तुम्हारा मन बुद्धिमत्ता नहीं है । हो सकता है कि यह अजीब लगे । लेकिन यह सच है । तुम्हारा मन बुद्धिमत्ता नहीं है । मन बौद्धिक हो सकता है । जो कि बुद्धिमत्ता का बहुत ही गरीब परिपूरक है । बौद्धिकता यांत्रिक है । तुम बहुत बड़े विद्वान बन सकते हो । बहुत महान प्रोफेसर । बस शब्दों के साथ खेलते हो । जो कि सभी उधार के हैं । विचारों को व्यवस्थित और पुनः व्यवस्थित करते हैं । उनमें से कोई भी तुम्हारे नहीं हैं । बौद्धिकता पूरी तरह से दीवालिया है । उसके पास अपना कुछ भी नहीं है । सब कुछ उधार लिया हुआ है । और बुद्धिमत्ता और बौद्धिकता में यही फर्क है । बुद्धिमत्ता तुम्हारी जन्मजात गुणवत्ता है ।
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1 राजा ने 1 चित्रकार को नियुक्त किया । वह ऐसा चित्र चाहता था । जैसा अभी तक संसार में बना ही न ही - अदभुत । चित्रकार जेन गुरु था । चित्रकार ने चित्र बनाना प्रारम्भ किया । महीनों व्यतीत हो गए । फिर वर्षों बीत गए । राजा अधीर होकर पूछता । और चित्रकार और मोहलत मांग लेता । सुबह से शाम तक चित्रकार स्वयं को 1 कक्ष में बंद कर लेता । और चित्र का सृजन चलता रहता । कक्ष में किसी को प्रवेश की अनुमति नहीं थी । स्वयं राजा को भी नहीं । कभी रात्रि में उस कक्ष से निनाद की आवाजे आतीं । कभी वीणा के स्वर आते । कभी झरने जैसी आवाजे । तो कभी 1 दिव्य सुवास उठती । राजा का महल कक्ष से लगा ही था । राजा की अधीरता बढती ही जाती । लेकिन क्या करता ? वचन से आबद्ध जो था । वह बस महीनों बाद चित्रकार से निवेदन कर देता । और चित्रकार कहता - कुछ दिन और ।
राजा ने यह भी गौर किया कि चित्रकार की आभा परिवर्तित हो गयी है । उसके पदचाप संगीतमय हो गये हैं । वह चलता है - जैसे कोई नर्तन करे । उसकी निगाहें ओज पूर्ण हो उठी हैं । वह कुछ गुनगुनाती तल्लीनता में रहता है । जैसे उसके भीतर महारास चल रहा हो । उसकी भंगिमाए राजा को निर्भार कर जातीं ।
1 दिन राजा अनेक रातों न सो पाने के बाद अधीर हो उठा - आपका चित्र कब पूर्ण होगा ? महानुभाव ? मैं आतुर हो रहा हूँ । अब असह्य होता जा रहा है । अब तो रात्रि को नींद भी नहीं आती । 24 घंटे बस आपका और आपके चित्र का चिंतन ही मन में चलता है । ऐसा क्या है कि आप मुझे इतना तृषित कर रहे हैं ? कृपया मुझे अति शीघ्र उस अदभुत चित्र के दर्शन कराईए । मैं कहीं विक्षिप्त न हो जाऊँ ।
चित्रकार मुस्कुराते हुए राजा की बाहें थामकर उसे चित्रशाला में ले गया ।
राजा ने वह चित्र देखा । चित्र में 1 मार्ग था । कहीं दूर जंगलों में गुम सा होता हुआ - यह मार्ग कहाँ जाता है ?
चित्रकार ने कहा - यह तो मुझे भी नहीं पता । क्या आप चलना चाहोगे ? राजा ने आतुरता से हामी भर दी - हाँ हाँ अवश्य । तुरन्त ।
चित्रकार ने राजा को साथ लिया । और दोनों उस मार्ग पर चल पड़े ।
कुछ दूर जाकर दोनों खो गए । चित्रकार भी । चित्र भी । और राजा भी । और यह लिखते हुए मैं भी । और पढ़ते हुए आप भी । जेन । अनन्या स्वास्तिका ।
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1 बीज सारी पृथ्वी को वृक्षों से भर सकता है - ओशो ।
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अनंत काल खंड में यहाँ आपस में कोई एक दूसरे से अपरिचित नहीं है । अस्तित्व के विकास क्रम में हम सब कभी न कभी, किसी न किसी जीवन में एक दूसरे की निकटता से गुजरें हैं - जाने अनजाने । यही स्मृति हमें सहज आकर्षित करती हैं । और बुद्धों के प्रति प्रेम को यही,
हमारी स्वयं से स्वयं के मिलन की अतृप्त प्यास हमें उनका दीवाना बना देती हैं ।
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प्रिय मित्रो ! आपकी दृष्टि में कौन है वैदिक ( हिन्दू ) धर्म का असली आदर्श आचार्य - A आद्य शंकराचार्य B स्वामी दयानंद ।
A आद्य शंकराचार्य - मूर्ति पूजा के महान संस्थापक । 8 वर्ष की आयु में चारो वेद कंठस्थ कर डाले । 12 वर्ष के होते होते सकल शास्त्र निष्णात हो गए । और 16 वर्ष के होते होते तो ऐसा अद्वितीय शारीरक भाष्य लिख डाला कि हजारो वर्ष बाद आज भी उसका दर्शन करके बड़े बड़े विद्वान दांतों तले अंगुली दबाते हैं । मातृभक्त ऐसे कि संन्यास की अति उत्कट अभिलाषा होने के बावजूद भी आज्ञा लेकर तब संन्यास लिया । और अंतकाल में माता को हरिदर्शन करवा कर मोक्ष पद प्रदान कराना न भूले । इस नन्हे बालक ने अल्पायु में ही विधर्मियो से जकड़े हुए तत्कालीन सनातन धर्म को शस्त्र और शास्त्र दोनों की अदभुत नीति से विधर्मियो के चंगुल से स्वतन्त्र कर भारत की चारो दिशाओं में 4 मठो के माध्यम से वैदिक धर्म की ध्वजा फहरा दी । अंत में स्वेच्छा से समाधिस्थ होकर परधाम गमन किया । इनके द्वारा निर्मित इस धर्म दुर्ग के आश्रय तले कालान्तर में श्री हर्ष, वाचस्पति मिश्र, श्री चित्सुखाचार्य, मधुसूदन सरस्वती, धर्म सम्राट करपात्री जी जैसे 1 से बढ़कर 1 विद्वान और वैदिक धर्म के प्रचारक महापुरुष पुष्पित होते रहे हैं ।
B स्वामी दयानंद - मूर्ति पूजा का घनघोर विरोधी, मातृ पितृ भक्त ऐसे कि माता पिता को धोखा देकर बारबार घर से भागते रहे । अंत में माता पिता को रोता बिलखता छोड़ ऐसे भागे कि दोबारा घर ना लौटे । ज्ञान ऐसा कि शिवलिंग का प्रसाद चूहे को पाते देख ये समझ बैठे कि शिव लिंग में भगवान का वास नहीं । नदी में बहती 1 लाश को चीर फाड़ कर उसमें योग शास्त्रों में वर्णित अष्टचक्र खोजने लगे । भांग पीकर शैव दर्शन का मूल खोजते रहे । नेत्रहीन स्वामी विरजानंद से व्याकरण सीखने की एवज में जेब से पैदल इनसे जब उन्होंने बोला कि आप वैदिक धर्म का प्रचार करो । तो वैदिक धर्म का ऐसा कबाडा कर गए कि क्या कहने ? काशी शास्त्रार्थ करने गए । तो इनका ज्ञान देखकर तत्कालीन शास्त्रार्थ के मध्यस्थ काशी नरेश ने इनके बारे में ये निर्णय दिया - दयानंद महा धूर्त है । गुरु भक्ति ऐसी कि जिस गुरु से सर मुंडवाकर संन्यास दीक्षा ली । उनके ही सम्प्रदाय और सिद्धांत को पाखण्ड बता बैठे । अंत में इनको बहुत दुर्गति पूर्वक देह त्याग करना पडा । आज तक मुसलमानों और जाति विहीन आदिवासियों को आर्य नाम देकर के बनाया गया । इनका निर्मित आर्य समाज हिन्दू पुराणों और स्मृतियों, ब्राह्मणों को गालियाँ देते तथा उनका दुष्प्रचार करते नहीं थकता है । कौन है । हिन्दुओं का असली आदर्श ?
प्रिय महानुभावों ! कृपया इसे तुलना न समझ कर 1 सामान्य सा जनमत संग्रह ( सर्वे ) मात्र समझें । क्योकि वस्तुतः दयानंद जैसे जुगनू की श्रीमदाद्यशंकराचार्य जी जैसे सूर्य के साथ क्या तुलना ? पंडितजी अभिषेक जोशी
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