझ पाते हो । वह तुम्हारी बुद्धि के भीतर है वह तुम्हारी समझ के भीतर है । फिर उसकी तुम व्याख्या भी कर लेते हो ।
क्योंकि यह तो तुम मानोगे कि शायद धार्मिक तुम नहीं होओ लेकिन राजनीति तो तुम भी काफी बघारते हो । काफी जानते हो काफी बात करते हो । अखबार तो तुम भी पढ़ते ही हो न, 24 घंटे बात तो करते ही हो न । उसमें तो तुम बड़े कुशल हो तो 1 शब्द भी सुना कि तुम्हारे भीतर जल्दी से 1 यात्रा शुरू हो जाती है । वह यात्रा तुम्हारी ही है तुम उसे मुझ पर मत आरोपित करना । कभी कभी मैं जानकर राजनीति शब्द का और कभी कभी जानकर राजनीति के संबंध में कुछ वक्तव्य भी दे देता हूं ।
1 पागल आदमी 1 पागलखाने के बाहर खिड़की के ऊपर बैठा हाथ में मछली पकड़ने की बंसी लिए है । आटा लगाकर काटे में खिड़की से लटकाए हुए बैठा था ।
मुल्ला नसरुद्दीन वहाँ से निकला तो उसने मजाक में पूछा कि - कितनी मछलियाँ पकड़ी ?
उसने कहा - तुम्हें मिलाकर 11 ।
मुल्ला ने पूछा - मतलब ?
उसने कहा - 10 और पूछ चुके हैं ।
उस पागल ने कहा कि - तुम भी भीतर क्यों नहीं आ जाते ? यहाँ कहाँ मछली ?
तो मुल्ला ने कहा - फिर बैठे क्यों हो यह बंसी लिए हुए ?
- तुमको पकड़ने के लिए । देख रहा हूँ कितने नासमझ यहाँ से निकलते हैं ?
कभी कभी मैं चोट कर देता हूं । तत्क्षण मेरे हाथ में पकड़ में आ जाती हैं मछलियाँ कि किन किनको चोट लगी ? कौन कौन बौखला गए ? पत्र आने लगते हैं प्रश्न आने लगते हैं कि आपने बहुत ऐसा कर दिया । ठीक नहीं किया ।
मुल्ला नसरुद्दीन के घर कव्वालियों का प्रोग्राम था । बड़े बड़े नामी कव्वाल आए हुए थे । मेहमान कव्वालियों से झूम रहे थे ।
ऐसे में जब 1 कव्वाल ने यह पंक्ति पढ़ी - खुदा जाने पर्दे में क्या हो रहा है ।
हर तरफ से वाह वाह का शोर उठा और बारबार कव्वाल ने इस पंक्ति को दोहराया - खुदा जाने पर्दे में क्या हो रहा है..खुदा जाने पर्दे में क्या हो रहा है ।
मुल्ला नसरुद्दीन जिसके घर यह आयोजन हो रहा था, बड़े गुस्से में भर गया - खुदा जाने पर्दे में क्या हो रहा है ? यह बदतमीज कव्वाल, इसको इतनी भी समझ नहीं है कि मैंने ही बुलाया और मेरी ही फजीहत करवा रहा है कि खुदा जाने पर्दे में क्या हो रहा है ?
आखिर 1 सीमा थी और जब लोग फिर कहने लगे कि - वाह वाह ! फिर से हो जाए ।
तो वह उठकर खड़ा हो गया, उसने कहा - ठहर ! 1 सीमा होती है बर्दाश्त की और शिष्टाचार की भी । एक जरूरत है एक आवश्यकता है ।
और जल्दी से मुल्ला उठा और उसने पर्दा उठाकर कहा कि - देखिए ! कव्वाल साहब ! कोई हसरत न रह जाए कि पर्दे में क्या हो रहा है ? पर्दे में कुछ नहीं हो रहा है । देख लीजिए मेरी पत्नी छालियां कुतर रही है ।
अपनी अपनी समझ है ।
मुल्ला समझा कि शायद मेरी पत्नी के संबंध में कुछ कह रहा है कि - पर्दे के भीतर पता नहीं क्या हो रहा है ।
तुम्हारी समझ तुम्हारे जीवन में व्याख्याएं बनाती है । तुम मेरे पास भी हो लेकिन मेरे पास हो थोडे ही । तुम मुझे भी नहीं समझ पाते । मेरे पास वर्षों रहकर भी तुम यह नहीं समझ पाते कि मुझे राजनीति से क्या लेना देना हो सकता है ?
लेकिन तुमने हाथ मेरे हाथ में तो छोड़ा नहीं है । तुम तो बैठे हो वहाँ सजग होकर कि कोई मौका मिल जाए । कोई बात जो तुम्हारी पकड़ में आ जाती हो । आ जाए तो तुम जल्दी से उस पर छलांग ले लेते हो ।
लाख तुमसे कहूं - ध्यान करो तब तुम नहीं पूछते कि - आप ध्यान की इतनी बातें क्यों करते हैं कि आपकी बातों से ध्यान की गंध आती है । एक दफा भी आदमी ने नहीं पूछा अब तक कि आपकी बातों से ध्यान की गंध आती है ।
आएगी कहाँ ? तुम्हारे भीतर हो तो ही आएगी न । लेकिन कभी इस 2-4 साल में कभी एकाध दफा राजनीति पर मैं कुछ कह देता हूं कि तत्क्षण आज न मालूम कितने प्रश्न आ गए हैं ।
स्वामी विष्णु चैतन्य भी पूछ लिए हैं कि आपका मन राजनीति के प्रति पक्षपात से भरा हुआ है । पूर्वाग्रह से भरा हुआ है न तो पूर्वाग्रह का मतलब तुम्हें पता है न तुम्हें अपने पूर्वाग्रहों का बोध है । एक बात तुमसे कहना चाहूंगा कि अगर तुम्हें मुझमें राजनीति की गंध आती हो तो जितनी जल्दी यहां से भाग सको, भाग जाओ । क्योंकि राजनीति की जहां भी गंध आए वहाँ रुकना मत । खतरनाक है यह बात, भाग ही जाओ ।
स्वामी विष्णु चैतन्य ! जितनी जल्दी भाग सको यहां से भाग जाओ । क्योंकि जहां राजनीति की गंध है । वहां खतरा है । कहीं लग न जाए तुम्हें राजनीति की गंध । कहीं यह रोग तुम्हें पकड़ न जाए । अपने को खोजने की थोड़ी कोशिश करो । कहां से यह गंध आ रही है ?
