प्रथमहिं ध्यान पदस्थ है, दुतिये पिण्ड अधीत ।
त्रितिय ध्यान रूपस्थ पुनि, चतुर्थ रूपातीत । (दोहा)
- ध्यान चार प्रकार का होता है,
1 पदस्थ ध्यान 2 पिण्डस्थ ध्यान 3 रूपस्थ ध्यान एवं 4 रूपातीत ध्यान ।
स्तम्भिनी द्राविणी चैव दहनी भ्रामिणी तथा ।
शोषिणी च भवत्येषा भूतानां पंच धारणा ।
(गोरक्ष पद्धति श 2 श्लोक 51 का अनुवाद)
यह पंच धारणाओं का वर्णन प्रायः गोरक्षनाथ पद्धति के दूसरे शतक के श्लोकों के अनुसार है ।
यह धारणा की योग क्रिया गुरुगम्य है । केवल पुस्तक से सिद्धि की इच्छा करना हानिकारक है ।
2 सुन्दरदास जी ने चार प्रकार के ध्यान कहे है 1 पदस्थ 2 पिंडस्थ 3 उपस्थ 4 रूपातीत ।
परन्तु गोरक्ष पद्धति में प्रथम दो भेद सगुण और निर्गुण (याज्ञवल्क्य के अनुसार) करके 9 ध्यान कहे हैं ।
गुदं मेढ्रं च नाभिश्च हृत्पद्मं च तदूर्ध्वतः ।
घण्टिकालम्बिकास्थानं भ्रूमध्ये च नभो बिलम ।
पदस्य ध्यान वर्णन
जे पद चित्र विचित्र रचे अति, गूढ महा परमारथ जामैं ।
ते अवलोकि विचार करै पुनि, चित्त धरै निहचै करि तामैं ।
कै करि कुम्भक मंत्र जपै उह, अक्षर ते पुनि जानि अनामै ।
‘सुन्दर’ ध्यान पदस्थ इहै मन, निश्चल होइ लहै जु विरामै । (इंदव)
- पदस्थ ध्यान में साधक को चित्र विचित्र (नाना प्रकार के) अति गम्भीर तथा परम तत्व का निरूपण करने वाले सन्त वचनों का श्रवण कर उन्हीं में अपना मन निश्चय पूर्वक लगाना चाहिये । इस तरह सन्तवाणी के किसी पद में ध्यान लगाना पदस्थ ध्यान का पहला तरीका है ।
दूसरा तरीका - पूर्वोक्त कुम्भक विधि से कार बीज मन्त्र या गुरु उपदिष्ट मन्त्र के अक्षरों में ध्यान लगाते हुये उसका जाप करे तो योगी का मन निर्मल (निर्विकार) हो जाता है ।
- ध्यान की उपर्युक्त विधि पदस्थ ध्यान है । इससे योगी का मन निश्चल, शान्त तथा मुक्तावस्था को प्राप्त हो जाता है ।
पिंडस्थ का वर्णन
सुनि शिष्य कहौं ध्यान पिंडस्थं । पिंड शोधन करिये स्वस्थं ।
षट्चक्रनि कौ धरिये ध्यानं । पुनि सदगुरु कौ ध्यान प्रमानं । (चौपई)
- पिण्डस्थ ध्यान के द्वारा पिण्ड (शरीर) का शोधन कर उसे स्वस्थ बनाया जाता है । इसमें षट्चक्रों का ध्यान करना चाहिये और अन्त में गुरु (सदगुरु) विग्रह का ध्यान करना चाहिये ।
1 नाना प्रकार के चित्रों में रचित पद और बीज मंत्रों के ध्यान तथा महावाक्यों या महामंत्रों के जप सहित ध्यान ‘पदस्थ’ ध्यान है ।
2 षट्चक्र का वर्णन ऊपर छन्द 50 से 56 तक पृ. 5758 पर आ ही गया ।
(उल्लास 1 ज्ञानसमुद्र 69)
रूपस्थ ध्यान वर्णन
निहारि कैं त्रिकूट मांहिं, विस्फुलिंग देखि है ।
पुनः प्रकाश दीप ज्योति, दीप माल पेखि है ।
नक्षत्र माल विज्जुली, प्रभा प्रत्यक्ष होइ है ।
अनन्त कोटि सूर चन्द्र, ध्यान मध्य जोइ है ।
मरीचिका समान शुभ्र, और लक्ष जांनिये ।
झलामलं समस्त विश्व, तेजमै बषांनिये ।
