1 जमाना था कि हमने ऐसी कथाएं लिखी थीं कि जब बुद्ध को ज्ञान हुआ । तो देवता उतरे आकाश से उनके चरणों में सिर झुकाने । जब महावीर जागे । तो फूल बरसे आकाश से । देवता आये सुनने । क्योंकि था । जब कोई व्यक्ति परम आनंद को उपलब्ध होगा । तो देवताओं को भी ईर्ष्या होगी । क्योंकि देवता अभी परम आनंद के उपलब्ध नहीं हैं । पुण्य का फल भोग रहे हैं । फल चुक जायेगा । कल, वापिस लौट आना पड़ेगा । उनका सुख कितना ही लंबा हो । अस्थायी है । शाश्वत सुख तो वही जानता है । जो नाथ के सदा संग हो गया । अभी वे सदा संग नहीं हैं ।
अरधै जाता उरधै धरै । काम दग्ध जे जोगी करै ।
बड़ा बहुमूल्य सूत्र है - अरधै जाता उरधै धरै । काम दग्ध जे जोगी करै ।
उस योगी का काम दग्ध हो जाता है । जो अपने आनंद को नीचे नहीं जाने देता । ऊपर ले जाता है । अरधै जाता उरधै धरै !
जो नीचे की तरफ बह रहा है । उसी रस को ऊपर की तरफ उठाने लगता है ।
3 शब्द समझ लेना । एक है - काम । काम है । सुख नीचे की तरफ बहता हुआ । दूसरा शब्द है - प्रेम । प्रेम है । सुख मध्य में अटका हुआ । न नीचे जा रहा है । न ऊपर जा रहा है । और तीसरा शब्द है - प्रार्थना । प्रार्थना है । सुख ऊपर जाता हुआ । ऊर्जा वही है । काम में वही ऊर्जा नीचे की तरफ जाती है । प्रेम में वही ऊर्जा बीच में थिर हो जाती है । प्रार्थना में वही ऊर्जा पंख खोल देती है । आकाश की तरफ उड़ने लगती है । इसलिए मैंने कहा है - संभोग और समाधि संयुक्त हैं । एक ही ऊर्जा है । एक ही सीढ़ी है । नीचे की तरफ जाओ तो संभोग । ऊपर की तरफ जाओ तो समाधि । और दोनों के मध्य में प्रेम है । प्रेम द्वार है । प्रेम दोनों का द्वार है । प्रेम संभोग का भी द्वार है । अगर तुम्हारी ऊर्जा नीचे की तरफ जा रही है । तो प्रेम संभोग का द्वार बन जायेगा । और अगर तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की तरफ जा रही है । तो प्रेम समाधि का द्वार बन जायेगा । प्रेम बड़ा अदभुत है । सेतु है । क्योंकि मध्य है । अरधै जाता उरधै धरै...
वह जो नीचे की तरफ ऊर्जा बह रही है कामवासना में । अब धीरे धीरे जागो । उसी ऊर्जा को ऊपर की तरफ ले चलना है । और जिस ऊर्जा को ऊपर ले जाना हो । उससे लड़ना मत । क्योंकि जिससे तुम लडे । उससे संबंध छूट जाता है । जिससे तुम लड़े । उससे तुम भयभीत हो जाते हो । जिससे तुम लड़े । उसका तुम दमन कर देते हो । और जिसका दमन हो जाता है । उसका ऊर्ध्वगमन नहीं हो सकता ।
इसलिए गोरख ने और गोरख के पीछे चलने वाले नाथ पंथियों ने कामवासना का दमन नहीं कहा - कामवासना का ऊर्ध्वगमन । भेद समझ लेना । तुम्हारे तथाकथित धार्मिक गुरु कामवासना का दमन सिखाते हैं -दबा डालो...। दबाने से क्या होगा ? कामवासना को निखारना है । दबाना नहीं । कामवासना हीरा है कीचड़ में पड़ा । कीचड़ धो डालनी है । मगर हीरा थोड़े ही फेंक देना है । कीचड़ के कारण हीरा मत फेंक देना । नहीं तो पीछे बहुत पछताआगे । और यही हालत तुम्हारे साधुओं की है । उनकी हालत तुमसे बदतर हो गयी है । तुम्हें हीरा नहीं मिला । क्योंकि तुम्हारा हीरा कीचड़ में पड़ा है । उनने कीचड़ छोड़ दी । साथ हीरा भी छूट गया । धोबी के गधे हो गये हैं । न घर के न घाट के । दुविधा में दोई गये, माया मिली न राम । समाधि का कुछ पता नहीं चल रहा है । संभोग से जो थोड़े बहुत सुख की कभी झलक, किरण मिलती थी । वह भी दूर हो गयी । इसलिए 24 घंटे चित्त उनका रुग्ण है । कहीं भी जडें न रहीं । जमीन से जड़ें उखाड़ लीं । और आकाश में जड़ें जमाने का राज नहीं आया ।
राज इस बात में है - हीरे को निखारना है । साफ करना है । कीचड़ को धो डालना है । कीचड़ से कमल हो जाता है । तो कीचड़ से घबड़ाओ मत । इसलिए कमल का 1 नाम है - पंकज । पंकज का अर्थ होता है - पंक से जो हो जाये । कीचड़ से जो हो जाये । कीचड़ से कमल हो जाता है । इतना बहुमूल्य, इतना प्यारा रूप, इतना सौंदर्य प्रगट हो जाता है । काम की कीचड़ में राम का कमल छिपा है । अरधै जाता उरधै धरै...