इतनी बार तुम्हें कहा हूं कि अपने को बीच में लाकर मुझे मत सुनो । मगर जब मैं धर्म की बात करता हूँ तो तुम कभी ऐसे सवाल नहीं पूछते क्योंकि वे तुम्हारी समझ में नहीं आते । वे तुम्हारे सिर के ऊपर से निकल जाते हैं । तुम्हारी समझ में वही बात आती है जो आ सकती है । तब तुम जल्दी से पकड़ लेते हो और तुम्हारे भीतर बड़ा ऊहापोह मच जाता है कि - अरे !
तुम्हें यह तो कभी खयाल में ही नहीं आता कि तुम किस तरह के शिष्य हो । तुम्हें यह तो कभी खयाल ही नहीं आता कि तुम्हारा शिष्यत्व अभी है ही नहीं लेकिन तुम्हें यह खयाल जरूर आ जाता है कि यह गुरु तो राजनीति में पड़ा है ।
गुरु कैसा होना चाहिए ? इसका तो तुम्हें पूरा पूरा हिसाब है ।
शिष्य कैसा होना चाहिए ? इसका तुम्हें कोई हिसाब नहीं है ।
और तुम ध्यान रखना मैं इस तरह की बातें कहता रहता हूँ और कहता रहूँगा । यह मेरी महत्वपूर्ण विधियों में से 1 विधि रही है जब मैं कुछ लोगों से छुटकारा पाना चाहता हूँ तो मैं कुछ उपाय करता हूँ । जब मेरे पास गांधीवादियों की 1 जमात इकठ्ठी हो गयी और मुझे लगा कि वह तो किसी मतलब की नहीं है तो मैं गांधी की आलोचना किया ।
गाँधी से मुझे कुछ लेना देना नहीं था मगर गांधी की आलोचना करते ही से 90% गांधीवादी हट गए । जो 10% बचे वे सच में ही काम के आदमी थे उनका लगाव मुझसे था ।
मेरी सदा तलाश चल रही है कि जिसका लगाव मुझसे है । मैं उसी पर मेहनत करना चाहता हूँ । बाकी पर मैं मेहनत नहीं करना चाहता ।
जब गांधीवादी हट गए तो मैंने उनकी फिकर छोड दी । जब मैं गांधीवादी के विपरीत बोल रहा था और गांधी की आलोचना कर रहा था । स्वभावत: समाजवादी और कम्युनिस्ट, सब मेरे पास आ गए । उनको लगा - यह आदमी ठीक है ।
तब मैं समाजवाद के खिलाफ बोला । जब मैंने देखा कि बहुत समाजवादी इकट्ठे हो गए और उनकी मुझे कोई जरूरत नहीं है । समाजवाद के खिलाफ बोला, समाजवादी भाग गए । उनमें से कोई 10% बच रहे । जो बच रहे वे मेरे थे । जो भाग गए वे मेरे थे ही नहीं । उनकी भीड़ मैं इकट्ठी भी क्यों रखूं ? वे आज नहीं कल भाग ही जाने वाले थे । वे किसी और ही कारण से आए थे । उनका कारण था कि मैं गांधी के खिलाफ बोला । उन्हें मुझमें कोई रस न था ।
मेरी निरंतर चेष्टा है कि मैं उन पर ही मेहनत करूँ जिनको मुझमें रस है । मैं उन थोड़े से लोगों को दे देना चाहता हूँ जो दिया जा सकता है । लेकिन यह उन्हीं को दिया जा सकता है । यह वसीयत उन्हीं की हो सकती है जो पूरे पूरे मेरे साथ हैं । जो 100% मेरे साथ हैं ।
जो नरक भी मेरे साथ जाने को तैयार हैं वही मेरे साथ स्वर्ग जाने के हकदार होंगे । जो बीच में खड़े हो गए और कहने लगें कि - आप तो नर्क चले हम नहीं जाते तो इनको मैं स्वर्ग भी ले जाने वाला साथ नहीं हूँ । ये मेरे साथ स्वर्ग भी जाने के हकदार नहीं हैं ।
तो कभी मैं ऐसी बातें भी कहूंगा । कहता ही रहूंगा । कभी कभी छांटने के लिए उपयोगी हैं । उन बातों में मुझे कुछ रस नहीं है । यह तो तुम बहुत बाद में समझ पाओगे । अगर कभी समझ पाए सौभाग्य से कि - मैं कभी कौन सी बात कहता हूँ । क्यों कहता हूँ?
तुम अगर अपनी व्याख्याएं बीच में न लाओ तो बहुत आसानी होगी । तुम ज्यादा ढंग से समझ पाओगे । पूर्वाग्रह तुम्हारे हैं । पक्षपात तुम्हारे हैं । राजनीति तुम्हारे भीतर पड़ी है । ओशो
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