समुद्र मध्य डूबि कैं, उघारि नैन दीजिये ।
दशौं दिशा जलामई, प्रत्यक्ष ध्यान कीजिये । (नराय)
- योगी अपने अन्तर चक्षु से त्रिकूट भ्रूमध्य की ओर देखे । वहाँ पहले तेजोमण्डल में चिनगारियां दिखायी देंगी, फिर कुछ अभ्यास के बाद दीपक की ज्योति दिखायी देगी (मानों हजारों दीपमालायें एक साथ जल रही हों) आगे कुछ अभ्यास करने पर योगी को उसी ध्यान में नक्षत्र माला तथा बिजली की सी चकाचौंध स्पष्ट दिखायी देगी । इससे आगे अभ्यास करने से, रूपस्थ ध्यान में अनन्तकोटि सूर्य चन्द्र का प्रकाश दिखायी देगा ।
- अन्त में श्वेत प्रकाश मरीचिका के समान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर झिलमिल झिलमिल होता हुआ दिखायी देगा और योगी की ऐसी स्थिति हो जायगी कि उसे सर्वत्र इस प्रकाश के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखायी देगा (उदाहरण) जैसे तालाब, समुद्र आदि में डुबकी लगाकर आंख खोलकर देखने पर दसों दिशाओं में जल ही जल दिखायी देता है, उसी तरह इस रूपस्थ ध्यान की अन्तिम अवस्था में योगी को प्रकाश ही प्रकाश दिखायी देता है और कुछ नहीं ।
रूपातीत ध्यान वर्णन
यह रूपातीत जु शून्य ध्यान । कछु रूप न रेख न है निदान ।
तहां अष्ट प्रहर लौं चित्त लीन । पुनि सावधान है अति प्रवीन । (पद्धडी)
जिम पक्षी की गति गगन मांहि । कहुं जात जात दिठि परय नांहि ।
पुनि आइ दिखाई देत सोइ । वा योगी को गति इहै होइ ।
इहिं शून्य ध्यान सम और नांहिं । उत्कृष्ट ध्यान सब ध्यान मांहि ।
है शून्याकार जु ब्रह्म आपु । दशहू दिशि पूरण अति अमापु ।
- रूपातीत ध्यान में शून्य का ध्यान करना पङता है । इसमें न कोई रूप दिखायी देता है, न किसी प्रकार की रेखा । योगी को अत्यन्त सावधान होकर पूर्ण तन्मयता से चित्त को आठों पहर इस शून्य में ध्यान लगाना चाहिये ।
- इससे योगी के चित्त की वही स्थिति हो जाती है जैसे दूर आकाश में उङता पक्षी दिखायी देता हुआ अचानक दृष्टि से ओझल हो जाता है और कुछ देर बाद फिर दिखायी देने लगता है ।
- इस शून्य (रूपातीत) ध्यान के समान कोई अन्य ध्यान योगी को सहायक नहीं होता । यह ध्यान पूर्वोक्त ध्यानों में सर्वोत्कृष्ट है । इसमें दसों दिशाओं को व्याप्त करने वाला प्रमाणातीत ब्रह्म शून्य रूप में योगी को प्रत्यक्ष दिखायी देने लगता है ।
यों करय ध्यान सायोज्य होइ । तब लगै समाधि अखंड सोइ ।
पुनि उहै योग निद्रा कहाइ । सुनि शिष्य देउं तोकौं बताइ ।
- इन चारों ध्यानों का अभ्यास करने से योगी सायुज्य अवस्था को प्राप्त होता है । उसकी अखण्ड समाधि लगने की स्थिति आ जाती है ।
शिष्य ! अन्त में तुझे बता दूँ कि इसी अवस्था को योग शास्त्र में ‘योगनिद्रा’ कहा है ।
1 रूपातीत या शून्य ध्यान का वर्णन याज्ञवल्क्यादि के अनुसार है ।
(उल्लास 1 ज्ञानसमुद्र 71)
~सन्त सुन्दरदास जी महाराज~
त्रितिय ध्यान रूपस्थ पुनि, चतुर्थ रूपातीत । (दोहा)
- ध्यान चार प्रकार का होता है,
1 पदस्थ ध्यान 2 पिण्डस्थ ध्यान 3 रूपस्थ ध्यान एवं 4 रूपातीत ध्यान ।
स्तम्भिनी द्राविणी चैव दहनी भ्रामिणी तथा ।
शोषिणी च भवत्येषा भूतानां पंच धारणा ।
(गोरक्ष पद्धति श 2 श्लोक 51 का अनुवाद)
यह पंच धारणाओं का वर्णन प्रायः गोरक्षनाथ पद्धति के दूसरे शतक के श्लोकों के अनुसार है ।
यह धारणा की योग क्रिया गुरुगम्य है । केवल पुस्तक से सिद्धि की इच्छा करना हानिकारक है ।
2 सुन्दरदास जी ने चार प्रकार के ध्यान कहे है 1 पदस्थ 2 पिंडस्थ 3 उपस्थ 4 रूपातीत ।
परन्तु गोरक्ष पद्धति में प्रथम दो भेद सगुण और निर्गुण (याज्ञवल्क्य के अनुसार) करके 9 ध्यान कहे हैं ।
गुदं मेढ्रं च नाभिश्च हृत्पद्मं च तदूर्ध्वतः ।
घण्टिकालम्बिकास्थानं भ्रूमध्ये च नभो बिलम ।
पदस्य ध्यान वर्णन
जे पद चित्र विचित्र रचे अति, गूढ महा परमारथ जामैं ।
ते अवलोकि विचार करै पुनि, चित्त धरै निहचै करि तामैं ।
कै करि कुम्भक मंत्र जपै उह, अक्षर ते पुनि जानि अनामै ।
‘सुन्दर’ ध्यान पदस्थ इहै मन, निश्चल होइ लहै जु विरामै । (इंदव)
- पदस्थ ध्यान में साधक को चित्र विचित्र (नाना प्रकार के) अति गम्भीर तथा परम तत्व का निरूपण करने वाले सन्त वचनों का श्रवण कर उन्हीं में अपना मन निश्चय पूर्वक लगाना चाहिये । इस तरह सन्तवाणी के किसी पद में ध्यान लगाना पदस्थ ध्यान का पहला तरीका है ।
दूसरा तरीका - पूर्वोक्त कुम्भक विधि से कार बीज मन्त्र या गुरु उपदिष्ट मन्त्र के अक्षरों में ध्यान लगाते हुये उसका जाप करे तो योगी का मन निर्मल (निर्विकार) हो जाता है ।
- ध्यान की उपर्युक्त विधि पदस्थ ध्यान है । इससे योगी का मन निश्चल, शान्त तथा मुक्तावस्था को प्राप्त हो जाता है ।
पिंडस्थ का वर्णन
सुनि शिष्य कहौं ध्यान पिंडस्थं । पिंड शोधन करिये स्वस्थं ।
षट्चक्रनि कौ धरिये ध्यानं । पुनि सदगुरु कौ ध्यान प्रमानं । (चौपई)
- पिण्डस्थ ध्यान के द्वारा पिण्ड (शरीर) का शोधन कर उसे स्वस्थ बनाया जाता है । इसमें षट्चक्रों का ध्यान करना चाहिये और अन्त में गुरु (सदगुरु) विग्रह का ध्यान करना चाहिये ।
1 नाना प्रकार के चित्रों में रचित पद और बीज मंत्रों के ध्यान तथा महावाक्यों या महामंत्रों के जप सहित ध्यान ‘पदस्थ’ ध्यान है ।
2 षट्चक्र का वर्णन ऊपर छन्द 50 से 56 तक पृ. 5758 पर आ ही गया ।
(उल्लास 1 ज्ञानसमुद्र 69)
रूपस्थ ध्यान वर्णन
निहारि कैं त्रिकूट मांहिं, विस्फुलिंग देखि है ।
पुनः प्रकाश दीप ज्योति, दीप माल पेखि है ।
नक्षत्र माल विज्जुली, प्रभा प्रत्यक्ष होइ है ।
अनन्त कोटि सूर चन्द्र, ध्यान मध्य जोइ है ।
मरीचिका समान शुभ्र, और लक्ष जांनिये ।
झलामलं समस्त विश्व, तेजमै बषांनिये ।
समुद्र मध्य डूबि कैं, उघारि नैन दीजिये ।
दशौं दिशा जलामई, प्रत्यक्ष ध्यान कीजिये । (नराय)
- योगी अपने अन्तर चक्षु से त्रिकूट भ्रूमध्य की ओर देखे । वहाँ पहले तेजोमण्डल में चिनगारियां दिखायी देंगी, फिर कुछ अभ्यास के बाद दीपक की ज्योति दिखायी देगी (मानों हजारों दीपमालायें एक साथ जल रही हों) आगे कुछ अभ्यास करने पर योगी को उसी ध्यान में नक्षत्र माला तथा बिजली की सी चकाचौंध स्पष्ट दिखायी देगी । इससे आगे अभ्यास करने से, रूपस्थ ध्यान में अनन्तकोटि सूर्य चन्द्र का प्रकाश दिखायी देगा ।
- अन्त में श्वेत प्रकाश मरीचिका के समान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर झिलमिल झिलमिल होता हुआ दिखायी देगा और योगी की ऐसी स्थिति हो जायगी कि उसे सर्वत्र इस प्रकाश के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखायी देगा (उदाहरण) जैसे तालाब, समुद्र आदि में डुबकी लगाकर आंख खोलकर देखने पर दसों दिशाओं में जल ही जल दिखायी देता है, उसी तरह इस रूपस्थ ध्यान की अन्तिम अवस्था में योगी को प्रकाश ही प्रकाश दिखायी देता है और कुछ नहीं ।
रूपातीत ध्यान वर्णन
यह रूपातीत जु शून्य ध्यान । कछु रूप न रेख न है निदान ।
तहां अष्ट प्रहर लौं चित्त लीन । पुनि सावधान है अति प्रवीन । (पद्धडी)
जिम पक्षी की गति गगन मांहि । कहुं जात जात दिठि परय नांहि ।
पुनि आइ दिखाई देत सोइ । वा योगी को गति इहै होइ ।
इहिं शून्य ध्यान सम और नांहिं । उत्कृष्ट ध्यान सब ध्यान मांहि ।
है शून्याकार जु ब्रह्म आपु । दशहू दिशि पूरण अति अमापु ।
- रूपातीत ध्यान में शून्य का ध्यान करना पङता है । इसमें न कोई रूप दिखायी देता है, न किसी प्रकार की रेखा । योगी को अत्यन्त सावधान होकर पूर्ण तन्मयता से चित्त को आठों पहर इस शून्य में ध्यान लगाना चाहिये ।
- इससे योगी के चित्त की वही स्थिति हो जाती है जैसे दूर आकाश में उङता पक्षी दिखायी देता हुआ अचानक दृष्टि से ओझल हो जाता है और कुछ देर बाद फिर दिखायी देने लगता है ।
- इस शून्य (रूपातीत) ध्यान के समान कोई अन्य ध्यान योगी को सहायक नहीं होता । यह ध्यान पूर्वोक्त ध्यानों में सर्वोत्कृष्ट है । इसमें दसों दिशाओं को व्याप्त करने वाला प्रमाणातीत ब्रह्म शून्य रूप में योगी को प्रत्यक्ष दिखायी देने लगता है ।
यों करय ध्यान सायोज्य होइ । तब लगै समाधि अखंड सोइ ।
पुनि उहै योग निद्रा कहाइ । सुनि शिष्य देउं तोकौं बताइ ।
- इन चारों ध्यानों का अभ्यास करने से योगी सायुज्य अवस्था को प्राप्त होता है । उसकी अखण्ड समाधि लगने की स्थिति आ जाती है ।
शिष्य ! अन्त में तुझे बता दूँ कि इसी अवस्था को योग शास्त्र में ‘योगनिद्रा’ कहा है ।
1 रूपातीत या शून्य ध्यान का वर्णन याज्ञवल्क्यादि के अनुसार है ।
(उल्लास 1 ज्ञानसमुद्र 71)
~सन्त सुन्दरदास जी महाराज~
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