इसलिए जागो । समझो । काम की ऊर्जा को पहचानो । उसके साक्षी बनो । लड़ो मत । दुश्मनी नहीं । मैत्री करो । मित्र को ही फुसलाया जा सकता है ऊपर जाने के लिये । हाथ में हाथ लो काम ऊर्जा का । ताकि धीरे धीरे तुम उसे प्रेम में रूपांतरित करो । पहले तो काम को प्रेम में रूपांतरित करना होगा । फिर प्रेम को प्रार्थना में । ऐसे ये 3 सीढ़ियां पूर्ण हो जायें । तो तुम्हारे भीतर सहस्रार खुले । शून्य गगन में उस बालक का जन्म हो ।
खयाल रखना, काम से भी बच्चों का जन्म होता है । संभोग से भी बच्चे पैदा होते हैं । और समाधि से भी बालक का जन्म होता है । वह बालक तुम्हारी अंतरात्मा है । वह बालक तुम्हारा भव्य रूप है । दिव्य रूप है । जैसे तुम्हारे भीतर कृष्ण का जन्म हुआ । कृष्णाष्टमी आ गयी । तुम्हारे भीतर बालक कृष्ण जन्मा ।
गगन सिषर महि बालक बोले । ताका नांव धरहुगे कैसा ।
अरधै जाता उरधै धरै । काम दग्ध जे जोगी करै ।
और वही योगी काम को दग्ध कर पायेगा । जो नीचे जाती ऊर्जा को ऊपर की तरफ संलग्न कर लेता है । लड़ने की बात नहीं है ।
तजै अल्यंगन काटै माया ।
जो क्षुद्र है । नीचा है । जो तुमसे बाहर है । उससे धीरे धीरे अपना आलिंगन छोड़ो । धीरे धीरे उसमें अर्थ है । यह बात छोड़ो । उसमें अर्थ है नहीं । अर्थ तुम्हारे भीतर छिपा है । ओशो
अरधै जाता उरधै धरै । काम दग्ध जे जोगी करै ।
बड़ा बहुमूल्य सूत्र है - अरधै जाता उरधै धरै । काम दग्ध जे जोगी करै ।
उस योगी का काम दग्ध हो जाता है । जो अपने आनंद को नीचे नहीं जाने देता । ऊपर ले जाता है । अरधै जाता उरधै धरै !
जो नीचे की तरफ बह रहा है । उसी रस को ऊपर की तरफ उठाने लगता है ।
3 शब्द समझ लेना । एक है - काम । काम है । सुख नीचे की तरफ बहता हुआ । दूसरा शब्द है - प्रेम । प्रेम है । सुख मध्य में अटका हुआ । न नीचे जा रहा है । न ऊपर जा रहा है । और तीसरा शब्द है - प्रार्थना । प्रार्थना है । सुख ऊपर जाता हुआ । ऊर्जा वही है । काम में वही ऊर्जा नीचे की तरफ जाती है । प्रेम में वही ऊर्जा बीच में थिर हो जाती है । प्रार्थना में वही ऊर्जा पंख खोल देती है । आकाश की तरफ उड़ने लगती है । इसलिए मैंने कहा है - संभोग और समाधि संयुक्त हैं । एक ही ऊर्जा है । एक ही सीढ़ी है । नीचे की तरफ जाओ तो संभोग । ऊपर की तरफ जाओ तो समाधि । और दोनों के मध्य में प्रेम है । प्रेम द्वार है । प्रेम दोनों का द्वार है । प्रेम संभोग का भी द्वार है । अगर तुम्हारी ऊर्जा नीचे की तरफ जा रही है । तो प्रेम संभोग का द्वार बन जायेगा । और अगर तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की तरफ जा रही है । तो प्रेम समाधि का द्वार बन जायेगा । प्रेम बड़ा अदभुत है । सेतु है । क्योंकि मध्य है । अरधै जाता उरधै धरै...
वह जो नीचे की तरफ ऊर्जा बह रही है कामवासना में । अब धीरे धीरे जागो । उसी ऊर्जा को ऊपर की तरफ ले चलना है । और जिस ऊर्जा को ऊपर ले जाना हो । उससे लड़ना मत । क्योंकि जिससे तुम लडे । उससे संबंध छूट जाता है । जिससे तुम लड़े । उससे तुम भयभीत हो जाते हो । जिससे तुम लड़े । उसका तुम दमन कर देते हो । और जिसका दमन हो जाता है । उसका ऊर्ध्वगमन नहीं हो सकता ।
इसलिए गोरख ने और गोरख के पीछे चलने वाले नाथ पंथियों ने कामवासना का दमन नहीं कहा - कामवासना का ऊर्ध्वगमन । भेद समझ लेना । तुम्हारे तथाकथित धार्मिक गुरु कामवासना का दमन सिखाते हैं -दबा डालो...। दबाने से क्या होगा ? कामवासना को निखारना है । दबाना नहीं । कामवासना हीरा है कीचड़ में पड़ा । कीचड़ धो डालनी है । मगर हीरा थोड़े ही फेंक देना है । कीचड़ के कारण हीरा मत फेंक देना । नहीं तो पीछे बहुत पछताआगे । और यही हालत तुम्हारे साधुओं की है । उनकी हालत तुमसे बदतर हो गयी है । तुम्हें हीरा नहीं मिला । क्योंकि तुम्हारा हीरा कीचड़ में पड़ा है । उनने कीचड़ छोड़ दी । साथ हीरा भी छूट गया । धोबी के गधे हो गये हैं । न घर के न घाट के । दुविधा में दोई गये, माया मिली न राम । समाधि का कुछ पता नहीं चल रहा है । संभोग से जो थोड़े बहुत सुख की कभी झलक, किरण मिलती थी । वह भी दूर हो गयी । इसलिए 24 घंटे चित्त उनका रुग्ण है । कहीं भी जडें न रहीं । जमीन से जड़ें उखाड़ लीं । और आकाश में जड़ें जमाने का राज नहीं आया ।
राज इस बात में है - हीरे को निखारना है । साफ करना है । कीचड़ को धो डालना है । कीचड़ से कमल हो जाता है । तो कीचड़ से घबड़ाओ मत । इसलिए कमल का 1 नाम है - पंकज । पंकज का अर्थ होता है - पंक से जो हो जाये । कीचड़ से जो हो जाये । कीचड़ से कमल हो जाता है । इतना बहुमूल्य, इतना प्यारा रूप, इतना सौंदर्य प्रगट हो जाता है । काम की कीचड़ में राम का कमल छिपा है । अरधै जाता उरधै धरै...
इसलिए जागो । समझो । काम की ऊर्जा को पहचानो । उसके साक्षी बनो । लड़ो मत । दुश्मनी नहीं । मैत्री करो । मित्र को ही फुसलाया जा सकता है ऊपर जाने के लिये । हाथ में हाथ लो काम ऊर्जा का । ताकि धीरे धीरे तुम उसे प्रेम में रूपांतरित करो । पहले तो काम को प्रेम में रूपांतरित करना होगा । फिर प्रेम को प्रार्थना में । ऐसे ये 3 सीढ़ियां पूर्ण हो जायें । तो तुम्हारे भीतर सहस्रार खुले । शून्य गगन में उस बालक का जन्म हो ।
खयाल रखना, काम से भी बच्चों का जन्म होता है । संभोग से भी बच्चे पैदा होते हैं । और समाधि से भी बालक का जन्म होता है । वह बालक तुम्हारी अंतरात्मा है । वह बालक तुम्हारा भव्य रूप है । दिव्य रूप है । जैसे तुम्हारे भीतर कृष्ण का जन्म हुआ । कृष्णाष्टमी आ गयी । तुम्हारे भीतर बालक कृष्ण जन्मा ।
गगन सिषर महि बालक बोले । ताका नांव धरहुगे कैसा ।
अरधै जाता उरधै धरै । काम दग्ध जे जोगी करै ।
और वही योगी काम को दग्ध कर पायेगा । जो नीचे जाती ऊर्जा को ऊपर की तरफ संलग्न कर लेता है । लड़ने की बात नहीं है ।
तजै अल्यंगन काटै माया ।
जो क्षुद्र है । नीचा है । जो तुमसे बाहर है । उससे धीरे धीरे अपना आलिंगन छोड़ो । धीरे धीरे उसमें अर्थ है । यह बात छोड़ो । उसमें अर्थ है नहीं । अर्थ तुम्हारे भीतर छिपा है । ओशो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें